शनिवार, 23 अगस्त 2014
आधुनिक भारत के अछूत
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी का गंगा नदी से शुरु हुआ विजय अभियान अब नर्मदा पर आकर ठहर गया है। बनारस
के तट से गंगा ने उत्तर प्रदेश में उनका पथ प्रशस्त किया। अब वे देश की पांचवी
सबसे बड़ी नदी नर्मदा के सहारे अपने ही गढ़ गुजरात के हीरो तो बन ही रहे हैं, साथ
ही साथ महाराष्ट्र और राजस्थान को साधने की भी कोशिश रहे हैं। लेकिन अबकी बार उन्हें
अपने विजय अभियान की कीमत चुकानी होगी, और वो कीमत होगी मध्यप्रदेश की 20,882
हैक्टेयर उपजाऊ जमीन, 45000 हजार विस्थापित परिवार और अपूर्णीय पर्यावरणीय क्षति। सरदार
सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के मोदी के निर्णय ने चार राज्यों की सियासत गरमा दी
है।
रूस की
प्रेरणा से जब पंजाब का भाखड़ा नाखल बांध बना था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरू ने बांधों को “आधुनिक भारत का मंदिर” कहा था। उसके बाद केंद्र
सरकारों ने देश को समृद्ध और खुशहाल बनाने के लिए बड़े बांधों पर अरबों रुपए खर्च
किए। इससे कुछ लाख घरों की खुशहाली तो बढ़ी,लेकिन दूसरी तरफ करोड़ों लोग अपनी ही
जमीन से बेदखल हो गए। पुनर्स्थापन के नाम पर इन्हें अपने ही देश में शरणार्थी बना
दिया गया। बड़े बांधों के विस्थापित ऐसे अछूत साबित हुए, जिनका “आधुनिक भारत के मंदिरों” से कोई वास्ता नहीं रहा,
सिवाए अपने घर, अपनी जमीन, अपनी आजीविका के बलिदान के। बड़े बांध राजनीतिक
बयानबाजी और गैर सरकारी संगठनों की बहस के केंद्रबिंदु भी बनने लगे। ऐसी ही नई बहस
छिड़ी है, सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई को बढ़ाने को लेकर। क्या वाकई सरदार सरोवर
बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने की जरूरत है? इससे किन लोगों को
फायदा पहुंचेगा और कौन इसकी कीमत चुकाएगा? सरदार सरोवर बांध
किस राज्य के सौभाग्य के दरवाजे खोलेगा और किस राज्य के लिए बदहाली लाएगा? ये जानने के लिए सरदार सरोवर परियोजना, नर्मदा घाटी, राज्य सरकारों की
मंशा और इससे जुड़े राजनीतिक नफा-नुकसान को समझना जरूरी है।
सरदार
सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की वेबसाइट के मुताबिक यह बांध अमेरिका के ग्रांड काउली
के बाद दूसरा सबसे बड़ा कांक्रीट ग्रेविटी डैम है। वहीं दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा
निर्वहन क्षमता वाला बांध है। इसकी जलसंग्रहण क्षमता 5860 mcm है, जो
4.75 लाख एकड़ फीट के बराबर है। नई दिल्ली में 12 जून को प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (एनसीए) की बैठक में
गुजरात के केवड़िया स्थित सरदार सरोवर बांध में 17 मीटर ऊंचे गेट लगाकर बांध की
ऊंचाई 121.92 से 138.38 मीटर करने की मंजूरी दे दी गई। ये मामला पिछले कई वर्षों
से लंबित था। अब 2017 तक करीब 270 करोड़ की लागत से बांध पर 30 रेडियल गेट लगेंगे।
गेट लगाने से 9 मिलियन पानी की संग्रहण क्षमता बढ़ेगी। बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने
की अनुमति मिलते ही गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने ट्विट कर गुजरात की
जनता की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई देते हुए कहा कि “अच्छे दिन आ गए”। लेकिन हकीकत ये है कि केवल गुजरात
के अच्छे दिनों की शुरुआत है। मध्यप्रदेश के करीब ढाई लाख विस्थापितों, सैंकडों
स्कूलो, मंदिरों-मस्जिदों, हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन की कीमत पर गुजरात के अच्छे दिन
लाए जा रहे हैं। इससे पहले कि हम ये जानें कि सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ने पर
मध्यप्रदेश को क्या कीमत चुकानी पड़ेगी। उससे पहले ये जान लें इससे गुजरात को क्या
फायदा पहुंचेगा। असल में नर्मदा के दायरे में आने वाले गुजरात का 75 फीसदी इलाका
संभावित सूखा प्रभावित माना जाता है। बांध की ऊंचाई बढ़ने से गुजरात में नर्मदा के
जल की उपलब्धता बढ़ेगी, इससे ये इलाके संभावित सूखा प्रभावित की श्रेणी से बाहर
निकल आएंगे। सिंचाई के मामले में भी सबसे ज्यादा फायदा गुजरात को ही होना है। नर्मदा
बांध के जरिए गुजरात की 18.45 लाख हैक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो
सकेगा। इससे गुजरात के 15 जिलों की 73 तहसीलों के 3112 गांवों को सिंचाई के लिए
पानी मिलेगा। ये बांध भरूच के 210 गांवों को बाढ़ के खतरे से मुक्ति दिलाएगा। वहीं
इसका पानी सौराष्ट्र की तस्वीर बदल देगा। सरदार सरोवर बांध का पानी सौराष्ट्र के
115 छोटे बांधों और जलाशयों में पहुंचेगा। औसत से भी कम वर्षा वाले सौराष्ट्र में
साल भर बनी रहने वाली पानी की समस्या खत्म हो जाएगी। गुजरात के 151 शहरी और 9633
गांवों (जो कि गुजरात के कुल 18144 गांवों का 53 प्रतिशत है) को पीने का पानी
उपलब्ध होगा। बांध से पैदा होने वाली 1450 मेगावॉट बिजली में से 16 फीसदी बिजली भी
गुजरात को मिलेगी। यानि गुजरात की चांदी ही चांदी। इसके ठीक उलट मध्यप्रदेश को
सिवाए 877 मेगावॉट बिजली के कुछ नहीं मिलेगा। यह सही है कि मध्यप्रदेश बिजली संकट
से जूझ रहा है। उसे अतिरिक्त बिजली की जरूरत है। लेकिन मध्यप्रदेश में सूखाग्रस्त
इलाकों, सिंचाई के पानी की कमी, पेयजल समस्या भी विद्यमान है। लेकिन परियोजना में
मध्यप्रदेश के सूखाग्रस्त इलाकों की पूरी तरह अनदेखी की गई है। सरदार सरोवर नर्मदा
निगम लिमिटेड की वेबसाइट में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि मध्यप्रदेश को
सिंचाई के लिए कितना पानी मिलेगा, क्योंकि परियोजना में मध्यप्रदेश के किसानों के
हितों को पूरी तरह उपेक्षित कर दिया गया है। जबकि पूरी परियोजना ही मध्यप्रदेश के
विस्थापितों की कीमत पर खड़ी हो रही है। अब जानते हैं कि सरदार सरोवर बांध
परियोजना से मध्यप्रदेश को क्या नुकसान है। मध्यप्रदेश के एक कस्बे धरमपुरी (जिला
