गुरुवार, 19 नवंबर 2015

बस्तर के मृतक स्तंभ !





बस्तर, अतुलनीय बस्तर। माओवाद का जिक्र छोड़ दें तो छत्तीसगढ़ का एक खूबसूरत भू-भाग है बस्तर। जिसे प्रकृति ने हजारों नेमतें बख्शीं हैं। सुंदर हरेभरे वन, कल-कल करती नदियां, मनमोहक झरने, वन्यजीव, जड़ी-बूटियां, अद्भुत संस्कृति और उससे भी बढ़कर आडंबररहित भोले-भाले वनवासी। तेजी से भागती दुनिया से जैसे बिलकुल अलग-थलग, शांत, मद्धम और सुकूनदायक। अपने पोर-पोर में आदिवासी संस्कृति को लपेटे हुए बस्तर को छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। 39114 वर्ग किलोमीटर में फैला यह जिला किसी वक्त केरल राज्य और इजराइल-बेल्जियम जैसे देशों से भी बड़ा था। अब यह इलाका बस्तर समेत कुल सात जिलों (बस्तर, कांकेर, कोंडागांव, जगदलपुर, नारायणपुर, सुकमा, दंतेवाड़ा) में विभाजित हो चुका है। जगदलपुर को बस्तर का मुख्यालय माना जाता है। यहां गौंड, मारिया, मुरिया, ध्रुव व हलबा जाति की बहुलता है। उड़ीसा के उद्गम स्थल से शुरु होकर दंतेवाड़ा तक आने वाली करीब 240 किलोमीटर लंबी इंद्रावती बस्तरवासियों की आस्था और संस्कृति की प्रतीक है। चित्रकोट, तीरथगढ़ जलप्रपात, कुटुमर गुफा, बस्तर महल, बारसूर का गणेश मंदिर, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरीमाई तो पर्यटकों को यहां आकर्षित करते ही हैं, लेकिन बस्तर की अचभिंत कर देने वाली परंपराएं, रीति-रिवाज भी यहां लोगों का स्वागत करते नजर आते हैं।
बस्तर की कुछ परम्पराएं तो आपको एक रहस्यमय संसार में पंहुचा देती हैं। वह अचंभित किए बगैर नहीं छोड़ती। वनवासियों के तौर तरीके हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि चांद पर पहुंच चुकी इस दुनिया में और भी बहुत कुछ है, जो सदियों पुराना है, अपने उसी मौलिक रूप में जीवित है। मिस्त्र के पिरामिड़ तो पूरी दुनिया का ध्यान खींचते हैं, दुनिया के आठ आश्चर्य में शामिल हैं। लेकिन बस्तर में भी कुछ कम अजूबे नहीं है। यहां भी एक ऐसी ही अनोखी परंपरा है, जिसमें परिजन के मरने के बाद उसका स्मारक बनाया जाता है। भले ही वह मिस्त्र जैसा भव्य न हो, लेकिन अनोखा जरूर होता है। इतना ही नहीं, कुछ-कुछ स्थानों पर लंबे अरसे तक शुद्ध पानी भी भरकर रखा जाता है।
इस परंपरा को मृतक स्तंभ के नाम से जाना जाता है। दक्षिण बस्तर में मारिया और मुरिया जनजाति में मृतक स्तंभ बनाए बनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है। स्थानीय भाषा में इन्हें गुड़ी कहा जाता है। प्राचीन काल में जनजातियों में पूर्वजों को जहां दफनाया जाता था वहां 6 से 7 फीट ऊंचा एक चौड़ा तथा नुकीला पत्थर रख दिया जाता था। पत्थर दूर पहाड़ी से लाए जाते थे और इन्हें लाने में गांव के अन्य लोग मदद करते थे। लेकिन अब बदलते समय के साथ इस परंपरा में भी बदलाव हुए हैं। अब दफनाए गए स्थान पर क्रांकीट से भी सुंदर-सुंदर कलाकृतियां बनाई जाने लगी हैं। इन कलाकृतियों में पारंपरिक चित्रों के साथ साथ आधुनिक यंत्रों की नकली कृतियां भी शामिल हैं। किन्हीं-किन्हीं मृतक स्तंभों में देवी-देवताओं के चित्रों के साथ-साथ मोटरगाड़ी तक के चित्र बनाए जाते हैं।  
गोंड जनजाति के लोग भी मृतक स्तंभ बनाते हैं, लेकिन इनकी खासियत यह है कि यह शवों को दफनाते नहीं जलाते हैं। मृतक स्तंभों पर मृतक के संपूर्ण जीवन का वर्णन चित्रों के माध्यम से किया जाता है, जैसे वह क्या पसंद करता था, उसके पास कितने पशु थे, उनकी खान-पान की रूचियां क्या थीं। इतना ही नहीं इन स्तंभों से उसकी आर्थिक स्थिति का भी पता चलता है।
रायपुर में रहने वाले वरिष्ठ प्रेस फोटोग्राफर विनय शर्मा बताते हैं कि कई बार मृतक की अंतिम इच्छा के मुताबिक भी कब्र पर आकृतियां उकेरी जाती हैं। इनमें वे वस्तुएं भी शामिल होती हैं, जिनकी मृतक के जीवित रहते उपभोग करने की इच्छा रही हो।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ पर्यटन विभाग का स्लोगन है फुल ऑफ सरप्राइसेस, बस्तर पहुंचते ही यह स्लोगन सार्थक लगने लगता है। जहां कई सारे आश्चर्य सैलानियों का स्वागत करने के लिए तैयार खड़े रहते हैं। तो इस बार यदि रहस्य और रोमांच की दुनिया की सैर करने का इरादा हो, तो एक बार बस्तर के बारे में जरूर सोचिएगा। अरे डरिए नहीं, क्योंकि बस्तर उतना भी खौफनाक नहीं, जितनी मीडिया में उसकी तस्वीर खींची जाती है, आप बगैर किसी डर के बस्तर के कई सारे इलाकों की सुरक्षित और यादगार यात्रा कर सकते हैं। विश्वास तो कीजिए।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

