साक्षी प्रकरण के
बहाने आइए आज परिवार पर चर्चा करते हैं। पिछले बीस-तीस वर्षों में प्रेम विवाह के मामले
बढ़े हैं। मैं यह नहीं कह रही हूं कि पहले ऐसा नहीं हुआ। हमारे यहां अनादी काल से
लड़कियां स्वयं के लिए वर चुन रही हैं। स्वयंवर भी उसी प्रक्रिया का हिस्सा था। कई
विवाह पहले भी हुए, जो परिवार के विरुद्ध जाकर किए गए। लेकिन एक समय के बाद अंततः
परिवार ने भी चाहे वर हो या वधु उसे खुलेदिल से स्वीकार कर ही लिया। लेकिन साक्षी
प्रकरण में जो हुआ, वह नहीं होना चाहिए था। साक्षी के घर लौटने के सारे दरवाजे बंद
कर दिए गए। लड़की के माता-पिता को सरेआम खलनायक की तरफ पेश किया जाना, उनका मीडिया
ट्रायल लिया जाना और मामले को गलत रंग देने के षडयंत्र ने पूरे देश का ध्यान इस ओर
खींचा।
खैर, मूल मुद्दे पर
लौटकर आते हैं, यानि परिवार पर। परिवार की मुख्य धुरी माता-पिता होते हैं। दुनिया
के कोई माता-पिता (इंसान क्या, पशु भी) अपने बच्चों को नुकसान पहुंचाने की मंशा
नहीं रखते। वे अपने बच्चों की जायज-नाजायज मांगों को भी पूरा करते रहते हैं। चूंकि
हमें परिवार नाम की संस्था, माता-पिता ईश्वर प्रदत्त है और हमारी संस्कृति/संस्कारों ने इस संस्था को अक्षुण्ण रखा है तो हम
इसकी कीमत/महत्व ही नहीं जान पा रहे हैं। मैं युवा
भाई-बहनों से कहना चाहती हूं कि परिवार सराय या धर्मशाला नहीं है कि जब तक मन किया
रहे, और जब दूसरी धर्मशाला पसंद आ गई तो बोरिया बिस्तर उठाकर चल दिए।
यूरोप या अन्य
पाश्चात्य देशों में परिवार या माता-पिता का सुख सभी को नसीब नहीं है, लेकिन हमारे
देश में, हमारे संस्कृति में हमें ता-उम्र ये सुख प्राप्त होता है, जब तक हम खुद
ही इससे दूर ना होना चाहें।
अमेरिका में एक सर्वे
हुआ था, सर्वे का विषय और परिणाम जानकर शायद आप चौंक जाएंगे। दरअसल वहां के बच्चे
भारतीय बच्चों से हर बात में पिछड़ रहे थे, प्रतियोगी परीक्षाएं हों, उनकी भाषा,
उनके व्याकरण की परीक्षा हो, हर बात में भारतीय बच्चे आगे थे। अमेरिकन्स ने सोचा
कि ऐसा क्या है इनमें... तो रिसर्च हुई। रिसर्च में जो सामने आया वह चौंकाने वाला
भी है, और हमारे लिए गर्व का भी विषय है। उन्होंने पाया कि वहां के बच्चे पढ़ते
वक्त या कोई भी कार्य करते वक्त दिमागी तौर पर अपेक्षाकृत कम स्थिर रहते हैं। उनसे
पूछा गया तो उनकी चिंता ये थी कि जब वे घर जाएंगे तो घर का दरवाजा कौन खोलेगा।
मम्मी खोलेगी, पापा खोलेंगी, नई मम्मी मिलेगी या नए पापा मिलेंगे या कोई नहीं
मिलेगा.. आया के सहारे ही जीवन काटना होगा। जबकि भारतीय बच्चे स्थिरता के साथ हर
क्रियाकलाप में भागीदारी करते थे, उन्हें पता था कि जब वे घर जाएंगे तो अपनी मम्मी
या अपने पापा ही मिलेंगे। मां प्यार से कहेगी, जा बेटा फ्रेश हो जा, मैं खाना लगाती
हूं। तो कितनी बड़ी बात है ये कि हमारी धुरी असल में हमारा परिवार है। हमारी
शक्ति, हमारी सफलता का सूत्र, हमारी सुख-शांति, हमारी तरक्की सब परिवार पर निर्भर
करती है। लेकिन हमें उसकी कीमत नहीं पता, क्योंकि हम उसे खरीदकर नहीं लाए हैं,
मुफ्त में मिली वस्तु है, तो उसका मोल करना भूल गए हैं। लौटकर साक्षी पर ही आते
हैं, क्या हम अपने जन्मदाताओं की हाय लेकर अपने सुखी जीवन की कल्पना कर सकते हैं।
प्रेम कीजिए, विवाह भी कीजिए, घर के विरुद्ध जाकर भी कीजिए, लेकिन परिवार पर कीचड़
मत उछालिए। कुछ प्रश्न हमेशा यथावत् रहेंगे कि क्या साक्षी को उसके माता-पिता से
ज्यादा कोई प्यार कर सकता है? क्या उसकी चिंता
उसके मां-पिता से ज्यादा कोई कर सकता है? उसके उज्जवल भविष्य
की कामना क्या कोई उसके मां-पिता से ज्यादा कर सकता है? जिन्हें कुतर्क करना है, उनका मैं क्या ईश्वर भी
कुछ नहीं कर सकता।
अंत में, मैं फिर कह
रही हूं कि प्रेम विवाह करना गलत नहीं है, लेकिन जो परिवार की कीमत पर हासिल हो,
ना तो ऐसा प्रेम अच्छा.. ना ही ऐसी कोई उपलब्धि अच्छी। ये बात एक ना एक दिन स्वयं
प्रकृति सिद्ध कर देती है, ये बात अनुभवी लोग समझ सकते हैं।
जाते-जाते बड़ों से
भी एक अपील कि आपको भी अपने बच्चों की भावना समझनी होगी। यदि आपकी नजर में वे कुछ
गलत कर रहे हैं, तो उन्हें धमकाकर नहीं प्यार से समझाएं। हर बार बच्चे ही गलत हों,
यह जरूरी नहीं। हम उन्हें बागी बनाने के बजाए अपनी बगिया के फूल बनाएं। अपनी
इच्छाएं उनपर थोपें नहीं, बल्कि उन्हें अपनी इच्छानुसार पल्लवित-पुष्पित होने दें।
पूरी दुनिया में केवल हमारे यहां की परिवार बचे हैं, भले ही एकल ही सही। उसे बचाने
में हम सबको भागीदारी करनी होगी। #प्रियंकाकौशल
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