गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

कैसे जुटेगा फंड



छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कामकाज संभालते ही अपने घोषणापत्र को अमलीजामा पहनाना शुरु कर दिया है, चूंकि वे खुद वित्तमंत्री का दायित्व भी निभाएंगे, ऐसे में बतौर वित्तमंत्री उनके लिए अपनी नई घोषणाओं के लिए फंड जुटाना बड़ी चुनौती होगी। राज्य में वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए 44,169 करोड़ का बजट अनुमान था, जो 2014-15 में बढ़कर करीब 48 हजार करोड़ के पार पहुंच जाएगा।
रमन सिंह ने शपथ लेते ही निर्देश जारी कर दिए हैं कि 1 जनवरी 2014 से 47 लाख परिवारों को 1 रुपए प्रति किलो की दर से चावल दिया जाए। घोषणा पत्र के अपने वादे को पूरा करते हुए समर्थन मूल्य पर धान बेचने वाले किसानों को प्रति क्विंटल 300 रुपए बोनस देने के आदेश भी दे दिया गया है। साथ ही अटल बिहारी बाजपेयी के जन्मदिवस यानि 25 दिसंबर 2013 से अटल बीमा योजना लागू करने के निर्देश भी जारी कर दिए गए हैं, जिसके तहत प्रदेश के लगभग 17 लाख खेतिहर मजदूरों को जीवन व दुर्घटना बीमा किया जाएगा। आदिवासी और वनवासियों के लिए तेंदूपत्ता की तर्ज पर इमली, चिरौंजी, महुआ, लाख और कोसा को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने का फरमान भी जारी कर दिया गया। ये सब सुनने और देखने में सुखद जरूर लग सकता है, लेकिन राज्य सरकार को इसके लिए मोटी कीमत चुकानी होगी। सरकार को पहले से जारी योजनाओं के लिए भी वित्त की पूर्ति करनी है, ऐसे में इन नई रियायतों के लिए राजकोष पर चार से पांच हजार करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ने का अनुमान है।
रमन सिंह के अपने तीसरे कार्यकाल के पहले ही दिन लोकलुभावन योजनाओं के क्रियान्वयन की लंबी सूची को आम लोग भले ही सुशासन से जोड़कर देख रहे हैं, लेकिन इसके लिए राज्य सरकार को बड़ी रकम जुटानी होगी, जो कि अपने आप में एक बड़ी चुनौती है।
राज्य सरकार पर नई घोषणाओं को अमलीजामा पहनाने में पड़ने वाले वित्तीय भार को हम पिछले बजट से समझ सकते हैं। वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए 44,169 करोड़ का बजट अनुमान प्रस्तुत किया गया था। इसमें खाद्यान्न सुरक्षा अधिनियम के तहत लगभग 42 लाख गरीब परिवारों को दो और तीन रुपए प्रति किलो की रियायती दर पर तथा 8 लाख सामान्य परिवारों को ए.पी.एल. दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने का प्रावधान था। इस पर लगभग 2000 करोड़ का खर्च अनुमानित था अब नए निर्देशों के तहत प्रति परिवार 1 रुपए किलो की दर से चावल उपलब्ध करवाया जाना है यानि योजना पर खर्च दुगुना हो जाएगा।
वहीं वर्ष 2012-13 में खरीदे गए 70 लाख मीट्रिक टन धान के बदले 270 रुपए प्रति क्विंटल की दर से अकेले बोनस देने के लिए 1750 करोड़ का प्रावधान किया गया था। अब नई घोषणा के तहत सरकार को प्रति क्विंटल 300 रुपए बोनस देना है यानि इस मद पर भी राशि दुगुनी ही होनी है। इसका एक कारण ये भी है कि हर साल धान खरीदी का आंकड़ा बढ़ रहा है। राज्य सरकार ने वर्ष 2010-11 में ही 51 लाख  मीट्रिक टन धान खरीद कर  किसानों को 5000 करोड़ रूपए धान की कीमत और बोनस के रूप में दिए थे । 2013 में धान खरीदी का आंकड़ा 70 लाख मीट्रिक टन पर पहुंच गया।
इस मसले पर मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं कि अपनी घोषणाओं को हम हर हाल में पूरा करेंगे। जहां तक बजट का सवाल है, हम अपने वित्तीय अनुशासन से इसकी पूर्ति करेंगे। लेकिन सीएम ये नहीं बताते कि वे किस तरह के वित्तीय अनुशासन की बात कर रहे हैं।
