(ये मेरी मौलिक रचना है, कृपया कॉपी पेस्ट ना करें, सर्वाधिकार सुरक्षित-प्रियंका कौशल)
आज वैसे ही मुझे ऑफिस जाने में देर हो गई है और ये मंगो है कि अभी तक
नहीं आई। मेरे जाने के बाद आएगी तो खामखां बवाल मचेगा। पहले ही सासूमां आई हुई
हैं, उनके सामने वो रसोई में चली गई तो मेरी खैर नहीं। और अगर सासूमां ने उसे
उन्हीं बर्तनों में खाते-पीते देख लिया, जिसे हम खुद के लिए इस्तेमाल करते हैं तो
फिर तो जलजला ही आ जाएगा। गीतिका इन्हीं विचारों में डूबी हुई, जल्दी-जल्दी घर के
जरूरी काम निपटाने में लगी हुई थी। फिर उसने सोचा कि चलो खुद ही मंगों को फोन कर आज
आने के लिए मना कर देती हूं। मेरे रहते आती, तो सासूमां को पता भी नहीं चलता कि वो
इस घर के सभी काम करती है। मेरे पीछे आएगी तो सारा राज खुल जाएगा। मंगो का फोन
उसके पति ने उठाया। मैडम, मंगो फिसलकर गिर गई है, सिर पर चोट आई है, तीन-चार दिन
काम पर नहीं आ पाएगी। मेरे पूछने के पहले ही उसने सारा किस्सा बयान कर दिया। ठीक
है, किसी चीज की जरूरत हो तो मुझे फोन करना। कहकर मैंने फोन रख दिया।
मंगो के बगैर चार दिन पहाड़ जैसे बीते। उसके रहते कभी अहसास ही नहीं
हुआ कि मैं वर्किंग वूमेन हूं। लेकिन इन चार दिनों में घर-ऑफिस की जिम्मेदारी
संभालते-संभालते मैं पस्त हो गई। ठीक पांचवे दिन मंगो आ गई। माथे पर चोट अभी भरी
नहीं थी। मैंने मंगो से कहा कि थोड़े दिन और आराम कर लेती। कहां बाईसाहब, आराम
हमारे नसीब में कहां। चार दिन भी बड़ी मुश्किल से कटे हैं घर पर। आप भी तो परेशान
हो रही होगीं। घर और दफ्तर दोनों के बीच तालमेल बैठाने में दिक्कत हो रही होगी
आपको। फिर आराम भी नहीं मिल पा रहा होगा। मंगो ऐसे बोल रही थी, जैसे मेरी मां हो।
हां, कभी-कभी वो मेरी मां ही बन जाती है, कभी शिक्षक तो कभी सहेली। अपने सुख-दुख
मैं उसी के साथ बांट लेती हूं। मैंने एक बात पर गौर किया कि उसकी दी हुई सलाह कभी
गलत नहीं साबित हुई। शायद उसे दुनियादारी का तर्जुबा मुझसे ज्यादा था। मंगों पिछले
पांच सालों से मेरे घर में सेवाएं दे रही थी। उसके भरोसे कई बार अपने घर-अपने
बच्चों को छोड़कर मैंने कार्यालयीन यात्राएं की हैं। मेरे पति विनीत भी मंगों के
साथ बेहद सहज रहते हैं। वो उन्हें छोटी बहन जैसी लगती है। बेहद ईमानदार, सौम्य,
सेवाधारी और निश्चल, कुछ ऐसी है मंगो। आप सोचेंगे कि मैं मंगों का चित्रण क्यों कर
रही हूं? केवल
इसलिए कि आप जान सकें कि अभी भी दुनिया में अच्छी कामवाली मिल जाती है और अगर
व्यवहार दोनों तरफ से ठीक हो, तो उसे परिवार का हिस्सा बनने में भी देर नहीं लगती
है।
खैर एक बार फिर मंगो के हवाले घर छोड़कर मैं ऑफिस चली गई। बहुत दिन
पहले मैंने एक फैलोशिप के लिए आवेदन दिया था। ऑफिस पहुंचते ही पता चला कि मेरा
सिलेक्शन फैलोशिप के लिए हो गया है। अब मुझे 30 दिन के लिए श्रीलंका जाना होगा।
दरअसल फैलोशिप के विषय के मुताबिक मुझे श्रीलंका में विस्तारित हुए बौद्ध धर्म पर
अध्ययन करना था। मेरी खुशी का कोई ठिकाना ना था, लेकिन अगले ही पल किसी विचार ने
मुझे डरा दिया। खुशी में मैं तो भूल ही रही हूं कि सासूमां आई हुई हैं। ऐसे कैसे
में 30 दिन के लिए बाहर जा सकती हूं। मैंने फैलोशिप लौटाने का निर्णय लिया। लेकिन
दफ्तर के लोग सलाह देने लगे कि ऐसे कैसे छोड़ सकती हो। इस ऑफिस से पांच लोगों ने