धार) समेत 193 गांव जलमग्न होने की कगार पर हैं। सूबे की करीब 20,882 हैक्टेयर
जमीन डूब क्षेत्र में आ रही है। 2001 की जनगणना के मुताबिक तीनों राज्यों के 51000
परिवारों को प्रभावित माना गया था, जिनकी संख्या 2011 की जनगणना में बढ़कर 63000
हजार हो गई है। इनमें अकेले मध्यप्रदेश से 45000 हजार परिवार हैं। इन परिवारों में
अधिकांश आदिवासी, छोटे-मछोले किसान, दुकानदार, मछुआरे, कुम्हार हैं, जो गरीबी रेखा
के नीचे जीवन यापन करते हैं।
मध्यप्रदेश
कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव कहते हैं कि बांध की ऊंचाई बढ़ने से मध्यप्रदेश के
निमाड़ क्षेत्र की उपजाऊ भूमि डूब में आ जाएगी। ढाई लाख लोग विस्थापित होंगे, सो
अलग। यादव आरोप लगाते हैं कि पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति के लिए कुछ नहीं किया गया है।
विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हो पाया है। पुनर्वास का काम भ्रष्टाचार और उसकी
जांच के कारण रुका हुआ है। डूब क्षेत्र के परिवार, जिनमें किसान, मजदूर, मछुआरे,
कुम्हार जैसे छोटी आजीविका वाले लोग शामिल है, वैकल्पिक जमीन, आजीवका, पुनर्वास और
बसाहटों में भूखंड पाने से वंचित हैं। यादव एक आरोप और लगाते हैं कि सरदार सरोवर
बांध की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला सर्वोच्च न्यायालय और नर्मदा जल विवाद प्राधिकरण के
आदेशों का उल्लंघन है। वे कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट और प्राधिकरण के फैसले में
पहले पुनर्वास फिर निर्माण कार्य शुरु करने के निर्देश दिए गए हैं। लेकिन बांध की
ऊंचाई बढ़ाने की जल्दबाजी में मध्यप्रदेश से खिलवाड़ किया जा रहा है। यादव का कहना
है कि नर्मदा प्राधिकरण के दिंसबर 1979 के पारित निर्णय के मुताबिक वर्ष 2024 तक
मध्यप्रदेश को 29 बडे, 135 मध्यम और तीन हजार छोटी सिंचाई परियोजनाएं पूरी करनी
हैं। यदि मध्यप्रदश निर्धारित अवधि में अपने हिस्से के नर्मदा जल का उपयोग नहीं कर
पाया तो हमें हमारे अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। लेकिन मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा
सिंचाई परियोजनाओं को लेकर बिलकुल गंभीर नहीं है। अभी तक केवल 10 बड़ी परियोजनाएं
पूरी हुई हैं। 2 पर काम चल रहा है, जबकि 17 पर काम शुरु ही नहीं हो पाया है।
जिस
गुजरात को परियोजना से सबसे ज्यादा फायदा मिलने वाला है, उस गुजरात के केवल 19
गांव डूब क्षेत्र में आ रहे हैं। कुल 9000 हैक्टेयर जमीन प्रभावित हो रही है। जबकि
महाराष्ट्र के 22 गांव और करीब 9500 हैक्टेयर वन भूमि परियोजना से प्रभावित हो रही
है। परियोजना का लंबे समय से विरोध कर रही नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का
आरोप है कि केवल 30 परिवारों को पुर्नवास के लिए जमीन मिल पाई है। जबकि करीब 3
हजार परिवारों को जमीन देने की प्रक्रिया भ्रष्टाचार में उलझ गई। इन परिवारों को
हक से वंचित करने के लिए फर्जी रजिस्ट्रियों का सहारा लिया गया। नर्मदा बचाओ
आंदोलन के कार्यकर्ताओं का ये भी आरोप है कि सरकारी अफसरों ने दलालों के साथ मिलकर
हजारों फर्जी रजिस्ट्रियां कर डाली। इन आरोपों की जांच के लिए 2008 में मध्यप्रदेश
हाईकोर्ट ने जस्टिस एसएस झा आयोग का गठन किया, ताकि रजिस्ट्रियों के फर्जीवाड़े की
सच्चाई सामने आ सके। झा कमीशन की जांच अभी जारी है। झा कमीशन जिन बिंदुओं पर जांच
कर रहा है, उनमें फर्जी रजिस्ट्रियों की जांच की जा रही है। जिन परिवारों को अभी
तक जमीन नहीं मिली है, उस पर भी तथ्य इकट्ठे कर रही है। साथ ही आजीविका शुरु करने
के लिए दी गई राशि में भी हुए भ्रष्टाचार और पुनर्वास साइटों के स्तर हीन निर्माण
कार्यों और अधिक खर्च कर दी गई राशि जैसे बिंदु भी जांच में शामिल हैं। कमीशन की
रिपोर्ट अक्टूबर 2014 तक आने की संभावना है।
मध्यप्रदेश
के पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ रामचंद्र सिंहदेव कहते हैं कि सरदार सरोवर बांध समेत
नर्मदा घाटी में जितनी भी परियोजनाओं पर काम हो रहा है, ये सभी गलत आंकड़ों पर
आधारित है। जिस वक्त नर्मदा घाटी में नई परियोजनाओं की शुरुआत की गई, उस वक्त लिए
गए आंकड़े अंग्रेजों द्वारा पुरानी पद्धति से संग्रहित किए गए थे। ब्रिटिश हुकुमत बारिश
के पानी (रेन वॉटर गेज) के आधार पर नदियों में उपलब्ध जल के आंकड़े इकट्ठे करती
थी। उनके मुताबिक नर्मदा में 27 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) पानी था। जबकि बाद में नई
पद्धति (रिवर गाजिंग स्टेशन) से आए आंकड़े बताते हैं कि नर्मदा में केवल 23.7
एमएएफ पानी है यानि जो भी परियोजनाएं बनाई गई, उनका आधार ही गलत था। मध्यप्रदेश
सरकार ने कई बार नर्मदा के पानी की उपलब्धता को लेकर सवाल उठाए, लेकिन हमारी कभी
नहीं सुनी गई। दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि पूरी नर्मदा घाटी भूंकप प्रभावित है।
बड़े बांध बनने से ये खतरा कई गुना बढ़ गया है। मध्यप्रदेश में जबलपुर शहर के करीब
बने बरगी बांध के कारण रह-रहकर आसपास के इलाके में भूकंप के झटके आते रहते हैं। सिंहदेव
कहते हैं कि सरदार सरोवर बांध भले ही भूकंपरोधी बांध हो, लेकिन कभी कभी भूकंप की
तीव्रता इतनी अधिक होती है कि वो तबाही मचाने में सफल हो जाता है। नर्मदा घाटी में
जितने भी बड़े बांध बनाए जा रहे हैं, इनकी उपयोगिता या यूं कहें इनका जीवन कुछ
सालों का ही होता है। मसलन 100 से 250 साल तक। उसके बाद ये बांध कई तरह की समस्या
खड़ी करने लगते हैं। बड़े बांधों की उम्र के बारे में कोई भी नहीं सोच रहा है।
नया
नहीं है विवाद
नर्मदा
नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना की अधिकारिक घोषणा 1960 में हुई थी। 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री
जवाहर लाल नेहरू ने इसकी आधारशिला रखी थी। तभी से ये परियोजना विवादों में फंसी