एक हैं शाहरूख खान, एक हैं दाऊद खान





 


एक और जब पूरे देश में असहिष्णुता की बात हो रही है, सांस्कृतिक सौहार्द्र के बिगड़ने की बात हो रही है, तो मुझे दाऊद खान याद आ रहे हैं। शायद इसलिए भी, क्योंकि  भारत को असहिष्णु बताने वाले बॉलीवुड अभिनेता शाहरूख खान अपने बड़बोलेपन में यह भी भूल गए कि जो नाम, दौलत और शोहरत उनके पास है, वह इसी भारतभूमि की देन है। उनकी तरक्की देखकर ही फवाद खान और माहिरा खान (शाहरूख की अगली फिल्म रईस की अभिनेत्री) जैसे पाकिस्तानी अभिनेताओं ने भारत का रुख कर लिया है और सबसे बड़ी बात यह कि भारतीय निर्माता-निर्देशकों ने खुले दिल से उनका स्वागत भी किया है। शाहरूख को यह बताने की जरूरत है कि इस देश में और भी मुस्लिम बंधु हैं, जो दिल से इस भारतभूमि का शुक्रिया अदा करते हैं और इसकी सांस्कृतिक विरासत के असल वाहक हैं। केवल बड़े पर्दे पर ठुमके लगाने को सांस्कृतिक योगदान मान लेना लोगो की बड़ी भूल है।
खैर बात दाऊद खान की। 93 वर्षीय पूर्व शिक्षक दाउद खान छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के निवासी हैं। छत्तीसगढ़ में रामकथा वाचक और मानस मर्मज्ञ के रूप में उनकी प्रतिष्ठा और पहचान है। वे पिछले 68 वर्षो से सार्वजनिक आयोजनों में रामकथा वाचन करते आ रहे हैं। हाल ही में छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने दाउद खान का यह प्रवचन कार्यक्रम रायपुर में भी रखा, जिसका विषय भी उतना ही मनोरम था, जितना की दाऊद खान का मानस प्रवचन, राम: सांस्कृतिक सौहार्द्र के प्रतीक शीर्षक से आयोजित आख्यान कार्यक्रम का अनुभव ही अनूठा था। कार्यक्रम के दौरान ही मुझे न जाने कितने खान याद आए, जिन्होंने अपने कुकर्मों से केवल भारत को कलंकित करने का काम किया है। तब मंच से रामचरित मानस की गंगा बहा रहे दाऊद खान के सामने मेरा सर श्रद्धा से झुक गया।
राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त दाऊद खान 1949 से 1960 तक लगातार 11 साल तक हर वर्ष रायपुर शहर में मानस प्रवचन कर चुके है। छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी बिलासपुर में भी उन्हें दस वर्षो तक हर साल तुलसीदासकृत  रामचरित मानस पर अपना प्रवचन दिया है। श्री खान विगत 68 वर्षो से भी अधिक समय से रामचरित मानस का प्रवचन करते हुए रामकथा के सद्भाव पक्षों को और मानस के संदेशों को जन-जन तक पहुंचा रहे हैं। श्री खान हिन्दी, संस्कृत और छत्तीसगढ़ी भाषा के अच्छे जानकार हैं। रामचरित मानस का उन्होंने गहरा अध्ययन किया है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह कहते हैं कि दाऊद खान ने गोस्वामी तुलसीदास के लोकप्रिय महाकाव्य रामचरित मानस पर आधारित अपने प्रवचनों के जरिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की प्रेरक जीवनगाथा को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया है। श्री खान का संपूर्ण जीवन सामाजिक समरसता का प्रतीक है। वे लगभग 68 वर्षों से छत्तीसगढ़ सहित देश के विभिन्न शहरों में रामकथा वाचन का कार्य कर रहे हैं।
श्री खान ने अपना पहला प्रवचन वर्ष 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दिया था। रामकथा वाचन की प्रेरणा उन्हें छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और श्री सालिक राम द्विवेदी से मिली। उनके सानिध्य में रहकर श्री खान ने रामायण, कुरान, गुरूग्रंथ साहिब, बाईबिल और गीता सहित कई धर्म ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। श्री दाऊद खान को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री व्ही.व्ही. गिरी द्वारा वर्ष 1970 में सम्मानित किया जा चुका है। श्री खान को विभिन्न संस्थाओं द्वारा समय-समय पर पुरस्कृत और सम्मानित किया गया है। 
छत्तीसगढ़ के दाऊद खान करारा तमाचा हैं, उन तमाम लोगों के लिए, जो इस पुण्यभूमि को कुख्यात करने का षडयंत्र करने में लगे हुए हैं। दाऊद कहते हैं कि वे बार-बार इस भारतभूमि पर जन्म लेना चाहते हैं, ताकि रामचरित मानस के माध्यम से वे बारंबार लोगों को जीने की सही राह दिखा सकें। उनके जीवन मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह मर्यादित कर सकें

