मंगलवार, 29 सितंबर 2015

हमें क्या चाहिए समानता या पूरकता?





वर्तमान में लैंगिक समानता, नारी मुक्ति आंदोलन, महिला सशक्तिकरण जैसे कई जुमले आम हो गए हैं। वर्ष 1848 से पश्चिम में उत्पन्न हुआ सिनेका फाल्स डिक्लयरेशन अपने नए रंग रूप के साथ 90 के दशक से होता हुआ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है। पश्चिमी विद्वानों के साथ-साथ एशियाई विचारक भी मानते हैं कि विश्व में 1848 से लेकर 2015 तक नारीवाद की चार लहरें प्रवाहित हुईं। इसका केंद्र पश्चिम ही था, जहां स्त्रियों की स्थिति अत्यधिक दयनीय थी। उन्हें न तो मतदान का अधिकार था, न ही समाज में सम्मान प्राप्त करने का। शायद इसलिए भी कि पश्चिम में आस्था का केंद्र बने धर्मग्रंथ बाइबिल में यह कहा गया है कि मैं कहता हूं कि स्त्री न उपदेश करे और न ही पुरुष पर आज्ञा चलाए, परंतु चुपचाप रहे, क्योंकि आदम पहले, उसके बाद हव्वा बनाई गई और आदम बहकाया न गया, पर स्त्री बहकने में आकर अपराधिनी हुई (नया नियम, 1-तीमुथियुस 2/12-15)। पश्चिम की धरती पर शुरू हुए इस तथाकथित नारी मुक्ति आंदोलन के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1975 में कई प्रस्ताव पारित किए और इस वर्ष को महिला वर्ष घोषित किया एवं अगले दस वर्षों (1975 से 1985 तक) में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए कई प्रयास किए।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी इन आंदोलन को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं हुईं। जो आज तक अनवरत् जारी हैं। लेकिन हम लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाए हैं, उल्टे भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष लैंगिक अनुपात किन्हीं-किन्हीं राज्यों में खतरे के निशान पर पहुंच गया है, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा बढ़ गई, बलात्कार जैसी वीभत्स और निंदनीय घटनाओं की पुनरावृत्ति आम बात हो गई है। तो आखिर हमसे कहां भूल हो गई कि महिलाएं अपना सम्मान खोने के लिए विवश हैं। दरअसल हम पश्चिम के आंदोलन को, उनके कारणों, स्थिति और दशा को समझे बगैर ही अपने समाज में लागू करने की कोशिश करते रहे हैं। हमारे भारतीय परिप्रेक्ष्य में, या यूं कहें कि वैश्विक परिवेश में भी लैंगिक समानता शब्द ही गलत है। जबकि यह लैंगिक पूरकता होना चाहिए। हम कैसा समाज चाहते हैं, हमें इस पर विचार करना ही होगा। लेकिन इसके साथ-साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि हम अपनी गौरवशाली संस्कृति और परंपराओं को विस्मृत कर भविष्य के बारे में कैसे सोच पाएंगे। स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे के समान नहीं, वरन् एक-दूसरे का पूरक बनना है। लैंगिक समानता की अवधारणा ही गलत है, क्योंकि इससे परस्पर प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, एक-दूसरे के प्रति सम्मान में कमी आती है। कौन श्रेष्ठ है, कौन नहीं ऐसे शोध शुरु हो जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि स्त्री और पुरूष की पूरकता की बात की जाए। हम एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं, समान नहीं क्योंकि स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बगैर स्त्री परिवार, कुनबा, कुटुम्ब, समाज, राज्य, राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। जैसे स्वयं शिव भी शक्ति के बगैर अधूरे हैं, सीता के बगैर राम का कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता, बिना राधा कृष्ण की भक्ति की ही नहीं जा सकती ठीक वैसे ही बगैर नारी के कोई भी पुरुष ना तो इस दुनिया में आ ही सकता है ना पोषित पल्लिवत होकर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। हमें इन तथाकथित स्त्री मुक्ति आंदोलन की जरूरत भी नहीं है क्योंकि हम जानते हैं कि भारत में महिलाओं का स्थान शक्तिशाली रहा है। ऋग्वेद काल में भी महिलाओं को सम्मानित स्थान प्राप्त था। वैदिक साहित्य में ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि स्त्रियों को अध्यात्मिक पथ चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। वेदकाल में 36 ऋषिकाएं मिलती हैं। गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा, कात्यायनी इसका ही उदाहरण है। हमारे यहां मनुस्मृति में, श्रीमद्भागवत गीता में, स्कंद पुराण में, अत्रिसंहिता में, रामचरित मानस में और यहां तक कि सभी वेदों, पुराणों, उपनिषदों में बार-बार यह उल्लेख मिलता है कि इस देश में स्त्री हमेशा ही पुरुषों से अग्रणी रही है, क्योंकि भारतीय समाज यह अच्छी तरह जानता है कि बगैर नारी के संसार का सृजन ही संभव नहीं है। वह दादी है, नानी है, माता है, बहन है, पुत्री है, पत्नी है और न जाने कितने आवश्यक संबंधों में हम उसे पाते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि - उपाध्यायादन्शाचार्य आचार्यणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवातिरिच्यते।। अर्थात् दस उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य, सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता और सहस्त्र पिताओं की अपेक्षा माता का गौरव अधिक है। सभी गुरुजनों में माता को परम गुरु माना गया है। गुरूणां चैव सर्वेषां माता परमको गुरुः। यह भी कहा गया है किप्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता।। यानि मनुष्य जिस क्रिया से माता को प्रसन्न कर लेता है, उस क्रिया से सम्पूर्ण पृथ्वी का पूजन हो जाता है।
जबकि पाश्चात्य परम्पराओं का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वहां के जीवन में अपेक्षाकृत नारी का स्थान नीचा रखा गया है। यूनान और रोम का सामाजिक-राजनीतिक दर्शन तो स्पष्ट तौर पर नारी विरोधी रहा है। अरस्तु यूनान में 324 ईसा पूर्व से 384 ई.पू. तक रहा। करीब पंद्रह सौ वर्षों तक उसके विचारों को स्वीकार किया जाता रहा। अरस्तु की नजर में प्रजनन में नारी का कोई योगदान नहीं था। उसने जोर देकर कहा कि नारी स्वतंत्रता तथा राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने योग्य नहीं है। इसे सिद्ध करने के लिए तर्क दिए गए कि ईश्वर तथा समाज की महानता के सामने नारी तुच्छ है। एच.जी.वैल्स की दी आउट लाइन ऑफ हिस्ट्री तथा मैकमिलन पब्लिशिंग की 1921 न्यूयार्क नाम पुस्तक में यह सामने आता है कि यह विचार रोम के लोगों को प्रभावित करने लगा और मध्यकाल तक संपूर्ण यूरोप में फैल गया। थामस एक्यिनस नामक साधु ने अरस्तु के विचारों को इक्कीस भागों में पेश किया और प्रचारित किया। जब समय बीतने के साथ-साथ पश्चिमी देशों में स्त्रियों को आदर-सम्मान नहीं मिल सका तो उन्होंने विद्रोह का रास्ता अपनाया। नारी ने अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पाने के लिए संघर्ष किया। लेकिन समय के साथ यही नारी स्वतंत्रता का आंदोलन लैंगिक संघर्ष में बदल गया। यह आंदोलन नारी के अधिकारों का भले ही समर्थक रहा हो, लेकिन नारी को सम्मान कभी नहीं दिला सका। स्त्री पुरूष के इस संघर्ष ने सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को ही बिगाड़ कर रख दिया। परीणामस्वरूप अत्याधुनिक अमेरिका में स्त्री-पुरुषों में खाई बढ़ गई। इसका परिणाम हुआ कि 41 फीसदी बच्चे अविवाहित माताओं से पैदा हुए। उनमें भी आधे किशोरी कन्याओं से जन्मे। 1955 में केवल 55 फीसदी पति पत्नी घर में एक साथ रहते थे। 2010 तक आते-आते यह संख्या 48 फीसदी रह गई। 12 फीसदी अकेली महिलाएं और 15 फीसदी अकेले पुरुषों के परिवार हो गए हैं। 11 फीसदी से अधिक अमेरिकी युगल लिव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। करीब 60 फीसदी अमेरिकन स्त्री पुरुष विवाह ही नहीं करते। यही कारण था कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने विवाह कानून में सुधार के लिए 2012 में कानून बनाया। फादरलेस अमेरिका जैसे शीर्षक वाली किताबें बाजार में आईं। इंग्लैंड की स्थिति तो इससे भी बुरी है। यहां 47 फीसदी बच्चे अविवाहित लड़कियों की संताने हैं। बाइबिल इन इंडिया: हिंदू ऑरिजिन ऑफ हबर्रेस एंड क्रिश्चियन रेवेलेशन में फ्रेंच लेखक लुइस जेकोलियर कहते हैं कि भारत में एक ऐसी उच्च स्तर की सभ्यता रही है, जो पाश्चात्य सभ्यता से कहीं अधिक प्राचीन है, जिसमें नारी को पुरूष के समान समझा जाता है और परिवार तथा समाज में समान स्थान दिया जाता है
कुल मिलाकर हमें फिर से इस प्रश्न पर विचार करना होगा कि हम अपने पुरातन गौरव की तरफ लौटना चाहते हैं या अंधेरी कोठरी में दीवारों से सर टकराना चाहते हैं। हमारे सामने समस्याएं भी हैं तो समाधान भी। बस हमें नए सिरे से समस्याओं और समाधान पर विचार करना होगा। पश्चिम के पास तो समाधान ही नहीं है, हमें तो उसके लिए भी निवारण का प्रबंध करना है। यह हमारी ही जिम्मेदारी है, क्योंकि भारत को विश्व गुरू की संज्ञा ऐसे ही नहीं दे दी गई है। अंत में इतना ही, मां की ममता, नेह बहन का और पत्नी का धीर हूं
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं...
युद्ध का साहस, शिव की शक्ति और काली रणवीर हूं..
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं...