हुई है। शुरुआती कई सालों तक तो परियोजना से जुड़े हुए तीनों राज्यों (मध्यप्रदेश,
गुजरात, महाराष्ट्र) में जल बंटवारे को लेकर आपसी सहमति नहीं बन पाने से परियोजना
अटकी रही। 1979 में ये मामला नर्मदा जल विवाद प्राधिकरण में पहुंचा। जहां तीनों
राज्यों में सहमति बनी। 90 के दशक में विश्व बैंक ने परियोजना के लिए ऋण देने का
फैसला लिया। लेकिन डूब प्रभावित लोगों ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत परियोजना का
विरोध करना शुरु कर दिया। 1991-1994 में पहली बार विश्व बैंक ने किसी परियोजना की समीक्षा
करने के लिए अपनी एक उच्च स्तरीय समिति बनाई। जिसने अपनी पड़ताल में ये पाया कि
परियोजना से होने वाली पर्यावरणीय क्षति की पूर्ति नहीं की जा सकती। इसलिए विश्व
बैंक ने परियोजना से हाथ खींच लिए। नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थकों ने सुप्रीम
कोर्ट में निर्माण रोकने के लिए जनहित याचिका लगाई। वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट
ने इस पर फैसला देते हुए कहा कि बांध उतना ही बनाया जाना चाहिए, जहां तक लोगों का
पुर्नस्थापन और पुनर्वास हो चुका है। परियोजना का विरोध कर रहा नर्मदा बचाओ आंदोलन
शुरु से ही आरोप लगा रहा है कि ना तो परियोजना में पर्यावरणीय क्षति का ध्यान रखा
गया ना ही विस्थापितों को उचित पुनर्वास मिल पा रहा है। अब जबकि फिर बांध की ऊंचाई
बढ़ाई जा रही है, एक बार फिर परियोजना विवादों में आ गई है। मध्यप्रदेश के धार,
बडवानी, निमाड़ के कई इलाके और झाबुआ के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय रहवासी
सड़कों पर उतरकर बांध की ऊंचाई बढ़ाने का विरोध कर रहे हैं।
राजनीति
का बांध
सरदार
सरोवर बांध से कई राजनीतिक महत्वकांक्षाएं भी जुड़ी हुई हैं। बांध की ऊंचाई बढ़ने
से जहां नरेंद्र मोदी और उनके गुजरात को कई लाभ हैं। वहीं मध्यप्रदेश की राजनीति
के तीन सितारों (शिवराज सिंह, उमा भारती और थावरचंद गेहलोत) को इस बांध की ऊंचाई
में डूबने का खतरा पैदा हो गया है। सबसे पहले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज
सिंह चौहान की बात करें तो वे इस मुद्दे पर बोलने से बचते रहे हैं। जिस वक्त बांध
की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला हुआ, वे साउथ अफ्रीका में मध्यप्रदेश में नए उद्योगों को
बढ़ावा देने के लिए नए निवेशक तलाश कर रहे थे। शिवराज ने साउथ अफ्रीका से ही ट्वीट
कर मोदी के फैसले का स्वागत किया। उन्होंने ये भी ट्वीट किया कि “हमें शून्य लागत पर बिजली मिलेगी।“ लेकिन वे जैसे ही भोपाल पहुंचे तो मीडिया के सामने नए तेवर में नजर आए।
पत्रकारों के सवालों का जबाव देते हुए शिवराज ने कहा कि विस्थापितों के साथ अन्याय
नहीं होने दिया जाएगा और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का ध्यान रखा जाएगा। यह बयान
देते वक्त वे भूल गए कि पहले ही ट्विटर पर ये कह चुके हैं कि “2008 में ही विस्थापितों को मुआवजा बांट दिया गया। अब तत्काल कोई क्षेत्र
डूब से प्रभावित नहीं होने वाला।“ सरदार सरोवर बांध पर
विरोधाभासी बयान देने वाले शिवराज सिंह चौहान भूल गए कि आने वाले दिनों में यही
मुद्दा उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं में सबसे बड़ा रोड़ा बनेगा। दूसरे नंबर पर
केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री उमा भारती का नाम आता है। मूलतः मध्यप्रदेश की रहने वाली
उमा भारती अच्छी तरह जानती होंगी कि सूबे में पुर्नवास की स्थिति क्या है। ऐसे में
भी उन्होंने बयान दिया कि “विस्थापितों को ध्यान में रख कर
दिए गए सुझावों के बाद सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की मंजूरी दी गई है।
सामाजिक न्याय मंत्रालय विस्थापितों के लिए उठाए गए कदमों से संतुष्ट है”। केंद्रीय जल संसाधन मंत्री रहते हुए उमा का बांध की ऊंचाई बढ़ाने का
समर्थन करना उनकी स्थिति को आने वाले दिनों में कमजोर करेगा। जिस परियोजना से
मध्यप्रदेश को सिवाए नुकसान के कुछ नहीं मिल रहा है, उसका समर्थन कर उमा ने अपने
विरोधियों को एक नया मुद्दा दे दिया है। चूंकि सरदार सरोवर बांध की पूरी कहानी
सामाजिक न्याय मंत्रालय का हवाला देकर लिखी जा रही है, ऐसे में मध्यप्रदेश की
राजनीति से राज्यसभा सांसद के रूप में केंद्र में पहुंचे केंद्रीय सामाजिक न्याय
मंत्री थावरचंद गेहलोत के भी ये अच्छे दिनों की शुरुआत तो कतई नहीं मानी जा सकती। गेहलोत
भी मध्यप्रदेश से हैं, वे 1990-92 में प्रदेश के सिंचाई, नर्मदा घाटी विकास विभाग
के मंत्री रह चुके हैं, यानि ये माना जा सकता है विस्थापितों के दर्द को उन्होंने
करीब से भलीभांति देखा और समझा होगा। लेकिन उनके ही मंत्रालय को ढाल बनाकर सरदार
सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाई जा रही है। ऐसे में मध्यप्रदेश के विस्थापितों के वे भी
उतने ही दोषी माने जाएंगे, जितने कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती। आने
वाले समय में मध्यप्रदेश में तीनों को ही बांध की ऊंचाई का समर्थन करना राजनीतिक
रूप से बहुत मंहगा पड़ सकता है।
मोदी को
फायदा ही फायदा
बांध की
ऊंचाई बढ़ने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक फायदा तीन गुना हो जाएगा।
पहला तो ये कि गुजरात में उन्होंने साबित कर दिया कि वे अपने प्रदेश के कितने बड़े
हितैषी हैं। खुद नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए लंबे समय से बांध की
ऊंचाई बढ़ाने की मांग कर रहे थे। 2006 में उन्होंने 51 घंटे का उपवास भी रखा था। प्रधानमंत्री
बनते ही सबसे पहले उन्होंने गुजरात के हित में फैसला लेते हुए सरदार सरोवर बांध
में 17 मीटर ऊंचे दरवाजे लगाने की अनुमति दे दी। इससे गुजरात में उनका कद और बढ़
गया। गुजरात में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही खुलकर उनके निर्णय का स्वागत कर रही