वर्ष 2013-14 में बजट पेश करते हुए मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा था कि राज्य की कुल प्राप्तियाँ 43,977 करोड़ तथा कुल  व्यय 44,169  करोड़ अनुमानित किया गया है। इन वित्तीय प्राप्ति और व्यय में अंतर के कारण 192  करोड़ का शुध्द घाटा अनुमानित है। साथ ही वर्ष 2012-13 के संभावित घाटे 1,485 करोड़ को शामिल करते हुये कुल बजटीय घाटा 1,677 करोड़ अनुमानित है। इस घाटे की पूर्ति वित्तीय अनुशासन तथा अतिरिक्त आय के संसाधन जुटाकर की जाएगी। यानि 2013-14 में ही 1 हजार 677 करोड़ का घाटा अनुमानित था।
प्रदेश के पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता रामचंद्र सिंहदेव तहलका से कहते हैं कि राज्य सरकार तो कंगाल हो चुकी है। पिछले ही साल सरकार ने कामकाज चलाने के लिए अब तक का सबसे बड़ा लोन यानि साढ़े तीन हजार करोड़ रुपया राष्ट्रीयकृत बैंकों से लिया था। इससे ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सरकारी खजाना बिलकुल खाली हो चुका है। अब कैसे योजनाओं को पूरा किया जाएगा, ये तो मुख्यमंत्री ही जानें
जबकि वर्ष 2000 में जब छत्तीसगढ़ का गठन हुआ था, तब अविभाजित मध्यप्रदेश के हिस्से के रूप में छत्तीसगढ़ के भौगोलिक क्षेत्र के लिए कुल बजट प्रावधान केवल पांच हजार 704 करोड़ रूपए था, जो अलग राज्य बनने के बाद क्रमशः बढ़ता गया और अब तेरह सालों में 40 हजार करोड़ रूपए से अधिक हो गया है।
हालांकि सूबे के मुखिया को अपने घोषणा पत्र में किए गए वादों को पूरा करने की जल्दी शायद इसलिए भी है कि लोकसभा चुनाव सामने हैं, या फिर रमन सिंह अपनी हैट्रिक से गदगद हैं और जनता का अहसान चुकाना चाहते हैं। किंतु योजनाओं को लागू करने की जल्दबाजी चाहे किसी भी कारण हो, लेकिन इस त्वरित क्रियान्वयन में मुख्यमंत्री एक बात भूल रहे हैं कि इन योजनाओं को लागू करने के लिए राज्य पर पड़ने वाले वित्तीय भार से वे कैसे निपटेंगे। सरकार का खर्च तो हर साल बढ़ रहा है, लेकिन आय कैसे बढ़ेगी, इसका जबाव फिलहाल किसी के पास नहीं है, लेकिन हां, मंत्रालय में घोषणा पत्र के क्रियान्वयन के लिए बैठकों का दौर जारी है।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

पत्थर पर उगेगा “दगड़ धान”



केवल पानी में उगने वाला धान अब पथरीली जमीन पर भी उगाया जा सकेगा। छत्तीसगढ़ के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने धान की ऐसी ही कई नई किस्मों को खोज निकाला है। इनमें पथरीली जमीन पर उगने वाला दगड़ धान, दुर्गेश्वरी, इंदिरा राजेश्वरी, बमलेश्वरी, दंतेश्वरी, डोकरा-डोकरी, तुलसी मंजरी, दो दाना, अम्मा रूठी और श्याम जीरा जैसी कई किस्में शामिल हैं।
धान केवल अनाज का एक रूप ही नहीं वरन छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर है। वैसे भी सूबे को धान का कटोरा ऐसे ही नहीं कहा जाता है। यहां धान की 23 हजार 250 धान की प्रजातियां खोजी जा चुकी हैं। इसके अलावा धान की नई किस्मों की खोज जारी है। छत्तीसगढ़ के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने अपने 600 एकड़ में फैले खेतों में इन प्रजातियों को संरक्षित और संवर्धन करने का काम कर रही है। विश्वविद्यालय का सेंटर फॉर बॉयोडायवर्सिटी रिसर्च एंड डेवलपमेंट धान की प्रजातियों के जर्म प्लाज्मा को सुरक्षित रखने का जिम्मा उठाए हुए है। कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि विश्व में फिलीपींस के बाद भारत में सबसे ज्यादा धान की किस्मों को खोजा और संरक्षित किया जा रहा है और इसमें छत्तीसगढ़ का योगदान सबसे ज्यादा है।