इस फैलोशिप के लिए अप्लाई किया था, किस्मत से तुम्हें मौका मिला। नहीं तुम ऐसे
कैसे कर सकती हो। आखिरकार मुझे फैलोशिप पूरी करने के लिए हामी भरनी ही पड़ी।
मंगो तो है, सब संभाल लेगी। लेकिन सासूमां के रहते ये संभव नहीं है। रुढीवादी
सोच वाली मेरी सासूमां अपना पूरा जीवन देश के अलग-अलग शहरों में रही हैं। मेरे
ससुर आईएएस अफसर थे। उनका तबादला कई शहरों में हुआ। सासूमां उनके साथ सब जगह घूमती
रही। लेकिन उनकी सोच कभी नहीं बदल पाई है। हमेशा नीची जाति-ऊंची जाति जैसे जुमले
उनके घर में गूंजते रहे। लेकिन शुक्र है उनके बच्चे यानि मेरे पति विनीत और मेरी
ननद विशाखा दीदी पर कभी भी ये सोच हावी नहीं हुई। वे सभी से सामान्य व्यवहार करते
हैं। मेरे मायके में भी किसी तरह की छुआछूत या जाति विभेद कभी नहीं रहा। तो मेरी
सोच भी समभाव की रही।
अब मंगों को कैसे कहूं कि तुम मेरे पीछे रसोई में नहीं घुसना। उन
बर्तनों को हाथ भी नहीं लगाना, जिनमें वो हमारे साथ खाती-पीती रही है। क्या सोचेगी
मंगों। बड़ी ऊहापोह के साथ मैं घर पहुंची, मंगों निकलने को ही थी। मैंने उसे अपने
कमरे में बुलाया। अपने हाथों में उसका हाथ लेकर बड़े प्यार से कहा, मंगों एक बात
बोलूं, तू दिल पर तो नहीं लेगी। क्या हो गया दीदी, मुझसे कोई गलती हो गई। मंगों
चौंकी। नहीं-नहीं पगली, तुझसे कभी गलती होती है क्या, मैं तो तुझे कई बार मजाक में
अपनी मां भी कह देती हूं। सुन, मेरी जो सासूमां हैं ना थोड़े पुराने ख्यालात की
हैं। बुरे मन की नहीं है, बस उनका माहौल ही वैसा रहा बचपन में, जिसकी छाप वे
जीवनभर नहीं धो पाईं। मैं तुझे ये सब इसलिए कह रही हूं कि मुझे 30 दिन के लिए बाहर
जाना है। दूसरे देश। इन 30 दिनों में तू घर का वैसे ही ख्याल रखना, जैसे रखती आई
है। बस रसोई की जिम्मेदारी सासूमां खुद ही संभाल लेंगी या हो सका तो मैं विशाखा
दीदी को बुला लूंगी। तू समझ रही है ना, मैं क्या समझाना चाह रही हूं। मंगों मेरी
बात सुनकर जोर से हंसी। क्या दीदी, मैं क्यों दिल पर लूंगी इस बात को। मुझे पता है
कि आपकी सोच अलग है। इसलिए आप मुझे इतना प्यार, मान-सम्मान देते हो। मेरे लिए
कितना करते हो। कभी मुझे कामवाली बाई नहीं समझते। आपको एक बात बताऊं, मैं आपके
यहां आने के पहले दिनभर में दस घरों में काम करती थी। वे मुझसे काम तो पूरा करवा
लेते थे, लेकिन बात-बात में मुझे तुच्छ होने का अहसास भी बराबर कराते थे। एक घर
में तो मुझे रसोई और पूजाघर में घुसने की इजाजत भी नहीं थी। मुझे अलग कप में चाय
दी जाती थी, जिसे कोई हाथ नहीं लगाता था। घर के बाहर आंगन में एक कोने में उस कप
मैं चाय पीकर रख दिया करती थी। मुझे पता कि भले ही संविधान ने हमें समानता का
अधिकार दिया है, लेकिन हर कोई उसे माने ये जरूरी तो नहीं है।
अरे तुझे संविधान समझ में आता है। किसने बताया संविधान के बारे में।
मैंने चौंककर पूछा। अरे वो पिक्चर आई है ना आर्टिकल-15, वो देखी मैंने अपने आदमी
के साथ। फिर मैंने अपनी लड़की की टीचर से स्कूल जाकर पूछा कि ये संविधान क्या होता
है। तो उसने मुझे बताया कि एक किताब है संविधान, जिसके मुताबिक देश चलता है। मैं
मंगला यानि मंगों की बात सुनकर हतप्रभ रह गई। जी हां, मंगला नाम ही रखा था, उसकी