हैं। सरदार सरोवर बांध के द्वारा उन्होंने महाराष्ट्र और राजस्थान को साधने की भी
कोशिश की है। महाराष्ट्र में कुछ समय बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। सरदार सरोवर
परियोजना से महाराष्ट्र को भी फायदा होना है। यहां पैदा होने वाली 1450 मेगावॉट
बिजली में से 27 फीसदी बिजली महाराष्ट्र को मिलेगी। महाराष्ट्र के पहाड़ी इलाकों
की 37 हजार पांच सौ हैक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल उपलब्ध हो जाएगा। बांध की
ऊंचाई बढ़ने से राजस्थान को अच्छे दबाव से पानी मिल सकेगा, इससे वहां के
रेगिस्तानी जिले बाड़मेर और जालौर की दो लाख 46 हजार हैक्टेयर भूमि की सिंचाई हो
सकेगी। इसके अलावा राजस्थान के तीन शहरों और 1336 गांवों के 4 करोड़ लोगों को
पेयजल भी उपलब्ध हो सकेगा। अपने इस फैसले मोदी गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में
हीरो के रूप में उभरेंगे।
सरदार
सरोवर नर्मदा बांध निगम लिमिटेड के प्रबंध निदेशक जेएन सिंह का कहना है कि “रेडियल गेट लगाने की मंजूरी मिलते
ही मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने पूजन कर बांध के कार्य को युद्धस्तर पर शुरु करवा
दिया है। मानसून के बाद ये कार्य तेजी पकडेगा”।
नर्मदा बचाओ
आंदोलन के आरोप
नर्मदा
बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर तहलका से कहती हैं कि सरदार सरोवर परियोजना में
विस्थापितों की पूरी तरह अनदेखी की गई है। गुजरात सरकार ने अभी तक नहरों का काम ही
पूरा नहीं किया है, फिर उसे और केंद्र सरकार को सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने
की जल्दी क्यों है। ये समझ नहीं आता। पिछले 30 सालों में नहरों का काम 30 फीसदी भी
पूरा नहीं हो पाया है। बांध की ऊंचाई बढ़ने से गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र को
इसका तत्काल कोई लाभ नहीं मिलेगा। इन इलाकों में सिंचाई के लिए पानी तब ही मिल
पाएगा, जब नहरों का काम पूरा होगा। पाटकर आगे बताती हैं कि सबसे गौर करने वाली बात
ये भी है कि किसान गुजरात सरकार को अपनी जमीन तक नहीं देना चाहते, तो फिर नहरें
बनेंगी कहां पर। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि जहां तक पुर्नवास हुआ हो, वहीं तक
काम को आगे बढ़ाया जाना है, लेकिन किसी भी प्रभावित प्रदेश में पुनर्वास हुआ ही
नहीं है तो फिर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाना न्यायालय की अवमानना के तहत आता है। आप
सोचिए कि योजना आयोग ने 2012 में परियोजना की अनुमानित लागत 70 हजार करोड़ बताई
थी। पाटकर कहती हैं कि 63 हजार करोड़ इसपर खर्च हो चुके हैं और ये खर्च 90 हजार
करोड़ तक जाएगा। हमनें परियोजना से जुड़े तथ्यों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी को एक पत्र भी लिखा है। ये लाखों लोगों के जीवन का प्रश्न है। इस पर सरकार को
जवाब देना ही होगा। जैसे ही गेट लगाने की कार्रवाई शुरु होगी, वैसे वैसे बैक वॉटर
के कारण पानी का स्तर बढ़ेगा। इसके परिणामस्वरूप अभी तक जो बस्तियां डूब क्षेत्र
में चिन्हित हुई हैं। वहां पानी भर जाएगा। बारिश में ये स्थिति और भी ज्यादा
चिंताजनक होगी।
दिग्विजय
सिंह के आरोप
मध्यप्रदेश
के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह तहलका से कहते हैं कि “सरदार सरोवर की ऊंचाई बढ़ाने का
निर्णय चौंकाने वाला है। मध्यप्रदेश के लाखों लोग डूब क्षेत्र में आ रहे हैं। उनका
पुनर्वास अभी तक नहीं हो पाया है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि जब तक पुनर्वास
ना हो, हाईट ना बढ़ाई जाए। दूसरी बात ये भी है कि सामाजिक न्याय मंत्रालय का
जिम्मा पुनर्वास की मॉनिटरिंग का है। उसे बयान जारी कर बताना चाहिए कि कहां कितना
पुनर्वास कर दिया गया है। सवाल केवल विस्थापितों को मुआवजा देने भर का नहीं है।
उन्हें जमीन के बदले जमीन दी जानी है। यदि मध्यप्रदेश सरकार के पास इतनी जमीन नहीं
है कि विस्थापितों को दी जा सके, तो उन्हें जमीन खरीदने के लिए अतिरिक्त धन दिया
जाना चाहिए”। बांध की ऊंचाई बढ़ने की खबर आने के साथ ही
दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से भी ट्विट कर
जबाव मांगा था। दिग्विजय ने ट्विटर पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि इस मुद्दे
पर मध्यप्रदेश सरकार की चुप्पी ज्यादा चौंकाती है। क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री
इस पर प्रतिक्रिया जाहिर करेंगे?
बॉक्स
सरदार
पटेल की प्रतिमा से शुरु हो चुकी थी भूमिका
विशेषज्ञों
की मानें तो लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा की स्थापना
को लेकर पूरे देश मे रन फॉर यूनिटी जैसे कार्यक्रम आयोजित किए गए थे। तभी इसे मोदी
की भविष्य की राजनीति से जोड़कर देखा जाने लगा था। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि
प्रतिमा का एक उद्देश्य सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अपनी पुरानी मांग को
मजबूत करना भी था। सरदार सरोवर बांध को बल्लभ भाई पटेल का सपना बताकर पूरे देश में
एक माहौल बनाया जा रहा था। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की
अध्यक्षता में गठित सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट ने परियोजना के
बारे में अपनी जो वेबसाइट पर जो अधिकारिक जानकारी मुहैया कराई है, उसके मुताबिक यह
मूर्ति तकनीकी तौर पर एक 182 मीटर (597 फुट) ऊंची इमारत होगी। इसे स्थापित करने
में 2500 करोड़ की अनुमानित लागत आएगी। जिसके अंदर से सरदार सरोवर का विस्तृत
नजारा देखा जा सकेगा। अमेरिका की टर्नर कंस्ट्रक्शन कंपनी इसका निर्माण कर रही है।
वहीं मीन हार्ट्ज और माइकल ग्रेव्ज एंड एसोसिएट्स डिजाइन व आर्किटेक्ट फर्म है। इस
प्रतिमा को “एकता की
प्रतिमा” कहा गया है। नरेंद्र मोदी स्टेच्यू ऑफ यूनिटी की