विश्वविद्यालय ने खुद भी धान की 15 ऐसी किस्मों को विकसित किया है, जिनकी अलग-अलग विशेषता है। इनमें से कई प्रजातियां ऐसी हैं, जो किसी भी परिस्थिति में पैदा की जा सकती है। मसलन दुर्गेश्वरीऔर इंदिरा राजेश्वरीकी फसल सूखा झेलने पर भी खराब नहीं होती। वहीं गर्मी के वक्त बोने के लिए दंतेश्वरीको विकसित किया गया है। दगड़ धान को पथरीली जमीन पर न्यूमतम पानी की उपलब्धता के साथ उगाया जा सकता है।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ एस के पाटिल कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में विपुल संपदा उपलब्ध है। हमारे विश्वविद्यालय ने प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से धान की कई किस्में खोजी है। कुछ खुद विकसित की हैं। लेकिन अभी बहुत काम किया जाना बाकी है। किसानों के पास अभी कई प्रजातियां उपलब्ध हैं, जो दुनिया से छिपी हुई हैं। उन्हें खोजकर सबके सामने लाने के लिए शोध जारी है। हम भारत सरकार से ज्यादा फंड की मांग भी कर रहे हैं। अभी तक राज्य सरकार के सहयोग से सालाना 25 लाख रुपए खर्च कर शोध, विश्लेषण और संरक्षण का काम किया जा रहा है। लेकिन इतना काफी नहीं है। लगातार नई किस्में खोजी जा रही हैं। पुरानी साढ़े तेईस हजार किस्मों को भी सुरक्षित रखना बड़ी जिम्मेदारी है। इसके लिए ज्यादा धन की आवश्यकता होगी
पौधा किस्म और कृषक सरंक्षण अधिकार प्राधिकरण नई दिल्ली के अध्यक्ष आर आर हंचिनाल कहते हैं, मैं बहुत सारे राज्यों और उनके विश्वविद्यालों में गया हूं। लेकिन जैव विविधता को संरक्षित करने के काम में छत्तीसगढ़ और यहां का कृषि विश्वविद्यालय हमारे प्राधिकरण से भी आगे है। खासतौर पर कांकेर और जगदलपुर में अच्छा काम हो रहा है। यह सुनकर ही आश्चर्य हो रहा है कि छत्तीसगढ़ में धान की साढ़े तेईस हजार किस्में हैं। इनके जर्म प्लाज्मा को संरक्षित किया जा चुका है। अब आगे की खोज जारी है। हम भी किसानों को प्रोत्साहित कर रहे हैं कि उनके भी पास यदि कोई अछूती-अलग किस्म हो, तो वे भारत सरकार के इस प्राधिकरण को बताए।
हंचिलान आगे बताते हैं कि जैव विविधता में भारत का विश्व में पहला स्थान है। विश्व में जैव विविधता के 34 हॉट स्पाट खोजे गए हैं। जिमें चार अकेले भारत में है। इसमें से एक स्थान छत्तीसगढ़ में पाया गया है। यहां के धान की किस्में खनिज, विटामिन, प्रोटीन से भरपूर है। छत्तीसगढ़ में खोजी जा रही धान की नई किस्मों को देखकर लगता है कि प्रदेश खाद्य सुरक्षा के साथ साथ पौष्टिकता की सुरक्षा भी प्रदान कर रहा है। छत्तीसगढ़ के धान में चिकित्सीय गुण भी पाए जा रहे हैं। कई प्रकार की किस्में ऐसी हैं, जिन्हें खाने से मधुमेह जैसी बीमारियों में फायदा पहुंच रहा है।
प्रदेश के कृषि संचालक प्रतापराव कृदत्त कहते हैं कि, धान की इतनी किस्मों की खोज निश्चित ही अच्छा प्रयास है। फिलीपींस में जर्म प्लाज्म के संकलन में भारत का ही अहम योगदान है। इसमें छत्तीसगढ़ एक अलग नाम के साथ उभर रहा है। यहां धान की कई ऐसी किस्में खोजी गई हैं, जो इलायची के दाने से भी छोटी हैं। वहीं पक्षीराज किस्म के दाने उड़ते हुए पक्षियों की तरह नजर आते हैं, जो कि अद्भुत खोज है। वहीं खेराघुल किस्म का दाना सबसे छोटा होता है। ये अत्यधिक सुगंधित चावल है। लेकिन चावल जैसा दिखता नहीं है
भारत सरकार द्वारा 2011-12 में पादम जीनोम संरक्षण समुदाय पुरस्कार हासिल कर चुके महासमुंद जिले के किसान तुलसीदास साव कहते हैं, छत्तीसगढ़ में ना केवल धान बल्कि आम, नीबू और केले की भी कई ऐसी प्रजातियां मौजूद हैं, जिससे देश के दूसरे इलाके के किसान परिचित नहीं है। इन किस्मों के आम के पेड़ हर साल और नीबूं के पेड़ साल में दो से तीन बार फल दे रहे हैं। धान में तो प्रदेश काफी समृद्ध है ही। इसके अलावा विश्वविद्यालय ना केवल नई किस्मों की खोज कर रहा है, बल्कि किसानों को उससे परिचित भी करवा रहा है