बुधवार, 4 नवंबर 2015

हम सुधरेंगे तभी बच पाएंगी नदियां


गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिंधुकावेरीजलेsस्मिंन् सन्निधिं कुरू।।
यह सब जानते हैं कि  नदियां जीवनदायिनी होती हैं। किसी भी राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, भौतिक एवं सांसकृतिक इतिहास और विकास में इनका स्थान विशिष्ट होता है। इतिहास हमें बताता है कि आदिकाल से ही सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ है। खासकर भारतीय संदर्भ में देखें तो हमारे देश, हमारी संस्कृति, हमारी जीवन शैली ही विभिन्न नदियों के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। हमारी संस्कृति की उत्पत्ति, उसके विकास में सात नदियों (बाद में शनैः शनैः देश की अन्य नदियां भी हमारे विकास में सहायक सिद्ध हुईं) का महत्वपूर्ण योगदान माना गया है। यहां तक कि हमारी पहचान ही सप्त सिंधु के रूप में होती थी। यह सप्तसिंधु नाम ही विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में पाया गया है। वस्तुतः यह नाम वैदिक भारत का ही नाम था। ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि हमारे पड़ोसी राष्ट्र भी हमें सप्तसिंधु के नाम से ही पुकारते थे। इन्हीं सात पावन सरिताओं के तट पर हमारी संस्कृति विकसित हुई, फली-फूली और जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, अन्य पावन सरिताओं ने हमारे जीवन में खुशहाली भरी। नदियां हमें केवल पेयजल ही उपलब्ध नहीं करातीं, बल्कि हमारे आर्थिक विकास का तानाबाना भी बुनती हैं। ये सिंचाई और परिवहन का भी प्रमुख स्त्रोत रही हैं। ये अपने प्रवाह के साथ विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण तत्व लाकर अपने तटों पर छोड़ देती हैं, जो कृषि में सहायक होते हैं। मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं, और हमारे लिए समृद्धि का द्वार खोल देते हैं। नदियों के बगैर बड़े-बड़े कल कारखानों, उद्योगों की स्थापना भी संभव नहीं है। लेकिन हमें पोषित, पल्लवित, पुष्पित करने वाली जीवनदायिनी नदियों का दोहन करते-करते हम भूल गए कि उनका सरंक्षण भी उतना ही जरूरी है, जितना कि हमारे लिए जीवित रहना। हम यह भी भूल गए कि यदि नदियां ही नहीं रहीं, तो हमारे अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगेगा। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि देश की तकरीबन सभी नदियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। 70 फीसदी तो इतनी प्रदूषित हैं कि जल्द ही वे नदी कहलाने लायक भी नहीं रहेंगी। यह नदियां इस कदर प्रदूषित हैं कि उनमें जलीय पौधों और जंतुओं का जीना दूभर है। नदियों की पूजा करने और उन्हें आस्था का केंद्र मानने वाले देश में उनका यह हाल बताता है कि अपने जीवनदायिनी जलस्रोतों के साथ हम क्या सलूक कर रहे हैं। हमारी बहुत सारी नदियां गरमी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं। कई नदियां हमेशा के लिए ही लुप्त हो गई हैं, कई गंदे नाले में परिवर्तित हो चुकी हैं।
अक्सर हम औद्योगीकरण को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं, लेकिन नदी पूजने वाले भी इसके लिए कम दोषी नहीं हैं। वे भी नदियों को प्रदूषित करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद गंगा है। जिसकी सफाई के लिए केंद्र सरकार को पृथक से विभाग बनाना पड़ा और उसका बजट अरबों रुपयों पर पहुंच गया। एक अध्ययन बताता है कि छत्तीसगढ़ की महानदी, अरपा व मध्य प्रदेश की नर्मदा और सोन में बहने वाले पानी की गुणवत्ता को नष्ट करने में 43 फीसदी स्थानीय नागरिक जिम्मेदार हैं। ऐसी हालत कमोबेश पूरे देश की है। 90 फीसदी लोग तो नदियों के जीवन के बारे में सोचते तक नहीं। नदियों की यह हालत तब हुई है, जब हमारे देश में नदियों को मां की संज्ञा दी गई है। उनकी परिक्रमा कर हम खुद को धन्य पाते हैं, अपने तीज-त्यौहारों में उनका स्मरण करते हैं और महाआरतियों के जरिए उनके प्रति श्रद्धा भी प्रकट करते हैं। लेकिन नहीं करते तो उनके संक्षण का काम। अब समय आ गया है कि हम तय करें कि नदियों में और गंदगी नहीं बहाई जाएगी। नदियों में औद्योगिक कचरों और शहरी नालियों के मुंह नदियों में नहीं खोले जाएंगे। बल्कि उनके निस्तारण के लिए पृथक व्यवस्था की जाएगी। इस काम में सरकार के साथ आम जनता को भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। गंदे पानी के निस्तारण के लिए ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना नदियों को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभा सकती है। हमें भी यह याद रखना होगा कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देना चाहते हैं। नदियों से खिलवाड़ सीधे-सीधे पर्यावरण से खिलवाड़ है। अपने जीवन से खिलवाड़ है। आजादी के दस साल बाद 1957 में योजना आयोग ने कहा था कि देश में 240 गावों में पानी नहीं है। यह आंकड़ा वर्तमान में दो लाख गांवों से ऊपर चला गया है। अगर यूं ही चलता रहा तो हमें नदियों का पानी पीने के लिए तो क्या आचमन के लिए भी उपलब्ध नहीं रहेगा।



