शनिवार, 24 मई 2014

मप्र-छग में खत्म होती कांग्रेस

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भले ही भाजपा को राजस्थान, दिल्ली और गुजरात की तरह क्लीन स्वीप नहीं मिला हो, लेकिन भाजपा अपने प्रदर्शन को बेहतर करते हुए कांग्रेस को गहरे गड्ढे में उतारने में कामयाब रही। देश के दूसरे भागों में भले ही कांग्रेस की पराजय में मोदी लहर का हाथ रहा हो, लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस शनैः शनैः चुनाव दर चुनाव खत्म होती दिखाई दे रही है। अगर हर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का मत प्रतिशत ऐसे ही घटता रहा, तो वो दिन दूर नहीं, जब दोनों प्रदेशों में कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं रह जाएगा।
अब जबकि पूरे देश में भाजपा का डंका बज रहा है, ऐसे में यहां मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की बात करना और भी जरूरी हो जाता है। क्योंकि भाजपा ने भले ही आश्चर्यजनक रूप से एक झटके में देश के कई राज्यों में अपना परचम लहरा दिया हो, लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पराजय औचक रूप से नहीं हुई है, बल्कि इसकी पटकथा पिछले दो दशकों से लिखी जा रही है। दोनों राज्यों में कांग्रेस की हार का विश्लेषण करें तो एक बात स्पष्ट रूप से नजर आती है कि यदि कांग्रेस मध्यप्रदेश (कुल सीट 29) में 12 में से 2 सीटों पर सिमट गई या छत्तीसगढ़ (कुल सीट11) में चरणदास मंहत, अजोत जोगी और सत्यनारायण शर्मा जैसे दिग्गज नेता चुनाव हार गए तो इसकी पीछे सिर्फ मोदी लहर जिम्मेदार नहीं है, बल्कि वर्षों से कांग्रेस में चली आ रही गुटबाजी, आपसी कलह, जनप्रतिनिधियों की उदासीनता, चुनाव प्रचार में धन की कमी, नेतृत्व का अभाव जैसे कारण जिम्मेदार रहे हैं। कांग्रेस के क्षत्रपों की आपसी लड़ाई ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी का बंटाधार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। पिछले लोकसभा चुनावों पर नज़र डालें तो हर बार कांग्रेस का मत प्रतिशत घटा है। जबकि भाजपा का मत प्रतिशत हर बार बढ़ते क्रम में नजर आता है। छत्तीसगढ़ में तो लगातार पांच लोकसभा चुनावों में हर बार कांग्रेस के वोट प्रतिशत में 3 फीसदी की कमी आई है। वर्ष 1999 में कांग्रेस को लगभग 43 फीसदी वोट मिले थे। वहीं 2003 में ये घटकर 40.16 रह गया। 2009 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत फिर घटकर 37 फीसदी रह गया। देश में तो अगले पांच सालों में काग्रेंस की स्थिति में सुधार होने की फिर भी गुंजाइश है, लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में धीरे-धीरे खत्म होती कांग्रेस कभी उबर भी पाएगी, ये कहना काफी मुश्किल है। कांग्रेस के लिए ये इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में यूपी, बिहार, झारखंड, पंजाब और दक्षिण के राज्यों की तरह मजबूत क्षेत्रीय दल भी नहीं है। यानि कांग्रेस समय पर नहीं चेती तो दोनों प्रदेश केवल भाजपा का गढ़ होकर रह जाएंगे। लेकिन इससे पहले दोनों प्रदेशों में कांग्रेस धीरे-धीरे खत्म होने के कारणों को विस्तार से समझने की जरूरत है।
नेतृत्व का अभाव
चाहे मध्यप्रदेश हो या छत्तीसगढ़, दोनों ही राज्यों में कांग्रेस के पास बरसों से मजबूत नेतृत्व की कमी है। दोनों ही राज्यों में बार-बार नए गुट को प्रदेश की कमान सौंपी गई। लेकिन कोई भी प्रदेश अध्यक्ष पार्टी को मजबूती नहीं दे पाया। प्रदेश अध्यक्षों ने सबको साथ लेकर चलने के बजाए गुटबाजी को ही बढ़ावा दिया। मध्यप्रदेश में सुभाष यादव, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव पार्टी प्रमुख बने, लेकिन कोई भी कांग्रेस को संजीवनी नहीं दे पाया। प्रदेश नेतृत्व ने कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ाने का ही काम किया, परिणामस्वरूप इस लोकसभा चुनावों में वर्तमान अध्यक्ष अरुण यादव, पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल, सज्जन सिंह वर्मा, प्रेमचंद गुड्डू, मीनाक्षी नटराजन (टीम राहुल की अहम सदस्य) सरीखे दिग्गज नेता चुनाव हार बैठे। वहीं छत्तीसगढ़ में भी धनेंद्र साहू, चरणदास मंहत, भूपेश बघेल जैसे नेताओं ने पार्टी को बट्टा लगाने कहीं कमी नहीं की। खासतौर पर चरणदास मंहत और भूपेश बघेल ने प्रदेश अध्यक्ष रहते नासमझी भरे बयान दे-देकर पार्टी को कई टुकड़ों में बांट दिया। केवल नंदकुमार पटेल ऐसे अध्यक्ष बनकर आए थे, जो सभी को साथ लेकर चलने की रणनीति पर काम कर रहे थे। लेकिन कांग्रेस का दुर्भाग्य कि वे झीरम घाटी नक्सल हमले में मारे गए।
क्षत्रपों की आपसी खींचतान
दोनों ही प्रदेशों में कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि उसके कई क्षत्रप मैदान में हैं। इन्हीं क्षत्रपों की आपसी खींचतान और खुद को सबसे ऊपर रखने की होड़ ने कांग्रेस के ताबूत में कील ठोंकने का काम किया है। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, अजय सिंह राहुल की सियासी खींचतान ने पार्टी को मृत्युशैया पर पहुंचा दिया। वहीं छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी, चरणदास महंत, शुक्ल गुट, सत्यनारायण शर्मा, मोतीलाल वोरा जैसे दिग्गज नेताओं ने अपने अहम की पूर्ति के आगे पार्टी हितों को बौना साबित कर दिया है। छत्तीसगढ़ में चुनाव का पूरा वक्त नेताओं की आपसी लड़ाई में बीत गया। अजीत जोगी को आगे बढ़ने से रोकने के लिए पहले सारे गुट एक होकर जोगी बनाम संगठन की लड़ाई को हवा देते रहे, ऐन चुनाव के वक्त कई विधायकों ने अपने क्षेत्रों में काम करने के बजाए अपने आकाओं के इलाके में हाजिरी लगानी शुरु कर दी। यही कारण था कि विधानसभा चुनाव में जिन सीटों पर कांग्रेस जीती थी, उसका फायदा लोकसभा चुनाव में पार्टी को नहीं मिल पाया। इसका सबसे सटीक उदाहरण छत्तीसगढ़ की सरगुजा सीट है। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इस लोकसभा सीट में आने वाली 8 विधानसभा सीटों में से 7 पर कांग्रेस का कब्जा है। महज चार महीने पहले संपन्न विधानसभा चुनाव के नतीजों में सरगुजा में कांग्रेस को पांच लाख पचहत्तर हजार से ज्यादा वोट मिले थे। जबकि भाजपा चार लाख सडसठ हजार वोट मिले थे। यानि यहां कि आठ विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को करीब एक लाख वोट से अधिक की बढ़त मिली थी। विधानसभा चुनाव के दौरान पूरे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन सरगुजा लोकसभा क्षेत्र में ही रहा है। लेकिन इसी बढ़े हुए मतों को कांग्रेस लोकसभा चुनाव में कायम नहीं रख पाई और हार गई।
भाजपा का वन लीडरशिप फार्मूला