वहीं कृषि वैज्ञानिक के के साहू कहते हैं कि धान की किस्मों के सरंक्षण का काम सराहनीय है। प्रदेश में हर किसान के पास अपनी अलग किस्म है। लेकिन केवल कुछ किस्में ही अपनी पहचान बना पाई हैं। जिसमें विष्णुभोग, दुबराज, बादशाह भोग जैसी सुगंधित प्रजातियां शामिल हैं। लेकिन अभी भी धान की कई अनजानी किस्में मौजूद हैं। जिनपर काम किया जाना बाकी है।
धान में 62 गुण होते हैं। जो हरेक किस्म को दूसरी से अलग करते हैं। किसी की पत्ती बड़ी होती है तो किसी का दाना। कोई धान की सुगंधित किस्म होती है, तो किसी में कोई सुगंध नहीं होती। इसी तरह धान की फसल पकने में अलग-अलग समय निर्धारित होता है। किसी प्रजाति की फसल 105 दिन में पक कर तैयार हो जाती है तो किसी को पकने में 135 दिन का वक्त लगता है। विश्वविद्यालय ने जिन खास किस्मों को खोजा है। उनमें सबकी अलग-अलग खासियत है। मसलन दो दाना और राम लक्ष्मण में एक ही खोल में दो दाने पाए जाते हैं। कभी-कभी तीन दाने भी मिल जाते हैं। इसी तरह महासमुंद से खोजा गया हनुमान लंगूर में सबसे लंबा दाना पाया जाता है। सराई फूल कमजोरी दूर करने के लिए लाभकारी है। वहीं महाराजी नई माताओं के लिए लाभकारी है। खासतौर से उनके लिए जिन्हें प्रसूति के वक्त ज्यादा रक्त बहने से कमजोरी आई हो। गाथुवन से जोड़ों के दर्द की शिकायत दूर की जा सकती है। नारियल चुडी विशेष रूप से दलदली जमीन और गहरे पानी में उगाया जाने वाला धान है। रोटी चपाती और ब्रेड बनाने के लिए उपयुक्त धान है। वहीं हाथीपंजारा नाम के ही अनुरूप मोटा धान है। तुलसी की मंजरी के जैसा दिखने वाली किस्म है तुलसी मंजरी। वहीं जीरे के अनुरूप दिखने वाली प्रजाती है जीरा धान। इन धान की प्रजातियों के जर्म प्लाज्मा को रायपुर में संरक्षित किया गया है ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इनका फायदा उठा सकें।
बहरहाल धान के कटोरे को समृद्ध बनाने के लिए किसान, वैज्ञानिक और विशेषज्ञ दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। सूबे के कृषि वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि वो समय भी जल्द आएगा, जब प्रदेश की धान की नई किस्में देश और दुनिया के हिस्सों में भी उगाई जाएंगी। फिलवक्त तो छत्तीसगढ़ में परंपरागत किस्मों के अलावा नई किस्मों की पैदावार लेने का प्रयोग शुरु किया जा चुका है। जो विश्व के सामने एक नजीर पेश करेगा।
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पूर्वजों द्वारा संरक्षित किस्मों की खोज
धान की नई किस्मों की खोज जारी है। इसमें अब केंद्र सरकार भी बढ़चढ़ कर भाग ले रही है। केंद्र द्वारा किसानों को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है कि वे भारत सरकार के 2001 में बनाए गए कानून पौध किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण के तहत अपनी किस्मों को खुद के नाम से पंजीकृत करवाएं। इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित प्राधिकरण के रजिस्ट्रार डॉ रवि प्रकाश कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने ना केवल धान बल्कि दूसरी फसलों के बीजों का सरंक्षण कर नई पीढ़ियों को हस्तांतरित किया। अब हमारा दायित्व है कि हम ना केवल उन्हें खोजें बल्कि बोयें भी। अब केंद्र सरकार ने किसानों को मालिक के रूप में किस्मों का पंजीकरण कराने का अधिकार दे दिया है। ऐसा करके हम नई किस्में खोज रहे हैं, वहीं किसानों को अपने पूर्वजों द्वारा संरक्षित प्रजातियों का मालिकाना हक मिल रहा है। भविष्य में जिससे उन्हें कई फायदे होंगे।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित किस्में
महामाया (1995), श्यामला(1997), पूर्णिमा(1997), दंतेश्वरी(1997), बमलेश्वरी(2001), इंदिरा सुंगधित धान(2004), जलडूबी(2006), समलेश्वरी(2006), इंदिरा सोना(2006), कर्मा महसूरी(2007), महेश्वरी(2009), इंदिरा बरानी धान(2010), इंदिरा राजेश्वरी और दुर्गेश्वरी(2011)।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

