वर्तमान में लैंगिक
समानता, नारी मुक्ति आंदोलन, महिला सशक्तिकरण जैसे कई जुमले आम हो गए हैं। वर्ष
1848 से पश्चिम में उत्पन्न हुआ “सिनेका फाल्स
डिक्लयरेशन” अपने नए रंग रूप के साथ 90 के दशक से होता हुआ
इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है। पश्चिमी विद्वानों के साथ-साथ एशियाई विचारक
भी मानते हैं कि विश्व में 1848 से लेकर 2015 तक नारीवाद की चार लहरें प्रवाहित
हुईं। इसका केंद्र पश्चिम ही था, जहां स्त्रियों की स्थिति अत्यधिक दयनीय थी।
उन्हें न तो मतदान का अधिकार था, न ही समाज में सम्मान प्राप्त करने का। शायद
इसलिए भी कि पश्चिम में आस्था का केंद्र बने धर्मग्रंथ बाइबिल में यह कहा गया है
कि “मैं कहता हूं कि स्त्री न उपदेश करे और न ही
पुरुष पर आज्ञा चलाए, परंतु चुपचाप रहे, क्योंकि आदम पहले, उसके बाद हव्वा बनाई गई
और आदम बहकाया न गया, पर स्त्री बहकने में आकर अपराधिनी हुई” (नया नियम, 1-तीमुथियुस 2/12-15)। पश्चिम की धरती पर शुरू हुए इस तथाकथित
नारी मुक्ति आंदोलन के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1975 में कई प्रस्ताव पारित
किए और इस वर्ष को महिला वर्ष घोषित किया एवं अगले दस वर्षों (1975 से 1985 तक)
में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए कई प्रयास किए।
भारतीय परिप्रेक्ष्य
में भी इन आंदोलन को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं हुईं। जो आज तक अनवरत् जारी
हैं। लेकिन हम लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाए हैं, उल्टे भारतीय समाज में
स्त्री-पुरुष लैंगिक अनुपात किन्हीं-किन्हीं राज्यों में खतरे के निशान पर पहुंच
गया है, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा बढ़ गई, बलात्कार जैसी वीभत्स और निंदनीय घटनाओं
की पुनरावृत्ति आम बात हो गई है। तो आखिर हमसे कहां भूल हो गई कि महिलाएं अपना
सम्मान खोने के लिए विवश हैं। दरअसल हम पश्चिम के आंदोलन को, उनके कारणों, स्थिति
और दशा को समझे बगैर ही अपने समाज में लागू करने की कोशिश करते रहे हैं। हमारे
भारतीय परिप्रेक्ष्य में, या यूं कहें कि वैश्विक परिवेश में भी “लैंगिक समानता” शब्द
ही गलत है। जबकि यह “लैंगिक पूरकता” होना
चाहिए। हम कैसा समाज चाहते हैं, हमें इस पर विचार करना ही होगा। लेकिन इसके
साथ-साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि हम अपनी गौरवशाली संस्कृति और परंपराओं को
विस्मृत कर भविष्य के बारे में कैसे सोच पाएंगे। स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे के समान
नहीं, वरन् एक-दूसरे का पूरक बनना है। लैंगिक समानता की अवधारणा ही गलत है,
क्योंकि इससे परस्पर प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, एक-दूसरे के प्रति सम्मान में कमी आती
है। कौन श्रेष्ठ है, कौन नहीं ऐसे शोध शुरु हो जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि
स्त्री और पुरूष की पूरकता की बात की जाए। हम एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं, समान
नहीं क्योंकि स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बगैर स्त्री परिवार, कुनबा,
कुटुम्ब, समाज, राज्य, राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। जैसे स्वयं शिव भी शक्ति
के बगैर अधूरे हैं, सीता के बगैर राम का कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता, बिना राधा
कृष्ण की भक्ति की ही नहीं जा सकती ठीक वैसे ही बगैर नारी के कोई भी पुरुष ना तो
इस दुनिया में आ ही सकता है ना पोषित पल्लिवत होकर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर
सकता है। हमें इन तथाकथित स्त्री मुक्ति आंदोलन की जरूरत भी नहीं है क्योंकि हम
जानते हैं कि भारत में महिलाओं का स्थान शक्तिशाली रहा है। ऋग्वेद काल में भी
महिलाओं को सम्मानित स्थान प्राप्त था। वैदिक साहित्य में ऐसे प्रमाण मिलते हैं,
जिससे स्पष्ट होता है कि स्त्रियों को अध्यात्मिक पथ चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता
थी। वेदकाल में 36 ऋषिकाएं मिलती हैं। गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा, कात्यायनी इसका
ही उदाहरण है। हमारे यहां मनुस्मृति में, श्रीमद्भागवत गीता में, स्कंद पुराण में,
अत्रिसंहिता में, रामचरित मानस में और यहां तक कि सभी वेदों, पुराणों, उपनिषदों
में बार-बार यह उल्लेख मिलता है कि इस देश में स्त्री हमेशा ही पुरुषों से अग्रणी
रही है, क्योंकि भारतीय समाज यह अच्छी तरह जानता है कि बगैर नारी के संसार का सृजन