भाजपा के एक नेतृत्व फार्मूले ने भी कांग्रेस की रही सही हवा निकाल दी। मध्यप्रदेश में हर छोटे बड़े फैसले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेने की स्वतंत्रता है तो वहीं छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह ही पार्टी के भी अघोषित सर्वेसर्वा हैं। चाहे टिकट वितरण का मामला हो या सत्ता और संगठन में नियुक्तियों का, मुख्यमंत्री की मर्जी के बगैर संगठन कोई फैसला नहीं करता। दोनों ही प्रदेश में पार्टी अध्यक्ष भी अपरोक्ष रूप से दोनों मुख्यमंत्रियों के अधीन होकर ही काम करते हैं। भाजपा का वन लीडरशिप फार्मूला ही है, जो पूरी पार्टी को एक सूत्र में बांधने का काम करता रहा है। इससे उलट कांग्रेस में यूं तो नेतृत्व का अभाव है, लेकिन बावजूद इसके हर बड़ा नेता खुद को पार्टी का जागीरदार समझता रहा है। इससे कांग्रेस का स्वरूप और ताकत छिन्न भिन्न हो गई है।
मुख्यमंत्री बनने की महत्वकांक्षा
ये कांग्रेस का दुर्भाग्य ही रहा कि जो भी प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, उसके मन में पहले ही दिन से सूबे का मुखिया बनने की इच्छा बलवती होती चली गई। यही कारण था कि 2008 के विधानसभा चुनाव में सुरेश पचौरी ने 100 ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का घातक निर्णय लेकर कांग्रेस को लकवाग्रस्त कर दिया था। पचौरी की योजना था कि यदि उनके ब्राह्मण उम्मीदवार जीतकर आते हैं तो कांग्रेस के बहुमत में आने की स्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। कांतिलाल भूरिया दिग्विजय सिंह की रबर स्टैम्प के रूप में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने। लेकिन इसके पीछे दिग्विजय की मंशा प्रदेश की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करना ही थी। छत्तीसगढ़ में चरणदास मंहत अध्यक्ष बने तो वे भी मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने लगे। भूपेश बघेल ने भी वही कहानी दोहराई। बतौर प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए ये बघेल की ही नाकामी थी कि दो सीट पर पार्टी ने बार-बार प्रत्याशी बदले और अपनी किरकिरी कराई। कांग्रेस नेताओं के यही सपने हर चुनाव में पार्टी पर भारी पड़े। जितनी रूचि नेता विधानसभा चुनावों में लेते रहे, उतनी दिलचस्पी लोकसभा चुनावों में नहीं दिखाई क्योंकि इसमें उनका कोई व्यक्तिगत फायदा नहीं था। कांग्रेस नेताओं के दुर्भाग्य का अंदाजा चरणदास मंहत को देखकर सहज लगाया जा सकता है। पिछले चार महीने पहले तक महंत ना केवल प्रदेश अध्यक्ष थे, बल्कि लोकसभा सांसद और केंद्रीय राज्य मंत्री भी थे। लेकिन महंत ने पहले प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी खोई, लोकसभा चुनाव हारने के बाद ना तो वे सासंद बचे, ना ही मंत्री पद तो उनका जाना ही था। चार महीने पहले वाला महंत का जलवा अब वीरानी में बदल गया है।
आपसी लड़ाई से घटता मत प्रतिशत
छत्तीसगढ़ में भाजपा का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 47.78 प्रतिशत मत मिले थे। वहीं इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत 1.02 प्रतिशत का इजाफे के साथ 48.8 हो गया है। जबकि कांग्रेस फिर अपना वोट प्रतिशत कम कर बैठी। 2009 में कांग्रेस को 40.16 फीसदी वोट मिला था, लेकिन इस बार उसके मत प्रतिशत में 1.76 की कमी दर्ज की गई है। दिंसबर 2013 में संपन्न विधानसभा चुनाव के मुकाबले भी कांग्रेस घाटे में नजर आ रही है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 40.29 प्रतिशत मत मिले थे, जो महज चार महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में घटकर 38.04 प्रतिशत रह गया है। वहीं भाजपा ने विधानसभा चुनाव के मुकाबले अपने मत प्रतिशत को बढ़ाने में कामयाबी हासिल की है। 2013 के अंत में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को कुल 41.04 वोट मिले थे, जबकि लोकसभा चुनाव के नतीजों में भाजपा को कुल 48.8 फीसदी मत मिले।
वहीं मध्यप्रदेश की बात करें तो 2009 में भाजपा को कुल 43.45 फीसदी मत मिले थे, वहीं 2014 में इसमें 10.55 फीसदी की वृद्धि हुई है। भाजपा को इस लोकसभा चुनाव में 54 फीसदी मत मिले हैं। जबकि कांग्रेस को 2009 में 40.14 फीसदी मत मिले थे, जो 1.10 फीसदी घटकर 39.04 रह गया है। बसपा, अन्य और निर्दलीय उम्मीदवारों को 6.06 फीसदी वोट मिले। नई नवेली आम आदमी पार्टी को नोटा से भी कम वोट मिले। मध्यप्रदेश में नोटा (नन ऑफ द अबव) में कुल 1.3 यानि 3, 91, 797 वोट पड़े, वहीं आप को 1.2 फीसदी यानि 3,49,472 वोट मिले। कांग्रेस ये जानती है कि भाजपा को मिले 10 फीसदी वोटों के अंतर को पाटना उसके लिए कितना मुश्किल भरा होगा। मतदाताओं को दोबारा रिझाने के लिए कांग्रेस को अच्छे नेतृत्व, लंबे समय और संसाधनों की जरूरत होगी।
अस्तित्व खोते क्षेत्रीय दल
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय दलों की राजनीति की भी कोई गुंजाइश नहीं बची है। 2014 के चुनाव के आकंडे देखें तो हम पाएंगे कि  मध्यप्रदेश की 29 सीटों पर 27 भाजपा और 2 कांग्रेस के खाते में गई। जबकि चुनाव मैदान में बहुजन समाज पार्टी, सीपीआई, सीपीआई एम के अलावा 50 अन्य राजनीतिक दलों के उम्मीवार मैदान में थे। इनके साथ ही 126 निर्दलीय भी अपनी किस्मत आजमा रहे थे। कुल 378 उम्मीवारों में 29 चुने जाने थे, जिनमें एक भी निर्दलीय या क्षेत्रीय दल का नहीं जीत पाया। नतीजों में भाजपा 1 करोड़ 60 लाख 14,924 वोट पाकर पहले स्थान पर रही। दूसरे स्थान पर कांग्रेस ने 1 करोड़ तीन लाख 40 हजार 58 वोट प्राप्त किए। बसपा सवा 11 लाख मत पाकर तीसरे स्थान पर रही। जबकि अन्य 126 उम्मीदवारों ने केवल साढ़े पांच लाख वोट प्राप्त किए। जिसका प्रतिशत केवल 1.9 है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को केवल 0.6 फीसदी, सीपीआई को केवल 0.3 फीसदी, आप को 1.2 फीसदी वोट मिले।
यही हाल छत्तीसगढ़ के भी हैं। यहां भी बसपा समेत अन्य दलों का वोट बैंक भी घटा है। 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा को जहां 4.54 फीसदी मत मिले थे, वहीं इस चुनाव में बसपा केवल 2.4 फीसदी मत ही हासिल कर पाई। जबकि हाल ही संपन्न विधानसभा चुनाव में बसपा का कुल मत प्रतिशत 4.27 था। जिसे वो लोकसभा चुनाव में बरकरार नहीं रख पाई। निर्दलीय और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों का जनाधार भी इस लोकसभा चुनाव में घटा है। 2009 के लोकसभा चुनाव में इन्हें 5.72 फीसदी मत मिले थे, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में घटकर 4.2 रह गए। जबकि विधानसभा 2013 में निर्दलीय और अन्य दलों को 10.28 फीसदी मत मिले थे।
कहीं खुशी कहीं गम
देश की जनता ने नरेंद्र मोदी पर विश्वास जताया है। ये केवल कांग्रेस की नहीं, बल्कि सोनिया और राहुल गांधी की भी हार है। –रमन सिंह, मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़
कांग्रेस ने विपरित परिस्थितियों में चुनाव लड़ा है। हम अपना संघर्ष जारी रखेंगे। -भूपेश बघेल, प्रदेश अध्यक्ष छत्तीसगढ़ कांग्रेस।
जनता का आदेश शिरोधार्य है। देश के विकास में कांग्रेस अपना योगदान देती रहेगी। –अरुण यादव, प्रदेश अध्यक्ष मध्यप्रदेश भाजपा।
मोदी और भाजपा को बधाई। उन्हें जनता का निर्णायक जनादेश मिला है। उन्हें अपने वादे पूरे करने चाहिए। अब अच्छे दिन लाइए। -दिग्विजय सिंह, कांग्रेस महासचिव।

नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व, शिवराज सिंह चौहान की छवि, नरेंद्र सिंह तोमर की मेहनत के बल पर मध्यप्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ दिया है। -हितेश बाजपेयी, प्रवक्ता मध्यप्रदेश भाजपा।

झीरम हमले की बरसी



छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले की झीरम घाटी में पिछले साल की 25 मई को माओवादियों ने कांग्रेस के 30 नेताओं की जान ले ली थी। इनमें नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा, वीसी शुक्ला जैसे कई बड़े नेता भी शामिल थे। इस हद्यविदारक हत्याकांड को एक साल पूरा होने जा रहा है। ऐसे में जरूरी है कि साल भर हुईं माओवादी घटनाओं की समीक्षा की जाए। जरूरत इस बात की भी है कि उन सवालों के स्थाई जवाब ढूंढे जाएं, जो हर नक्सल घटना के बाद उठ खड़े होते हैं।
सन् 2000 में जब छत्तीसगढ़ एक अलग राज्य के रूप में आकार ले रहा था, तब किसी नहीं सोचा था कि प्रदेश में नासूर की तरह फैल रहे माओवादी कभी किसी राजनीतिक दल के पूरे नेतृत्व का ही सफाया करने का दुस्साहस कर देंगे। वो भी उस राजनीतिक दल के नेतृत्व को, जिसे सूबे की पहली सरकार चलाने का सौभाग्य मिला। कांग्रेस नेता अजीत जोगी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने और उनकी सरकार में गृहमंत्रालय चलाने की जिम्मेदारी नंदकुमार पटेल को मिली। उस वक्त पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे। जब 2003 में भाजपा ने सरकार बनाई और मुख्यमंत्री के रूप में रमन सिंह गद्दीनशीन हुए, तब कांग्रेस ने सदन में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी महेंद्र कर्मा के कंधों पर डाली। जिन कांग्रेस नेताओं का (अजीत जोगी को छोड़कर) जिक्र यहां किया जा रहा है, भले ही उनका राजनीतिक करियर अलग-अलग उतार चढ़ाव भरता रहा, लेकिन विधाता ने शायद उनकी अंतिम विदाई एक साथ लिखी थी। 2013 में पूरे प्रदेश में परिवर्तन यात्रा निकाल रहे इन कांग्रेस नेताओं के लिए इस अभियान का अंतिम पड़ाव सच में अंतिम साबित हुआ। जगदलपुर की झीरम (दरभा) घाटी में माओवादियों ने एंबुश लगाकर 30 छोटे-बड़े कांग्रेस नेता को मौत की नींद सुला दिया। 25 मई 2013 को हुई इस हद्यविदारक घटना ने ना केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे देश को हिला कर रख दिया। किसी नक्सल हमले में एक राजनीतिक दल के इतने नेताओं का एक साथ दुनिया से चले जाना देश की पहली घटना थी। परिणामस्वरूप कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे समेत कई नेता छत्तीसगढ़ पहुंचे और राज्य सरकार के साथ बैठकर घटना का पूरा ब्यौरा लिया। इस घटना की जांच की जम्मेदारी एनआईए (राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी) को दी गई। हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने झीरम घाटी में नक्सलियों द्वारा 15 जवानों की जान लेने के बाद प्रदेश की सभी नक्सल घटनाओं की जांच (झीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं के हत्याकांड की भी) सीबीआई को सौंपने का ऐलान किया है।
लेकिन जो सवाल आज भी मौजूं है, वो ये है कि झीरम घाटी में नक्सलियों के खूनी खेल के बाद केंद्र और राज्य सरकार ने माओवादियों के सफाए के लिए कितनी गंभीरता दिखाई। उन्हें समूल नष्ट करने के लिए अपनी रणनीतियों में क्या परिवर्तन किए और सबसे अहम बात कि क्या वाकई में सरकारों ने कांग्रेस नेताओं की मौत को उतनी ही गंभीरता से लिया या महज़ एक और नक्सल हमला मानकर मामले को हमेशा की तरह ठंडे बस्ते में डाल दिया। जहां तक सवाल माओवादियों का है, तो पिछले एक साल में उनकी गतिविधियों को देखकर तो नहीं लगता कि उनका हौंसला कहीं से भी पस्त हुआ है। जिस झीरम घाटी में माओवादियों ने कांग्रेस के 30 नेताओं को मौत की नींद सुला दिया था, उसी इलाके में ठीक इस हत्याकांड की बरसी के महज दो माह पहले नक्सलियों ने केंद्रीय रिजर्व सुरक्षा बल के 15 जवानों को अपना निशाना बनाकर शहीद कर दिया। 2014 में माओवादियों का ये दूसरा बड़ा हमला था। माओवादियों ने हमला उस वक्त किया, जब केंद्रीय रिजर्व सुरक्षा बल की 80 बटालियन के 44 जवान जगदलपुर और सुकमा के बीच में स्थित तोंगपाल में बन रही सड़क को सुरक्षा देने के लिए सर्चिंग पर निकले थे। सर्चिंग कर जब ये जवान लौट रहे थे, तब नक्सलियों ने घात लगाकर इन पर हमला कर दिया। हमले में जहां 15 जवान शहीद हो गए, वहीं तीन जवान घायल भी हुए। जवानों पर सुनियोजित रूप से हमला करने वाले नक्सलियों की संख्या 300 के करीब थी।
राज्य बनने के बाद पिछले 14 सालों में दर्जनों छोटी-बड़ी वारदात करने वाले नक्सलियों ने 2013 से 2014 के बीच कई बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया है। इन घटनाओं में 18 मई 2013 बीजापुर में एक जवान और 8 ग्रामीणों की मौत हुई, वहीं 25 मई 2013 झीरम घाटी में कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, वीसी शुक्ल समेत 30 नेताओं को मार दिया गया, जबकि 19 लोग घायल हुए। 9 फरवरी 2014 एक नक्सल हमले में CRPF के दो जवानों की मौत हुई और 12 जवान घायल हो गए। 28 फरवरी 2014 माओवादी हमले में पुलिस के 7 जवानों की मौत हो गई। 11 मार्च 2014 को एक बार फिर झीरम घाटी खून से लाल हुई। माओवादियों के एंबुश में फंसकर 15 जवानों और एक ग्रामीण की मौत हो गई। इसी साल के दरमियान विधानसभा और लोकसभा चुनाव भी हुए। इनमें भी माओवादियों ने दहशत फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अर्ध्यसैनिक बलों की 300 कंपनियों की मौजदूगी के बावजूद बस्तर लोकसभा सीट पर मतदान के दौरान माओवादी आतंक फैलाने में सफल रहे। बस्तर के सुकमा, बीजापुर तथा दंतेवाड़ा के कुछ मतदान केन्द्रों में नक्सलियों के कारण मतदान भी प्रभावित हुआ। बस्तर सीट से आप की उम्मीदवार सोनी सोरी के मतदान करने के पहले मतदान केन्द्र पर भी नक्सलियों ने फायरिंग की। बीजापुर इलाके के गोलापल्ली इलाके में पुलिस नक्सली मुठभेड़ में एक नक्सली भी मारा गया। जबकि एक पुलिस जवान घायल हो गया। मतदान को प्रभावित करने के लिए नक्सलियों ने जगदपुर, किरंदुल और सुकमा समेत 9 अलग-अलग स्थानों पर पुलिस जवानों पर फायरिंग की। जगदलपुर में जहां मोबाइल टॉवर उड़ा दिया, वहीं दंतेवाड़ा में सड़क जाम कर प्रेशर बम लगा दिए। नक्सलियों की ये हरकतें बताती हैं कि वे बस्तर समेत राज्य के कई इलाकों में समानांतर सरकार चला रहे हैं या चलाना चाहते हैं। उनके मन में सरकारों का, पुलिस का और प्रशासन का कोई खौफ नहीं है।
बात सरकार की नीति की करें तो चाहे केंद्र हो या राज्य सरकार, केवल बैठकें करने और कमेटियां बनाने के अलावा सरकारों के खाते में कुछ खास उपलब्धियां नहीं आई हैं। ऑपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत में जरूर ऐसा लगने लगा था कि अब राज्य सरकार माओवाद को लेकर गंभीर है। इस ऑपरेशन का असल मकसद माओवादियों को तो पीछे खदेड़ना था ही, लेकिन साथ ही साथ उन इलाकों का विकास करना भी था, जहां नक्सलियों ने वर्षों से विकास को रोक रखा था। लेकिन ग्रीन हंट का जो प्रारूप तैयार किया गया था, वो उस रूप में सफल ही नहीं हो पाया। इस बारे में छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी विश्वरंजन कहते हैं कि ऑपरेशन ग्रीन हंट में उन पिछड़े इलाकों को विकसित करना था, जहां नक्सलियों ने अपनी जड़ें गहरी कर ली थीं। ग्रीन हंट के जरिए ही आदिवासियों का विश्वास भी अर्जित करना था। हम बहुत हद तक अपने मकसद में सफल भी रहे थे। लेकिन ग्रीन हंट को गलत तरीके से देश के सामने पेश किया गया
वर्षों से छत्तीसगढ़ में आंध्र प्रदेश की तर्ज पर ग्रे हाउंड फोर्स बनाने की मांग चल रही है। नक्सलियों से निपटने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित ग्रे हाउंड के खाते में कई उपलब्धियां है। लेकिन छत्तीसगढ़ अभी तक अपनी कोई ऐसी फोर्स बनाने में कामयाबी हासिल नहीं कर सका, जो माओवादियों पर सवा सेर की तरह भारी पड़ सके। माओवादियों से दो-दो हाथ करने के लिए छत्तीसगढ़ अभी तक केंद्रीय सुरक्षा बलों पर निर्भर है।
नाम ना छापने की शर्त पर एक पुलिस अफसर कहते हैं कि प्रदेश के आला अफसरों में इच्छाशक्ति का अभाव ही कई अड़चने पैदा करता है। ग्रे हाउंड जैसी फोर्स तो कबकी बन जानी चाहिए थी। हमारे पर प्रशिक्षित लड़ाके नहीं है। प्रशिक्षित का मतलब माओवादियों के गुरिल्ला युद्ध के लिए चुस्त चालाक जवानों से है। कांकेर के जंगल वॉर फेयर कॉलेज में भी जो सिखाया जाता है, फील्ड में उसका शत प्रतिशत पालन नहीं किया जाता। इसका खामियाजा जवानों की मौत के रूप में सामने आता है।
माओवादियों को लेकर राज्य सरकार की चाल इतनी सुस्त है कि नक्सली होने के आरोप में प्रदेश की जेलों में सजा काट रहे लोगों की रिहाई पर विचार करने के लिए साल 2012 में बनी बुच कमेटी भी दो साल में केवल 8 बैठकें ही कर पाई है। जब तहलका ने कमेटी के कामकाज की पड़ताल शुरु की तो उसकी अध्यक्ष निर्मला बुच ने आठवीं बैठक रायपुर में बुलाई। जबकि कमेटी की अधिकांश बैठकें भोपाल में ही बगैर किसी शोर शराबे के कब संपन्न हो गई, इसकी किसी को भनक तक नहीं लगी। हाल ही में संपन्न इस बैठक में बुच कमेटी ने 35 और मामलों में आरोपित/दोषियों को छोड़ने की सिफारिश की है।
निर्मला बुच कहती हैं कि हम अपना काम कर रहे हैं। हमारी कोशिश है कि माओवादी होने के या उनके मददगार होने के आरोपितों के सभी मामलों की समीक्षा हो जाए। जिनमें हमे लग रहा है कि उनकी रिहाई होनी चाहिए, हम सिफारिश भी कर रहे हैं। सरकार नक्सलवाद का समूल सफाया करने के लिए प्रतिबद्ध है और सही रणनीति पर काम कर रही है
जिस हफ्ते बुच कमेटी ने बैठक ली, उसी सप्ताह माओवादियों ने खूनी आतंक मचाकर सात जवानों को शहीद कर दिया। 11 मई को छत्तीसगढ़ सीमा पर महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में सर्च अभियान में निकले जवानों को पहले तो आईईडी ब्लास्ट कर रोका गया, फिर उनपर अंधाधुंध फायरिंग की गई। हमले में 7 जवानों की मौत हो गई और चार घायल हो गए। पुलिस सूत्रों की मुताबिक हमला दल में 100 नक्सली शामिल थे। नक्सलियों ने जिस जगह हमला किया, वहां तेंदूपत्ता तोड़ने का काम चल रहा है। नक्सलियों के इस खूनी उत्पात के ठीक दूसरी दिशा में यानि प्रदेश के सुकमा जिल में सुरक्षा बलों ने 30 किलोग्राम वजनी आईईडी बरामद कर एक बड़े हादसे को टाल दिया। जब सीआरपीएफ के नेतृत्व में राज्य पुलिसकर्मियों का एक दस्ता सर्च अभियान पर था, तब उसने मालीगिरा ब्रिज के नीचे बड़ी मात्रा में छिपाकर रखा गया विस्फोटक बरामद किया। यह मार्ग आमतौर पर सुरक्षा बलों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। माओवादी इस मार्ग पर किसी बड़ी घटना को अंजाम देने वाले थे।
छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक एएन उपाध्याय इस बारे में कहते हैं कि हम अपनी नक्सल पॉलिसी को रिव्यू कर रहे हैं। हमारा एक ही उद्देश्य है माओवादियों का सफाया। जहां तक सवाल नक्सल घटनाओं का है, तो उस पर एकदम से रोक लगाना संभव नहीं है। छत्तीसगढ़ की भौगोलिक परिस्थिति जहां माओवादियों के लिए मददगार साबित होती है, वहीं इससे सुरक्षा बलों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है