स्थापना के साथ ही सरदार सरोवर बांध से भरूच के समुद्री तट तक नर्मदा के दोनों
किनारों पर कैनाल टूरिज्म के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन स्थल विकसित
करना चाहते हैं।
मध्यप्रदेश
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया कहते हैं कि “असल में नरेंद्र मोदी सरदार सरोवर
बांध की ऊंचाई बढ़ाने के लिए सरदार पटेल के व्यक्तित्व का दोहन कर रहे थे।
उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधे हैं, पहला तो गुजरात की मांग पूरी करने का,
दूसरा वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक कद की भी छटांई
करना चाहते हैं, ताकि वे अपने ही प्रदेश में कमजोर साबित हो जाएं”।
बॉक्स
260 से
455 फीट तक पहुंचने का सफर
-फरवरी
1999 में सुप्रीम कोर्ट ने नर्मदा बांध की ऊंचाई 80 मीटर (260 फीट) से 88 मीटर (289 फीट) करने की अनुमति
दी।
-अक्टूबर
2000 में फिर से सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को ऊंचाई 90 मीटर (300) करने की अनुमति
-मई
2002 में नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण ने बांध की ऊंचाई 95 मीटर (312 फीट) करने के
प्रस्ताव को अनुमोदित किया।
-मार्च
2004 में प्राधिकरण ने 110 मीटर (360 फीट) करने की अनुमति दी।
-मार्च
2006 में प्राधिकरण ने बांध की ऊंचाई 110.64 मीटर (363 फीट) से 121.92 (400 फीट)
करने की अनुमति दी। प्राधिकरण द्वारा ये अनुमति वर्ष 2003 में सुप्रीम कोर्ट
द्वारा बांध की ऊंचाई और बढ़ाने की अनुमति देने से इंकार करने के बाद दी गई थी।
-जून
2014 में प्राधिकरण ने ऊंचाई 455 फीट (138 मीटर) करने की अनुमति दी।
बॉक्स
नर्मदा
घाटी से जुडे कुछ तथ्य
जुलाई 1993- टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल
साइंसेज़ ने सात वर्षों के अध्ययन के बाद नर्मदा घाटी में बनने वाले सबसे बड़े
सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों के बारे में अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। इसमें
कहा गया कि पुनर्वास एक गंभीर समस्या रही है। इस रिपोर्ट में ये सुझाव भी दिया गया
कि बांध निर्माण का काम रोक दिया जाए और इस पर नए सिरे से विचार किया जाए।
अगस्त 1993- परियोजना के आकलन के लिए भारत
सरकार ने योजना आयोग के सिंचाई मामलों के सलाहकार के नेतृत्व में एक पांच सदस्यीय
समिति का गठन किया।
दिसंबर 1993- केंद्रीय वन और पर्यावरण
मंत्रालय ने कहा कि सरदार सरोवर परियोजना ने पर्यावरण संबंधी नियमों का पालन नहीं
किया है।
जनवरी 1994- भारी विरोध को देखते हुए
तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने परियोजना का काम रोकने की घोषणा की।
मार्च 1994- मध्य प्रदेश के तत्कालीन
मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप
करने का अनुरोध किया। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस पत्र में कहा कि राज्य
सरकार के पास इतनी बड़ी संख्या में लोगों के पुनर्वास के साधन नहीं हैं।
अप्रैल 1994- विश्व बैंक ने अपनी परियोजनाओं
की वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि सरदार सरोवर परियोजना में पुनर्वास का काम ठीक से
नहीं हो रहा है।
जुलाई 1994- केंद्र सरकार की पांच सदस्यीय
समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी लेकिन अदालत के आदेश के कारण इसे जारी नहीं किया जा
सका। इसी महीने में कई पुनर्वास केंद्रों में प्रदूषित पानी पीने से दस लोगों की
मौत हुई।
नवंबर-दिसंबर 1994- बांध बनाने के काम दोबारा शुरू
करने के विरोध में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने भोपाल में धरना देना शुरू किया।
दिसंबर 1994- मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा
के सदस्यों की एक समिति बनाई जिसने पुनर्वास के काम का जायज़ा लेने के बाद
कहा कि भारी गड़बड़ियां हुई हैं।
जनवरी 1995- सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि
पांच सदस्यों वाली सरकारी समिति की रिपोर्ट को जारी किया जाए. साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने बांध की
उपयुक्त ऊंचाई तय करने के लिए अध्ययन के आदेश दिए।
मार्च 1995- विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट
में स्वीकार किया कि सरदार सरोवर परियोजना गंभीर समस्याओं में घिरी है।
जून 1995- गुजरात सरकार ने एक नर्मदा नदी पर एक नई विशाल परियोजना-कल्पसर
शुरू करने की घोषणा की।
नवंबर 1995- सुप्रीम कोर्ट ने सरदार सरोवर
बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अनुमति दी।
1996- उचित पुनर्वास और ज़मीन देने की
मांग को लेकर मेधा पाटकर के नेतृत्व में अलग-अलग बांध स्थलों पर धरना और प्रदर्शन
जारी रहा।
अप्रैल 1997- महेश्वर परियोजना के
विस्थापितों ने मंडलेश्वर में एक जुलूस निकाला जिसमें ढाई हज़ार लोग शामिल हुए। इन
लोगों ने सरकार और बांध बनाने वाली कंपनी एस कुमार्स की पुनर्वास योजनाओं पर सवाल
उठाए।
अक्तूबर 1997- बांध बनाने वालों ने अपना काम
तेज़ किया जबकि विरोध जारी रहा।
जनवरी 1998- सरकार ने महेश्वर और उससे जुड़ी
परियोजनाओं की समीक्षा की घोषणा की और काम रोका गया।
अप्रैल 1998- दोबारा बांध का काम शुरू हुआ, स्थानीय लोगों ने निषेधाज्ञा को
तोड़कर बांधस्थल पर प्रदर्शन किया, पुलिस ने लाठियां चलाईं और आंसू
गैस के गोले छोड़े।
मई-जुलाई 1998- लोगों ने जगह-जगह पर नाकाबंदी
करके निर्माण सामग्री को बांधस्थल तक पहुंचने से रोका।
नवंबर 1998- बाबा आमटे के नेतृत्व में एक
विशाल जनसभा हुई और अप्रैल 1999 तक ये सिलसिला जारी रहा।
दिसंबर 1999- दिल्ली में एक विशाल सभा हुई
जिसमें नर्मदा घाटी के हज़ारों विस्थापितों ने हिस्सा लिया।
जून 2014-बांध की आखिरी ऊंचाई बढ़ाने की घोषणा होते ही
मध्यप्रदेश के बडवानी, अंजड, कुक्षी, मनावर, धरमपुरी रैलियां निकालकर विरोध
प्रदर्शन किया जा रहा है।
छग में 11 माओवादियों का एनकाउंटर
