शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

ब्राह्मण ‘पारा’



छत्तीसगढ़ के गठन का आधार भले ही आदिवासी जनसंख्या रही हो। लेकिन प्रदेश का नेतृत्व हमेशा ब्राह्मणों के हाथ में रहा है। इन दिनों भी प्रदेश के दो अहम राजनीतिक दलों, भाजपा और कांग्रेस में संगठन स्तर पर ब्राह्मण नेताओं का ही कब्जा है। सही मायने में दोनों ही दल ब्राह्मणपारा बने हुए हैं।

जनजातीय आबादी की बहुलता के कारण आदिवासी प्रदेश कहलाने वाला छत्तीसगढ़ इन दिनों विशेष प्रकार के संक्रमण काल से गुजर रहा है। ये संक्रमण काल प्रदेश की राजनीति के लिए तो है ही, साथ ही उस 32 फीसदी आदीवासी आबादी के लिए भी है, जिसके कारण और जिसके लिए अलग छत्तीसगढ़ प्रदेश का नारा बुलंद हुआ था। गोंड, हलबा, भतरा, उरांव, सांवरा, बिंझवार, भूमिया, बैगा, अगरिया, भैना, धनवार, कोरवा, नगेशिया, कमार जैसी जनजातियों के लिए पहजाने जाने वाले छत्तीसगढ़ के राजनीति दलों में कभी इन्हें प्रमुख नेतृत्व नहीं मिल पाया। देश की पांच अत्यंत दुर्लभ या यूं कहें अत्यधिक पिछड़ी जनजातियां अबूझमाडिया, कमार, पहाड़ी कोरवा, बिरहोर और बैगा भी यहीं पाई जाती हैं। लेकिन इनकी सुध लेने के लिए कभी इनके बीच का कोई अबूझमाडिया या बैगा इनका नेता नहीं बन पाया। बल्कि इन दिनों तो छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस जैसी दो बड़ी राजनीतिक पार्टियों में ब्राह्मणों को ही पद देने की होड़ मची हुई है। ये बात भी सही है कि एकीकृत मध्यप्रदेश के जमाने से ही छत्तीसगढ़ में ब्राह्मण नेताओं का बोलबाला रहा है। लेकिन जब अलग प्रदेश की नींव रखी गई तो ये समझा जाने लगा कि यहां की पिछड़ी जनजातियों को एक मौका मिलेगा। लेकिन राजनीतिक दलों के दफ्तर ब्राह्मण पारा में तब्दील हो गए। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ब्राह्मणपारा नामक एक इलाका है। कभी इस ब्राह्मण बहुल इलाके से प्रदेश की राजनीति संचालित होती थी। आज भी होती है। ब्राह्मण पारा से बड़े-बड़े नेता निकले हैं। (पाड़ा मूलतः बंगाली भाषा का शब्द है..जो बाद में अपभ्रंश होकर पारा बना, पारा का मतलब मोहल्ला, इलाका या क्षेत्र होता है। रायपुर में कई पारा है, जो जाति, वर्ग या काम के हिसाब से जाने जाते हैं।)
बहरहाल बात प्रदेश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों की। भाजपा और कांग्रेस दोनों में ही अभी संगठन के अहम पदों पर ज्यादातर ब्राह्मण नेता काबिज है। प्रदेश में ब्राह्मणों का प्रतिशत आदिवासी और पिछड़ी जातियों के बाद आता है। ऐसे में आदिवासी और पिछड़े वर्ग के नेताओं में असंतोष के स्वर उभरने लगे हैं। भाजपा में तो भले ही खुलकर ये विरोध सामने ना आ रहा हो, लेकिन कांग्रेस में तो ब्राह्मण नेताओं का खुलेआम विरोध शुरु भी हो गया है। कई नेताओं ने पार्टी के बड़े नेताओं के सामने अपना गुस्सा जाहिर किया है। पिछले दिनों कांग्रेस में एक बेनामी पर्चा भी बांटा गया, जिसमें