सोनी सोरी से चार सवाल


सोनी सोरी को तो आप सब जानते ही होंगे। नक्सलियों को एस्सार कंपनी की रकम पहुंचाने के आरोप में पुलिस ने सोनी को दिल्ली से गिरफ्तार किया था। यह छत्तीसगढ़ का हाईप्रोफाइल मामला बना और सोनी को देशभर में पहचाने जाने लगा। फिर जेल से छूटने के बाद सोनी आप के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ तथाकथित तौर पर बस्तर की नेता बन चुकी है। मैं सोनी सोरी से चार सवाल पूछना चाहती हूं। लेकिन उसके पहले उस घटना का उल्लेख हो जाए, जिसके बहाने सोनी सोरी और उन जैसे तमाम लोग एक बार फिर लाइम लाइट में आने के लिए बेकरार हैं। साथ ही बस्तर में शांति की स्थापना के विरोधियों को भी एक बार फिर हो-हल्ला मचाने का मौका मिल गया है।
छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित बीजापुर ज़िले की कुछ आदिवासी महिलाओं ने पिछले दिनों आरोप लगाया था कि बड़ागुड़ा थाना क्षेत्र के चिन्नागेलूर, पेदागेलूर, गोदेम और भूर्गीचेरु समेत कई गांवों में सीआरपीएफ और पुलिस के कुछ जवानों ने माओवादियों की तलाशी के नाम पर उनके घरों में घुसकर लूटपाट की है। यह भी आरोप लगाया कि जवानों ने उनके घरों से पुरुष सदस्यों को जबरदस्ती निकाला और महिलाओं के साथ बलात्कार किया। तथाकथित मानवाधिकार संगठनों के हस्तक्षेप के बाद रविवार को इनमें से चार पीड़ित महिलाओं ने ज़िले के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक के समक्ष अपना बयान दर्ज़ कराया। बीजापुर ज़िले के पुलिस अधीक्षक केएल ध्रुव का कहना है, “हमें इन चार महिलाओं से शिकायत मिल गई है। अब हम मामले की जांच कर रहे हैं। फ़िलहाल ये स्पष्ट नहीं है कि 19 से 22 अक्टेबर की बताई जा रही इन घटनाओं में कितने सुरक्षाकर्मी शामिल थे आरोपों की जांच के लिए एएसपी इंदिरा कल्याण ऐलेसेला के नेतृत्व में चार सदस्यीय टीम का गठन किया गया है। आरोप कितने सच्चे या झूठे हैं, यह तो जांच में सामने आ ही जाएगा। लेकिन इस घटना के बहाने ज़रा बस्तर में सक्रिय सफेद मुखौटा लगाए काले दिल वाले उत्पातियों पर भी बात होनी चाहिए।
अब उन सवालों पर आते हैं, जिन्हें मैं सोनी सोरी से करना चाहती हूं-

