शनिवार, 26 सितंबर 2015

महिषासुरों का विधवा विलाप

वर्ष 2012 में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेनयू) में वामपंथी छात्र संगठनों ने महिषासुर को भारत के आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों का पूर्वज बताते हुए शरद पूर्णिमा को उनकी शहादत मनाने की घोषणा की थी। इस संबंध में कैंपस में लगे पोस्टर्स को लेकर विवाद हुआ था। महिषासुर को महिमामंडित करने को लेकर कैंपस के छात्र संगठनों में तनाव का माहौल भी बना था। 
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार असुरों के राजा महिषासुर का देवी दुर्गा द्वारा वध किया गया था। लेकिन वामपंथी फोरम से जुड़े स्टूडेंट्स मानते हैं कि महिषासुर देश के जनजातीय, दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के पूर्वज थे, जिन्हें देवी की मदद से आर्यों ने मारा था। वे अपने इस पूर्वज की शहादत मनाने के लिए एक अभियान चलाना चाहते हैं।
असल में वामपंथी जिन जनजातीय, दलित और पिछड़ी जातियों के हवाले से महिषासुर दिवस मनाना चाहते थे, वे सभी मां दुर्गा के उपासक हैं, महिषासुर को कभी किसी हिंदु ने महिमामंडित नहीं किया, चाहे वो झारखंड या छत्तीसगढ़ का वनवासी हो या महाराष्ट्र और बिहार का दलित हो। इनके कंधे पर बंदूक रखना तो केवल वामपंथियो की एक चाल मात्र थी, सही मायनों में वर्ष 1966 में अपनी स्थापना से लेकर अब तक जेएनयू को वामपंथी रंग में रगने वाले खुद उस महिषासुर के वंशज हैं, जो केवल विनाश, हाहाकार, रक्तपात और आसुरी गतिविधियों में आस्था रखते हैं। जिनका उद्देश्य केवल और केवल विखंडन है, निर्माता की भूमिका तो वे सपने में भी नहीं निभा सकते। वे आज भी उसी महिषासुर का अनुसरण कर रहे हैं, जो उनके क्रियाकलापों और सोच से झलकता है। खैर,  इनसे अपेक्षा भी क्या की जा सकती है।
लेकिन इन दिनों फिर महिषासुरों का विधवा विलाप सुनाई दे रहा है। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति पद की पेशकश किए जाने की खबरों पर विश्वविद्यालय के छात्र संघ ने स्वामी को प्रतिगामी सोच वाला व्यक्तिबताते हुए इस तरह की किसी भी कोशिश का पूरी ताकत से विरोध करने की चेतावनी दी है। जबकि स्वामी की प्रस्तावित नियुक्ति की खबर अभी पुष्ट भी नहीं है। जेएनयूएसयू ने कहा कि उसने प्रमुख संस्थानों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों की पिछले दरवाजे से नियुक्तियों की मौजूदा सरकार की कोशिशों के खिलाफ लगातार अपनी आवाज उठाई है। ‘‘स्वामी हों या अन्य कोई प्रतिगामी सोच वाला व्यक्ति हो, छात्र समुदाय पूरी ताकत से जेएनयू के भगवाकरण के किसी प्रयास का विरोध करेगा। अब जेएनयू को लालगढ़ बनाए बैठ इन वामपंथियों को कौन समझाए कि जिस भगवाकरण की ये बात कर रहे हैं, उस पर तो जेएनयू के विद्यार्थियों ने मुहर लगा दी है। हाल ही में हुए जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने 14 बाद सेंट्रल पैनल में एक सीट दर्ज की है। जेएनयू में ABVP का चुनाव संचालन कर रह अभिषेक श्रीवास्तव कहते हैं कि यह जीत कैंपस में वामपंथी संगठनों द्वारा देशी विरोधी कामों का नतीजा है। जेएनयू में याकूब और अफजल को श्रद्धांजलि दी जाती है, वहीं एपीजे अब्दुल कलाम को गाली दी जाती है। नक्सलवाद का समर्थन किया जाता है। कश्मीर को अलग करने की बात की जाती है। यहां वामपंथियों के इन सब देश विरोधी कामों के कारण हम जीते हैं।
छात्रसंघ में दूसरे पदों पर यदि आईसा या किसी अन्य वामपंथी संगठन के विद्यार्थी जीत भी गए तो उनकी जीत का अंतर एबीवीपी से महज कुछ मतों का था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जेएनयू के विद्यार्थी आईसा या जेएनयूएसयू जैसे वामपंथी संगठनों की तथाकथित प्रगतिशील सोच से दूर होना चाहते हैं। वामपंथियों की इसी कथित प्रगतिशील सोच का नतीजा है कि पिछल कुछ सालों से कैंपस में यौन शोषण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इन मामलों को लेकर जेएनयू शर्मसार भी हुआ है।
रही बा सुब्रमण्यहम स्वामी की नियुक्ति की, तो वो पिछले दरवाजे से हो रही होती तो इन्हें विधवा विलाप करने का अवसर भी नहीं मिल पाता। लेकिन स्वामी की नियुक्ति नियमों के तहत हो भी जाती है तो भी वामपंथियों के पेट में दर्द स्वाभाविक रूप से उठता रहेगा। दरअसल वर्षों से जेएनयू संदिग्ध गतिविधियों के थिंक टैंक के रूप में कुख्यात रहा है। वामपंथी संगठन विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों का ब्रेन वॉश करते रहे  हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय के सर्वोच्च पद पर किसी राष्ट्रवादी व्यक्ति की नियुक्ति पचा पाना इनके लिए आसान भी नहीं है।
देश के बहुसंख्यक समाज की आस्था पर यह वामपंथी किस तरह कुठाराघात करते हैं, यह लालगढ़ में संयुक्त सचिव के पद पर जीत हासिल करने वाले ABVP के सौरभ शर्मा के अनुभव से बखूबी झलकता है। सौरभ बताते हैं कि जब 2012 में यहां एमटेक करने आया तो यहां कम्युनिस्टों की हरकतें देख झेंप गया। कल तक मैं घर पर जिन दुर्गा मां की पूजा किया करता था, जो मेरी आस्था की केंद्र हैं, उन्हें जेएनयू में संगठन विशेष के लोग अपशब्द कह रहे हैं। अरे भाई, आप अपनी राजनीति करो, पर किसी की आस्था का मजाक तो न उड़ाओ। पर वो नहीं माने, जिसके बाद मैंने उनको उन्ही की भाषा में जवाब देना शुरू किया। दबे-कुचले बच्चों को प्रोत्साहित किया। फिर मुझे एबीवीपी से बेहतर राष्ट्रवादी संगठन नहीं मिला, जो हमारे संस्कारों की इज्जत करता। तो हम एबीवीपी संग हो लिए और 4 सालों से लगातार छात्रों के लिए काम करते रहे

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