स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी एक घटना है, जब स्वामी जी अमेरिका
में थे। एक दिन वे नदी किनारे बैठे थे कि उनकी नजर कुछ बच्चों पर गई। वे बच्चे नदी
में बहने वाली चीजों पर निशाना लगा रहे थे। बहती हुई चीजों पर निशाना लगाना कठिन
था। स्वामी जी उन बच्चों के पास गए और उनकी एयरगन लेकर निशाना शुरु किया। वे सारे
बच्चे आश्चर्यचकित रह गए क्योंकि विवेकानंद जी द्वारा लगाए गए सभी निशाने अचूक
रहे। सभी बच्चों ने स्वामी जी से पूछा कि आपके सभी निशाने सही कैसे रहे? स्वामी जी ने जबाव
दिया कि कोई भी काम करो तो पूरा ध्यान उसी पर लगाओ, ऐसा करोगे तो अवश्य ही सफल
होगे।
स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी इस घटना में सफलता के वे गुणसूत्र
छिपे हैं, जिन्हें हम साधारणतः नजरअंदाज कर देते हैं। आज के युवा जीवन में पाना तो
बहुत कुछ चाहते हैं, लेकिन वे दिग्भ्रमित हैं। कैरियर की मृगमरीचिका उन्हें रोज
नए-नए लालच देकर भटका रही है। कभी उनका लक्ष्य बड़ा पद पाना होता है तो कभी बहुत
अधिक धन कमाना। उपरोक्त दोनों ही लक्ष्य बुरे नहीं है, लेकिन इन्हें पाने के लिए
शार्टकट रास्ता अपनाकर कई युवा गलत रास्ते अख्तियार कर लेते हैं। ऐसे में युवाओं को
स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा लेनी चाहिए। स्वामी जी ने अपने भाषणों, अपने लेखों
में युवाओं के चरित्रवान होने पर बल दिया है। उन्होंने युवाओं के लिए मुख्तयः 10
बिंदुओं पर जोर दिया है। विवेकानंद जी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं कि अपने
आप पर विश्वास रखो। सकारात्मक विचार अपनाओ। आत्मनिर्भर बनो। त्याग और सेवा के
दायित्व को मत भूलो। निस्वार्थता ही सफलता लाएगी। दुर्बलता ही मृत्यु है। वीर बनो।
आदर्श को पकड़े रहो। मुक्त बनो। बढ़े चलो। देश की तरुणाई को स्वामी जी ने
कठोपनिषद् के इस सूत्र के आधार पर ही दिव्य संदेश दिया था कि “उत्तिष्ठ!जाग्रत!प्राप्य वरान्निबोधत”-उठो, जागो और बोध
प्राप्त करो।
विवेकानंद जी के प्रेरणादायी विचारों ने असंख्य नौजवानों के जीवन में
ऊर्जा का संचार किया। सेना में सेवा दे रहे और अपनी परिस्थितियों से ऊब चुके ऐसे
ही एक नवयुवक ने आत्महत्या करके अपने जीवन का समाप्त करने का फैसला कर लिया, लेकिन
उसके भाग्य को शायद कुछ और ही मंजूर था। वह एक बुक स्टॉल पर जा पहुंचा। वहां उसे
विवेकानंद के विचारों पर आधारित एक पुस्तक मिली। बुरी तरह निराश, आत्महत्या का मन
बना चुके युवक ने जब स्वामी विवेकानंद के विचारों को पढ़ा तो उसके जीवन की दिशा ही
बदल गई। उसने न केवल स्वयं का जीवन सुधारा, अपने परिवार का कल्याण किया वरन् देश और
समाज के लिए भी आदर्श बनकर उभरा। यह युवक कोई और नहीं अण्णा हजारे हैं, जिन्हें आज
हिंदुस्थान का बच्चा-बच्चा जानता है।
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि अपने आप पर विश्वास न करने वाला नास्तिक
है। हमने अपनी क्षमताओं की परीक्षा किए बिना ही उसको सीमित कर दिया है। जबकि हमारी
क्षमताएं असीम हैं। किसी भी प्रकार के कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जो
व्यक्ति कोई छोटा या नीचा काम करता है, वह केवल इसी कारण ऊंचा काम करने वाले से
छोटा या हीन नहीं हो जाता। मनुष्य की परख उसके काम से नहीं वरन उसके कर्त्तव्य
पालन के तरीके से होनी चाहिए। मनुष्य की सच्ची पहचान तो उसके अपने कर्त्तव्यों को
करने की उसकी शक्ति और शैली में होती है।
स्वामी जी ने केवल यह विचार भर नहीं दिए हैं, बल्कि खुद एक-एक शिक्षा
पर अमल कर दिखाया है। वर्ष 1893 में शिकागो में हुई जिस धर्मसंसद ने स्वामी
विवेकानंद को विश्वविख्यात बनाया, उस धर्मसंसद में भाग लेना स्वामी जी के लिए इतना
आसान भी नहीं था। न तो उनके पास लंबी समुद्र यात्रा कर शिकागो जाने के लिए धन था,
न ही धर्मसंसद में बोलने की कोई अनुमति ही थी। उनके दृढ़ निश्चय, अथक परिश्रम और
अटूट लगन का नतीजा था कि वे न केवल कनाडा होते हुए शिकागो पहुंचे, बल्कि धर्मसंसद
में अपने दिव्य उद्बोधन से विश्व को वसुधैव कुटुम्बकम की राह भी दिखाई।
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