सैंकड़ों एकड़ में फैले फार्म हाउस और हुक्का पीते किसानों को देखकर
तो एकबारगी यही लगता है कि हम हरियाणा के किसी गांव में खड़े हैं। लेकिन तभी खेतों
में काम कर रहे छत्तीसगढ़िया मजदूरों को देखकर हमें ये अहसास होता है कि हम
छत्तीसगढ़ में ही हैं। छत्तीसगढ़ में शक्ल लेते नए हरियाणा को लेकर राज्य सरकार के
कान भी खड़े हो गए हैं।
हरियाणा और छत्तीसगढ़ का प्रारब्ध और तासीर, दोनों में ही कोई ज्यादा
फर्क नहीं है। लेकिन बावजूद इसके दोनों प्रदेशों में तीन अंतर
ऐसे भी हैं, जिन्होंने हरियाणा के उन्नत किसानों को छत्तीसगढ़ में बसने पर मजबूर
कर दिया। इन किसानों ने केवल छत्तीसगढ़ को अपनी कर्मभूमि
बनाया, बल्कि सैंकड़ों एकड़ खेतों में उन्नत खेती के जरिए करोड़ों का फायदा भी
कमाया।। हालांकि हरियाणा और छत्तीसगढ़ में कोई सांस्कृतिक-सामाजिक साम्य कभी नहीं
रहा। परंतु दोनों ही प्रदेश कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले रहे हैं। हरियाणा हो या
छत्तीसगढ़, दोनों की आबादी का तकरीबन 80 फीसदी हिस्सा किसान बहुल रहा है। 1 नंबवर
( वर्ष 1966) में हरियाणा ने पंजाब से अलग होकर शक्ल हासिल की तो छत्तीसगढ़ ने भी 1
नंबवर (वर्ष 2000) को ही मध्यप्रदेश की कोख से जन्म लिया। हरित क्रांति में
हरियाणा ने देश में अहम योगदान दिया, तो छत्तीसगढ़ ने भी अपने लौह अयस्क से देश के
औद्योगिक विकास को नई गति दी। जब गेंहू की खेती के लिए हरियाणा नाम कमा रहा था तो
छत्तीसगढ़ की पहचान धान की पैदावार को लेकर बन रही थी। दोनों की जलवायु में भी ये
समानता है कि दोनों ही प्रदेशों में भीषण गर्मी पड़ती है, और कभी कभी तापमान 45 का
आंकडा पार कर जाता है। पौराणिक काल से ही दोनों प्रदेशों का अपना महत्व रहा है।
महाभारत और भागवत गीता की पटकथा अगर हरियाणा के कुरुक्षेत्र में लिखी गई, तो
रामायण की रचना में छत्तीसगढ़ के वाल्मिकी, कौशल्या और शबरी समेत कई पात्रों का
योगदान रहा है। खैर, बात हरियाणवी किसानों के छत्तीसगढ़ पलायन की। हरियाणा के
किसानों को छत्तीसगढ़ की तरफ जो अंतर आकर्षित कर रहे हैं, वो है सस्ती और बेहिसाब
उपजाऊ जमीन, सस्ती बिजली व जीरो पॉवर कट पॉलिसी और सस्ता श्रम।
हरियाणा में जहां जमीनों के दाम आसमान छू रहे हैं, वहीं उसकी तुलना
में छत्तीसगढ़ में अभी भी जमीन सस्ती ही कही जाएगी। छत्तीसगढ़ में आज भी जहां खेती
योग्य जमीनें 4 से 5 लाख प्रति एकड़ की दर से मिल रही हैं। वहीं हरियाणा में
जमीनों के भाव बहुत अधिक हैं। वहां जमीनों के दाम 20 लाख से शुरु होकर करोड़ों तक
हैं। सिरसा में 20 लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से खेती योग्य जमीन मिल पाती है।
जींद में प्रति एकड़ जमीन की कीमत 30 लाख रुपए है, दिल्ली से लगी हरियाणा की सीमा
वाले इलाके में तो प्रति एकड़ 50 लाख से 1.30 करोड़ तक की कीमत वसूली जा रही है।
यही कारण है कि 1994 से हरियाणा के किसानों के आने का सिलसिला शुरु हुआ, जो