1.-पहला यह कि बीजापुर में अर्ध्यसैनिक बलों और पुलिस के कुछ जवानों पर आदिवासी महिलाओं से बलात्कार के आरोप लगने के बाद आप कुछ ज्यादा ही मुखर नज़र आ रही हैं। बस्तर से लेकर रायपुर तक पहुंचकर आप प्रेस कॉफ्रेंस ले रही हैं। इसे देखकर लगता है कि आप को राजनीति की अच्छी ट्रेनिंग दी जा रही है। यह अच्छी बात है, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। फिलवक्त आपसे मेरा सवाल यह है कि आज से करीब एक साल पूर्व मैं तहलका के लिए एक स्टोरी करना चाहती थी। मैं यह जानना चाहती थी कि क्या सचमुच सुरक्षा बलों के जवान आदिवासी महिलाओं का बलात्कार करते हैं? मैं खुद प्रत्यक्ष रूप से उन इलाकों में जाना चाहती थीं, उन महिलाओं से मिलना चाहती थी, उनके दर्द को सुनना-समझना और दुनिया के सामने लाना चाहती थी। इसके लिए मैंने आपसे फोन पर कई-कई बार संपर्क किया। लेकिन आपमें उसमें बिलकुल भी रूचि नहीं ली। मैं समझ ही नहीं पाई कि एक तरफ तो आप बस्तर में आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार की बात करती हैं, लेकिन जब कोई पत्रकार उसे अपनी आंखों से देखना या सुनना चाहता है तो आप चुप्पी साध लेती हैं। इतना ही नहीं, मौका आने पर आप स्थानीय पत्रकारों पर आरोप भी लगाती हैं कि पुलिस के डर से वे चुप हैं। जब मैं आपसे संपर्क कर रही थी तो मुझे पता था कि बस्तर में जाकर इस तरह की स्टोरी करने में रिस्क था, लेकिन वह रिस्क मेरी अपनी थी। फिर क्यों आप मुझे टालती रहीं और मुझे किसी भी तरह से मदद करने की रुचि नहीं दर्शाई?
2.-मेरा दूसरा सवाल यह कि आपने रायपुर में प्रेस कॉफ्रेंस करके बोला कि बस्तर में शांति बहाल नहीं हुई है, बल्कि आदिवासियों की समस्या और बढ़ गई  है। आप कहती हैं कि बस्तर में शांति वार्ता से ही हो सकती है, जनप्रतिनिधि इस दिशा में पहल करें। तो क्या आपने इस दिशा में कोई पहल की, अब तो आपज्वाइन करने और लोकसभा चुनाव लड़ लेने के बाद आप भी जनप्रतिनिधि हैं। आरोप लगाना सबसे आसान काम है, लेकिन समाधान की दिशा में आगे बढ़ना सबसे चुनौतीपूर्ण। नक्सलवाद ऐसा मसला है, जो सिर्फ सरकारें नहीं सुलझा सकती, इसके लिए समग्र राजनीतिक-सामाजिक चेतना का जागृत होना जरूरी है। क्या आपने सरकार और पुलिस-प्रशासन को कोसने के अलावा इस दिशा में कोई काम किया है?
3.- तीसरा सवाल यह कि आप बस्तर में रहती हैं, लेकिन क्या आप नहीं जानती कि नक्सली जब सुरक्षाबलों पर हमला करते हैं या उन्हें एंबुश में फंसाकर मार डालते हैं तो कई बार वे उनके हथियारों के साथ-साथ उनकी वर्दी और जूते भी लूट ले जाते हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता (ऐसा हो भी सकता है, इस पर क्यों न विचार किया जाए) कि नक्सलियों ने जवानों की वर्दी पहनकर आदिवासी महिलाओं को जानबूझकर निशाना बनाया ताकि जवानों का मनोबल गिरे, उनकी बदनामी हो ( या तथाकथित मानवाधिकार संगठनों को उनकी बदनामी करने का मौका मिल सके)। क्या आप मेरी इस बात से सहमत हैं कि नक्सली हथियार और वर्दी लूटते हैं?
4.- चौथा और सबसे अहम सवाल यह कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से ही बस्तर में नक्सलवाद को कुचलने के लिए व्यापक अभियान चलाया गया। कई नक्सलियों को या तो आत्मसमर्पण करना पड़ा या कई गिरफ्तार कर लिए गए। केंद्रीय गृहमंत्रालय ने नक्सलवाद को वामपंथ उग्रवाद का नया नाम देकर अभूतपूर्व आक्रमकता दिखाई और माओवादियों की जड़ों को हिला दिया। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित सुकमा का दौरा करके नक्सलियों के खिलाफ बड़े ऑपरेशन का खाका तैयार किया है। सुकमा दौरे के दौरान डोभाल के साथ सीआरपीएफ, आईटीबी और बीएसएफ के डीजी भी थे। केंद्रीय गृह मंत्रालय बारिश के बाद नक्सलियों के खिलाफ बड़े ऑपरेशन की तैयारी में है। इसका बेस कैंप सुकमा को बनाया गया है। बारिश खत्म होने के बाद अब अभियान को गति देने से पहले श्री डोभाल ने एक-एक बिंदु पर रणनीति तैयार की है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि माओवादी और उनके पैरोकार बस्तर से जवानों को हटाने की मांग करते रहे हैं। क्या यह कहीं ऐसा तो नहीं कि एंटी नक्सल ऑपरेशन शुरु न हो पाए, इसलिए षड़यंत्रपूर्वक केंद्र और राज्य सरकार का ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है?
इस वर्ष में बस्तर समेत सुकमा,बीजापुर व दंतेवाड़ा में नक्सलियों के विरुद्ध लंबा आपरेशन जारी है। हजारों जवान जंगल में उतारे गए हैं। काफी संख्या में जवान सुकमा, दंतेवाड़ा, बीजापुर जिलों के किस्तावरम, गोलापल्ली, उसूर, आवापल्ली, भद्रकाली, मद्देड़, कुआकोंडा, तुमनार, पिनकोंडा, मसेनार, गुमडा आदि इलाकों में सर्चिंग कर रहे थे। इस दौरान एक दर्जन से अधिक छिटपुट मुठभेड़ होने की खबरें आ रही थीं।। जुलाई में सुकमा जिले के जगरगुंडा क्षेत्र में हुई मुठभेड़ में तीन से चार नक्सलियों के मारे जाने की सूचना मिली थी। हालांकि उनके शव साथी ले जाने में सफल हो गए थे। जिला बल,एसटीएफ तथा सीआरपीएफ के जवान सीमावर्ती क्षेत्रों की लगातार घेरेबंदी से नक्सली सुरक्षित ठिकानों की ओर दुबक रहे थे। कही यह उसी का बदला तो नहीं। दरअसल जिस तरह से यह पूरा घटनाक्रम सामने आया है, उससे कई तरह के संदेह जन्म लेते हैं। मैं कतई नहीं कहना चाहती कि यह आरोप पूरी तरह से झूठे हैं या हो सकते हैं। लेकिन बावजूद इसके पूरा घटनाक्रम देखते हुए यह आशंका जरूर हो रही है कि कहीं यह कोई साजिश तो नहीं? क्योंकि आप की नेता सोनी सोरी, जो नक्सलवादियों को एस्सार की रकम पहुंचाने के मामले में गिरफ्तार हुईं और पूरे देश में कुप्रसिद्ध भीं, उन्होंने पूरे मामले को यूं लपका है, जैसे वे बस इसी बात का इंतजार कर रहीं थीं।
सोनी सोरी ने रायपुर प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में बीजापुर जिले में सीआरपीएफ और पुलिस के कुछ जवानों द्वारा आदिवासी महिलाओं के साथ कथित बलात्कार, यौन प्रताड़ना और घरों में लूटपाट की घटना को सच बताया और कहा कि बस्तर में नक्सली बताकर किसी को गिरफ्तार करना, महिलाओं के साथ दुष्कर्म करना आम बात हो गई है।

