बुधवार, 4 नवंबर 2015

हम सुधरेंगे तभी बच पाएंगी नदियां


गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिंधुकावेरीजलेsस्मिंन् सन्निधिं कुरू।।
यह सब जानते हैं कि  नदियां जीवनदायिनी होती हैं। किसी भी राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, भौतिक एवं सांसकृतिक इतिहास और विकास में इनका स्थान विशिष्ट होता है। इतिहास हमें बताता है कि आदिकाल से ही सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ है। खासकर भारतीय संदर्भ में देखें तो हमारे देश, हमारी संस्कृति, हमारी जीवन शैली ही विभिन्न नदियों के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। हमारी संस्कृति की उत्पत्ति, उसके विकास में सात नदियों (बाद में शनैः शनैः देश की अन्य नदियां भी हमारे विकास में सहायक सिद्ध हुईं) का महत्वपूर्ण योगदान माना गया है। यहां तक कि हमारी पहचान ही सप्त सिंधु के रूप में होती थी। यह सप्तसिंधु नाम ही विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में पाया गया है। वस्तुतः यह नाम वैदिक भारत का ही नाम था। ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि हमारे पड़ोसी राष्ट्र भी हमें सप्तसिंधु के नाम से ही पुकारते थे। इन्हीं सात पावन सरिताओं के तट पर हमारी संस्कृति विकसित हुई, फली-फूली और जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, अन्य पावन सरिताओं ने हमारे जीवन में खुशहाली भरी। नदियां हमें केवल पेयजल ही उपलब्ध नहीं करातीं, बल्कि हमारे आर्थिक विकास का तानाबाना भी बुनती हैं। ये सिंचाई और परिवहन का भी प्रमुख स्त्रोत रही हैं। ये अपने प्रवाह के साथ विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण तत्व लाकर अपने तटों पर छोड़ देती हैं, जो कृषि में सहायक होते हैं। मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं, और हमारे लिए समृद्धि का द्वार खोल देते हैं। नदियों के बगैर बड़े-बड़े कल कारखानों, उद्योगों की स्थापना भी संभव नहीं है। लेकिन हमें पोषित, पल्लवित, पुष्पित करने वाली जीवनदायिनी नदियों का दोहन करते-करते हम भूल गए कि उनका सरंक्षण भी उतना ही जरूरी है, जितना कि हमारे लिए जीवित रहना। हम यह भी भूल गए कि यदि नदियां ही नहीं रहीं, तो हमारे अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगेगा। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि देश की तकरीबन सभी नदियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। 70 फीसदी तो इतनी प्रदूषित हैं कि जल्द ही वे नदी कहलाने लायक भी नहीं रहेंगी। यह नदियां इस कदर प्रदूषित हैं कि उनमें जलीय पौधों और जंतुओं का जीना दूभर है। नदियों की पूजा करने और उन्हें आस्था का केंद्र मानने वाले देश में उनका यह हाल बताता है कि अपने जीवनदायिनी जलस्रोतों के साथ हम क्या सलूक कर रहे हैं। हमारी बहुत सारी नदियां गरमी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं। कई नदियां हमेशा के लिए ही लुप्त हो गई हैं, कई गंदे नाले में परिवर्तित हो चुकी हैं।
अक्सर हम औद्योगीकरण को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं, लेकिन नदी पूजने वाले भी इसके लिए कम दोषी नहीं हैं। वे भी नदियों को प्रदूषित करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद गंगा है। जिसकी सफाई के लिए केंद्र सरकार को पृथक से विभाग बनाना पड़ा और उसका बजट अरबों रुपयों पर पहुंच गया। एक अध्ययन बताता है कि छत्तीसगढ़ की महानदी, अरपा व मध्य प्रदेश की नर्मदा और सोन में बहने वाले पानी की गुणवत्ता को नष्ट करने में 43 फीसदी स्थानीय नागरिक जिम्मेदार हैं। ऐसी हालत कमोबेश पूरे देश की है। 90 फीसदी लोग तो नदियों के जीवन के बारे में सोचते तक नहीं। नदियों की यह हालत तब हुई है, जब हमारे देश में नदियों को मां की संज्ञा दी गई है। उनकी परिक्रमा कर हम खुद को धन्य पाते हैं, अपने तीज-त्यौहारों में उनका स्मरण करते हैं और महाआरतियों के जरिए उनके प्रति श्रद्धा भी प्रकट करते हैं। लेकिन नहीं करते तो उनके संक्षण का काम। अब समय आ गया है कि हम तय करें कि नदियों में और गंदगी नहीं बहाई जाएगी। नदियों में औद्योगिक कचरों और शहरी नालियों के मुंह नदियों में नहीं खोले जाएंगे। बल्कि उनके निस्तारण के लिए पृथक व्यवस्था की जाएगी। इस काम में सरकार के साथ आम जनता को भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। गंदे पानी के निस्तारण के लिए ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना नदियों को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभा सकती है। हमें भी यह याद रखना होगा कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देना चाहते हैं। नदियों से खिलवाड़ सीधे-सीधे पर्यावरण से खिलवाड़ है। अपने जीवन से खिलवाड़ है। आजादी के दस साल बाद 1957 में योजना आयोग ने कहा था कि देश में 240 गावों में पानी नहीं है। यह आंकड़ा वर्तमान में दो लाख गांवों से ऊपर चला गया है। अगर यूं ही चलता रहा तो हमें नदियों का पानी पीने के लिए तो क्या आचमन के लिए भी उपलब्ध नहीं रहेगा।



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