बदस्तूर जारी है। खेती के विस्तार के लिए अभी हरियाणा के मुकाबले छत्तीसगढ़ में
ज्यादा जमीन उपलब्ध है। बात करें बिजली की तो छत्तीसगढ़ सरकार किसानों को पांच
हॉर्स पॉवर तक मुफ्त बिजली दे रही है। बिजली में सरप्लस राज्य होने के कारण यहां विद्युत
कटौती नहीं होती। इसके साथ ही छत्तीसगढ़िया मजदूर सस्ते श्रम के लिए मशहूर हैं।
यही कारण है कि यहां के मजदूरों की डिमांड जम्मू कश्मीर, पंजाब, हरियाणा तक की
जाती है। हरियाणा के जींद के रहने वाले ओमप्रकाश कन्दोला (57 वर्ष), 2005 में
छत्तीसगढ़ बनने के बाद यहां आकर बसे। दुर्ग संभाग के अहिवारा जनपद पंचायत में
कन्दोला ने 45 एकड़ जमीन खरीद कर खेती शुरु की है। उन्होंने अपने खेतों में
सोयाबीन, शिमला मिर्च, केला और पपीता बोया है। इसके साथ ही कन्दोला ने अहिवारा में
ही किसान एग्रो इंजीनियरिंग वर्क्स के नाम से कृषि उपकरण बनाने और सुधारने की एक
वर्कशॉप भी खोल रखी है। कन्दोला कहते हैं, ”खेती के लिहाज से छत्तीसगढ़ अभी हरियाणा के कोसों
पीछे है। ये अंतर ठीक बिलकुल वैसा ही है, जैसा कि किसी विकसित और किसी अविकसित
राज्य के बीच में होता है। लेकिन छत्तीसगढ़ में उपलब्ध सस्ती जमीन और बिजली बाहर
के किसानों को आकर्षित कर रही है। कन्दोला कहते हैं कि जब हरियाणा में एक एकड़
जमीन बेचकर उसी दाम में यहां दस एकड़ जमीन मिल रही हो तो कोई भी ऐसा करना पसंद
करेगा। ” वे
यहां खेती के साथ साथ स्थानीय किसानों के कृषि उपकरणों को बनाने और सुधारने का काम
कर रहे हैं। उनका मानना है कि हरियाणा के किसान उपकरण की समझ के मामले में भी
छत्तीसगढ़ से आगे हैं। कन्दोला के दो बेटे हैं। वे अपना पूरा परिवार लेकर
छत्तीसगढ़ नहीं आए हैं। उनकी धर्मपत्नी और एक बेटा जींद, हरियाणा में ही रहते हैं।
जबकि दूसरा बेटा उनके साथ अहिवारा में रह रहा है। कन्दोला हंसते हुए अपनी बात में
एक जुमला जरूर जोड़ते हैं,”छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया” (छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया)।
हरियाणा के किसानों ने प्रदेश में एक अनुमान के मुताबिक करीब दस से
पंद्रह हजार एकड़ कृषि योग्य जमीनें खरीदी हैं। हरियाणा के किसान अपने फार्म
हाउसों में केले, पपीते, गन्ने, अदरक, लौकी, करेले, कपास, अरबी और शिमला मिर्च की
लहलहाती फसलों से करोड़ों का टर्न ओवर ले रहे हैं। जबकि स्थानीय किसान अभी तक धान
से बाहर नहीं निकल पाए हैं। इसके दो अहम कारण हैं, एक तो स्थानीय
किसानों के पास खेतों में निवेश के लिए ज्यादा धन नहीं है। दूसरा वो धान के अलावा
किसी दूसरी फसल को पैदा करने के बेहतर तरीकों को भी नहीं जानता। जबकि हरियाणा के
किसान जहां नई-नई फसलें उगा रहे हैं, वहीं उन्नत कृषि उपकरण और मल्चिंग (शिमला
मिर्च के रोपों को पॉलीथिन से कवर कर सुरक्षा प्रदान करना) और ड्रिप जैसी तकनीक का
भी भरपूर उपयोग कर रहे हैं। जबकि स्थानीय किसान अभी भी खेती पंरपरागत तौर तरीकों