सच क्या है यह जांच में सामने आना ही है, महिलाओं से दुष्कर्म करने वाले किसी भी कीमत पर नहीं बख्शा जा सकता है। उन्हें इसकी सख्त से सख्त सजा मिलनी ही चाहिए। फिर चाहे वे कोई भी क्यों न हों। लेकिन इतना जरूर है कि बस्तर को इस वक्त उस नजर से देखने वालों की ज्यादा जरूरत है, जो निष्पक्ष हों। एक तरफ सरकार है तो दूसरी तरफ माओवादी। यहां एक तीसरा पक्ष भी है, जो प्रथम दोनों ही पक्षों से ज्यादा मुखर, तेज और चालाक है, वह है माओवादियों के पैरोकार। इनसे और इनकी दिग्भ्रमित करती दलीलों से बचते हुए सच तक पहुंचना जरूरी है, फिर सच चाहे जो भी हो। हो सकता है कि यह घिनौना कृत्य जवानों का ही हो, या फिर नक्सलियों का। लेकिन सिक्के के दोनों पहलुओं को जांच में शामिल कर सच्चाई तक पहुंचा जा सकता है। 

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

धान का कटोरा उगल रहा इतिहास के राज़

देश के नक्शे में छत्तीसगढ़ की अब एक नई पहचान बनने जा रही है। अब तक धान उगलने वाली छत्तीसगढ़ की धरती अब पहली से पांचवी सदी का इतिहास उगल रही है। छत्तीसगढ़ में मिल रहे अभिलेखों और इंडो ग्रीक-इंडो सिथियन सिक्कों से पता चलता है कि पहली से पांचवी शती में छत्तीसगढ़ एक महत्वपूर्ण प्राचीन शक्तिशाली व्यापारिक और राजनीतिक केंद्र रहा होगा।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी इस तथ्य को पुष्ट करने के लिए प्रदेश के पुरातात्विक विभाग के साथ मिलकर कई पुरातात्विक साइट्स पर खनन कर रहा है।
हाल ही में सूबे की राजधानी रायपुर से करीब 40 किलोमीटर दूर बलौदाबाजार में पुरातात्विक स्थल डमरू में पहली से पांचवीं सदी के प्रमाण मिले हैं। यहां मिले पकी मिट्टी के अभिलेखों में पांच नए राजाओं के नाम भी पाए गए हैं। अभिलेख ब्राम्ही लिपि में हैं, जिसका परीक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) मैसूर में हुआ है। डमरू प्रदेश की पहली पुरातात्विक साइट है, जहां मिट्टी के किले की खुदाई की जा रही है। पुरातत्वविदों का दावा है कि डमरू में मिले अभिलेकों की मदद से छत्तीसगढ़ के इतिहास को पहली से पांचवीं सदी से जोड़ने में मदद मिलेगी।
इस बारे में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षक अरुण टी राज कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में कहीं-कहीं प्राग-ऐतिहासिक काल (लोअर पैलियोलिथिकल काल) से जुड़ी वस्तुओं के भी प्रमाण मिले हैं। हम प्रदेश में अलग-अलग पुरातात्विक साइट्स पर खुदाई भी कर रहे हैं, या राज्य सरकार द्वारा खनन करवा रहे हैं ताकि इतिहास से पर्दा उठाया जा सके।
डमरू में पुरातत्वविद डॉ. शिवकांत वाजपेयी और राहुल सिंह की देखरेख में खुदाई हो रही है। डॉ.वाजपेयी कहते हैं कि अभिलेखों से जो प्रमाण मिल रहे हैं, उससे स्पष्ट हो रहा है कि सभी राजाओं का स्वतंत्र अस्तित्व था। अभिलेखों में राजाओं के नाम के साथ उनके राजकीय चिन्ह भी अंकित हैं। इसके अलावा कई अभिलेखों में स्वास्तिक के निशान भी मिल रहे हैं। अब तक छत्तीसगढ़ के इतिहास में कौशलक महेंद्र नामक शासक का उल्लेख सबसे पुराना है। इसके बारे में समुद्रगुप्त के प्रयास प्रशस्ति इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख में जानकारी मिलती है।
डमरू का पुरातात्विक उत्खनन स्थल मिट्टी के परकोटे वाला गोलाकार गढ़ है। पुरातत्वविदों के अनुसार देश के किसी भी अन्य पुरास्थल पर इस तरह की आवासीय संरचनाएं उत्खनन में नहीं मिली हैं। इसका विस्तार लगभग 42 एकड़ में है, लेकिन अब तक सिर्फ दो एकड़ में ही खुदाई हो पाई है। यहां मिले अभिलेखों से पता चलता है कि डमरू एक महत्वपूर्ण प्राचीन शक्तिशाली व्यापारिक और राजनीतिक केंद्र रहा होगा।