पार्टी में बढ़ते ब्राह्मणवाद को लेकर गुस्सा जताया गया था। विरोध भी स्वाभाविक है क्योंकि आदिवासी जनसंख्या के आधार पर बने छत्तीसगढ़ में हमेशा से ही ब्राह्मणों का नेतृत्व रहा है। इसमें दिलचस्प बात ये है कि छत्तीसगढ़ मूलतः आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) बहुल प्रदेश है। अनुसूचित जाति (कुल आबादी का 11.60 प्रतिशत) और जनजाति (कुल आबादी का 32 फीसदी) के आंकडों को मिला लिया जाए तो 43.60 प्रतिशत बनता है। आदिवासी जनजातियां 16 जिलों को प्रभावित करती है। अभी छग में कुल 27 जिले हैं। छत्तीसगढ़ की कुल 42 जनजातियों को 161 उपसमूहों में बांटा गया है। दूसरे स्थान पर अन्य पिछड़ा वर्ग जैसे साहू, कुर्मी जैसी जातियां आती हैं। सतनामी समाज का प्रतिशत (13%) भी अच्छा है। इन सभी से तुलना करें तो प्रदेश में सवर्ण जातियों, विशेष तौर पर ब्राह्मणों का प्रतिशत (5%) बेहम कम है। लेकिन बावजूद इसके राजनीतिक दलों में ब्राह्मणों के पास अधिक जिम्मेदारियां हैं।
ऐसा भी नहीं है कि छत्तीसगढ़ की राजनीति में ब्राह्मणों का वर्चस्व रातोंरात बढ़ गया है। अविभाजित मध्यप्रदेश में भी छत्तीसगढ़ से पांच लोग मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन उनमें से चार नेता ब्राह्मण ही थे। इनमें पं रविशंकर शुक्ल(1956), पं द्वारिका प्रसाद मिश्र(1963 से 1967) ,पं. श्यामाचरण शुक्ल(1969से1972, 1975 से 1977 और 1989 से 1990) और मोतीलाल वोरा(1985 से 1988 और 1989) शामिल हैं। केवल राजा नरेशचंद्र सिंह (1969) एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जो गैर ब्राह्मण थे। लेकिन ये तब की बात थी, जब छत्तीसगढ़ का निर्माण नहीं हुआ था।
वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व भाजपा नेता वीरेंद्र पांडे इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते। वे कहते हैं, राजनीतिक पार्टियां ब्राह्मणों के केवल शोभा बढ़ाने वाले पदों पर ही रखती हैं। उन्हें केवल वहां मौका दिया जाता, जहां वे लोगों को प्रभावित नहीं करते। सगंठन में अधिक जिम्मेदारी देने के पीछे केवल एक मकसद होता है कि ब्राह्मण अधिक ईमानदारी और समर्पित भाव से काम करते हैं। वैसे भी आप देंखे तो प्रदेश में ब्राह्मणों का वर्चस्व बढ़ा नहीं घटा है।
ये तो सर्वमान्य तथ्य है कि चुनाव भले ही कोई सा भी हो, जातिगत समीकरण बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यही कारण है कि विधानसभा चुनाव पास आते ही ब्राह्मणों के नेतृत्व को लेकर दूसरी जातियों में अंसतोष के स्वर उभरने लगे हैं। इस वक्त प्रदेश में विधानसभा चुनाव की 90 सीटों में से अनुसूचित जाति के लिए 10 और अनुसूचित जनजाति के लिए 29 सीटें आरक्षित हैं। प्रदेश के कुल 146 विकासखंड में से 85 विकासखंड आदिवासी हैं। ऐसे में प्रदेश (कहीं-कहीं जिले स्तर पर भी) स्तर पर संगठन में ब्राह्मणों के कब्जे से दूसरी जातियों में नाराजगी बढ़ती