बहरहाल झीरम घाटी नक्सल हमले को पहली बरसी पर कांग्रेस उसी तरह खामोश है, जितनी घटना के वक्त थी। दो माह पहले उस गाड़ी को कांग्रेस भवन लाया गया था, जिसमें नंदकुमार पटेल हमले के वक्त बैठे थे। गोलियों के छेद से क्षतिग्रस्त वाहन पर प्रदेश नेतृत्व ने श्रद्धासुमन अर्पित कर मृत नेताओं को याद किया गया था। 25 मई को भी एक बार फिर कांग्रेस नेता अपने दिवंगतों को याद करेंगे। उनकी तस्वीरों पर फूल मालाएं चढ़ाएंगे। निश्चित रूप से राज्य की भाजपा सरकार भी कांग्रेस नेताओं को याद कर शोक जताएगी। लेकिन इन श्रद्धाजंलि सभाओं के बीच ये यक्ष प्रश्न भी मौजूद रहेगा कि आखिर कब तक प्रदेश में निर्दोष लोगों का खून यूं ही बहता रहेगा। आखिर कब माओवादियों से सख्ती से निपटा जाएगा, ताकि प्रदेश में अमन और चैन कायम किया जा सके। 

NMDC के विरोध में आदिवासियों का मोर्चा




भारत का सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक और निर्यातक नेशनल मिनिरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (एनएमडीसी) इन दिनों छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के विरोध का सामना कर रहा है। प्रदेश के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिले दंतेवाड़ा के किरंदुल और बचेली की लौह अयस्क खदानों ने इलाके के पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया है। खासकर इस इलाके के लोग लाल पानी पीने को मजबूर हैं। जिससे उनके मवेशी तो मर ही रहे हैं, वे भी कई घातक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। यही कारण है कि स्थानीय बाशिंदे एनएमडीसी का विरोध करने सड़कों पर उतर आए हैं। इस हफ्ते की शुरुआत में करीब ढाई हजार आदिवासियों ने रैली निकालकर NMDC के खिलाफ प्रदर्शन किया। 
हाथों में तख्तियां लिए करीब ढाई हजार आदिवासी महिला पुरुषों ने रविवार को एनएमडीसी के किरंदुल प्लांट की घेराबंदी कर दी। अपने लिए स्वच्छ पर्यावरण, रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा मांग रहे आदिवासियों ने इलाके में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विस्तार को लेकर भी विरोध जताया। आदिवासियों को कोरापुट से लेकर बैलाडीला तक डल रही दोहरी रेल लाइन से भी ऐतराज है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनका जीवन और दूभर हो जाएगा। दंतेवाड़ा के 55 गांवों के लोग NMDC का विरोध कर रहे हैं।
आंदोलन का नेतृत्व कर रहे रमेश सामू कहते हैं किअब हम अत्याचार नहीं सहेंगे। लौह अयस्क की अधिकता से लाल हुए पानी को पीकर हमारे बच्चे मौत के मुंह में जा रहे हैं। हमारे खेत फसल लेने के लायक नहीं रह गए। मवेशी दम तोड़ रहे हैं। रोजगार के नाम पर हमें केवल छला गया है। अब हम इस इलाके में नया खनन नहीं होने देंगे
ऐसा नहीं है कि एनएमडीसी का विरोध पहली बार हो रहा है। लेकिन यहां गौर करने लायक बात ये भी है कि ये विरोध उस वक्त फिर सुलगा है, जब नेशनल मिनिरल डवलपमेंट कॉर्पोरेशन (एनएमडीसी) को एक नई खदान बैलाडीला डिपोजिट 13’ में भी खनन के लिए फॉरेस्‍ट क्लियरेंस मिल गया है। अभी एनएमडीसी के पास कुल 14 खदानों में से चार यानि किंरदुल में डिपोजिट 14 और 11 सी एवं बचेली में डिपोजिट 5 और 10 सी-11ए में खनन की अनुमति है। पर्यावरण मंत्रालय की फॉरेस्‍ट एडवाइजरी कमेटी (FAC) की 29 और 30 अप्रैल 2014 को हुई एक अहम बैठक में NMDC को नई खदान के लिए फॉरेस्‍ट क्लियरेंस देने संबंधी निर्णय लिया गया है। इसके पहले मुख्यमंत्री रमन सिंह भी FAC को पत्र लिखकर बैलाडीला खदान की अनुमति देने का आग्रह कर चुके हैं। मुख्यमंत्री के पत्र में कहा गया था कि बैलाडीला की मदद से छत्‍तीसगढ़ के छोटे स्‍पांज आयरन एवं अन्‍य स्‍टील उद्योगों को आयरन ओर प्राप्‍त हो सकेगा। फिलहाल एनएमडीसी की मौजूदा खदानों से इन उद्योगों को अपनी जरूरत का सिर्फ 50 फीसदी आयरन ओर ही प्राप्‍त हो पा रहा है। आवश्‍यकतानुसार आयरन ओर की सप्‍लाई सुनिश्चित होने से राज्‍य में स्‍टील उत्‍पादन बढ़ाने में भी मदद मिल सकेगी। साथ ही नक्‍सल प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को रोजगार के नए अवसर भी प्राप्‍त हो सकेंगे। एनएमडीसी के एक अधिकारी के मुताबिक बैलाडीला साइट 13 में करीब 300 मिलियन टन आयरन ओर का निक्षेप मौजूद है।
एनएमडीसी की खदानों से स्थानीय और राष्ट्रीय लौह उद्योगों की जरूरतें तो पूरी की जा रही हैं। लेकिन स्थानीय आदिवासियों के हितों की पूरी तरह अनदेखी कर दी गई है। लौह अयस्क की खदानों में खनन के कारण स्थानीय नदी-नालों का रंग लाल हो गया है। इस पानी से जहां स्थानीय लोगों को खेत खराब हो गए हैं। हालांकि एनएमडीसी में पर्यावरण प्रबंधन के तहत जल प्रदूषण को रोकन के लिए चेक डैम और टेलिंग डैम बनाए गए हैं। लेकिन इसके बावजूद माइनिंग एरिया के चारो तरफ का करीब 35 हजार हैक्टेयर क्षेत्र का पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हो चुका है। यह पूरा इलाका वन रहित हो गया है। इस इलाके के करीब 100 किलोमीटर के विस्तार में बहने वाली शंखिनी और डंकिनी नदियां लाल दलदल वाले क्षेत्रों में बदल गई हैं। सैंकडों गांवों का पानी प्रदूषित हो गया है। साथ ही सिंचाई की सुविधा भी छीन गई है।
एनएमडीसी किरंदुल के डायरेक्टर प्रोडक्शन वी के सतपथी तहलका से कहते हैं कि हम अपनी क्षमताओं में रह कर जितना कर सकते हैं, उतना कर रहे हैं। लोगों की मांग हैं कि उनके इलाके का विकास हो, उन्हें रोजगार मिले, चिकित्सा सुविधा और शिक्षा मिल सके। ये हमारा काम नहीं, राज्य सरकार का है। लेकिन अपने सामाजिक सरोकारों के तहत में ये सामुदायिक सुविधाएं रहवासियों को उपलब्ध करवा रहे हैं। ये राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वो लोगों को बेहतर जीवन उपलब्ध करवाए
दंतेवाड़ा पुलिस महानिरीक्षक नरेंद्र खरे कहते हैं कि ग्रामीणों ने प्रशासन से अनुमित लेकर रैली निकाली थी। उनकी मांगे पानी, रोजगार और मुआवाजे के संबंध में थी। हालांकि रैली के दौरान कोई अशांति प्रिय घटना नहीं हुई। गांववालें शांतिपूर्वक अपना प्रदर्शन कर रहे हैं
दंतेवाड़ा जिले की अपनी खदानों से NMDC प्रतिदिन करीब 60,000 टन अयस्क का उत्पादन करती है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार भारत के कुल कोयला और लौह अयस्क भंडार का पांचवां हिस्सा छत्तीसगढ़ में है। दंतेवाड़ा में बैलाडिला की पहाडियों में देश के सबसे अच्छे लौह अयस्क की खदानें है। यहां 14 खदानों में 1.2 अरब टन इस्पात का भंडार है, जिसमें इस्पात की मात्रा 66 फीसदी है।

नक्सलियों का गढ़ कहे जाने वाले इस क्षेत्र में एनएमडीसी 1960 से काम कर रही है। सार्वजनिक क्षेत्र की इस कंपनी के पास 788 एकड़ जमीन है। लेकिन इसकी खदानों ने बचेली और किरंदुल के आदिवासियों का जीना मुहाल कर दिया है। यही वो दो इलाके हैं, जहां नक्सली सबसे ज्यादा उत्पात मचाते हैं। ऐसे में स्थानीय आदिवासियों की स्थिति दो पाटों के बीच फंसने जैसी हो गई है। 