छत्तीसगढ़ में हरियाणा




सैंकड़ों एकड़ में फैले फार्म हाउस और हुक्का पीते किसानों को देखकर तो एकबारगी यही लगता है कि हम हरियाणा के किसी गांव में खड़े हैं। लेकिन तभी खेतों में काम कर रहे छत्तीसगढ़िया मजदूरों को देखकर हमें ये अहसास होता है कि हम छत्तीसगढ़ में ही हैं। छत्तीसगढ़ में शक्ल लेते नए हरियाणा को लेकर राज्य सरकार के कान भी खड़े हो गए हैं।
हरियाणा और छत्तीसगढ़ का प्रारब्ध और तासीर, दोनों में ही कोई ज्यादा फर्क नहीं है। लेकिन बावजूद इसके दोनों प्रदेशों में तीन अंतर ऐसे भी हैं, जिन्होंने हरियाणा के उन्नत किसानों को छत्तीसगढ़ में बसने पर मजबूर कर दिया। इन किसानों ने केवल छत्तीसगढ़ को अपनी कर्मभूमि बनाया, बल्कि सैंकड़ों एकड़ खेतों में उन्नत खेती के जरिए करोड़ों का फायदा भी कमाया।। हालांकि हरियाणा और छत्तीसगढ़ में कोई सांस्कृतिक-सामाजिक साम्य कभी नहीं रहा। परंतु दोनों ही प्रदेश कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले रहे हैं। हरियाणा हो या छत्तीसगढ़, दोनों की आबादी का तकरीबन 80 फीसदी हिस्सा किसान बहुल रहा है। 1 नंबवर ( वर्ष 1966) में हरियाणा ने पंजाब से अलग होकर शक्ल हासिल की तो छत्तीसगढ़ ने भी 1 नंबवर (वर्ष 2000) को ही मध्यप्रदेश की कोख से जन्म लिया। हरित क्रांति में हरियाणा ने देश में अहम योगदान दिया, तो छत्तीसगढ़ ने भी अपने लौह अयस्क से देश के औद्योगिक विकास को नई गति दी। जब गेंहू की खेती के लिए हरियाणा नाम कमा रहा था तो छत्तीसगढ़ की पहचान धान की पैदावार को लेकर बन रही थी। दोनों की जलवायु में भी ये समानता है कि दोनों ही प्रदेशों में भीषण गर्मी पड़ती है, और कभी कभी तापमान 45 का आंकडा पार कर जाता है। पौराणिक काल से ही दोनों प्रदेशों का अपना महत्व रहा है। महाभारत और भागवत गीता की पटकथा अगर हरियाणा के कुरुक्षेत्र में लिखी गई, तो रामायण की रचना में छत्तीसगढ़ के वाल्मिकी, कौशल्या और शबरी समेत कई पात्रों का योगदान रहा है। खैर, बात हरियाणवी किसानों के छत्तीसगढ़ पलायन की। हरियाणा के किसानों को छत्तीसगढ़ की तरफ जो अंतर आकर्षित कर रहे हैं, वो है सस्ती और बेहिसाब उपजाऊ जमीन, सस्ती बिजली व जीरो पॉवर कट पॉलिसी और सस्ता श्रम।
हरियाणा में जहां जमीनों के दाम आसमान छू रहे हैं, वहीं उसकी तुलना में छत्तीसगढ़ में अभी भी जमीन सस्ती ही कही जाएगी। छत्तीसगढ़ में आज भी जहां खेती योग्य जमीनें 4 से 5 लाख प्रति एकड़ की दर से मिल रही हैं। वहीं हरियाणा में जमीनों के भाव बहुत अधिक हैं। वहां जमीनों के दाम 20 लाख से शुरु होकर करोड़ों तक हैं। सिरसा में 20 लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से खेती योग्य जमीन मिल पाती है। जींद में प्रति एकड़ जमीन की कीमत 30 लाख रुपए है, दिल्ली से लगी हरियाणा की सीमा वाले इलाके में तो प्रति एकड़ 50 लाख से 1.30 करोड़ तक की कीमत वसूली जा रही है। यही कारण है कि 1994 से हरियाणा के किसानों के आने का सिलसिला शुरु हुआ, जो बदस्तूर जारी है। खेती के विस्तार के लिए अभी हरियाणा के मुकाबले छत्तीसगढ़ में ज्यादा जमीन उपलब्ध है। बात करें बिजली की तो छत्तीसगढ़ सरकार किसानों को पांच हॉर्स पॉवर तक मुफ्त बिजली दे रही है। बिजली में सरप्लस राज्य होने के कारण यहां विद्युत कटौती नहीं होती। इसके साथ ही छत्तीसगढ़िया मजदूर सस्ते श्रम के लिए मशहूर हैं। यही कारण है कि यहां के मजदूरों की डिमांड जम्मू कश्मीर, पंजाब, हरियाणा तक की जाती है। हरियाणा के जींद के रहने वाले ओमप्रकाश कन्दोला (57 वर्ष), 2005 में छत्तीसगढ़ बनने के बाद यहां आकर बसे। दुर्ग संभाग के अहिवारा जनपद पंचायत में कन्दोला ने 45 