पर ही निर्भर हैं। एक-दूसरे अगल-बगल ही स्थित हरियाणा और स्थानीय किसानों के खेतों
का अंतर साफ देखा जा सकता है। यही कारण है कि हरियाणा के किसानों के फार्म पर
डस्टर और बीएमडब्ल्यू जैसी लक्जरी गाड़ियां खड़ी दिखाई देती हैं। दरअसल स्थानीय
किसान केवल धान बोते हैं, जिसकी प्रति एकड़ लागत दस हजार रुपए आती है। जबकि मुनाफा
केवल प्रति एकड़ बीस हजार रुपया ही हो पाता है। जबकि पपीता बोने के लिए प्रति एकड़
25 से 30 हजार रुपए लागत आती है। वहीं मुनाफा प्रति एकड़ एक लाख रुपए के करीब होता
है। ऐसे ही शिमला मिर्च बोने में प्रति एकड़ सवा लाख रुपए लागत लगती है, लेकिन
मुनाफा प्रति एकड़ चार से पांच लाख पक्का है। केला बोने के लिए भी पहले साल में
करीब 60 हजार रुपए लागत आती है। लेकिन मुनाफा एक लाख या उससे भी अधिक होता है।
केले की लागत दूसरे साल में और भी घटकर केवल 30 हजार प्रति एकड़ रह जाती है। लेकिन
मुनाफा पहले जितना ही बरकरार रहता है।
1995 में रोहतक के बरौदा गांव से छत्तीसगढ़ के धमधा ब्लाक के खपरी
गांव पहुंचे चौधरी आशीष सिंह खासा (40 वर्ष) को एक बार देखने पर आप अंदाज नहीं लगा
पाएंगे कि ये हरियाणवी जाट हैं। पहनावा, बोलचाल और रहन-सहन में काफी अंतर आ जाने
के बाद आशीष सिंह कहते हैं कि अब छत्तीसगढ़ और हरियाणा में कोई अंतर नहीं लगता। जब
आशीष छत्तीसगढ़ आए थे, तब उनकी उम्र मात्र सत्रह वर्ष थी। उन्होंने धमधा में मात्र
साढ़े 22 एकड़ जमीन खरीदी और खेती शुरु की। आज चौधरी आशीष सिंह के पास 400 एकड़
में फैले 4 कृषि फार्म हाउस हैं। आशीष बताते हैं कि उन्होंने सबसे पहले धान,
सब्जियां, सोयाबीन और गन्ना बोकर देखा। फिर धीरे-धीरे हॉर्टिकल्चर को ज्यादा
बढ़ावा दिया। इन दिनों आशीष के खेतों में केला, पपीता और शिमला मिर्च की खेती हो
रही है। टाइम, टेक्नीक और लेबर, इन तीनों
के संतुलन से हरियाणा के इस युवा जाट किसान ने साढ़े 22 एकड़ खेती को 400 एकड़ के
फॉर्म हाउस में तब्दील कर दिया। छत्तीसगढ़ आने के पीछे का कारण आशीष बताते हैं, “यहां की सस्ती
जमीनें ही सबसे पहला कारण हैं कि हरियाणा के किसान छत्तीसगढ़ चले आ रहे हैं। साथ
ही यहां का अधोसंरचनात्मक विकास, जैसे की बिजली, सड़कें और पानी की उपलब्धता, कुछ
ऐसी चीजें हैं, जिन्होंने यहां आने पर मजबूर किया। हमारा निर्णय सही था। आज नतीजा
आपके सामने है।” आशीष रोहतक में अपनी पुश्तैनी खेती को बेचकर छत्तीसगढ़ आए थे। वे बताते
हैं कि उनका केला जहां स्थानीय भिलाई मंडी में ही खप जाता है। वहीं उनका पपीता
दिल्ली और आगरा की मंडियों में बिकने जाता है। आशीष के खेतों में लगी शिमला मिर्च
भी दिल्ली, मुंबई जैसे मेट्रो शहरों में बिकने जाती हैं।
हरियाणा के सोनीपत जिले से बेरला पहुंचे नारायण सिंह दहिया (65 वर्ष)
भी उन्नत किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 1994 में सबसे पहले छत्तीसगढ़ आने
वालों लोगों में दहिया भी थे। उनके बाद तो हरियाणा के किसानों का छत्तीसगढ़ आने का