भारतीय परिवार:सृदृढ़ अर्थशास्त्र का मॉडल




क्या आप यह जानते हैं कि 2008 जैसी वैश्विक मंदी का असर भारत में क्यों नजर नहीं आया, जबकि इस मंदी ने अमेरिका जैसे देश की कमर को तोड़कर रख दी थी? मंदी के चलते नौकरियां भारतीयों ने भी खोई, लेकिन क्यों भारतीय अर्थव्यवस्था का ढांचा नहीं चरमराया? क्यों  नौकरी खोने के बाद भी भारतीय युवा अवसाद की उन गहरी खाई में जाने से बच गए, जिसने अमेरिका सहित यूरोप के तमाम देशों के युवाओं को दिशाहीन बना दिया था? क्यों आज भारतीय बच्चे अमेरिका में अमेरिकी बच्चों को पीछे छोड़ते हुए सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं?
इस सभी प्रश्नों का उत्तर केवल एक शब्द है परिवार। जी हां, भारतीय परिवारों ने अपने युवाओं, अपने देश, अपने समाज को वैश्विक आर्थिक मंदी से बचाए भी रखा और देश की प्रगति योगदान दिया। प्रेमयुक्त पारिवारिक वातारण का ही असर है कि आज विश्व में भारतीय प्रतिभा अपना लोहा मनवा रही है। कुछ समय पूर्व अमेरिका में जब इस बात का कारण ढूंढा गया कि क्यों अमेरिका में पढ़ रहे भारतीय बच्चे हर क्षेत्र में अव्वल आ रहे हैं। वे अमेरिकी बच्चों को कहीं पीछे छोड़कर हर उपलब्धि अपने नाम कर रहे हैं, तो जो उत्तर सामने आया, वह अमेरिकियों के लिए चौंकाने वाला था। दरअसल भारतीय मूल के बच्चों का पढ़ाई के साथ हर क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन के पीछे का एक कारण उनका परिवार भी था। भारतीय बच्चों को पता होता है कि जब वे स्कूल से घर जाएंगे तो उनके माता-पिता उन्हें प्यार देने के लिए उपलब्ध होंगे। जबकि अमेरिकी बच्चों का एक तनाव यह भी है कि जब वे घर पहुंचेंगे तो पता नहीं उनकी मां या पिता दोनों एक साथ घर में मिलेंगे या नहीं। कहीं आज पिता किसी नई मां से, या मां किसी नए व्यक्ति का परिचय पिता के रूप में तो नहीं कराएंगे। टूटते परिवार के अवसाद में अमेरिकी बच्चों की प्रतिभा प्रभावित हो रही है। यही कारण है कि वर्तमान में अमेरिका में 123 फैमिली रिसर्च इंस्टीट्यूट हैं। जो अमेरिकी परिवार व्यवस्था को सुधारने के उपाय खोजने में लगे हुए हैं।
लेकिन सच तो यह है कि रिसर्च इंस्टीट्यूट में शोध करने से कोई विशेष लाभ नहीं मिलने वाला, बल्कि अमेरिका समेत पश्चिम के अन्य देशों को परिवार व्यवस्था को भारतीय संदर्भ में समझना होगा। एक तमिल कहावत है-अन्नायुम, पिथावुम, मुभारि देवम् अर्थात् माता-पिता सर्वप्रथम ज्ञात देवता हैं। भारतीय मान्यताओं में मृत्यु के पश्चात् भी माता-पिता से संबंध भंग नहीं होता। मृत्यु के बाद वे पूर्वज बन जाते हैं और पुत्र-पौत्र अपने पूर्वजों के प्रति श्राद्ध करते हैं। कहने का आशय यह कि भारतीय संदर्भ में किसी भी संबंध में दायित्वबोध का भाव रहता है। जबकि पाश्चात्य संस्कृति में अधिकारों की बात पहले की जाती है। हमारे यहां संबंध परस्पर कर्त्तव्यपूर्ति पर निर्भर करता है। माता-पिता का संतान के प्रति, संतान का माता-पिता के प्रति। कर्त्तव्यों के बोध में अतिथि और प्रकृति भी शामिल है। जबकि पाश्चात्य दृष्टिकोण कर्त्तव्यों के निर्वहन से ज्यादा अधिकारों की प्राप्ति में विश्वास रखता है। माता-पिता के अधिकार, बच्चों के अधिकार, जानवरों के अधिकार इत्यादि। यही कारण है कि अमेरिका में 51 प्रतिशत गृहस्थी में केवल माता या पिता ही मुखिया होता है, क्योंकि उनका संबंध विच्छेद हो चुका होता है। केवल 20 फीसदी अमेरिकी परिवारों में माता-पिता व बच्चे साथ-साथ रहते हैं। बीबीसी के ताजा सर्वे के मुताबिक अमेरिका और इंग्लैंड में प्रति तीन में से एक व्यक्ति अकेला रहता है। 28 फीसदी दंपत्ति संतानहीन रहते हैं। 55 फीसदी अमेरिकियों का अपने पहले विवाह के बाद संबंध विच्छेद हो जाता है। फिर वे नया जीवनसाथी तलाशते हैं। लेकिन दूसरे विवाह के भी स्थायी रहने की कोई गांरटी नहीं होती यही कारण है कि 67 फीसदी अमेरिकी अपने दूसरे विवाह के बाद भी संबंध विच्छेद कर लेते हैं।
परिवारों के टूटने के कारण लोग अधिक स्वार्थी हो गए हैं। लोग दायित्वहीन और अपव्ययी जीवनशैली के कारण अपने परिवार का ही नहीं, बल्कि देश का आर्थिक ढांचा ही तोड़ बैठे हैं। 1960 में अमेरिका की बचत राष्ट्रीय बचत की 80 फीसदी थी। जबकि 2006 आते-आते इसका प्रतिशत बिलकुल उलट हो गया। परिवारों पर ऋण भार बढ़ गया। इसी कारण 2008 में वैश्विक आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ। आज अमेरिकी परिवार, जो कभी 120 करोड़ क्रेडिट कार्ड रखते थे, वे अब तीन ट्रिलियन डॉलर या 180 लाख करोड़ के ऋण से दबे हैं।
जबकि भारतीय परिवारों में गृहणियां बचत में न केवल बड़ी भूमिका निभाती हैं, बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों को बचत के लिए प्रोत्साहित भी करती हैं। घरों में छोटे बच्चों के गुल्लक लाना बचत की सीख का ही परिणाम होता है। देश में उदारवाद के पहले तैयार की गई भगवती रिपोर्ट भी कहती है कि भारतीय महिलाएं कंजूसहोती हैं। (रिपोर्ट में STINGY शब्द का उपयोग किया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ कंजूस होता है)। उनकी छोटी बचत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में बड़ा रोल निभाती है। देश के विकास परिवारों में हो रही छोटी-छोटी बचत का बड़ा महत्व होता है। परिवारों की बचत का ही परिणाम था कि भारत में आर्थिक मंदी की छाया नहीं पड़ी, क्योंकि हमारी गृहलक्ष्मी केवल नाम की नहीं, बल्कि असल में लक्ष्मी का कर्त्तव्य निभाती हैं। हमारे राष्ट्र में परिवार सबसे मजबूत इकाई के रूप में कार्य कर रहा है। इसलिए हमें अपनी परिवार व्यवस्था पर गर्व करना चाहिए और यथासंभव परिवार में प्रेम बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील भी रहना चाहिए।