छत्तीसगढ़
में चल रहे माओवादियों के शहीदी सप्ताह के दौरान पुलिस ने पांच कमांडरों समेत 11
माओवादियों को मार गिराने का दावा किया है। बस्तर पुलिस महानिरीक्षक एसआरपी
कल्लूरी इसे अब तक का सबसे बड़ा एनकाउंटर बता रहे हैं। केंद्रीय
सुरक्षा बल (सीआरपीएफ), कोबरा बटालियन और पुलिस ने संयुक्त ऑपरेशन के दौरान सुकमा
जिले के चिंतागुफा थाना क्षेत्र में पड़ने वाले रामाराम पुलिस व नक्सली मुठभेड़ में
11 माओवादियों को मार गिराया। हालांकि पुलिस को मौके से केवल एक शव बरामद हुआ है। मुठभेड़
में 7 जवानों के भी घायल होने की खबर है। मुठभेड़ सोमवार को दोपहर 4 बजे के करीब
हुई है।
पुलिस
मुख्यालय के मुताबिक चिंतागुफा थाना से सीआरपीएफ व जिला पुलिस बल की संयुक्त
पार्टी करीगुण्डम इलाके में सर्चिंग पर निकली थी। इस दौरान करीगुण्डम के रामाराम
के पास बड़ी संख्या में माओवादियों द्वारा शहीद सप्ताह को लेकर मीटिंग ली जा रही थी।
जवानों के आने की भनक लगते ही नक्सलियों ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी।
बस्तर के
पुलिस महानिरीक्षक एसआरपी कल्लूरी ने तहलका की घटना की पुष्टि करते हुए दावा किया
कि ये अब तक का सबसे बड़ा एनकाउंटर है। सीआरपीएफ और स्थानीय पुलिस ने 11 नक्सलियों
को मारा है। जिनमें 5 नक्सली कमांडर भी शामिल हैं।
सुकमा
के पुलिस अधीक्षक डी श्रवण ने तहलका को बताया कि मौके पर करीब 40 माओवादी इकट्ठे
हुए थे। करीब दो घंटे तक चली गोलीबारी के बाद घटना स्थल की सर्चिग करने पर एक नक्सली
का शव बरामद किया गया है। एक भरमार बंदूक भी मिली है। नक्सली अपने मृत साथियों के
शवों को अपने साथ ले जाते हैं। ऐसे में (शव ना मिलने की स्थिति
में) पुलिस स्थानीय ग्रामीणों से नक्सलियों के मारे जाने की पुष्टि
करती है, गांववालों से हमें पता चला है कि 11 नक्सली मारे गए हैं। सीआरपीएफ के आईजी
हरप्रीत सिंह सिद्धू ने भी इसकी पुष्टि की है।
माओवादियों
अपने शहीद साथियों की याद में प्रति वर्ष की तरह इस वर्ष भी 28 जुलाई से 3 अगस्त तक शहीद
सप्ताह मनाने का आहवान किया है। इसे लेकर माओवादियों ने दक्षिण बस्तर के अलग-अलग हिस्सों
में बैनर-पोस्टर लगा रखे हैं। पुलिस सूत्रों के अनुसार माओवादी सुकमा जिले के
चिंतलनार, जगरगुण्डा, कांकेरलंका व
भेज्जी के अंदरूनी इलाकों में शहीद सप्ताह को लेकर बैठकें ले रहे थे। शहीदी सप्ताह
को देखते हुए ही पुलिस ने सर्चिंग भी तेज कर दी थी। बहरहाल, पुलिस इसे बड़ी सफलता
मानकर चल रही है।
डीन की आत्म “हत्या”
जबलपुर के नेताजी सुभाष
मेडिकल कॉलेज के प्रभारी डीन डॉ डीके साकल्ये की मौत को पुलिस आत्महत्या का रंग
देने की कोशिश कर रही है। कहीं इसके तार मध्यप्रदेश के मप्र व्यापमं घोटाला से तो नहीं जुड़े हैं।
मध्यप्रदेश की शिवराज
सरकार के संकट कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं। व्यवसायिक परीक्षा मंडल की भर्ती
परीक्षाओं में हुई गड़बड़ियों के कारण पहले ही मुख्यमंत्री कांग्रेस के निशाने पर
हैं। अब व्यापमं घोटाले की जांच कर रहे जबलपुर मेडिकल कॉलेज के प्रभारी डीन डॉ
डीके साकल्ये की कथित आत्महत्या के मामले ने फिर सरकार की मुसीबतें बढ़ानी शुरु कर
दी हैं। 4 जून को सुबह 7.30 बजे डॉ साकल्ये अपने घर के बरामदे में जले हुए पाए गए।
पुलिस इसे आत्महत्या बता रही है, जबकि जबलपुर के चिकित्सक इस बात पर यकीन नहीं कर
पा रहे हैं कि कोई फोरेंसिक एक्सपर्ट आत्महत्या के लिए इतनी दर्दनाक मौत चुन सकता
है। अब कांग्रेस, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, जूनियर डाक्टर्स एसोसिएशन समेत कई
चिकित्सकों ने राज्य सरकार से मामले की सीबीआई जांच करवाने की मांग की है। राज्य
सरकार की तरफ से गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने इस हफ्ते विधानसभा में मामले की सीबीआई
जांच करवाने का ऐलान भी कर दिया है।
जबलपुर के नेताजी सुभाचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज के प्रभारी डीन डॉ डी के साकल्ये ने 4 जून को सुबह लगभग 7.30 बजे खुद को आग लगाकर आत्महत्या कर ली। ये बात जबलपुर पुलिस कह रही है। जबकि डॉ साकल्ये की इस कथित आत्महत्या के बाद मप्र की राजनीति जबलपुर से लेकर भोपाल तक गरमा गई है। डीन साकल्ये जबलपुर मेडिकल कॉलेज के परिसर में बने क्वार्टर में ही रहते थे। घटना के दिन उनकी पत्नी भक्ति साकल्ये क्वाटर के बाहर मॉर्निंग वॉक कर रही थीं। कुछ देर बाद वे जब अंदर गई तो डॉ साकल्ये को जला हुआ पाया। पुलिस इसे आत्महत्या बता रही है, जबकि मौके से कोई सुसाइट नोट बरामद नहीं किया गया। पोस्टमार्टम के बाद बिसरा भी सुरक्षित नहीं रखा गया। पुलिस को छोड़कर कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि ये आत्महत्या है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. अरविंद जैन तहलका
को बताते हैं कि “पूरा मामला बेहद संदेहास्पद है”।
वे कई संदेह के कई कारण गिनाते हैं। डॉ जैन कहते हैं कि “कोई
भी फारेसिंक एक्सपर्ट आत्मदाह जैसी कठिन और दर्दनाक मौत नहीं चुन सकता, क्योंकि इसमें
असहनीय पीड़ा तो होती ही है, साथ ही मौत की कोई निश्चित गारंटी भी नहीं होती।
दूसरी बात ये कि केवल 20 मिनट के भीतर ही कोई 98 फीसदी जलकर मर नहीं जाता। (डॉ
साकल्ये की पत्नी के मुताबिक घटना के 20 मिनट पहले तक अपने पति के साथ ही थीं)। डॉ
कहते हैं कि उन्होंने देखा कि डॉ साकल्ये deep burn थे ही
नहीं, उनकी पीठ तो जली ही नहीं थी। चमड़ी को देखकर भी नहीं लग रहा था कि वे 98
फीसदी जले हैं। इस बात पर यकीन ही नहीं हो रहा है”। डॉ जैन
कहते हैं कि “घटनास्थल पर मौजूद साक्ष्य किसी और ही दिशा में
इशारा कर रहे हैं। जहां डॉ साकल्ये जले, वहां फर्श पर कोई निशान नहीं पड़ा, ना तो
मिट्टी के तेल का, ना ही जलने का। ऐसे कैसे हो सकता है। उनका बिसरा भी संरक्षित
नहीं किया गया। पुलिस ने पूरे मामले को आनन फानन में निपटा दिया। मौके से फिंगर