सिलसिला कुछ यूं चला कि इस वक्त करीब 1 हजार किसान प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में
जमीनें खरीद कर खेती कर रहे हैं। इस वक्त दहिया के पास स्वयं के 150-150 एकड़ के
दो कृषि फार्म हैं। वहीं उन्होंने खेती के लिए ही 175 एकड़ जमीन लीज़ पर भी ले रखी
है। दहिया जब हरियाणा से निकले तो उनके पास वहां केवल 7 एकड़ जमीन थी। उसे बेचकर
उन्होंने छत्तीसगढ़ के बेमेतरा ब्लाक के बेरला में 100 एकड़ जमीन खरीदी थी। उस
वक्त हरियाणा में उन्होंने डेढ लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से जमीन बेची थी। जबकि
छत्तीसगढ़ में उन्हें मात्र नौ हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से जमीन मिल गई थी। ये
1994 की बात है। आज उनके पास खुद की तीन सौ एकड़ और लीज पर 175 एकड़ जमीन है,
जिसमें उन्होंने अदरक, केला, करेला, लौकी, शिमला मिर्च और अरबी जैसी सब्जियां बो
रखी हैं। वे प्याज भी उगाते हैं। दहिया कहते हैं, “धान की खेती में कुछ नहीं मिलता। धान की
खेती में प्रति एकड़ 10 हजार रुपए ही कमाई हो पाती है। जबकि केला, पपीता, शिमला
मिर्च जैसी फसलें प्रति एकड़ लाखों रुपए का मुनाफा देती हैं। ऐसे में धान बोना
बिलकुल फायदेमंद नहीं है।”
अहिवारा के ही रहने वाले स्थानीय किसान ऋतुराज सिंह ठाकुर हरियाणा के
किसानों की खेती के तौर तरीकों के कायल हैं। ठाकुर कहते हैं,”इनकी खेती के तरीके
बिलकुल आधुनिक हैं। अब तो इनसे हमारा पारिवारिक नाता सा हो गया है। हम इनकी
शादियों में मेहमान बनकर हरियाणा भी जाते हैं।”
स्थानीय किसान जी पी चंद्राकर को हरियाणा के किसानों से कुछ परहेज है।
इस बारे में कुछ यूं अपना दर्द बयान करते हैं,”छत्तीसगढ़ के किसान मूलतः गरीब, लघु और
सीमांत किसान हैं। इन किसानों के पास इतना धन नहीं होता कि ये धान के अलावा कोई
खेती कर सकें। यहां की धरती की प्रकृति धान की फसल के अनुरूप हो गई है, दूसरा इसे
उगाना अपेक्षाकृत सस्ता भी पड़ता है। ऐसे में अगर कोई किसान दूसरी फसल बोना भी
चाहे तो वो सड़ जाती है।”
एक दूसरे किसान वृगेंद्र सिंह अपना गुस्सा जाहिर करते हुए कहते हैं, “हरियाणा के कृषक,
किसान कम व्यापारी ज्यादा हैं। वे हमारी जमीनों को निचोड़ रहे हैं। अधिक से अधिक
लाभ लेने के चक्कर में वे एक दिन छत्तीसगढ़ की जमीन को अनुपजाऊ बनाकर छोड़ेंगे।” वृगेंद्र यह भी
कहते हैं, “हरियाणा के किसान कीटनाशकों का अधिकतम उपयोग कर रहे हैं, समय के साथ
साथ जमीन की गुणवत्ता खत्म हो जाएगी।”
जो किसान हरियाणा से छत्तीसगढ़ आए हैं, उनमें जाटों की संख्या करीब 95
प्रतिशत है। जबकि बाकी पांच प्रतिशत में ब्राह्मण और कुछ अन्य जातियां शामिल हैं। छत्तीसगढ़
के अहिवारा, धमधा, बेमेतरा और बेरला में हरियाणा के किसानों की आमद सबसे ज्यादा
है। वहीं रायपुर, सिमगा,राजानांदगांव, धमतरी और मुंगेली में भी हरियाणवी किसान
खेती करते हुए देखे जा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ आने से हरियाणा के किसानों का एक गंभीर सामाजिक संकट भी कुछ