क्यों जरूरी है जाति मुक्त भारत!




मंगलवार को देश के कई अखबारों की सुर्खियां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का रूपनगर में दिया गया संबोधन रहा, जिसमें डॉ भागवत ने कहा कि भारत एक जाति मुक्त राष्ट्र होना चाहिए। संघ के स्वयंसेवकों की एक शाखा को संबोधित करते हुए डॉ भागवत ने कहा कि जातीय भेदभाव के कारण राष्ट्र को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं। जातीय भेदभाव देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है, जिसके परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं। संघ प्रमुख के इस व्यक्त्व्य को समझने के लिए हमें भारत के उन अनन्य महापुरुषों के विचारों को, चिंतन को, मनन को, अतुलनीय राष्ट्र प्रेम को समझना होगा,जो जीवनपर्यंत केवल और केवल अपने देश, समाज, राष्ट्र, बंधु-बांधवों की उत्तरोत्तर उन्नति के लिए प्रयास करते रहे। अपने विचार, आचार और व्यवहार से आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर गए।
तं वर्ष भारतं नाम भारती यत्र संततिः।। अर्थात् हम सभी हिंदू बंधु-बांधव हैं। हमारी जाति भी एक है, क्योंकि हममें समान पूर्वजों का ही रक्त संचारित होता है, हम सभी भारतीय संतति हैं। हमारे पौराणिक श्लोकों में भी आर्य शब्द का तात्पर्य उन सभी लोगों से है, जो सिंधु नदी के इस पार एक जाति के अविभाज्य अंग बने थे। वैदिक-अवैदिक, ब्राह्मण-चांडाल सभी का इसमें समावेश था। उन सभी की एक ही जाति थी, एक ही संस्कृति थी और एक ही देश था। वीर विनायक दामोदर सावरकर लिखते हैं कि हम सभी रक्त की समानता के बंधनों से एकता के सूत्र में आबद्ध हैं। हम एक राष्ट्रमात्र ही नहीं अपितु एक जाति भी हैं। सावरकर इसे कुछ ऐसे समझाते हैं कि जाति शब्द का मूल जन धातु से आरोपित है, जिसका अर्थ है जनता और इसका अर्थ है भातृसंघ। एक ही धातु से उद्भूत हुई जाति की नसों में समान रक्त का संचार होता और यह शब्द इसी का बोधक है। सभी हिंदुओं की नसों में उसी शक्तिशाली जाति का पावन रक्त प्रवाहित हो रहा है, जिसका उद्भव उन वैदिक पूर्वजों अर्थात् सिंधुओं से हुआ है।
वैदिक काल से लेकर अब तक ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जो यह बताते हैं कि हिंदू समाज वर्ण व्यवस्था में जरूर विश्वास करता था, लेकिन जाति मुक्त था। महर्षि पाराशर ब्राह्ण थे किंतु एक धीवर कन्या पर आसक्त हुए। इन्हीं दोनों की संतान के रूप में उत्पन्न हुए महर्षि वेदव्यास। महाभारत काल के कर्ण, घटोत्कच, विदुर सरीखे अति विशिष्ट व उल्लेखनीय पुरुषों की जन्म कहानियां कुछ इसी तरह की हैं। सम्राट चंद्रगुप्त ने एक ब्राह्मण कन्या से विवाह कर जो पुत्र उत्पन्न किया, वे वही बिंदुसार थे, जिन्होंने अशोक जैसे महाप्रतापी राजा को जन्म दिया। स्वयं अशोक ने एक वैश्यपुत्री को अपनी पत्नी बनाया। सम्राट हर्षवर्धन स्वयं वैश्य थे, लेकिन उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह एक क्षत्रिय से किया। व्याघकर्मा एक व्याघ के पुत्र थे, लेकिन उनकी माता ब्राह्मण कन्या थी। आगे चलकर व्याघकर्मा महाराज विक्रमादित्य के यज्ञ आचार्य की पदवी पर अधिष्ठित हुए। सावरकर कहते हैं किशुद्रो ब्राह्मण-तामेति ब्रह्मणाश्चेति शुद्रताम् अर्थात् यह भी संभव है कि किसी जाति विशेष में जन्म ग्रहण करने वाला व्यक्ति अपने सद्कार्य या दुष्कर्मों की वजह से किसी अन्य जाति में शामिल हो जाए।
स्वामी विवेकानंद भी कहते हैं कि हम सब की संस्कृति, पूर्वज, राष्ट्र सब कुछ एक है। आर्य, द्रविड, तमिल सभी हिंदू हैं। अतऋ वर्ष विद्वेष की आग भड़काने में अपनी शक्ति व्यय मत करो। समस्त हिंदुओं का आह्वान करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि यह मत भूलो कि तुम्हारा जन्म व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं है। भूलो मत कि ये शूद्रवर्ण, अज्ञानी, निरक्षर, गरीब, यह मछुआरा, यह भंगी, ये सारे तुम्हारे ही अस्थिमांस के हैं। ये सारे तुम्हारे भाई हैं। अपने हिंदुत्व का अभिमान धारण करो। स्वाभिमान से ये घोषणा करो कि मैं हिंदू हूं, प्रत्येक हिंदू मेरा भाई है। अशिक्षित हिंदू, गरीब और अनाथ हिंदू, ब्राह्मण हूं, अस्पृश्य हिंदू, प्रत्येक हिंदू मेरा भाई है।
हमारे संपूर्ण इतिहास के एक-एक पन्ना यही तथ्य प्रस्तुत करता है कि हमारी नसों में एक ही पावन रक्त प्रवाहित हो रहा है। हम सब आपस में न केवल बंधुत्व के भाव से बंधे हुए हैं, बल्कि हमारा गौरवशाली इतिहास भी हमें एक सूत्र में बांधता है। हममें से कोई एकेश्वरवादी है कोई अनेकेश्वरवादी, कोई आस्तिक हो, कोई नास्तिक, लेकिन हम सभी हिंदू हैं। जो रक्त भगवान राम और कृष्ण, बुद्ध और महावीर में, नानक और चैतन्य में, रोहीदास और तिरुवेल्लकर की धमनियों में प्रवाहित होता रहा है, वहीं हममें भी प्रवाहित हो रहा है। हम जन्म से ही सहोदर हैं।  हम एक ही जाति के हैं और यह जाति रक्त की समानता के बंधन में आबद्ध है। यह जाति अखंड है, अविभाज्य है और यही सत्य भी है। आज के परिप्रेक्ष्य में भी आवश्यक है कि हम अपनी ऊर्जा, अपने ज्ञान, अपने पौरुष का उपयोग देश की तरक्की के लिए करें। एक-दूसरे के ज्ञान के सहारे आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उज्जवल भविष्य का निर्माण करें।
कबीरदास भी गए हैं कि जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान

मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।

सोमवार, 28 सितंबर 2015

उठो और जागो





स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी एक घटना है, जब स्वामी जी अमेरिका में थे। एक दिन वे नदी किनारे बैठे थे कि उनकी नजर कुछ बच्चों पर गई। वे बच्चे नदी में बहने वाली चीजों पर निशाना लगा रहे थे। बहती हुई चीजों पर निशाना लगाना कठिन था। स्वामी जी उन बच्चों के पास गए और उनकी एयरगन लेकर निशाना शुरु किया। वे सारे बच्चे आश्चर्यचकित रह गए क्योंकि विवेकानंद जी द्वारा लगाए गए सभी निशाने अचूक रहे। सभी बच्चों ने स्वामी जी से पूछा कि आपके सभी निशाने सही कैसे रहे? स्वामी जी ने जबाव दिया कि कोई भी काम करो तो पूरा ध्यान उसी पर लगाओ, ऐसा करोगे तो अवश्य ही सफल होगे।
स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी इस घटना में सफलता के वे गुणसूत्र छिपे हैं, जिन्हें हम साधारणतः नजरअंदाज कर देते हैं। आज के युवा जीवन में पाना तो बहुत कुछ चाहते हैं, लेकिन वे दिग्भ्रमित हैं। कैरियर की मृगमरीचिका उन्हें रोज नए-नए लालच देकर भटका रही है। कभी उनका लक्ष्य बड़ा पद पाना होता है तो कभी बहुत अधिक धन कमाना। उपरोक्त दोनों ही लक्ष्य बुरे नहीं है, लेकिन इन्हें पाने के लिए शार्टकट रास्ता अपनाकर कई युवा गलत रास्ते अख्तियार कर लेते हैं। ऐसे में युवाओं को स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा लेनी चाहिए। स्वामी जी ने अपने भाषणों, अपने लेखों में युवाओं के चरित्रवान होने पर बल दिया है। उन्होंने युवाओं के लिए मुख्तयः 10 बिंदुओं पर जोर दिया है। विवेकानंद जी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं कि अपने आप पर विश्वास रखो। सकारात्मक विचार अपनाओ। आत्मनिर्भर बनो। त्याग और सेवा के दायित्व को मत भूलो। निस्वार्थता ही सफलता लाएगी। दुर्बलता ही मृत्यु है। वीर बनो। आदर्श को पकड़े रहो। मुक्त बनो। बढ़े चलो। देश की तरुणाई को स्वामी जी ने कठोपनिषद् के इस सूत्र के आधार पर ही दिव्य संदेश दिया था कि उत्तिष्ठ!जाग्रत!प्राप्य वरान्निबोधत-उठो, जागो और बोध प्राप्त करो।
विवेकानंद जी के प्रेरणादायी विचारों ने असंख्य नौजवानों के जीवन में ऊर्जा का संचार किया। सेना में सेवा दे रहे और अपनी परिस्थितियों से ऊब चुके ऐसे ही एक नवयुवक ने आत्महत्या करके अपने जीवन का समाप्त करने का फैसला कर लिया, लेकिन उसके भाग्य को शायद कुछ और ही मंजूर था। वह एक बुक स्टॉल पर जा पहुंचा। वहां उसे विवेकानंद के विचारों पर आधारित एक पुस्तक मिली। बुरी तरह निराश, आत्महत्या का मन बना चुके युवक ने जब स्वामी विवेकानंद के विचारों को पढ़ा तो उसके जीवन की दिशा ही बदल गई। उसने न केवल स्वयं का जीवन सुधारा, अपने परिवार का कल्याण किया वरन् देश और समाज के लिए भी आदर्श बनकर उभरा। यह युवक कोई और नहीं अण्णा हजारे हैं, जिन्हें आज हिंदुस्थान का बच्चा-बच्चा जानता है।
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि अपने आप पर विश्वास न करने वाला नास्तिक है। हमने अपनी क्षमताओं की परीक्षा किए बिना ही उसको सीमित कर दिया है। जबकि हमारी क्षमताएं असीम हैं। किसी भी प्रकार के कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति कोई छोटा या नीचा काम करता है, वह केवल इसी कारण ऊंचा काम करने वाले से छोटा या हीन नहीं हो जाता। मनुष्य की परख उसके काम से नहीं वरन उसके कर्त्तव्य पालन के तरीके से होनी चाहिए। मनुष्य की सच्ची पहचान तो उसके अपने कर्त्तव्यों को करने की उसकी शक्ति और शैली में होती है।
स्वामी जी ने केवल यह विचार भर नहीं दिए हैं, बल्कि खुद एक-एक शिक्षा पर अमल कर दिखाया है। वर्ष 1893 में शिकागो में हुई जिस धर्मसंसद ने स्वामी विवेकानंद को विश्वविख्यात बनाया, उस धर्मसंसद में भाग लेना स्वामी जी के लिए इतना आसान भी नहीं था। न तो उनके पास लंबी समुद्र यात्रा कर शिकागो जाने के लिए धन था, न ही धर्मसंसद में बोलने की कोई अनुमति ही थी। उनके दृढ़ निश्चय, अथक परिश्रम और अटूट लगन का नतीजा था कि वे न केवल कनाडा होते हुए शिकागो पहुंचे, बल्कि धर्मसंसद में अपने दिव्य उद्बोधन से विश्व को वसुधैव कुटुम्बकम की राह भी दिखाई।    