एकड़ जमीन खरीद कर खेती शुरु की है। उन्होंने अपने खेतों में सोयाबीन, शिमला मिर्च, केला और पपीता बोया है। इसके साथ ही कन्दोला ने अहिवारा में ही किसान एग्रो इंजीनियरिंग वर्क्स के नाम से कृषि उपकरण बनाने और सुधारने की एक वर्कशॉप भी खोल रखी है। कन्दोला कहते हैं, खेती के लिहाज से छत्तीसगढ़ अभी हरियाणा के कोसों पीछे है। ये अंतर ठीक बिलकुल वैसा ही है, जैसा कि किसी विकसित और किसी अविकसित राज्य के बीच में होता है। लेकिन छत्तीसगढ़ में उपलब्ध सस्ती जमीन और बिजली बाहर के किसानों को आकर्षित कर रही है। कन्दोला कहते हैं कि जब हरियाणा में एक एकड़ जमीन बेचकर उसी दाम में यहां दस एकड़ जमीन मिल रही हो तो कोई भी ऐसा करना पसंद करेगा। वे यहां खेती के साथ साथ स्थानीय किसानों के कृषि उपकरणों को बनाने और सुधारने का काम कर रहे हैं। उनका मानना है कि हरियाणा के किसान उपकरण की समझ के मामले में भी छत्तीसगढ़ से आगे हैं। कन्दोला के दो बेटे हैं। वे अपना पूरा परिवार लेकर छत्तीसगढ़ नहीं आए हैं। उनकी धर्मपत्नी और एक बेटा जींद, हरियाणा में ही रहते हैं। जबकि दूसरा बेटा उनके साथ अहिवारा में रह रहा है। कन्दोला हंसते हुए अपनी बात में एक जुमला जरूर जोड़ते हैं,छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया (छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया)।
हरियाणा के किसानों ने प्रदेश में एक अनुमान के मुताबिक करीब दस से पंद्रह हजार एकड़ कृषि योग्य जमीनें खरीदी हैं। हरियाणा के किसान अपने फार्म हाउसों में केले, पपीते, गन्ने, अदरक, लौकी, करेले, कपास, अरबी और शिमला मिर्च की लहलहाती फसलों से करोड़ों का टर्न ओवर ले रहे हैं। जबकि स्थानीय किसान अभी तक धान से बाहर नहीं निकल पाए हैं। इसके दो अहम कारण हैं, एक तो स्थानीय किसानों के पास खेतों में निवेश के लिए ज्यादा धन नहीं है। दूसरा वो धान के अलावा किसी दूसरी फसल को पैदा करने के बेहतर तरीकों को भी नहीं जानता। जबकि हरियाणा के किसान जहां नई-नई फसलें उगा रहे हैं, वहीं उन्नत कृषि उपकरण और मल्चिंग (शिमला मिर्च के रोपों को पॉलीथिन से कवर कर सुरक्षा प्रदान करना) और ड्रिप जैसी तकनीक का भी भरपूर उपयोग कर रहे हैं। जबकि स्थानीय किसान अभी भी खेती पंरपरागत तौर तरीकों पर ही निर्भर हैं। एक-दूसरे अगल-बगल ही स्थित हरियाणा और स्थानीय किसानों के खेतों का अंतर साफ देखा जा सकता है। यही कारण है कि हरियाणा के किसानों के फार्म पर डस्टर और बीएमडब्ल्यू जैसी लक्जरी गाड़ियां खड़ी दिखाई देती हैं। दरअसल स्थानीय किसान केवल धान बोते हैं, जिसकी प्रति एकड़ लागत दस हजार रुपए आती है। जबकि मुनाफा केवल प्रति एकड़ बीस हजार रुपया ही हो पाता है। जबकि पपीता बोने के लिए प्रति एकड़ 25 से 30 हजार रुपए लागत आती है। वहीं मुनाफा प्रति एकड़ एक लाख रुपए के करीब होता है। ऐसे ही शिमला मिर्च बोने में प्रति एकड़ सवा लाख रुपए लागत लगती है, लेकिन मुनाफा प्रति एकड़ चार से पांच लाख पक्का है। केला बोने के लिए भी पहले साल में करीब 60 हजार रुपए लागत आती है। लेकिन मुनाफा एक लाख या उससे भी अधिक होता है। केले की लागत दूसरे साल में और भी घटकर केवल 30 हजार प्रति एकड़ रह जाती है। लेकिन मुनाफा पहले जितना ही बरकरार रहता है।