डमरू में मिले मिट्टी के अभिलेखों में पांच नए राजाओं के नाम प्रकाश में आए हैं। इन राजाओं के बारे में अब तक किसी भी खुदाई में जानकारी नहीं मिली है। इसमें महाराज कुमार श्रीश्री धरस्य, श्री महाराज रूद्रस्य, महाराज श्री रस्य, महाराज कुमार श्री मट्टरस्य और सदामा श्री दामस्य का नाम है। उत्खनन में 40 मिट्टी के मुद्रांक मिले हैं, जिनमें अभी तक 9 मिट्टी के मुद्रांकों के अध्ययन के बाद छत्तीसगढ़ के पहली सदी से लेकर पांचवीं सदी ईस्वी के मध्य के नए शासकों के नाम सामने आए हैं।
डमरू की खुदाई में प्रचीन आवासीय गोलाकार संरचना के अलावा चूल्हे, प्रचीन मिट्टी के बर्तन, विभिन्न कालखंडों के सिक्के, अर्धकीमती पत्थरों के मनके, पकी हुई मिट्टी के खिलौने, हाथी दांत के कंघे और लौह एवं ताम्र उपकरण भी मिले हैं।
छत्तीसगढ़ पुरातत्व विभाग के संचालक राकेश चतुर्वेदी मानते हैं कि डमरू में मिल रहे अभिलेख पांचवी शताब्दी के दौरान छत्तीसगढ़ के इतिहास की जानकारी में देने में सहायक होंगे। फिलहाल इन पर अध्ययन के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की मदद ली जा रही है।
छत्तीसगढ़ के कांकेर में भी पुरातात्विक महत्व के लगभग 4000 साल पुराने सिक्कों और अंगूठी के आकार के सोने के आभूषण मिले हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को मिले इन सोने के आभूषणों पर जनजातीय कला अंकित है। इन पर घोड़े और बकरे जैसे जानवरों के चित्र उकेरे गए हैं। साथ ही सोने की दो अंगूठी भी मिली है। ऐसा माना जा रहा है कि ये सोना ताम्रप्रस्तरयुगीन संस्कृति के हैं। उस समय जानवरों को सोने पर उकेरने की प्रथा के प्रमाण मिलते हैं।
एएसआई को कांकेर के एक गांव हथकोडेंल में तालाब की खुदाई के दौरान यह यह आभूषण मिले। तालाब की खुदाई के दौरान ग्रामीणों को यह आभूषण मिले। इन पर कलात्मक सींग का चित्र भी उकेरा गया है।
अभी इस बात की जानकारी नहीं मिल पाई है कि यह सोना किस काल का है। कांकेर में राजपरिवार लंबे समय तक सक्रिय था। इसलिए इन सोने के आभूषणों का अलग महत्व समझा जा रहा है। हालांकि वरिष्ठ पुरातत्वविद इसे न तो गहना मान रहे हैं, न ही सोने का सिक्का ही मानने को तैयार है। उनका मानना है कि यह किसी राजपरिवार का राजप्रतीक हो सकता है।
वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता निरंजन महावर का कहना है कि प्राचीन समय में जब किसी नए तालाब की खुदाई होती थी, तो तालाब का आकाश से विवाह कराया जाता था। इसमें तालाब के बीच में एक लकड़ी का स्तंभ स्थापित किया जाता था। उस समय सोना दान करने की परंपरा भी थी। ऐसा माना जाता था कि तालाब का विवाह नहीं कराने से या तो क्षेत्र में बारिश नहीं होगी, या फिर तालाब में पानी नहीं रुकेगा।
वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता निरंजन महावर यह भी कहते हैं कि सोने के इन टुकड़ों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह किसी राज्य के प्रतीक हैं। कांकेर और उसके आसपास दसवीं शताब्दी से पहले वाकाटक राजाओं का राज था। उसके बाद दक्षिण भारत के कई राजाओं ने राज किया। संभवत: यह सोने के प्रतीक चिन्ह उस समय प्रचलन में रहे हों। 
पुरातात्विक सलाहकार एके शर्मा इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते। वे कहते हैं कि यह सोने के सिक्के नहीं है। विश्व में कहीं भी चार हजार साल पुराने सिक्कों का प्रचलन नहीं रहा है। भारत में सिक्कों का प्रचलन 2500 साल पहले शुरू हुआ। हो सकता है कि यह रोमन आक्रमण का प्रमाण हो। राजिम में रोमन आए थे, इसके प्रमाण मिले हैं। यह कांकेर तक भी जा सकते हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षक पुरातत्ववेत्ता अरुण टी राज कहते हैं कि यह डॉलर जैसा दिखने वाला सोने का छल्ला है, जिस पर पशु के चित्र उकेरे गए हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारियों को इसकी जानकारी दी गई है। जांच में ही स्पष्ट हो पाएगा कि यह सोना किस समय का है। हो सकता है कि उस समय इस्तेमाल होने वाले गहने हों, लेकिन अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है।