शनिवार, 26 सितंबर 2015

महिषासुरों का विधवा विलाप

वर्ष 2012 में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेनयू) में वामपंथी छात्र संगठनों ने महिषासुर को भारत के आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों का पूर्वज बताते हुए शरद पूर्णिमा को उनकी शहादत मनाने की घोषणा की थी। इस संबंध में कैंपस में लगे पोस्टर्स को लेकर विवाद हुआ था। महिषासुर को महिमामंडित करने को लेकर कैंपस के छात्र संगठनों में तनाव का माहौल भी बना था। 
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार असुरों के राजा महिषासुर का देवी दुर्गा द्वारा वध किया गया था। लेकिन वामपंथी फोरम से जुड़े स्टूडेंट्स मानते हैं कि महिषासुर देश के जनजातीय, दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के पूर्वज थे, जिन्हें देवी की मदद से आर्यों ने मारा था। वे अपने इस पूर्वज की शहादत मनाने के लिए एक अभियान चलाना चाहते हैं।
असल में वामपंथी जिन जनजातीय, दलित और पिछड़ी जातियों के हवाले से महिषासुर दिवस मनाना चाहते थे, वे सभी मां दुर्गा के उपासक हैं, महिषासुर को कभी किसी हिंदु ने महिमामंडित नहीं किया, चाहे वो झारखंड या छत्तीसगढ़ का वनवासी हो या महाराष्ट्र और बिहार का दलित हो। इनके कंधे पर बंदूक रखना तो केवल वामपंथियो की एक चाल मात्र थी, सही मायनों में वर्ष 1966 में अपनी स्थापना से लेकर अब तक जेएनयू को वामपंथी रंग में रगने वाले खुद उस महिषासुर के वंशज हैं, जो केवल विनाश, हाहाकार, रक्तपात और आसुरी गतिविधियों में आस्था रखते हैं। जिनका उद्देश्य केवल और केवल विखंडन है, निर्माता की भूमिका तो वे सपने में भी नहीं निभा सकते। वे आज भी उसी महिषासुर का अनुसरण कर रहे हैं, जो उनके क्रियाकलापों और सोच से झलकता है। खैर,  इनसे अपेक्षा भी क्या की जा सकती है।
लेकिन इन दिनों फिर महिषासुरों का विधवा विलाप सुनाई दे रहा है। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति पद की पेशकश किए जाने की खबरों पर विश्वविद्यालय के छात्र संघ ने स्वामी को प्रतिगामी सोच वाला व्यक्तिबताते हुए इस तरह की किसी भी कोशिश का पूरी ताकत से विरोध करने की चेतावनी दी है। जबकि स्वामी की प्रस्तावित नियुक्ति की खबर अभी पुष्ट भी नहीं है। जेएनयूएसयू ने कहा कि उसने प्रमुख संस्थानों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों की पिछले दरवाजे से नियुक्तियों की मौजूदा सरकार की कोशिशों के खिलाफ लगातार अपनी आवाज उठाई है। ‘‘स्वामी हों या अन्य कोई प्रतिगामी सोच वाला व्यक्ति हो, छात्र समुदाय पूरी ताकत से जेएनयू के भगवाकरण के किसी प्रयास का विरोध करेगा। अब जेएनयू को लालगढ़ बनाए बैठ इन वामपंथियों को कौन समझाए कि जिस भगवाकरण की ये बात कर रहे हैं, उस पर तो जेएनयू के विद्यार्थियों ने मुहर लगा दी है। हाल ही में हुए जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने 14 बाद सेंट्रल पैनल में एक सीट दर्ज की है। जेएनयू में ABVP का चुनाव संचालन कर रह अभिषेक श्रीवास्तव कहते हैं कि यह जीत कैंपस में वामपंथी संगठनों द्वारा देशी विरोधी कामों का नतीजा है। जेएनयू में याकूब और अफजल को श्रद्धांजलि दी जाती है, वहीं एपीजे अब्दुल कलाम को गाली दी जाती है। नक्सलवाद का समर्थन किया जाता है। कश्मीर को अलग करने की बात की जाती है। यहां वामपंथियों के इन सब देश विरोधी कामों के कारण हम जीते हैं।
छात्रसंघ में दूसरे पदों पर यदि आईसा या किसी अन्य वामपंथी संगठन के विद्यार्थी जीत भी गए तो उनकी जीत का अंतर एबीवीपी से महज कुछ मतों का था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जेएनयू के विद्यार्थी आईसा या जेएनयूएसयू जैसे वामपंथी संगठनों की तथाकथित प्रगतिशील सोच से दूर होना चाहते हैं। वामपंथियों की इसी कथित प्रगतिशील सोच का नतीजा है कि पिछल कुछ सालों से कैंपस में यौन शोषण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इन मामलों को लेकर जेएनयू शर्मसार भी हुआ है।
रही बा सुब्रमण्यहम स्वामी की नियुक्ति की, तो वो पिछले दरवाजे से हो रही होती तो इन्हें विधवा विलाप करने का अवसर भी नहीं मिल पाता। लेकिन स्वामी की नियुक्ति नियमों के तहत हो भी जाती है तो भी वामपंथियों के पेट में दर्द स्वाभाविक रूप से उठता रहेगा। दरअसल वर्षों से जेएनयू संदिग्ध गतिविधियों के थिंक टैंक के रूप में कुख्यात रहा है। वामपंथी संगठन विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों का ब्रेन वॉश करते रहे  हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय के सर्वोच्च पद पर किसी राष्ट्रवादी व्यक्ति की नियुक्ति पचा पाना इनके लिए आसान भी नहीं है।
देश के बहुसंख्यक समाज की आस्था पर यह वामपंथी किस तरह कुठाराघात करते हैं, यह लालगढ़ में संयुक्त सचिव के पद पर जीत हासिल करने वाले ABVP के सौरभ शर्मा के अनुभव से बखूबी झलकता है। सौरभ बताते हैं कि जब 2012 में यहां एमटेक करने आया तो यहां कम्युनिस्टों की हरकतें देख झेंप गया। कल तक मैं घर पर जिन दुर्गा मां की पूजा किया करता था, जो मेरी आस्था की केंद्र हैं, उन्हें जेएनयू में संगठन विशेष के लोग अपशब्द कह रहे हैं। अरे भाई, आप अपनी राजनीति करो, पर किसी की आस्था का मजाक तो न उड़ाओ। पर वो नहीं माने, जिसके बाद मैंने उनको उन्ही की भाषा में जवाब देना शुरू किया। दबे-कुचले बच्चों को प्रोत्साहित किया। फिर मुझे एबीवीपी से बेहतर राष्ट्रवादी संगठन नहीं मिला, जो हमारे संस्कारों की इज्जत करता। तो हम एबीवीपी संग हो लिए और 4 सालों से लगातार छात्रों के लिए काम करते रहे