1995 में रोहतक के बरौदा गांव से छत्तीसगढ़ के धमधा ब्लाक के खपरी गांव पहुंचे चौधरी आशीष सिंह खासा (40 वर्ष) को एक बार देखने पर आप अंदाज नहीं लगा पाएंगे कि ये हरियाणवी जाट हैं। पहनावा, बोलचाल और रहन-सहन में काफी अंतर आ जाने के बाद आशीष सिंह कहते हैं कि अब छत्तीसगढ़ और हरियाणा में कोई अंतर नहीं लगता। जब आशीष छत्तीसगढ़ आए थे, तब उनकी उम्र मात्र सत्रह वर्ष थी। उन्होंने धमधा में मात्र साढ़े 22 एकड़ जमीन खरीदी और खेती शुरु की। आज चौधरी आशीष सिंह के पास 400 एकड़ में फैले 4 कृषि फार्म हाउस हैं। आशीष बताते हैं कि उन्होंने सबसे पहले धान, सब्जियां, सोयाबीन और गन्ना बोकर देखा। फिर धीरे-धीरे हॉर्टिकल्चर को ज्यादा बढ़ावा दिया। इन दिनों आशीष के खेतों में केला, पपीता और शिमला मिर्च की खेती हो रही है।  टाइम, टेक्नीक और लेबर, इन तीनों के संतुलन से हरियाणा के इस युवा जाट किसान ने साढ़े 22 एकड़ खेती को 400 एकड़ के फॉर्म हाउस में तब्दील कर दिया। छत्तीसगढ़ आने के पीछे का कारण आशीष बताते हैं, यहां की सस्ती जमीनें ही सबसे पहला कारण हैं कि हरियाणा के किसान छत्तीसगढ़ चले आ रहे हैं। साथ ही यहां का अधोसंरचनात्मक विकास, जैसे की बिजली, सड़कें और पानी की उपलब्धता, कुछ ऐसी चीजें हैं, जिन्होंने यहां आने पर मजबूर किया। हमारा निर्णय सही था। आज नतीजा आपके सामने है। आशीष रोहतक में अपनी पुश्तैनी खेती को बेचकर छत्तीसगढ़ आए थे। वे बताते हैं कि उनका केला जहां स्थानीय भिलाई मंडी में ही खप जाता है। वहीं उनका पपीता दिल्ली और आगरा की मंडियों में बिकने जाता है। आशीष के खेतों में लगी शिमला मिर्च भी दिल्ली, मुंबई जैसे मेट्रो शहरों में बिकने जाती हैं।
हरियाणा के सोनीपत जिले से बेरला पहुंचे नारायण सिंह दहिया (65 वर्ष) भी उन्नत किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 1994 में सबसे पहले छत्तीसगढ़ आने वालों लोगों में दहिया भी थे। उनके बाद तो हरियाणा के किसानों का छत्तीसगढ़ आने का सिलसिला कुछ यूं चला कि इस वक्त करीब 1 हजार किसान प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में जमीनें खरीद कर खेती कर रहे हैं। इस वक्त दहिया के पास स्वयं के 150-150 एकड़ के दो कृषि फार्म हैं। वहीं उन्होंने खेती के लिए ही 175 एकड़ जमीन लीज़ पर भी ले रखी है। दहिया जब हरियाणा से निकले तो उनके पास वहां केवल 7 एकड़ जमीन थी। उसे बेचकर उन्होंने छत्तीसगढ़ के बेमेतरा ब्लाक के बेरला में 100 एकड़ जमीन खरीदी थी। उस वक्त हरियाणा में उन्होंने डेढ लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से जमीन बेची थी। जबकि छत्तीसगढ़ में उन्हें मात्र नौ हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से जमीन मिल गई थी। ये 1994 की बात है। आज उनके पास खुद की तीन सौ एकड़ और लीज पर 175 एकड़ जमीन है, जिसमें उन्होंने अदरक, केला, करेला, लौकी, शिमला मिर्च और अरबी जैसी सब्जियां बो रखी हैं। वे प्याज भी उगाते हैं। दहिया कहते हैं, धान की खेती में कुछ नहीं मिलता। धान की खेती में प्रति एकड़ 10 हजार रुपए ही कमाई हो पाती है। जबकि केला, पपीता, शिमला मिर्च जैसी फसलें प्रति एकड़ लाखों रुपए का मुनाफा देती हैं। ऐसे में धान बोना बिलकुल फायदेमंद नहीं है।
अहिवारा के ही रहने वाले स्थानीय किसान ऋतुराज सिंह ठाकुर हरियाणा के किसानों की खेती के तौर तरीकों के कायल हैं। ठाकुर कहते हैं,इनकी खेती के तरीके बिलकुल आधुनिक हैं। अब तो इनसे हमारा पारिवारिक नाता सा हो गया है। हम इनकी शादियों में मेहमान बनकर हरियाणा भी जाते हैं।
स्थानीय किसान जी पी चंद्राकर को हरियाणा के किसानों से कुछ परहेज है। इस बारे में कुछ यूं अपना दर्द बयान करते हैं,छत्तीसगढ़ के किसान मूलतः गरीब, लघु और सीमांत किसान हैं। इन किसानों के पास इतना धन नहीं होता कि ये धान के अलावा कोई खेती कर सकें। यहां की धरती की प्रकृति धान की फसल के अनुरूप हो गई है, दूसरा इसे उगाना अपेक्षाकृत सस्ता भी पड़ता है। ऐसे में अगर कोई किसान दूसरी फसल बोना भी चाहे तो वो सड़ जाती है।