छत्तीसगढ़ के एक अन्य पुरातात्विक महत्व के स्थल तरीघाट की खुदाई में टेराकोटा का जिराफ मिला है। पुरातत्वविद् इसके 2500 से 3000 वर्ष पुराना होने का अनुमान लगा रहे हैं। तरीघाट राजधानी रायपुर से 35 किलोमीटर दूर पाटन के पास है। यहां लंबे समय से खुदाई चल रही है। वर्ष 2013-14 की खुदाई में सबसे महत्वपूर्ण टेराकोटा के जिराफ को माना जा रहा है। इससे पहले भोपाल (मध्यप्रदेश) के पास भीमबेटका की गुफा में जिराफ के शैलचित्र मिले हैं। यह दस हजार से 20 हजार साल पुराने हैं। वहीं ओडिशा के कोर्णाक के सूर्य मंदिर में भी जिराफ अंकित है। इसे 12वीं-वीं शताब्दी का माना जाता है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि टेराकोटा का जिराफ देश में पहली बार तरीघाट में पाया गया है।
तरीघाट में खोज कर रहे पुरातत्वविद् जेआर भगत ने बताया कि यहां इंडो ग्रीक और इंडो सिथियन सिक्के मिले हैं। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि तरीघाट एक अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक सेंटर रहा होगा। व्यापार होने के कारण स्थानीय लोगों ने बाहरी जीव-जंतुओं को भी देखा होगा, जिसके बाद यहां उसे टेराकोटा में उकेरा गया होगा। विशेषज्ञों के अनुसार, तरीघाट में टेराकोटा के जिराफ मिलने से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि दूसरी और तीसरी सेंचुरी में छत्तीसगढ़ एक अमीर राज्य की श्रेणी में आता रहा होगा और यहां से बड़े पैमाने पर आयात-निर्यात होता रहा होगा।
पुरातत्वविदों के अनुसार तत्कालीन राजाओं ने दक्षिण अफ्रिका का दौरा किया होगा। इस दौरान इनको जिराफ देखने को मिला होगा। तरीघाट की खुदाई के लिए आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया से अनुमति ली गई थी। लेकिन इसकी खुदाई की समय सीमा 30 सितंबर को ही समाप्त हो गई है। छत्तीसगढ़ के संस्कृति और पुरातत्व विभाग की ओर से एएसआई को खुदाई की तारीख बढ़ाने के लिए पत्र लिखा गया है।
छत्तीसगढ़ में जोक नदी के किनारे भी ढाई लाख साल पुराने पाषाण के हथियार मिले हैं। महासमुंद के पिथौरा के पास सपोर गांव में प्राग-ऐतिहासिक काल के हैंडएक्स (हस्त कुठार) मिले हैं। प्रदेश में प्राग-ऐतिहासिक काल का पहला हैंडएक्स मिला है। इसके साथ ही जोक नदी के किनारे पहली बार एक ही स्थान पर प्राग-ऐतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक के प्रमाण मिले हैं। वहीं कसडोल के अमोदी में तारा के आकार के ईंटों से बने मंदिर के प्रमाण भी मिले हैं। हालांकि अभी इसकी खुदाई शुरू नहीं हुई है।
पुरातत्वविद शिवाकांत वाजपेयी और अतुल प्रधान कहते हैं कि जोक नदी का उद्गम ओडिशा से हुआ है। प्रदेश में यह नदी बागबाहरा के खट्टी गांव से शिवरीनारायण तक है। लगभग 140 किलोमीटर लंबी नदी के किनारे मौजूद गांवों का पुरातात्विक सर्वे करने पर प्राग-ऐतिहासिक काल के प्रमाण मिले हैं। इसमें लघु पाषाण काल के उपकरण भी मिले हैं। हैंडएक्स पाषाण उपकरणों में पहला हथियार माना जाता है।

जोक नदी के किनारे अध्ययन करने पर प्राग-ऐतिहासिक काल के उपकरण और जीवन शैली के बारे में जानकारी मिल रही है। इसके साथ ही उस समय के वातावरण के बारे में भी जानकारी मिल सकती है। प्रदेश में अभी तक लोअर पैलियोलिथिकल काल के अन्य उपकरण मिले थे, लेकिन हैंडएक्स पहली बार मिला है।