प्रिंट नहीं लिए गए। उनकी त्वचा को मांस के टुकड़े के साथ रखा जाना था, ताकि उसका
रासायनिक विश्लेषण हो सके। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया, ये तो अपनेआप में संदिग्ध
बातें हैं”। डॉ जैन आरोप भी लगाते हैं कि “पुलिस खुले दिमाग से जांच नहीं कर रही है। कहीं कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है। मैने
कई एक्सपर्ट से बात की है, 20 मिनट के भीतर कोई आग लगाकर मर भी जाता है, उसकी बॉडी
ठंडी भी हो जाती है। ऐसा कैसे हो सकता है”।
वहीं जबलपुर पुलिस
अधीक्षक हरिनारायणचारी मिश्र ने तहलका से कहते हैं कि पोस्टमार्टम के बाद ये
स्पष्ट हो चुका है कि ये आत्महत्या का ही मामला है। हालांकि कोई सुसाइड नोट बरामद
नहीं किया गया है। आत्महत्या का कोई स्पष्ट कारण भी सामने नहीं आ पाया है। लेकिन
पीएम के बाद ये तय है कि ये हत्या नहीं है।हम उनसे जुड़े लोगों से पूछताछ कर रहे
हैं, ताकि आत्महत्या की वजह सामने आ सके। जहां तक विसरा सुरक्षित रखने का प्रश्न
है तो पुलिस केवल अनुरोध ही कर सकती है। विसरा रखना है या नहीं, ये पोस्टमार्टम
करने वाले डॉक्टर और फोरेंसिक एक्सपर्ट ही तय करते हैं। हमने पांच अनुभवी और
वरिष्ठ चिकित्सकों की टीम से पीएम करवाया है।
मध्यप्रदेश के नेता
प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे का कहना है कि “डॉ डीके साकल्ये व्यापमं के तहत हुए पीएमटी
फर्जीवाड़े की जांच कर रहे थे। पिछले एक साल में उन्होंने कई फर्जी विद्यार्थियों
को बाहर का रास्ता दिखाया था। वे व्यापमं फर्जीवाड़े के टेक्नीकल एवीडेंस थे, उनकी
गवाही महत्वपूर्ण थी”।
डॉ डीके साकल्ये हरदा
(मध्यप्रदेश का एक जिला) के रहने वाले थे। उनकी पत्नि भक्ति घरेलू महिला हैं और
उनका एक पुत्र रंजन बंगलुरू में इंजीनियर है। रंजन का कहना है कि “उसके पिता आत्महत्या का रास्ता
चुनने वाले इंसान नहीं थे। वैसे भी वे आत्महत्या क्यों करेंगे, इसकी कोई वजह भी तो
होनी चाहिए”। उन्हें अक्टूबर 2013 में
ही मेडिकल कॉलेज का प्रभारी डीन बनाया गया था।
डॉ साकल्ये की मौत की
सीबीआई जांच की मांग कर रहे चिकित्सकों ने जबलपुर कमिश्नर दीपक खाण्डेकर को राज्य
सरकार के नाम ज्ञापन सौंपकर चेतावनी दी है कि यदि शासन अगले 72 घंटे में सीबीआई
जांच की घोषणा नहीं करता तो सांकेतिक हड़ताल और अन्य वैकल्पिक निर्णय लेने मजबूर हो
जाएंगे। चिकित्सकों की चेतावनी के आगे झुकते हुए फिलहाल तो राज्य सरकार ने मामला
सीबीआई को सौंपने का ऐलान कर दिया है। लेकिन डॉ साकल्ले की मौत की सच्चाई जानने का
इंतजार सबको जरूर रहेगा, भले ही इसमें लंबा वक्त क्यों ना लग जाए।
बॉक्स
ये हैं अनसुलझे प्रश्न
-डॉ साकल्ये फोरंसिक
साइंस के विभागाध्यक्ष भी थे। वे आराम से मौत को गले लगाने के कई तरीके जानते थे।
फारेंसिंक साइंस लैब में ही सौ से अधिक प्रकार के जहर रखे होते हैं। उनमें “आर्सेनिक” भी
होता है, जो किसी भी मनुष्य की जान केवल 30 सेकंड में ले सकता है। इसके बाद भी
उन्होंने केरोसिन खुद पर डालकर दर्दनाक मौत क्यों चुनी?
-इस घटनाक्रम को कांग्रेस
व्यापमं से जोड़कर देख रही है। वे व्यापमं घोटाले की जांच कमेटी के सदस्य भी थे। डॉ
साकल्ये के प्रभारी डीन बनते ही अभी तक कुल 93 मुन्नाभाईयों को कॉलेज से बाहर निकाला गया। इस दौरान
भी उन पर दबाव काफी था।
-उनकी पत्नि भक्ति के
अनुसार वे 20 दिनों से छुट्टी पर चल रहे थे। किसी दबाव के कारण डिप्रेशन में थे।
बॉक्स
जबलपुर के चिकित्सकों ने कमिश्नर
दीपक खांडेकर को जो पत्र सौंपा है, उसमें ये बिंदु उल्लेखित हैं।
-डीन का पद कमिश्नर रैंक
का होता है। इसके बाद भी डॉ साकल्ले की अंत्येष्टि में कोई पुलिस-प्रशासनिक
अधिकारी क्यों नहीं पहुंचा?
-व्यापमं घोटाला और अन्य
घोटाले शासन के ही हैं,ऐसे में
डॉ साकल्ये की मौत की निष्पक्ष जांच की उम्मीद कैसे करें। इसलिए मामले की CBI जांच हो।
-डॉक्टरों का कहना है कि
उन्होंने अपने चिकित्सकीय जीवन में इस तरह का जलने का केस पहली बार देखा है। घटना
स्थल पर मौजूद साक्ष्यों को सुरक्षित क्यों नहीं किया गया?
पीएम के सपने पर भ्रष्टाचार का ग्रहण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस लोक निर्माण विभाग के बल पर
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में सड़कों का जाल फैलाना चाहते हैं, उसी
पीडब्ल्यूडी विभाग को भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक ने कटघरे में खड़ा कर दिया
है। कैग की रिपोर्ट में विभाग पर नक्सल प्रभावित इलाकों में अधूरे कामों के एवज
में ठेकेदारों को करोड़ों का भुगतान कर उपकृत करने पर सवाल उठाए गए हैं।
बीते सप्ताह के शनिवार को रायपुर के लोग घरों से बाहर निकले
तो चौंक पड़े। शहर की सड़कों पर कुछ युवा सड़कों पर धान की रोपाई कर रहे थे। धान
के कटोरे के रूप में मशहूर इस प्रदेश में खेतों में धान की फसलें लहलहाती ही हैं,
लेकिन सड़कों पर धान की रोपाई लोगों के लिए कौतूहल का विषय था, लेकिन थोड़ी ही देर
में सारा सस्पैंस खत्म हो गया। जब लोगों ने जाना कि युवक कांग्रेस कैग की रिपोर्ट
में उजागर हुई लोक निर्माण विभाग के भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिए सड़कों के
गड्ढों में धान की बुवाई करने निकली है। दरअसल भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक
ने विधानसभा में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि प्रदेश के लोक निर्माण विभाग
अधूरे कामों के एवज में ठेकेदारों को करोड़ों रुपए का भुगतान कर दिया।
कैग ने लोक निर्माण विभाग की कई गड़बड़ियां पकड़ी हैं। नक्सल
प्रभावित जिले कोंडागांव में काम छह साल की देरी के बाद भी ठेकेदारों से 2.94
करोड़ का जुर्माना नहीं वसूला गया। बल्कि उन्हें मूल लागत में 49.02 लाख की मूल्य
वृद्धि कर भुगतान भी कर दिया गया। इसी तरह नांदघाट-चंद्रखुरी सड़क निर्माण में