एक दूसरे किसान वृगेंद्र सिंह अपना गुस्सा जाहिर करते हुए कहते हैं, हरियाणा के कृषक, किसान कम व्यापारी ज्यादा हैं। वे हमारी जमीनों को निचोड़ रहे हैं। अधिक से अधिक लाभ लेने के चक्कर में वे एक दिन छत्तीसगढ़ की जमीन को अनुपजाऊ बनाकर छोड़ेंगे। वृगेंद्र यह भी कहते हैं, हरियाणा के किसान कीटनाशकों का अधिकतम उपयोग कर रहे हैं, समय के साथ साथ जमीन की गुणवत्ता खत्म हो जाएगी।
जो किसान हरियाणा से छत्तीसगढ़ आए हैं, उनमें जाटों की संख्या करीब 95 प्रतिशत है। जबकि बाकी पांच प्रतिशत में ब्राह्मण और कुछ अन्य जातियां शामिल हैं। छत्तीसगढ़ के अहिवारा, धमधा, बेमेतरा और बेरला में हरियाणा के किसानों की आमद सबसे ज्यादा है। वहीं रायपुर, सिमगा,राजानांदगांव, धमतरी और मुंगेली में भी हरियाणवी किसान खेती करते हुए देखे जा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ आने से हरियाणा के किसानों का एक गंभीर सामाजिक संकट भी कुछ हद तक दूर हुआ है। दरअसल लड़कियों की कमी से जूझ रहे हरियाणा के किसानों में से कुछ के परिवार ने छत्तीसगढ़ में भी अपनी संतानों के शादी ब्याह किए हैं। लेकिन इनकी संख्या अभी उंगली में गिनने लायक है। वैसे चौधरी आशीष सिंह की मानें तो हरियाणा में लड़कियों का संकट केवल उन्हीं के लिए है, जो आर्थिक रूप से विपन्न हैं। संपन्न परिवारों के लिए ऐसी कोई कमी नहीं है।
हरियाणा के दखल से छत्तीसगढ़ के हालात कितने बदलेंगे, ये तो कह पाना मुश्किल है, लेकिन हरियाणवी किसानों की उन्नत खेती ने एक बात तो साफ कर दी है कि धान के कटोरे में सब्जियों, फल और दलहन के लिए भी अकूत संभावनाएं हैं। हालांकि ये और बात है कि अभी स्थानीय किसान धान की खेती के अलावा कुछ और सोचने के मूड में तो बिलकुल नहीं हैं।
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सरकार की तिरछी निगाहें
छत्तीसगढ़ में बाहरी व्यक्तियों द्वारा क्रय-विक्रय की जा रही कृषि भूमियों पर राज्य सरकार की भी नज़र है। प्रदेश के राजस्व मंत्री दयालदास बघेल कहते हैं, सरकार फिलहाल एक बिल पर काम कर रही है, जिसमें ऐसे प्रावधान किए जाएंगे कि प्रदेश में खेती की जमीन खरीदने के लिए मूल निवासी का प्रमाण पत्र पेश करना जरूरी हो जाएगा। ऐसे में बाहरी किसानों का प्रदेश में जमीन खरीदना नामुमकिन हो जाएगा। छत्तीसगढ़ में स्थानीय लोग ही जमीन खरीद सकेंगे। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि बड़े पैमाने पर दूसरे राज्यों के लोग छत्तीसगढ़ की जमीनों में निवेश कर रहे हैं। इसके पहले राज्य सरकार ने 10 जुलाई 2013 को छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता विधेयक की धारा 165 की उप धारा 4 में संशोधन करते हुए ये कानून तो बना ही दिया कि कोई भी भू स्वामी अपनी खेती की जमीन गैर कृषक को नहीं बेच पाएगा। इसके बाद छत्तीसगढ़ भी उन राज्यों की सूची में शामिल हो गया है, जहां केवल कृषि भूमि को केवल कोई किसान ही खरीद पाएगा।
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जमीन और हत्या
हरियाणा के लोगों की आमद से भले ही छत्तीसगढ़ के अपराध के ग्राफ प्रभावित ना हुआ हो, लेकिन स्थानीय पुलिस हर वक्त चौकन्नी रहती है। इसका कारण 10 सितंबर 2005 में बेमेतरा के भुरकी गांव का हत्याकांड है। जमीन विवाद के चलते हुए इस हत्याकांड में हरियाणा के सात जाट किसानों को आरोपी बनाया गया था। इन पर स्थानीय पिता और पुत्र की हत्या करने का आरोप था। हरियाणा के किसानों और स्थानीय लोगों के संघर्ष के दौरान दोनों पिता पुत्र मारे गए थे और एक व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गया था। मामले में छह जाट किसानों अनिल सिंह, जसवंत सिंह, हरिजिंदर सिंह, रामचंदर, अजय सिंह और नरेश सिंह को आजीवन उम्रकैदज की सजा सुनाई गई थी। छह दोषी दुर्ग जेल में अपनी सजा काट रहे हैं। ये मामला भुरकी हत्याकांड के नाम से मशहूर हुआ था और इसकी गूंज छत्तीसगढ़ विधानसभा में भी सुनाई दी थी।