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

भारत पर आईएस की कुदृष्टि


अबू धाबी से 11 संदिग्ध भारतीय युवाओं का वापिस भारत भेजा जाना किसी बड़े खतरे की तरफ संकेत कर रहा है। कथित तौर पर यह युवा इस्लामिक स्टेट में भरती होने जा रहे थे। इस घटना के बाद हमारा यह मुगालता तो जरूर दूर हो गया होगा कि भारतीय मुसलमाल अतिवादी नहीं है। फेसबुक जैसी सोशल साइट्स के जरिए आईएस के झांसे में फंस रहे भारतीय मुस्लिम युवा विध्वंसकारी कट्टरपंथ की तरफ अग्रसर हो रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर में पिछले कुछ अरसे से हर सप्ताह शुक्रवार को नमाज के बाद रैली निकाली जा रही है और इस दौरान इस्लामिक स्टेट के झंडे लहराए जा रहे हैं। इन झंडों पर “ISJK” लिखा होता है। जम्मू कश्मीर में बेधड़क होती इन गतिविधियों से केंद्र सरकार के कान खड़े होना लाजिमी हैं। यही कारण है कि अबू धाबी में 11 संदिग्ध भारतीय युवाओं पर समय रहते सुरक्षा एजेंसियों की नजर में आ गए और इन्हें वापसी का रास्ता दिखाया गया। अब राष्ट्रीय सुरक्षा एंजेसियों की नजर उन राज्यों पर है, जहां किसी न किसी प्रकार की आतंकी गतिविधियां हुई हैं। सरकार इस बात को लेकर भी सजग है कि कहीं आईएस देश में अपना स्लीपर सेल ना विकसित कर ले। लेकिन चिंता यहीं खत्म नहीं हो जाती है क्योंकि देश में केरल, हैदराबाद, बेंगलुरु, जम्मू कश्मीर से जिस तरह की सूचनाएं मिल रही है, उससे यही लग रहा है कि कम संख्या में सही लेकिन यहां के युवा आईएस में भरती होने के लिए उतावले हो रहे हैं। कुछ समय पूर्व आईएस ने एक वीडियो भी जारी किया था, जिसमें भारत में अपने विस्तार का ऐलान किया था।
सीरिया और इराक में अपना मजबूत तंत्र स्थापित करने के बाद आईएस ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में भी बेस तैयार कर चुका है। अब पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश जैसे दक्षिण एशियाई देश जहां मुस्लिमों की संख्या अच्छी-खासी है, इस्लामिक स्टेट की नजर में है। आईएस इन देशों पर भी खलीफा का राज स्थापित करना चाहता है।
सूचना प्रोद्योगिकी और तकनीक का इस्तेमाल आंतकियों ने हथियार की तरह किया है। हम इसे रोक तो नहीं सकते। लेकिन अब हमारे सामने सबसे बड़ा संकट निगरानी का है। लेकिन हम सतर्क जरूर रह सकते हैं। जब देश में 80 करोड़ लोगों का आधार कार्ड बनाया जा सकता है, तो हम ऐसी ही किसी योजना के जरिए आईएस जैसे विध्वंसकारी संगठनों की गतिविधियों में निगरानी भी रख सकते हैं। लेकिन इसके लिए वैकल्पिक तकनीकी सिस्टम विकसित करना होगा। हमें सतर्क रहने की और सतत निगरानी की जरूरत है। यूएई, बहरीन और कुवैत जैसे देश भी भारत की तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। हमें डरने की जरूरत नहीं है, लेकिन हम हालात को बेकाबू भी नहीं होने दे सकते। इसलिए समय रहते ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता जरूर है।