शनिवार, 17 मई 2014

हक की लड़ाई


देश के सबसे बड़े एल्युमिनियम प्लांट कहे जाने वाले कोरबा स्थित भारत एल्युमिनियम कंपनी (बालको) में श्रम कानूनों का धड़ल्ले से उल्लघंन हो रहा है। अपने हक से वंचित होने पर 6000 ठेका श्रमिक बालको से नाराज़ होकर हड़ताल पर चल रहे हैं। श्रमिकों का आरोप है कि कंपनी प्रबंधन कारखाना अधिनियम के तहत उनका रिकॉर्ड नहीं रख रहा है।
छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में भारत एल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड यानि बालको ने 2003 से 2008 के बीच नए संयंत्रों की स्थापना और पुराने के विस्तार की अनुमति ली थी। नए संयंत्रों में 540 मेगावॉट का संयंत्र भी शामिल था। संयंत्र तो तय सीमा में पूरा हो गया, लेकिन इसमें काम करने वाले श्रमिकों के हितों का नियमानुसार ध्यान नहीं रखा जा रहा है। यही कारण है श्रमिक काम छोड़कर आंदोलन की राह पर उतर आए हैं। दरअसल भारत सरकार ने कारखाना अधिनियम 1970 में संशोधन कर श्रमिकों के हितों के लिए प्रावधान किया था। जिसके मुताबिक कंपनी प्रबंधन को ठेका श्रमिकों का भी रिकॉर्ड रखना अनिवार्य है। जिस प्रारूप में श्रमिकों का रिकार्ड रखा जाता है, उस प्रारूप को फार्म 14 कहा जाता है। लेकिन बालको के श्रमिकों का आरोप है कि उनका फॉर्म 14 नहीं भरा जा रहा है। जबकि नियमानुसार बगैर फॉर्म 14 भरे कंपनी प्रबंधन श्रमिकों को परिसर में प्रवेश नहीं दे सकती। श्रमिकों का आरोप है कि ऐसा उन्हें उनके हक से वंचित करने के लिए किया जा रहा है। बालको के मजदूर इसलिए भी डरे हुए हैं क्योंकि आज से ठीक साढ़े चार साल पहले 23 सिंतबर 2009 की शाम बालको संयंत्र परिसर में चिमनी हादसा हुआ था। 12 सौ मेगावॉट पॉवर प्लांट की निर्माणाधीन दो ऊंची चिमनियों में से एक 240 मीटर ऊंची चिमनी भरभरा कर गिर गई थी। इस घटना में 40 मजदूरों की मौत हुई थी। उस वक्त भी बालको प्रबंधन पर आरोप लगे थे कि मजदूरों की मौत का आंकड़ा 40 से कहीं ज्यादा है। सरकार ने न्यायाधीश संदीप बख्शी की अध्यक्षता में एकल जांच आयोग गठित किया था। जिसकी रिपोर्ट में माना गया था कि दुर्घटना में बालको प्रबंधन की लापरवाही की वजह से हुई है।
छत्तीसगढ़ संविदा एवं ग्रामीण मजदूर संघ (इंटक) के महासचिव संतोष सिंह का आरोप है कि हम हड़ताल पर नहीं है, बल्कि बालको प्रबंधन ही हमें काम नहीं करने दे रहा है। हमारी मांग केवल इतनी है कि हमें हमारा फॉर्म 14 दिखाया जाए। लेकिन जब प्रबंधन ने उसे भरा ही नहीं है तो हमें दिखाएगा कहां से। यही कारण है कि जब सहायक श्रमायुक्त ने बालको प्रबंधन को बुलाया तो वहां कोई अफसर नहीं पहुंचा
अपने अधिकारों को लेकर 19 अप्रैल को छत्तीसगढ़ ग्रामीण संविदा एवं मजदूर संघ (इंटक) ने प्रबंधन को पत्र लिखा और चेतावनी दी कि 7 दिनों के भीतर उनकी मांगे पूरी नहीं होने पर काम बंद आंदोलन किया जाएगा। इसके बाद भी प्रबंधन के कान में जूं तक नहीं रेंगी। अंततः श्रमिकों ने हड़ताल का रास्ता अपना लिया। प्रतिदिन पहली पाली में लगभग 5 हजार श्रमिक कार्य पर पहुंचते थे, वे नहीं पहुंचे। इसके साथ ही अन्य पालियों में आने वाले मजदूर भी काम पर नहीं आए। बालको संयंत्र में लगभग 6 हजार श्रमिकों के काम पर नहीं पहुंचने से संयंत्र के भीतर स्थिति असामान्य हो गई। श्रमिकों की अनुपस्थिति से कामकाज प्रभावित न हो, इसे लेकर इंजीनियरों को सामने आना पड़ा। उन्होंने प्लांट 1, 2 के साथ-साथ 540 मेगावाट का कमान अपने हाथों में लेना पड़ा है। जब तहलका ने बालको प्रबंधन से इसका कारण जानना चाहा तो कोई जबाव नहीं मिल पाया। बालको के सीईओ रमेश नायर का कहना था कि मुझे तो इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। कारखाना प्रबंधक आर के धनचोलिया ने सवाल सुनते ही फोन काट दिया और फिर ना तो फोन उठाया ना ही एसएमएस का जबाव दिया। जबकि बालको के जनसंपर्क अधिकारी विनोद श्रीवास्तव का कहना था कि बालको अपने श्रमिकों को सबसे बेहतर सुविधाएं और मेहनताना दे रहा है। श्रीवास्तव बेहद गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाते हुए कहते हैं कि छत्तीसगढ़ के किसी भी संस्थान में फॉर्म 14 नहीं भरवाया जा रहा है। इसलिए हमने भी नहीं भरवाया
छत्तीसगढ़ संविदा एवं ग्रामीण मजदूर संघ (इंटक) के संजीव शर्मा तहलका को बताते हैं कि ये कोई नई बात नहीं है। पिछले कई सालों से बालको प्रबंधन ने ऐसा ही रवैया अपना रखा है। 1976 में कारखाना अधिनियम में एक संशोधन के जरिए श्रमिकों को ये सहूलियत दी गई थी कि प्रबंधन प्रत्येक मजदूर का रिकार्ड रखे ताकि हादसा होने की स्थिति में मजदूरों को मुआवजा मिलने में कोई परेशानी ना हो। वैसे भी कारखाने में कौन काम कर रहा है, इसकी जानकारी तो प्रबंधन को रखनी ही चाहिए। कानून में भी इसका प्रावधान है। लेकिन बालको प्रबंधन जानबूझकर श्रम कानूनों की अनदेखी कर रहा है। शर्मा आरोप लगाते हैं कि बालको का 540 मेगावॉट का पूरा प्लांट ही ठेका श्रमिकों के कारण चल रहा है। इसमें एक भी स्थाई कर्मचारी कार्यरत नहीं है
इस बारे में कोरबा के सहायक श्रम आयुक्त सत्यप्रकाश वर्मा तहलका से कहते हैं, मैने बालको प्रबंधन को बैठक के लिए बुलाया था। लेकिन बालको के अधिकारी बैठक में उपस्थित नहीं हुए। श्रमिकों का आरोप है कि कारखाना अधिनियम की धारा 62 के तहत उनका रिकॉर्ड नहीं रखा जा रहा है। यही जानने के लिए बालको प्रबंधन को बुलाया गया था। इस धारा के तहत नियम है कि कारखाना प्रबंधन को फॉर्म 14 भरना होता है, जिसमें कर्मचारी या श्रमिकों के नाम को रिकार्ड में रखना होता है। बगैर फॉर्म 14 में बगैर नाम भरे श्रमिकों कारखाने के भीतर नहीं जा सकता। यदि कंपनी प्रबंधन ऐसा नहीं करता है तो कारखाना अधिनियम की धारा 92 के तहत ये दंडनीय अपराध है
बालको और विवाद का लंबा नाता रहा है। कभी सरकारी जमीन पर अतिक्रमण को लेकर तो कभी हादसों के कारण बालको चर्चा में बना रहता है। अब एक बार फिर मजदूरों के हितों से खिलवाड़ करने के कारण भारत एल्युमिनियम कंपनी ने सबका ध्यान खींचा है। वो भी उस वक्त, जब बालको सैंकड़ों एकड़ वनभूमि पर अवैध कब्जे का आरोप झेल रहा है और कांग्रेस लगातार हर विधानसभा सत्र में कंपनी पर कार्रवाई की मांग कर रही है।
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क्या है फार्म 14

संयंत्रों में काम करने वाले श्रमिकों के लिए कारखाना अधिनियम 1970 की धारा 62 में विशेष प्रावधान हैं। इसके तहत कारखाना प्रबंधन श्रमिकों का पूर्ण विवरण रजिस्टर में दर्ज करेगा। कारखाना के भीतर काम करने वाले श्रमिक अपनी पूरी जानकारी इस रजिस्टर से प्राप्त की जा सकेगी। इसे फार्म 14 के नाम से जाना जाता है। इसके तहत श्रमिकों के लिए औद्योगिक एवं स्वास्थ्य सुरक्षा दिए जाने का प्रावधान है । इसके लागू होने पर ठेका श्रमिकों को स्वास्थ्य संबंधी लाभ तो मिलेगा ही साथ ही किसी अनहोनी की स्थिति में उनके परिजनों को भी नियम का लाभ मिल सकता है।

अब बंदूक नहीं “हल”

यदि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी वाकई गद्दीनशीन हो जाते हैं तो देश की नक्सल नीति में व्यापक बदलाव आएंगे। छत्तीसगढ़ सरकार के क्रियाकलाप और मोदी के भाषणों से इस बात के संकेत मिलना शुरु हो गए हैं।

छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिले दंतेवाड़ा के जिला पुलिस अधीक्षक नरेंद्र खरे ने पिछले दिनों एक बयान दिया कि अब माओवादियों से गोली से नहीं बल्कि बोली से बात होगी। जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी बस्तर में राजनीतिक सभा लेने आए तो उन्होंने भी खरे की बात को अपने शब्दों में आगे बढ़ाया कि मरना-मारना अब बहुत हो गया। अब नक्सली बंदूक छोड़ हल थाम लें। छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव विवेक ढांड भी धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में जाकर बैठक ले रहे हैं। तो क्या इससे ये समझा जाए कि देश में नई सरकार के साथ-साथ नई नक्सल नीति का ब्ल्यू प्रिंट भी तैयार हो चुका है।