हद तक दूर हुआ है। दरअसल लड़कियों की कमी से जूझ रहे हरियाणा के किसानों में से
कुछ के परिवार ने छत्तीसगढ़ में भी अपनी संतानों के शादी ब्याह किए हैं। लेकिन
इनकी संख्या अभी उंगली में गिनने लायक है। वैसे चौधरी आशीष सिंह की मानें तो
हरियाणा में लड़कियों का संकट केवल उन्हीं के लिए है, जो आर्थिक रूप से विपन्न
हैं। संपन्न परिवारों के लिए ऐसी कोई कमी नहीं है।
हरियाणा के दखल से छत्तीसगढ़ के हालात कितने बदलेंगे, ये तो कह पाना
मुश्किल है, लेकिन हरियाणवी किसानों की उन्नत खेती ने एक बात तो साफ कर दी है कि
धान के कटोरे में सब्जियों, फल और दलहन के लिए भी अकूत संभावनाएं हैं। हालांकि ये
और बात है कि अभी स्थानीय किसान धान की खेती के अलावा कुछ और सोचने के मूड में तो
बिलकुल नहीं हैं।
बॉक्स
सरकार की तिरछी निगाहें
छत्तीसगढ़ में बाहरी व्यक्तियों द्वारा क्रय-विक्रय की जा रही कृषि
भूमियों पर राज्य सरकार की भी नज़र है। प्रदेश के राजस्व मंत्री दयालदास बघेल कहते
हैं, “सरकार
फिलहाल एक बिल पर काम कर रही है, जिसमें ऐसे प्रावधान किए जाएंगे कि प्रदेश में
खेती की जमीन खरीदने के लिए मूल निवासी का प्रमाण पत्र पेश करना जरूरी हो जाएगा।
ऐसे में बाहरी किसानों का प्रदेश में जमीन खरीदना नामुमकिन हो जाएगा। छत्तीसगढ़
में स्थानीय लोग ही जमीन खरीद सकेंगे। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि बड़े
पैमाने पर दूसरे राज्यों के लोग छत्तीसगढ़ की जमीनों में निवेश कर रहे हैं।“ इसके पहले राज्य
सरकार ने 10 जुलाई 2013 को छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता विधेयक की धारा 165 की उप
धारा 4 में संशोधन करते हुए ये कानून तो बना ही दिया कि कोई भी भू स्वामी अपनी
खेती की जमीन गैर कृषक को नहीं बेच पाएगा। इसके बाद छत्तीसगढ़ भी उन राज्यों की
सूची में शामिल हो गया है, जहां केवल कृषि भूमि को केवल कोई किसान ही खरीद पाएगा।
बॉक्स-
जमीन और हत्या
हरियाणा के लोगों की आमद से भले ही छत्तीसगढ़ के अपराध के ग्राफ प्रभावित
ना हुआ हो, लेकिन स्थानीय पुलिस हर वक्त चौकन्नी रहती है। इसका कारण 10 सितंबर
2005 में बेमेतरा के भुरकी गांव का हत्याकांड है। जमीन विवाद के चलते हुए इस
हत्याकांड में हरियाणा के सात जाट किसानों को आरोपी बनाया गया था। इन पर स्थानीय
पिता और पुत्र की हत्या करने का आरोप था। हरियाणा के किसानों और स्थानीय लोगों के
संघर्ष के दौरान दोनों पिता पुत्र मारे गए थे और एक व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो
गया था। मामले में छह जाट किसानों अनिल सिंह, जसवंत सिंह, हरिजिंदर सिंह, रामचंदर,
अजय सिंह और नरेश सिंह को आजीवन उम्रकैदज की सजा सुनाई गई थी। छह दोषी दुर्ग जेल
में अपनी सजा काट रहे हैं। ये मामला भुरकी हत्याकांड के नाम से मशहूर हुआ था और
इसकी गूंज छत्तीसगढ़ विधानसभा में भी सुनाई दी थी।
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