आयरलैंड, मोदी और सावरकर




आयरलैंड पहुंचे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत संस्कृत के श्लोक से हुआ। आयरिश बच्चों के मुंह से संस्कृत श्लोक सुनने के बाद मोदी की पहली टिप्पणी थी कि अगर भारत में ऐसा होता तो सेकुलरिज्म पर सवाल उठ जाता। प्रधानमंत्री की टिप्पणी पर कांग्रेस को आपत्ति है और उसके नेता मनीष तिवारी कहते हैं कि मोदी की ये चुटकी कांग्रेस पर बल्कि भारत पर है
सबसे पहली बात तो यह कि, हां यह सच है कि यह टिप्पणी भारत पर ही है, तो इसमें गलत क्या है। कांग्रेस के मनीष तिवारी जी और कांग्रेस यह समझ नहीं पा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी ने जो बात संस्कृत को लेकर आयरलैंड की सरजमीं पर कही हैं, उनके मायने कितने गहरे हैं। आज जिस संस्कृत को पूरा विश्व एक वैज्ञानिक भाषा के तौर पर स्वीकार कर चुका है, उसे कांग्रेस के इंडिया,दैट इज़ भारतमें हम धर्म विशेष से जोड़कर देखते हैं। हमने कभी अपनी विरासतों पर गर्व नहीं किया। उल्टे जवाहरलाल नेहरू जैसे कुछ लोग सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते रहे कि वे अपने धर्म, संस्कृति और परंपराओं को लेकर शर्मिंदा होते हैं। कांग्रेस सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों की जासूसी करवाती रही और उन्हें जीते-जी मार दिया गया। दूसरी बात यह कि, अपनी विरासत पर गर्व करना सीखना हो तो आयरलैंड से सीखा जा सकता है।
आयरलैंड ने भी भारत की तरह लंबे संघर्ष के बाद अंग्रेजों से पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र को प्राप्त किया था, लेकिन उसने कभी उन वीरों को नहीं भुलाया, जिनकी बदौलत वे इस मंजिल तक पहुंचे थे। उस देश ने अपनी विधानसभाओं के पार्श्वभाग की दीर्घाओं में अपने क्रांतिकारी संघर्ष की पूरी कहानी चित्रित करवाई ताकि उनकी स्मृति हर क्षण बनी रहे। साथ ही क्रांति की गाथाएं प्रेरणा देती रहे। आयरलैंड ने कभी अपनी क्रांति को हिंसा कहकर परिभाषित नहीं किया, जैसा कि दुर्भाग्यजनक रूप से तथाकथित नरमपंथियों ने हिंदुस्थान में किया। 15 वर्ष की आयु में अपनी कुलदेवी भगवती दुर्गा के समक्ष स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने का संकल्प लेने वाले वीर विनायक दामोदर सावरकर ने वर्ष 1928 में कहा था कि हमारे बंगलों में थोड़ा बहुत स्वार्थ त्याग करने वाले लोगों की तस्वीरें मिल जाएंगी, किंतु न तो कान्हेरे की तस्वीर मिलेगी न वैद्य की मिलेगी। हिंदुस्तान के हित के लिए दुनिया भर में फैले कितने ही देशभक्तों के एक पन्ने का चरित्र भी उपलब्ध नहीं है
1928 में कही गई सावरकर की बात सत्य ही तो साबित हो रही है, आज हम देश को स्वतंत्र करवाने वाले कितने वीरों को जानते हैं, केवल उंगलियों में गिने जा सकने वाले नाम ही हमें पता हैं, देश पर न्यौछावर हो जाने वाले असंख्य क्रांतिकारियों के नाम तो हम तक पहुंच ही नहीं पाए। खुद सावरकर ने अभिनव भारत नाम की छोटी सी क्रांतिकारी टोली के माध्यम से मां भारती को परतंत्रता से मुक्ति दिलाने का लंबा अभियान चलाया। अभिनव भारत ने देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी ब्रितानिया हुकूमत की जड़ों को हिलाकर रख दिया। महान राष्ट्रभक्त श्याम जी वर्मा, भाई परमानंद, लाला हरदयाल,निरंजन पाल, ज्ञानचंद्र वर्मा, मदनलाल धींगरा, श्रीराम राजू, विष्ण गणेश पिंगले, शचींद्रनाथ सान्याल, जितेंद्रनाथ, मैडम कामा जैसे अनगिनत नाम गुमनामी के अंधेरे में खो गए। उन्होंने कभी खुद को महिमा मंडित भी नहीं किया। उनका तो एकमात्र उद्देश्य राष्ट्र की निस्वार्थ सेवा करना था। उसे परतंत्रता की बेडियों से स्वतंत्र कराना था।
यह सावरकर का ही निस्वार्थ संकल्प था कि मातृभूमि की स्वतंत्रता के बाद, अंग्रेजो के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का लक्ष्य प्राप्त करने के बाद, वर्ष 1958 में पूना में आयोजित एक विशेष समारोह में अभिनव भारत संस्था का विसर्जन कर दिया गया। स्वार्थ जैसा शब्द उनके शब्दकोश में ही नहीं था, यही कारण था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अभिनव भारत संस्था को विसर्जित कर दिया गया। नहीं तो देश में ऐसे भी उदाहरण है कि आजादी के पूर्व बनी संस्थाएं कालांतर-प्रकारातंर में देश की राजनीतिक पार्टी के रूप में परिवर्तित हो गई और परिवार विशेष के राजनीतिक स्वार्थपूर्ति का साधन बनी।

प्रियंका कौशल
स्वतंत्र पत्रकार
9303144657


गुरुवार, 17 सितंबर 2015




हमें क्या चाहिए समानता या पूरकता?