अप्रैल 2010 ताड़मेटला में तब तक के सबसे बड़े नक्सल हमले में 76 जवानों की मौत के बाद दंतेवाड़ा ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था। केंद्र सरकार को भी दंतेवाड़ा में हुए इस हत्याकांड के बाद ये मानना पड़ा था कि नक्सलवाद केवल राज्यों की नहीं बल्कि राष्ट्र की समस्या है। तब तक नक्सलवाद से अपने दम पर जूझ रहे राज्यों के लिए केंद्र स्तर की एकीकृत योजना बनाने की कसरत शुरु हुई थी। इसी कड़ी में तत्कालीन गृहमंत्री पी चिंदबरम ने दो बार छत्तीसगढ़ आकर नक्सल रणनीति की दिशा तय करने के लिए बैठकें भी ली थीं। अब एक बार फिर बस्तर से ही माओवाद के खात्मे के लिए दिशा और दशा तय की जा रही है। ये दशा और दिशा क्या होगी, ये जानने के पहले दंतेवाड़ा एसपी नरेंद्र खरे के पूरे बयान पर गौर फरमा लें। खरे का कहना है कि पुलिस का पूरा जोर अब नक्सलियों की आत्मसमर्पण की नीति को बेहतर बनाने पर होगा। वर्ष 2014 में पुलिस माओवादियों को आत्म समर्पण के लिए प्रेरित करेगी। खरे ये भी कहते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार आंध्रप्रदेश की तर्ज पर समर्पण नीति को और बेहतर बनाने पर विचार कर रही है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी बस्तर आए तो उन्होंने सबसे पहले माओवादियों के बंदूक छोड़ने की अपील की। उन्होंने बस्तर से लेकर झारखंड़ के लोहदगा तक हर सभा में यही कहा कि मरने-मारने का समय चला गया है। अब नक्सलियों के हाथों में बंदूक नहीं हल होना चाहिए। मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि नक्सल प्रभावित इलाकों का विकास उनकी प्राथमिकता में शामिल है। मोदी ने जगदलपुर में माओवादियों से अपील करते हुए नारा दिया, सबके साथ सबका विकास।
नक्सलियों पर मोदी का बयान आया और उसके बाद से ही छत्तीसगढ़ की नक्सल नीति में तेजी से परिवर्तन के संकेत मिलना भी शुरु हो गए हैं। पहले तो प्रदेश के नए नवेले मुख्य सचिव विवेक ढांड पद दो बार धुर नक्सल प्रभावित जिलों दंतेवाड़ा और सुकमा में पूरे सरकारी लाव लश्कर के साथ बैठक ले आए। वहीं पुलिस मुख्यालय ने भी छत्तीसगढ़ में नक्सलियों को आत्म-समर्पण के लिए प्रोत्साहित करने के लिए नई तैयारी शुरू कर दी है। उच्च पदस्थ पुलिस सूत्रों की मानें तो पीएचक्यू नक्सलियों की आत्म-समर्पण नीति में बड़ा बदलाव करने जा रहा है। बदलाव के पहले चरण में पति-पत्नी नक्सलियों के एक साथ समर्पण करने पर उनको ढाई लाख रुपए तत्काल देने की तैयारी की जा रही है। यह धनराशि नक्सली दंपती को अपना नया जीवन शुरू करने के लिए दिया जाएगा। आत्म-समर्पण करने के बाद राज्य सरकार की ओर से मिलने वाली सुविधाएं भी दी जाएंगी।
एडीजी नक्सल ऑपरेशन आरके विज का कहना है कि गृह विभाग को यह प्रस्ताव भेजा जा रहा है। आत्म-समर्पण करने के बाद नक्सलियों के सामने सबसे बड़ी समस्या नया जीवन शुरू करने की होती है। इस समय सबसे ज्यादा आर्थिक संकट सामने आता है, जिससे कई बार नक्सली दोबारा जंगलों की राह पकड़ लेते हैं। इसलिए इस बार हमारा फोकस उनकी आर्थिक स्थिति पर ही है ताकि वे दोबारा हिंसा का रास्ता ना अपनाएं
राज्य के मुख्य सचिव विवेक ढांड ने भी अपनी पहली मीटिंग में ही संकेत दिए थे कि नक्सल प्रभावित बस्तर पर उनका खास फोकस रहेगा। बीते पखवाड़े में वे दो बार बस्तर जा चुके हैं। पहले दंतेवाड़ा और फिर सुकमा में चीफ सेकेट्री ने बैठक लेकर जता दिया कि वे अपनी बात पर कायम हैं। इन बैठकों में राज्य के वरिष्ठ आईएएस अफसर भी उनके साथ थे। ढांड ने स्थानीय अफसरों से मिलकर वहां की कठिनाइयों को भी जाना। यहां ये बताना जरूरी है कि तीन साल पहले राज्य सरकार ने सभी विभागों के सचिवों से बस्तर में महीने में एक रात बिताने कहा था, मगर इसका पालन नहीं हुआ। बस्तर को सिर्फ पुलिस के भरोसे छोड़ दिया गया था। सीएस के इस कदम के बाद अब राज्य सरकार की नई रणनीति पर अमल शुरु हो गया लगता है।
इस वक्त छत्तीसगढ़ की जेलों में (जिनमें पांच केंद्रीय कारागार भी शामिल हैं) तकरीबन 1400 ऐसे आरोपित या सजायाफ्ता बंदी हैं, जिनपर नक्सली होने या नक्सली समर्थक होने का आरोप है। जेल सूत्रों की मानें तो इनमें हार्डकोर नक्सली कम, जन मिलिशिया और संघम सदस्य ज्यादा हैं। आंकड़ों पर नज़र डालें तो जगदलपुर जेल में नक्सली मामलों के 332 विचाराधीन कैदी बंद हैं। साथ ही यहां 25 सजायाफ्ता कैदी भी रखे गए हैं। दंतेवाड़ा जेल में नक्सली मामलों के करीब 350 विचाराधीन कैदी बंद हैं। कांकेर जेल में नक्सली मामलों के करीब 250 और दुर्ग जेल में तकरीबन 100 विचाराधीन कैदी बंद हैं। अंबिकापुर जेल में लगभग 100 और रायपुर में 150 कैदी हैं, जो नक्सली होने के आरोप में बंद हैं। इनके अलावा प्रदेश में लागू जनसुरक्षा कानून के तहत भी 100 कैदी जेलों में बंद हैं।
भले ही नक्सलियों को हिंसा छोड़कर शांति के रास्ते पर लाने की कवायद जोर शोर से जारी हो। लेकिन छत्तीसगढ़ में बंदूक छोड़कर मुख्य धारा में शामिल होने वाले माओवादियों को उंगली पर गिना जा सकता है। वर्ष 2010 में छत्तीसगढ़ में एक साल में 35 नक्सलियों ने आत्म-समर्पण किया। वर्ष 2013 में नक्सली गतिविधियों पर नियंत्रण करने के लिए पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवानों ने सघन अभियान चलाया था। वर्ष 2014 में अब तक केवल चार डिवीजल कमेटी के चार सदस्यों ने आत्मसमर्पण किया है। इसमें राजनांदगांव में भगत झाड़े, कांकेर में संतोषी और सूरज शामिल हैं। जबकि छत्तीसगढ़ में सक्रिय जानी सलाम ने आंध्रप्रदेश में आत्म-समर्पण किया। वैसे भी आंध्र प्रदेश में सरेंडर करने वालों की संख्या ज्यादा है। वहां नक्सली को सरेंडर पर बढ़िया मुआवजा और नौकरी तक दी जाती है। आंध्रा की पुनर्वास नीति ही नक्सलियों को सरेंडर करने के लिए लुभा रही है। जबकि छत्तीसगढ़ में आकर्षक व प्रभावी नीति न होने के पिछले 10 साल में एक भी बड़े नक्सली ने यहां सरेंडर नहीं किया है। सूबे में हथियारों के हिसाब से समर्पण की कीमत तय की जाती है। इसमें एलएमजी के साथ समर्पण करने वाले नक्सली को 4.50 लाख रुपए दिए जाते हैं। वहीं एके 47 के साथ 3 लाख रुपए, एसलआर के साथ 1.50 लाख, थ्री नॉट थ्री के साथ 75 हजार, 12 बोर की बंदूक के साथ 30 हजार दिए जाते हैं। ये राशि भी लंबी प्रक्रिया के बाद मिल पाती है। जबकि ओडिशा और आंध्रप्रदेश में समर्पण के साथ ही मुआवजे की राशि प्रदान की जाती है। पुनर्वास नीति के तहत उन्हें तत्काल मकान या नौकरी का आश्वासन देकर ज्वाइन भी कराया जाता है। इन राज्यों में गिरफ्तारी या एनकांउटर का खतरा नहीं रहता।
राज्य सरकार ने सरेंडर करने वाले नक्सलियों के लिए अलग-अलग पदों के हिसाब से अलग-अलग इनाम घोषित कर रखा है। यदि सेंट्रल कमेटी का सचिव सरेंडर करता है तो ईनाम की राशि 12 लाख होती है। वहीं सेंट्रल मिलट्री कमिशन प्रमुख के लिए 10 लाख, पोलित ब्यूरो सदस्य के लिए 7 लाख, स्टेट कमेटी सदस्य के लिए 3 लाख, पब्लिकेशन कमेटी के सदस्य के लिए 2 लाख, एरिया कमेटी सचिव के लिए 1.5 लाख, अन्य एरिया कमेटी सचिव के लिए 1 लाख, एलओसी कमांडर को समर्पण पर 50 हजार रुपए की राशि दी जाती है। वर्ष 2004 के बाद मुआवजा राशि नहीं बढ़ाई गई है।
इस बारे में प्रदेश के गृहमंत्री रामसेवक पैकरा कहते हैं कि नक्सलवाद राष्ट्रीय मुद्दा है। इस पर व्यापकता से विचार किए जाने की जरूरत है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि माओवादी हिंसा की काट विकास है। ऐसे में नक्सल प्रभावित सभी राज्यों को मिलबैठकर इस समस्या पर समग्र नीति बनाने की जरुरत है। जिसकी दिशा में काम शुरु हो चुका है। अलग-अलग राज्यों में माओवादियों को लेकर अलग-अलग नीति का होना भी परेशानी को बढ़ाने का ही काम कर रहा है। इसलिए केंद्र में अपनी सरकार आने पर हमारी कोशिश होगी कि नक्सलवाद को लेकर देश में एकीकृत नीति बनाने की दिशा में पहल हो
स्वामी अग्निवेश की राय इस बारे में अलहदा है। वे मानते हैं कि यदि संविधान में उल्लेखित अधिकारों को सही तरीके से आदिवासियों तक पहुंचा दिया जाए तो इस समस्या का हल बगैर किसी कसरत के निकल आएगा। यदि नक्सल प्रभावित इलाकों में शांति चाहिए तो सबसे पहले जेलों में बंद निरपराध आदिवासियों को छोड़ना होगा। दूसरा ये कि पांचवी और छटी अनुसूची को लेकर जल्द निर्णय लेना होगा। ग्राम सभाओं को अधिकार देने होंगे। लेकिन दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ सरकार ने ऐसे कई मौके गवाएं हैं। जब वो आगे बढ़कर इस समस्या का जड़ से समाधान कर सकती थी। फिलहाल भी भाजपा की ऐसी कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखती
नक्सलियों की रिहाई के लिए बनाई गई उच्च स्तरीय समिति की अध्यक्ष निर्मला बुच कहती हैं कि हमने करीब 150 सिफारिशें की हैं। जिनमें जमानत के वक्त राज्य सरकार किसी प्रकार की आपत्ति नहीं लेगी। हमारी समिति की सिफारिश के कारण कई नक्सलियों को जमानत भी मिली है। हमने नक्सलियों के सभी मामलों की समीक्षा की है। हम लगातार बैठक कर रहे हैं। चुनाव शुरु होने के पहले भी हमने बैठक ली थी। चुनाव खत्म होते ही हमारी एक बैठक होनी है। निर्मला बुच मध्यप्रदेश की मुख्य सचिव भी रह चुकी हैं। वर्ष 2012 में नक्सलियों ने तत्कालीन सुकमा कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन को अगवा कर लिया था। उन्हें छोड़ने के बदले नक्सलियों ने जेलों में बंद अपने साथियों की रिहाई मांगी थी। नक्सलियों की रिहाई की मांग पर बुच की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति बनाई थी। इसमें राज्य के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह और डीजीपी को सदस्य बनाया गया था। निर्मला बुच सरकार की तरफ से नक्सलियों से मध्यस्थों से बात भी कर रही थीं।