ही जा रही है। अगर भाजपा और कांग्रेस पर एक नज़र डाले तों उनकी प्रदेश संगठन के पदों में 30 से 35 प्रतिशत ब्राह्मणों का कब्जा है। कांग्रेस ने तो  अपने प्रवक्ताओं के 10 पदों में से आधे यानि 5 पद ब्राह्मणों को दे दिए हैं। कांग्रेस के 37 प्रदेश सचिवों में 11 सचिव ब्राह्मण हैं। स्थाई आमंत्रित सदस्यों में भी 11 में चार पर ब्राह्मण ही आसीन हैं। विशेष आमंत्रित में 23 में से 2 और मॉनिटरिंग कमेटी में भी 13 में से 3 पर वे ही हैं। राजधानी रायपु में ग्रामीण और शहर अध्यक्ष दोनों के पद ब्राह्मण नेताओं को दे दिए गए हैं। पंकज शर्मा रायपुर ग्रामीण अध्यक्ष हैं और विकास उपाध्याय, शहर अध्यक्ष रायपुर बनाए गए हैं। महत्वपूर्ण सेल भी में अधिकांश पर ब्राह्मणों का ही वर्चस्व है। सुरेंद्र शर्मा विचार विभाग के अध्यक्ष हैं तो डॉ शिवनारायण द्विवेदी, चिकित्सक प्रकोष्ठ संभाल रहे हैं। ललित मिश्रा को लोक समस्या निवारण सेल का अध्य़क्ष बनाया गया है। वहीं दिनेश शर्मा, पंचायती राज सेल देख रहे हैं। समीर पांडे, आईटी सेल प्रमुख हैं। वहीं उच्च स्तरीय समन्वय समिति के पांच पदों में से तीन पर ब्राह्मणों के पास हैं। इसी तरह भाजपा में निगम मंडलों में ब्राह्मण नेताओं की नियुक्ति की गई है। अशोक शर्मा, अध्यक्ष पाठ्यपुस्तक निगम के अध्यक्ष हैं। बद्रीधर दीवान को अध्यक्ष औद्योगिक विकास निगम का अध्यक्ष, नारायण तिवारी को अध्यक्ष भारतीय मजदूर श्रम कल्याण मंडल, अरुण चौबे को अध्यक्ष श्रम कल्याण मंडल और प्रमोद भट्ट को उपाध्यक्ष श्रम कल्याण मंडल बनाया गया है। प्रदेश कार्यसमिति में 103 में 12 ब्राह्मणों को स्थान मिला है। तो स्थाई आमंत्रित में 21 में से 3 और विशेष आमंत्रित में 53 में छह ब्राह्मण हैं। यहां भी रायपुर के ग्रामीण और नगर, दोनों के अध्यक्ष ब्राह्मण ही बना दिए गए हैं। बलराम तिवारी को अध्यक्ष जिला रायपुर ग्रामीण तो अशोक पांडे को जिला अध्यक्ष बनाया गया है। रायपुर ग्रामीण के महामंत्री पद को भी सुनील मिश्रा सुशोभित कर रहे हैं। हालांकि ये भी है कि ब्राह्मणवाद में कांग्रेस भाजपा से एक कदम आगे चल रही है। इसका कारण ये भी है कि शुरु से ही ब्राहमण वर्ग कांग्रेस के प्रति आकर्षित रहा है।
   अब अगर इस ब्राह्मणपारा को लेकर दूसरी जातियों का गुस्सा समय रहते नहीं दूर किया गया तो दोनों ही पार्टियों के लिए मुसीबतें तो बढ़ेंगी, साथ ही सभी जातियों को अपनी छतरी के नीचे लाने की उनकी योजना भी खटाई में पड़ जाएगा।

अब एक नज़र उन जिलों पर, जहां अनुसूचित जनजातियां अधिक प्रतिशत में मौजूद हैं।
कोरिया 44.4%
सरगुजा 54.4%
जशपुर 63.2%
रायगढ़ 35.4%
कोरबा 41.5%
जांजगीर चांपा 11.6%
बिलासपुर 19.9%
कवर्धा20.9%
राजनांदगांव26.6%
दुर्ग12.4%
रायपुर12.1%
महासमुंद27%
धमतरी26.3%
कांकेर56.1%
बस्तर66.3%
दंतेवाड़ा78.5%

2 टिप्‍पणियां:

girish pankaj ने कहा…

ज़बरदस्त। बेहद सूचनापरक भी। बधाई

priyankakhat ने कहा…

आभार सर