वर्तमान में लैंगिक समानता, नारी मुक्ति आंदोलन, महिला सशक्तिकरण जैसे कई जुमले आम हो गए हैं। वर्ष 1848 से पश्चिम में उत्पन्न हुआ सिनेका फाल्स डिक्लयरेशन अपने नए रंग रूप के साथ 90 के दशक से होता हुआ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है। पश्चिमी विद्वानों के साथ-साथ एशियाई विचारक भी मानते हैं कि विश्व में 1848 से लेकर 2015 तक नारीवाद की चार लहरें प्रवाहित हुईं। इसका केंद्र पश्चिम ही था, जहां स्त्रियों की स्थिति अत्यधिक दयनीय थी। उन्हें न तो मतदान का अधिकार था, न ही समाज में सम्मान प्राप्त करने का। शायद इसलिए भी कि पश्चिम में आस्था का केंद्र बने धर्मग्रंथ बाइबिल में यह कहा गया है कि मैं कहता हूं कि स्त्री न उपदेश करे और न ही पुरुष पर आज्ञा चलाए, परतुं चुपचाप रहे, क्योंकि आदम पहले, उसके बाद हव्वा बनाई गई और आदम बहकाया न गया, पर स्त्री बहकने में आकर अपराधिनी हुई (नया नियम, 1-तीमुथियुस 2/12-15)। पश्चिम की धरती पर शुरू हुए इस तथाकथित नारी मुक्ति आंदोलन के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1975 में कई प्रस्ताव पारित किए गए और इस वर्ष को महिला वर्ष घोषित किया एवं अगले दस वर्षों (1975 से 1985 तक) में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए कई प्रयास किए।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी इन आंदोलन को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं हुईं। जो आज तक अनवरत् जारी हैं। लेकिन हम लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाए हैं, उल्टे भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष लैंगिक अनुपात किन्हीं-किन्हीं राज्यों में खतरे के निशान पर पहुंच गया है, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा बढ़ गई, बलात्कार जैसी वीभत्स और निंदनीय घटनाओं की पुनरावृत्ति आम बात हो गई है। तो आखिर हमसे कहां भूल हो गई कि महिलाएं अपना सम्मान खोने के लिए विवश हैं। दरअसल हम पश्चिम के आंदोलन को, उनके कारणों, स्थिति और दशा को समझे बगैर ही अपने समाज में लागू करने की कोशिश करते रहे हैं। हमारे भारतीय परिप्रेक्ष्य में, या यूं कहें कि वैश्विक परिवेश में भी लैंगिक समानता शब्द ही गलत है। जबकि यह लैंगिक पूरकता होना चाहिए। हम कैसा समाज चाहते हैं, हमें इस पर विचार करना ही होगा। लेकिन इसके साथ-साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि हम अपनी गौरवशाली संस्कृति और परंपराओं को विस्मृत कर भविष्य के बारे में कैसे सोच पाएंगे। स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे के समान नहीं, वरन् एक-दूसरे का पूरक बनना है। लैंगिक समानता की अवधारणा ही गलत है, क्योंकि इससे परस्पर प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, एक-दूसरे के प्रति सम्मान में कमी आती है। कौन श्रेष्ठ है, कौन नहीं ऐसे शोध शुरु हो जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि स्त्री और पुरूष की पूरकता की बात की जाए। हम एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं, समान नहीं क्योंकि स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बगैर स्त्री परिवार, कुनबा, कुटुम्ब, समाज, राज्य, राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। जैसे स्वयं शिव भी शक्ति के बगैर अधूरे हैं, सीता के बगैर राम का कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता, बिना राधा कृष्ण की भक्ति की ही नहीं जा सकती ठीक वैसे ही बगैर नारी के कोई भी पुरुष ना तो इस दुनिया में आ ही सकता है ना पोषित पल्लिवत होकर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। हमें इन तथाकथित स्त्री मुक्ति आंदोलन की जरूरत भी नहीं है क्योंकि हम जानते हैं कि भारत में महिलाओं का स्थान शक्तिशाली रहा है। ऋग्वेद काल में भी महिलाओं को सम्मानित स्थान प्राप्त था। वैदिक साहित्य में ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि स्त्रियों को अध्यात्मिक पथ चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। वेदकाल में 36 ऋषिकाएं मिलती हैं। गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा, कात्यायनी इसका ही उदाहरण है। हमारे यहां मनुस्मृति में, श्रीमद्भागवत गीता में, स्कंद पुराण में, अत्रिसंहिता में, रामचरित मानस में और यहां तक कि सभी वेदों, पुराणों, उपनिषदों में बार-बार यह उल्लेख मिलता है कि इस देश में स्त्री हमेशा ही पुरुषों से अग्रणी रही है, क्योंकि भारतीय समाज यह अच्छी तरह जानता है कि बगैर नारी के संसार का सृजन ही संभव नहीं है। वह दादी है, नानी है, माता है, बहन है, पुत्री है, पत्नी है और न जाने कितने आवश्यक संबंधों में हम उसे पाते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि - उपाध्यायादन्शाचार्य आचार्यणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवातिरिच्यते।। अर्थात् दस उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य, सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता और सहस्त्र पिताओं की अपेक्षा माता का गौरव अधिक है। सभी गुरुजनों में माता को परम गुरु माना गया है। गुरूणां चैव सर्वेषां माता परमको गुरुः। यह भी कहा गया है किप्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता।। यानि मनुष्य जिस क्रिया से माता को प्रसन्न कर लेता है, उस क्रिया से सम्पूर्ण पृथ्वी का पूजन हो जाता है।
जबकि पाश्चात्य परम्पराओं का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वहां के जीवन में अपेक्षाकृत नारी का स्थान नीचा रखा गया है। यूनान और रोम का सामाजिक-राजनीतिक दर्शन तो स्पष्ट तौर पर नारी विरोधी रहा है। अरस्तु यूनान में 324 ईसा पूर्व से 384 ई.पू. तक रहा। करीब पंद्रह सौ वर्षों तक उसके विचारों को स्वीकार किया जाता रहा। अरस्तु की नजर में प्रजनन में नारी का कोई योगदान नहीं था। उसने जोर देकर कहा कि नारी स्वतंत्रता तथा राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने योग्य नहीं है। इसे सिद्ध करने के लिए तर्क दिए गए कि ईश्वर तथा समाज की महानता के सामने नारी तुच्छ है। एच.जी.वैल्स की दी आउट लाइन ऑफ हिस्ट्री तथा मैकमिलन पब्लिशिंग की 1921 न्यूयार्क नाम पुस्तक में यह सामने आता है कि यह विचार रोम के लोगों को प्रभावित करने लगा और मध्यकाल तक संपूर्ण यूरोप में फैल गया। थामस एक्यिनस नामक साधु ने अरस्तु के विचारों को इक्कीस भागों में पेश किया और प्रचारित किया। जब समय बीतने के साथ-साथ पश्चिमी देशों में स्त्रियों को आदर-सम्मान नहीं मिल सका तो उन्होंने विद्रोह का रास्ता अपनाया। नारी ने अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पाने के लिए संघर्ष किया। लेकिन समय के साथ यही नारी स्वतंत्रता का आंदोलन लैंगिक संघर्ष में बदल गया। यह आंदोलन नारी के अधिकारों का भले ही समर्थक रहा हो, लेकिन नारी को सम्मान कभी नहीं दिला सका। स्त्री पुरूष के इस संघर्ष ने सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को ही बिगाड़ कर रख दिया। परीणामस्वरूप अत्याधुनिक अमेरिका में स्त्री-पुरुषों में खाई बढ़ गई। इसका परिणाम हुआ कि 41 फीसदी बच्चे अविवाहित माताओं से पैदा हुए। उनमें भी आधे किशोरी कन्याओं से जन्मे। 1955 में केवल 55 फीसदी पति पत्नी घर में एक साथ रहते थे। 2010 तक आते-आते यह संख्या 48 फीसदी रह गई। 12 फीसदी अकेली महिलाएं और 15 फीसदी अकेले पुरुषों के परिवार हो गए हैं। 11 फीसदी से अधिक अमेरिकी युगल लिव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। करीब 60 फीसदी अमेरिकन स्त्री पुरुष विवाह ही नहीं करते। यही कारण था कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने विवाह कानून में सुधार के लिए 2012 में कानून बनाया। फादरलेस अमेरिका जैसे शीर्षक वाली किताबें बाजार में आईं। इंग्लैंड की स्थिति तो इससे भी बुरी है। यहां 47 फीसदी बच्चे अविवाहित लड़कियों की संताने हैं। बाइबिल इन इंडिया: हिंदू ऑरिजिन ऑफ हबर्रेस एंड क्रिश्चियन रेवेलेशन में फ्रेंच लेखक लुइस जेकोलियर कहते हैं कि भारत में एक ऐसी उच्च स्तर की सभ्यता रही है, जो पाश्चात्य सभ्यता से कहीं अधिक प्राचीन है, जिसमें नारी को पुरूष के समान समझा जाता है और परिवार तथा समाज में समान स्थान दिया जाता है
कुल मिलाकर हमें फिर से इस प्रश्न पर विचार करना होगा कि हम अपने पुरातन गौरव की तरफ लौटना चाहते हैं या अंधेरी कोठरी में दीवारों से सर टकराना चाहते हैं। हमारे सामने समस्याएं भी हैं तो समाधान भी। बस हमें नए सिरे से समस्याओं और समाधान पर विचार करना होगा। पश्चिम के पास तो समाधान ही नहीं है, हमें तो उसके लिए भी निवारण का प्रबंध करना है। यह हमारी ही जिम्मेदारी है, क्योंकि भारत को विश्व गुरू की संज्ञा ऐसे ही नहीं दे दी गई है। अंत में इतना ही, मां की ममता, नेह बहन का और पत्नी का धीर हूं
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं...
युद्ध का साहस, शिव की शक्ति और काली रणवीर हूं..
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं...




प्रियंका कौशल
स्वतंत्र पत्रकार
रायपुर, छत्तीसगढ़।
09303144657
09893399988
Kaushal_priya11@rediffmail.com
priyankajournlist@gmail.com
priyankakakhat@blogspot.com