बहरहाल, राय सबकी अपनी-अपनी हो सकती है। लेकिन सवाल ये है कि माओवादियों को लेकर देश की एकीकृत नीति क्या हो, जिससे उन्हें मुख्य धारा में जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। इस दिशा में छत्तीसगढ़ ने देर से सही, लेकिन कदम को बढ़ा दिए हैं, लेकिन लगता है कि देश में भी नक्सल नीति को लेकर बड़े परिवर्तन होने का समय आ गया है। 

बुधवार, 7 मई 2014

मोदी के क्षत्रप “अबकी बार मोदी सरकार”... टीवी पर हर पांच मिनट में आने वाला ये विज्ञापन उन उम्मीदवारों के पेट में गुदगुदी पैदा कर रहा है...जो भाजपा की टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। ये वे उम्मीदवार हैं, जो मोदी को प्रधानमंत्री बनता देखना पसंद करें या ना करें, लेकिन खुद कैबिनेट मंत्री बनने को आतुर हैं। इन्हें लगता है कि यदि National Democratic Alliance (NDA) की सरकार बनती है तो इन्हें जरूर नवाज़ा जाएगा। अकेले देश के हद्यस्थल मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में 9 उम्मीदवार ऐसे हैं, जो यदि जीतते हैं और “मोदी सरकार” आ जाती है तो, इनका मंत्री बनना तय माना जा रहा है। साथ ही मध्यप्रदेश के तीन राज्यसभा सासंद भी आस लगाए बैठे हैं कि उनके “अच्छे दिन आने वाले हैं”। भाजपा कार्यकर्ताओं की मानें तो देश में मोदी लहर है। इस जुमले से इस बात का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि 2004 से केंद्र की सत्ता से बाहर बैठी भाजपा (साथ ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) सरकार बनाने के लिए बेकरार है और इसके तारणहार केंद्रीय मंत्रीमंडल में स्थान पाने के लिए। भाजपा अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा नरेंद्र दामोदर भाई मोदी के रूप में कर चुकी है। 16 मई को चुनाव परीणाम आने के बाद सरकार बनाने की स्थिति में मंत्रिमंडल का बाकी स्वरूप भी तय किया जाएगा। लेकिन उसके पहले ही मंत्रिमंडल में जगह पाने वालों की कसरत शुरु हो चुकी है। राज्यों में तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं और चुनाव नतीज़े आने के पहले ही मजबूत प्रोफाइल वाले उम्मीदवार मुंगेली लाल के हसीन सपनों में खो चुके हैं। लेकिन वास्तव में उनके सपने हकीकत में भी बदल सकते हैं, क्योंकि इनमें से कई नेताओं के पास पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से ज्यादा अनुभव तो है ही, साथ ही वे सालों-साल से अपने-अपने इलाके के अजेय क्षत्रप भी बने हुए हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के क्षत्रपों में ये भावना इसलिए भी बलवती है क्योंकि जब भाजपा उत्तर भारत में कमजोर पड़ रही थी और दक्षिण में जमीन तलाश रही थी, तब मध्प्रदेश और छत्तीसगढ़ के क्षत्रपों ने पार्टी को निराश नहीं किया। यहां के मतदाताओं ने भी भाजपा पर विश्वास रखते हुए ना केवल राज्यों में उसकी सरकारें बनाईं, बल्कि लगातार लोकसभा में भी पार्टी के प्रत्याशियों को जीताकर भेजती रही। इसकी नतीजा ये रहा है कि चाहे मप्र हो या छग, दोनों ही प्रदेशों के भाजपा नेताओं का लोकसभा पहुंचने का सिलसिला जारी रहा। सुमित्रा महाजन (इंदौर सीट से लगातार 7 बार सासंद), रमेश बैस (रायपुर सीट लगातार 6 बार सासंद), सत्यानारायण जटिया (उज्जैन सीट लगातार 7 बार सासंद, फिलहाल राज्यसभा सदस्य), सुषमा स्वराज (तीन बार राज्यसभा और तीन बार लोकसभा सदस्य), नंदकुमार चौहान (खंडवा लोकसभा सीट से 4 बार सासंद), विष्णुदेव साय (रायगढ़ लोकसभा सीट से लगातार तीन बार सासंद), थावरचंद गेहलोत (चार बार सासंद, फिलहाल राज्यसभा सदस्य), पांच बार कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा पहुंच चुके और अब भाजपा नेता दिलीप सिंह भूरिया, सरोज पांडे (भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष) कुछ ऐसे ही नाम हैं। जिनका मोदी मंत्रिमंडल में जगह पाना तय माना जा रहा है। राष्ट्रीय स्वयं संघ की चली तो भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और मध्यप्रदेश से राज्यसभा सासंद प्रभात झा भी मंत्रिमंडल को सुशोभित कर सकते हैं। आखिर क्या वजह है कि ये नेता अपने अच्छे दिनों के प्रति आश्वस्त नज़र आ रहे हैं। ये समझने के लिए इनके राजनीतिक करियर पर नज़र डालनी जरूरी है। 1989 से लगातार भाजपा को जीत दिला रही सुमित्रा महाजन “ताई” 8वीं बार फिर इंदौर लोकसभा सीट से किस्मत आजमा रही हैं। वे केवल दावा ही नहीं कर रहीं, बल्कि उन्हें पूरा यकीन हैं कि वे इस बार भी जरूर जीतेंगी। “ताई” के इस दावे के पीछे कभी होल्कर स्टेट कहलाने वाले इंदौर के वो साढ़े तीन लाख मराठी मतदाता हैं, जो हर चुनाव में केवल और केवल “ताई” के लिए वोट करते आए हैं। इंदौर लोकसभा सीट के कुल 21 लाख मतदाताओं में ये साढ़े तीन लाख मराठी मत जादुई असर दिखाते हैं, क्योंकि वो शत-प्रतिशत पड़ते हैं। यही सुमित्रा महाजन की जीत का मूलमंत्र भी है। यही कारण है कि सुमित्रा महाजन कभी अपने निकटतम प्रतिद्वंदी को 11 हजार 480 वोट (सत्यनारायण पटेल, वर्ष 2009) से हराती हैं तो कभीं 1 लाख 93 हजार 936 वोट (रामेश्वर पटेल, वर्ष 2004) से। 1989 तक इंदौर सीट कांग्रेस का सुरक्षित गढ़ हुआ करती थी। महाजन ने अपने पहले चुनाव में अपराजेय कहलाने वाले दिग्गज कांग्रेस नेता प्रकाशचंद्र सेठी को 1 लाख 11 हजार 614 मतों से हराया था। सेठी इंदिरा गांधी सरकार में देश के गृह मंत्री रह चुके थे। महाजन बाजपेयी सरकार में केंद्रीय राज्य मंत्री मानव संसाधन विकास, संचार और सूचना प्रोद्योगिकी मंत्री रह चुकीं हैं। अब ताई यदि जीतती हैं तो हो सकता है कि देश की अगली लोकसभा अध्यक्ष फिर महिला ही हो। छत्तीसगढ़ की रायपुर लोकसभा सीट से 1989 में देश की नौंवी लोकसभा में पहुंचे रमेश बैस भी राजग सरकार में 1998 से 2004 में केंद्रीय राज्य मंत्री बने। उनके पास सूचना और प्रसारण, खनन, वन एवं पर्यावरण, steel and mines, जैसे महत्वपूर्ण विभाग रहे। बैस सातवीं बार चुनाव मैदान में हैं और अपनी जीत तय मानकर चल रहे हैं। भाजपा सूत्रों पर यकीन करें तो लोकसभा में पार्टी के मुख्य सचेतक की भूमिका निभा चुके रमेश बैस का वरिष्ठता के आधार पर कैबिनेट मंत्री बनना लगभग तय है। रमेश बैस तहलका से कहते हैं कि “मेरी जीत तो 101 फीसदी तय है। लेकिन एनडीए सरकार में मंत्री पद मिलेगा या नहीं, ये तो मोदी जी तय करेंगे। लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूं कि देश की जनता बदलाव चाहती है”। पंद्रहवीं लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष रही सुषमा स्वराज विदिशा सीट से दूसरी बार और लोकसभा चुनाव में चौथी बार किस्मत आजमा रही हैं। सुषमा मध्यप्रदेश कोटे से ही केंद्रीय मंत्रिमंडल को सुशोभित करेंगी। वरिष्ठता के आधार पर सुषमा स्वराज को मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिलना तय है। उनके सामने कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह को मैदान में उतारा है। भाजपा सुषमा की जीत के लिए पूरी जोर फूंक चुकी है। खुद सुषमा का दावा है कि वे इस बार चार लाख से ज्यादा मतों से चुनाव जीतेंगी। भाजपा के लिए सुरक्षित सीट का दर्जा पा चुकी विदिशा सीट इस लिए भी चर्चित है क्योंकि यहां से 1991 में अटलबिहारी बाजपेयी भी चुनाव लड़ चुके हैं। खुद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी यहां से चार बार लोकसभा सासंद रह चुके हैं। वर्ष 1996 में पहली बार लोकसभा पहुंचने वाले नंदकुमार चौहान चार बार खंडवा सीट जीत चुके हैं। कभी निमाड़ अंचल में आने वाली खरगौन और खंडवा सीटों पर कांग्रेस नेता सुभाष यादव का अच्छा खासा प्रभाव हुआ करता था। यादव के इस प्रभाव को खत्म कर चौहान ने खंडवा सीट भाजपा की झोली में डाली। 