ही संभव नहीं है। वह दादी है, नानी है, माता है, बहन है, पुत्री है, पत्नी है और न
जाने कितने आवश्यक संबंधों में हम उसे पाते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि - उपाध्यायादन्शाचार्य
आचार्यणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवातिरिच्यते।। अर्थात् दस
उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य, सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता और सहस्त्र पिताओं की
अपेक्षा माता का गौरव अधिक है। सभी गुरुजनों में माता को परम गुरु माना गया है। “गुरूणां चैव सर्वेषां माता परमको गुरुः” । यह भी कहा गया है कि “प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता।।“ यानि
मनुष्य जिस क्रिया से माता को प्रसन्न कर लेता है, उस क्रिया से सम्पूर्ण पृथ्वी
का पूजन हो जाता है।
जबकि पाश्चात्य परम्पराओं
का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वहां के जीवन में अपेक्षाकृत नारी का स्थान नीचा
रखा गया है। यूनान और रोम का सामाजिक-राजनीतिक दर्शन तो स्पष्ट तौर पर नारी विरोधी
रहा है। अरस्तु यूनान में 324 ईसा पूर्व से 384 ई.पू. तक रहा। करीब पंद्रह सौ
वर्षों तक उसके विचारों को स्वीकार किया जाता रहा। अरस्तु की नजर में प्रजनन में
नारी का कोई योगदान नहीं था। उसने जोर देकर कहा कि नारी स्वतंत्रता तथा राजनीतिक
गतिविधियों में भाग लेने योग्य नहीं है। इसे सिद्ध करने के लिए तर्क दिए गए कि
ईश्वर तथा समाज की महानता के सामने नारी तुच्छ है। एच.जी.वैल्स की दी आउट लाइन ऑफ
हिस्ट्री तथा मैकमिलन पब्लिशिंग की 1921 न्यूयार्क नाम पुस्तक में यह सामने आता है
कि यह विचार रोम के लोगों को प्रभावित करने लगा और मध्यकाल तक संपूर्ण यूरोप में
फैल गया। थामस एक्यिनस नामक साधु ने अरस्तु के विचारों को इक्कीस भागों में पेश
किया और प्रचारित किया। जब समय बीतने के साथ-साथ पश्चिमी देशों में स्त्रियों को
आदर-सम्मान नहीं मिल सका तो उन्होंने विद्रोह का रास्ता अपनाया। नारी ने अपनी
व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पाने के लिए संघर्ष किया। लेकिन समय के साथ यही नारी
स्वतंत्रता का आंदोलन लैंगिक संघर्ष में बदल गया। यह आंदोलन नारी के अधिकारों का
भले ही समर्थक रहा हो, लेकिन नारी को सम्मान कभी नहीं दिला सका। स्त्री पुरूष के
इस संघर्ष ने सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को ही बिगाड़ कर रख दिया। परीणामस्वरूप
अत्याधुनिक अमेरिका में स्त्री-पुरुषों में खाई बढ़ गई। इसका परिणाम हुआ कि 41
फीसदी बच्चे अविवाहित माताओं से पैदा हुए। उनमें भी आधे किशोरी कन्याओं से जन्मे। 1955
में केवल 55 फीसदी पति पत्नी घर में एक साथ रहते थे। 2010 तक आते-आते यह संख्या 48
फीसदी रह गई। 12 फीसदी अकेली महिलाएं और 15 फीसदी अकेले पुरुषों के परिवार हो गए
हैं। 11 फीसदी से अधिक अमेरिकी युगल लिव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। करीब 60 फीसदी
अमेरिकन स्त्री पुरुष विवाह ही नहीं करते। यही कारण था कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने
विवाह कानून में सुधार के लिए 2012 में कानून बनाया। फादरलेस अमेरिका जैसे शीर्षक
वाली किताबें बाजार में आईं। इंग्लैंड की स्थिति तो इससे भी बुरी है। यहां 47
फीसदी बच्चे अविवाहित लड़कियों की संताने हैं। बाइबिल इन इंडिया: हिंदू ऑरिजिन ऑफ हबर्रेस एंड क्रिश्चियन रेवेलेशन
में फ्रेंच लेखक लुइस जेकोलियर कहते हैं कि “भारत में एक ऐसी
उच्च स्तर की सभ्यता रही है, जो पाश्चात्य सभ्यता से कहीं अधिक प्राचीन है, जिसमें
नारी को पुरूष के समान समझा जाता है और परिवार तथा समाज में समान स्थान दिया जाता
है”।
कुल मिलाकर हमें फिर से इस प्रश्न पर विचार करना
होगा कि हम अपने पुरातन गौरव की तरफ लौटना चाहते हैं या अंधेरी कोठरी में दीवारों
से सर टकराना चाहते हैं। हमारे सामने समस्याएं भी हैं तो समाधान भी। बस हमें नए
सिरे से समस्याओं और समाधान पर विचार करना होगा। पश्चिम के पास तो समाधान ही नहीं
है, हमें तो उसके लिए भी निवारण का प्रबंध करना है। यह हमारी ही जिम्मेदारी है,
क्योंकि भारत को विश्व गुरू की संज्ञा ऐसे ही नहीं दे दी गई है। अंत में इतना ही, “मां की ममता, नेह
बहन का और पत्नी का धीर हूं…
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं...
युद्ध का साहस, शिव की शक्ति और काली रणवीर हूं..
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं...”
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