मां ने उसका। घरों में काम करते-करते वो कब मंगों हो गई, उसे भी नहीं पता चला।
खैर, उसकी समझ और अभिव्यक्ति ने मुझे फिर उसके सामने नतमस्तक कर दिया। खैर, मंगों
मेरी बात समझ गई थी, उसे कोई आपत्ति भी नहीं थी। मैं निश्चिंत होकर पैकिंग करने
लगी। शाम को विनीत आए, उन्हें पूरी बात बताई तो उन्होंने भी कहा कि तुम्हें जाना
चाहिए। घर की चिंता मत करो, मैं संभाल लूंगा। सासू मां ने भी सहर्ष सहमति दे दी।
विनीत और सासूमां से सकारात्मक आश्वासन मिलने के बाद अब मैं निश्चिंत हो गई थी। धीरे-धीरे
वो दिन भी पास आ गया। मैंने दिल्ली के लिए उडान भरी। दिल्ली से कोलंबों के लिए
फ्लाइट लेनी थी। 30 दिन कब गुजर गए पता ही नहीं चला। मैंने सबके लिए ढेर सारी
शॉपिंग कर ली थी। सोमवार की सुबह फ्लाइट भोपाल पहुंचने वाली थी, विनीत दोनों
बच्चों के साथ एयरपोर्ट पहुंच गए थे, मेरा इंतजार कर रहे थे। एयरपोर्ट के बाहर
निकलते ही अपने शहर पहुंचने का सुखद अहसास हो रहा था। विनीत बोले, घर चलो,
तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है। मैं चौंकी, सरप्राइज। विनीत हौले से मुस्कुरा दिए,
आगे कुछ नहीं कहा। घर पहुंचने की उत्सुकता तो विनीत बढ़ा ही चुके थे। बच्चे भी कुछ
बोलने को तैयार नहीं थे। बस वो तो ये जानना चाहते थे कि मैं उनके लिए क्या-क्या
लाई हूं।
एयरपोर्ट से घर पहुंचने में 30 मिनट लगे। गेट से कार अंदर घुसी तो लॉन
का नजारा देखकर सहज विश्वास ही नहीं हुआ। सासूमां आराम कुर्सी पर बैठी हुईं थी और
मंगों उनके बाल बना रही थी। मंगों को दूर ही रहने की हिदायत देने वाली सासूमां
उससे अपनी कंघी करवा रही हैं। कुछ समझ नहीं आया। विनीत की तरफ देखा तो उन्होंने
आंखों से इशारा किया, कि अंदर तो चलो सब बताता हूं।
तुम्हारे जाने के दूसरे ही दिन मां बाथरूम में फिसलकर गिर पड़ीं।
विनीत ने बताना शुरु किया। तुम्हें इसलिए इत्तला नहीं दी, कि तुम बेकार ही परेशान
हो जाती। तुम्हारी वापसी भी आसान नहीं थी, फिर अध्ययन में भी तुम्हारा मन नहीं
लगता। इसलिए मैंने फैसला किया कि तुम्हें बताया ही ना जाए। मां के गिरने के बाद
विशाखा को फोन किया, तो पता चला कि वो खुद टायफाइड से पीड़ित है। अब क्या करूं,
यही सोच रह था कि मंगों बोली, भैया परेशान ना हो, घर का काम तो मैं संभाल ही
लूंगी, आप मांजी को संभालों। लेकिन मां को भी मैं कैसे संभालता, डाक्टर ने उन्हें
बिस्तर से उठने को मना कर दिया। दैनिक कार्यों के लिए वे उठने-बैठने की स्थिति में
ना थीं। ऐसे में फिर मंगों आगे आई। मांजी से उसने गुजारिश की, कि आप मुझे आपके काम
करने दो। मां भी मना करने की स्थिति में नहीं थी। फिर क्या था, मंगों के सेवाभावना
से मां इतनी प्रभावित हुई कि सारे भेद ही मिट गए। अब दोनों दिन भर गप्पे भी लडाती
हैं, मां मंगों के हाथ का बना खाती भी है और उस पर प्यार भी लुटाती है। विनीत
बताते जा रहे थे और सुनते हुए मेरे लिए ये सारी बातें किसी धारावाहिक की कहानी की
तरह लग रही थी। पानी पीते हुए मैंने विनीत से कहा, चलो मजबूरी में ही सही, कम से
कम मांजी को सोच तो बदली। मंगो अब तक तो मेरी ही शिक्षक थी, अब वो मांजी की भी
गुरु बन गई। मेरी बात सुनकर विनीत जोर से ठहाका लगाकर हंस दिए, हाहाहा।
प्रिंयका कौशल
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