2009 में कांग्रेस की टिकट पर अरुण यादव ने नंदकुमार चौहान को पराजित कर दिया था। अब एक बार फिर नंदकुमार चौहान को सुभाष यादव के बेटे और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण यादव चुनौती दे रहे हैं। यदि चौहान उन्हें हराकर अपनी गंवाई हुई सीट जीत लेते हैं तो उनके नंबर बढ़ने की पूरी संभावना है। छत्तीसगढ़ भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष विष्णुदेव साय भी मोदी मंत्रिमंडल की शोभा बढ़ा सकते हैं। वे छत्तीसगढ़ में पार्टी का आदिवासी चेहरा हैं। इसी आदिवासी कोटे की बदौलत उनके मंत्रिमंडल में शामिल होने की संभावना जताई जा रही है। वे लगातार तीन बार से रायगढ़ सीट से सांसद हैं। 2008 में इन्हीं के नेतृत्व में राज्य में भाजपा की दूसरी बार सरकार बनने का श्रेय भी दिया जाता है। जिस रायगढ़ लोकसभा सीट से 1999 विष्णुदेव साय जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचे। यहीं से 1998 में अजीत जोगी ने अपने राजनीतिक जीवन का पहला चुनाव लड़ा था, जिसमें भाजपा के दिग्गज नेता नंदकुमार साय को हार का सामना करना पड़ा था। तहलका से बात करते हुए विष्णुदेव साय कहते हैं कि “1999 के पहले रायगढ़ सीट कांग्रेसियों की पहली पसंद हुआ करती थी। लेकिन हमने यहां से कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। इतना तो तय है कि मोदी जी की सरकार बनेगी। लेकिन उनके मंत्रिमंडल की शोभा कौन बढ़ाएगा, ये तो वे ही तय करेंगे”। मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष नरेंद्र तोमर भी इस दौड़ में शामिल हैं। 2009 में ग्वालियर सीट से लोकसभा पहुंचने वाले तोमर दोबारा अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। पार्टी तोमर को 2009 में राज्यसभा भेजकर भी नवाज चुकी है। लेकिन कुछ महीनों बाद ही उन्हें ग्वालियर सीट से लोकसभा का टिकट दे दिया गया। सिंधिया राजघराने के सदस्यों ने इस सीट पर सात बार जीत दर्ज की है। भाजपा नेता राजमाता विजियाराजे सिंधिया ने एक बार, उनके बेटे और कांग्रेस नेता रहे माधवराव सिंधिया ने चार बार और उनकी बहन भाजपा नेता यशोधरा राजे सिंधिया ने दो बार इस सीट से लोकसभा चुनाव जीता है। इससे साबित होता है कि ग्वालियर सीट पर सिंधिया परिवार का जबर्दस्त प्रभाव रहा है। इसी सीट से अटल बिहारी बाजपेयी ने 1971 में जीत हासिल की तो 1984 में माधवराव सिंधिया से हार बैठे। यदि तोमर दूसरी बार इस हाईप्रोफाइल सीट को फतह करने में कामयाब होते हैं तो उन्हें इसका ईनाम मिल सकता है। इस बारे में नरेंद्र सिंह तोमर कहते हैं कि “मोदी लहर देश में परिवर्तन लाएगी। अपने बारे में मैं क्या कहूं। लेकिन हमारे प्रदेश से कई वरिष्ठ लोगों को प्रतिनिधित्व का मौका मिलेगा”। कभी मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में कांग्रेस का परचम लहराने वाले दिलीप सिंह भूरिया अब भाजपा का झंडा बुलंद किए हुए हैं। प्रदेश की रतलाम-झाबुआ सीट से भाजपा के उम्मीदवार भूरिया यदि जीत हासिल करते हैं तो इन्हें भी आदिवासी कोटे से केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान मिल सकता है। कांग्रेस का गढ़ मानी जाने वाली इस सीट पर पिछले 15 सालों से पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया का कब्जा है। दिलीप सिंह को कांतिलाल भूरिया का राजनीतिक गुरु भी माना जाता है। लेकिन पिछले चुनाव में दिलीप सिंह ने कांतिलाल के हाथों ही 57668 वोटों से हार गए थे। बावजूद इसके भाजपा ने एक बार फिर उनपर दांव खेला है। एक ही समय में महापौर, विधायक और सासंद रहकर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज करवाने वाली भाजपा नेत्री सरोज पांडे भी महिला कोटे से केंद्रीय सरकार मे भूमिका पा सकती हैं। सरोज पांडे अभी भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। 2009 में जब वे लोकसभा सांसद बनी, तब वे वैशालीनगर सीट से विधायक भी थीं और दुर्ग नगर निगम की महापौर भी। लगातार सफलताएं हासिल करने के कारण भाजपा के आला नेताओं की पंसद बनकर भी उभरी हैं। इसका फायदा उन्हें मिल सकता है। इसी तरह तीसरी बार सतना सीट से भाग्य आजमा रहे गणेश सिंह भी वरिष्ठता के आधार पर केंद्रीय मंत्री बन सकते हैं। गणेश सिंह 2004 और 2009 में सतना सीट से भाजपा की टिकट पर जीत दर्ज कर चुके हैं। ऐसा नहीं है कि केवल लोकसभा चुनाव के उम्मीदवार ही मोदी से आशा लगाए हुए हैं। बल्कि मध्यप्रदेश से आने वाले तीन राज्यसभा सांसदों को भी नरेंद्र दामोदर भाई मोदी से बहुत उम्मीदे हैं। इनमें सबसे पहले नाम आता है प्रभात झा का। झा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पहली पसंद के रूप में मंत्रियों की फेहरिस्त में सबसे ऊपर रखे जाएंगे। 2008 और 2014 में मध्यप्रदेश से राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं। मध्यप्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा चुके झा फिलहाल भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित उज्जैन सीट को भाजपा का अभेद गढ़ बनाने वाले सत्यनारायण जटिया फिलहाल राज्यसभा सदस्य हैं। 1980 में पहली बार लोकसभा पहुंचने वाले जटिया सात बार उज्जैन सीट से जीतकर सांसद बन चुके हैं। ऐसे में वरिष्ठता के आधार पर वे सबसे मजबूत दावेदार हैं। जटिया बाजपेयी सरकार में 1998 से 2004 तक केंद्रीय श्रम, शहरी विकास और गरीबी उन्मूलन, सामाजिक न्याय मंत्री रह चुके हैं। इसके बाद नंबर आता है थावरचंद गेहलोत का। 1996 में लोकसभा सासंद बनने के पहले वे तीन बार मध्यप्रदेश में विधायक और कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं। चार बार शाजापुर सीट से जीत हासिल कर चुके गेहलोत की चली तो उन्हें भी एक बार केंद्रीय राजनीति में चमकने का मौका मिल सकता है। हालांकि 2004 में सत्ता में आई यूपीए सरकार ने मंत्रियों के मामले में मप्र और छत्तीसगढ़ को निराश ही किया। इसके पहले कार्यकाल में जहां मध्यप्रदेश को कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के रूप में दो मंत्री मिले। वहीं दूसरे कार्यकाल में कुछ समय के लिए अरुण यादव को केंद्रीय राज्य मंत्री बनाकर इस संख्या को तीन कर दिया गया था। जबकि UPA के पहले कार्यकाल में छत्तीसगढ़ की झोली खाली रखी गई, वहीं दूसरे कार्यकाल में चरणदास मंहत के रूप में एक केंद्रीय राज्य मंत्री दिया गया। लेकिन अब अगर एनडीए सरकार आती है, तो दोनों सूबों को मिलने वाले मंत्रियों की संख्या दुगुनी या तिगुनी हो सकती है।