ठेकेदार ने खुले मिलने वाले बल्क डामर का उपयोग किया, जबकि उसे पैक्ड डामर का
उपयोग करना था। विभाग को ठेकेदार से 10.66 लाख का डाम का अंतर वसूलना था, लेकिन
ऐसा नहीं किया गया। कैग के मुताबिक कवर्धा-रेगाखार सड़क निर्माण का भुगतान भी
संदिग्ध है। विभाग ने ठेकेदार को इसके लिए 18.07 लाख रुपए का भुगतान बगैर काम
करवाए ही कर दिया। विभाग उक्त स्थान पर काम पूर्ण दिखा रहा है, जबकि वहां कोई सड़क
बनाई ही नहीं गई। हद तो तब हो गई जब विभाग ने शासकीय इंजीनियरिंग कॉलेज को
स्टेडियम निर्माण के लिए कंसल्टेंट के रूप में नियुक्त किया। इस काम के लिए कॉलेज
को केवल पांच लाख 40 हजार रुपए का भुगतान किया जाना था, लेकिन अधिकारियों ने इसके
लिए 30 लाख का भुगतान किया, जबकि इसका कोई ठोस कारण नहीं बताया गया। सबसे ज्यादा
धांधली इंदिरा आवास योजना में की गई। राज्य सरकार ने आवासों पर एक प्रतीक चिन्ह
बनाने के लिए 30 रुपए की दर निर्धारित की थी। लेकिन जगदलपुर जिले में ठेकेदार को
इसके लिए प्रति प्रतीक चिन्ह 270 रुपए का भुगतान किया गया। कांकेर-भानुप्रतापुप-संबलपुर
सड़क को नियमानुसार 5.5 मीटर चौड़ा बनाना था, लेकिन इसे सात मीटर चौड़ा कर दिया
गया। इस पर 1.40 करोड़ रुपए गैर जरूरी खर्च किए गए।
महालेखाकार वीके मोहन्ती का कहना है कि “योजनाओं
का उचित क्रियान्वयन एवं प्रबंधन नहीं होने से सरकारी धन का दुरुपयोग हुआ है एवं
सरकार को करोड़ों रुपए की क्षति हुई है। कृषि क्षेत्र में राष्ट्रीय कृषि विकास
योजनाओं में निधियों को विलम्ब से जारी किया गया एवं उसका उपयोग कुशलता पूर्वक
नहीं किया गया, जिसके कारण प्रदेश सरकार को
केन्द्र ने आगामी निधियां जारी नहीं की गई। इंदिरा आवास योजना का लक्ष्य विभाग ने
प्राप्त कर लिया, लेकिन
हितग्राहियों के चयन एवं प्रतीक्षा सूची बनाने में अनियमितता हुई है। राष्ट्रीय
ई-गवर्नेन्स योजना के तहत सरकार आईटी जैसी प्रमुख आधारभूत ढांचा एवं परियोजना
परिचालन को स्थापित करने में विफल साबित हुई है। सेंट्रल रोड फण्ड के तहत सड़कों
की प्राथमिकता का निर्धारण नहीं होने के कारण स्वीकृतियों के दोहरीकरण में करोड़ों
रुपए की क्षति हुई”। मोहंती ये भी कहते हैं कि 9 अलग-अलग विभागों ने
हमे कई गड़बड़ियों पर जवाब ही नहीं दिए।
महालेखाकार ने अपने प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया है
कि उसने सरकारी विभागों में कई बड़ी गड़बडिय़ां पाईं हैं। हल्दीमुण्डा व्यपवर्तन
योजना के निर्माण में अधिक भुगतान और फर्जी तरीके से लाभ देने के मामले पाए गए
हैं। ठेकेदार की लागत पर क्षतिग्रस्त कार्य का सुधार न किए जाने के कारण सराकर का 1.12 करोड़ रुपया पानी में चला गया। बदले में ठेकेदार पर कोई
कार्रवाई भी नहीं की गई। वहीं विभाग की डीएनए जांच प्रयोगशाला के लिए विभिन्न
मशीनरी और उपकरण खरीदने के बाद प्रशिक्षित कर्मचारी ना होने के कारण भी 1.48 करोड़
की खरीदी बेकार साबित हुई। विभाग पर आरोप हैं कि कमीशनखोरी के चक्कर में बगैर
प्रशिक्षित कर्मियों के ही मशीनरी की खरीदी की जल्दबाजी की गई। इसी तरह एक अन्य
मामले में जल्दबाजी दिखाते हुए विभाग ने बगैर भूमि हासिल किए ही, सिंचाई को नियमित
करने के नाम 92.08 लाख रुपए
खर्च कर डाले, जिसका कोई परीणाम नहीं निकला।
सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंदोपाध्याय कहते हैं कि “सरकार की
इच्छाशक्ति ही नहीं है कि भ्रष्टाचार रोका जाए। राज्य सरकार हमेशा भ्रष्टाचार पर
जीरो टालरेंस की बात करती है, लेकिन कभी इसे अपने व्यवहार में नहीं लाती। कैग की
रिपोर्ट को छोडिए, प्रदेश के किसी भी कोने में चले जाइए, सड़के, पुल, पुलिया देखकर
ही सहज अंदाजा हो जाएगा कि विकास कागजों पर हो रहा है या जमीन पर”।
जब एक और नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में सड़कों का जाल बिछाने
की बात हो रही है, वहीं दूसरी ओर भारतीय निंयत्रक व महालेखा परीक्षक ने प्रदेश में
सड़क परियोजनाओं में भारी लापरवाही होने की बात कही है। कैग की मानें तो सड़कों के
चयन, नियोजन, कोष प्रबंधन और परियोजनाओं के क्रियान्वयन प्रभावी ढंग से किया ही
नहीं गया। रिपोर्ट के अनुसार यह पाया गया कि “अपर्याप्त नियोजन और सड़कों की प्राथमिकता तय नहीं किए जाने
के कारण ही सारे दिक्कतें पैदा हुईं। पीडब्ल्यूडी ने सड़क कार्यों के निर्माण के
पहले विस्तृत सर्वेक्षण व जांच का काम किया ही नहीं। हीला हवाली यहीं खत्म नहीं हो
जाती, पीडब्ल्यूडी ने केंद्रीय सड़क फंड (सीआरएफ) और न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम (एमएनपी) कोष का
इस्तेमाल दूसरे कार्यों के लिए किया और सड़कों के निर्माण में कोई रूचि ही नहीं
दिखाई। गलत काम करन वाले ठेकेदारों से जुर्माने तक नहीं वसूल किया गया।”
इस विषय पर जब तहलका ने लोकनिर्माण विभाग के अफसरों से बात
करनी चाही तो उनका कोई जवाब नहीं आया। जबकि कैग की रिपोर्ट आने के एक सप्ताह पहले ही राज्य के मुख्य
सचिव विवेक ढांड ने सूबे के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में केन्द्र प्रवर्तित सड़क
निर्माण योजना के तहत स्वीकृत और निर्माणाधीन सड़कों तथा पुल-पुलियों से संबंधित
कार्यो की विस्तृत समीक्षा की थी। बैठक में मुख्य सचिव ने ये भी कहा था कि राज्य
के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़कों का बेहतर नेटवर्क तैयार कर इस समस्या पर
नियंत्रण किया जा सकता है। राज्य सरकार ने अपनी इसी रणनीति के तहत छत्तीसगढ़ में दो हजार 897 करोड़
रुपए की लागत से 53 सड़कें स्वीकृत की हैं, जिनकी लंबाई दो
हजार 21 किलोमीटर है। राजधानी रायपुर से जगदलपुर होते हुए कोंटा तक नेशनल हाइवे बनाने का काम भी
जल्द शुरु होना है। अब कैग की रिपोर्ट आने के बाद राज्य सरकार से लेकर मुख्य सचिव,
लोक निर्माण विभाग के अफसरों ने चुप्पी साध ली है। इससे यह संदेह गहरा गया है कि
क्या वाकई नक्सल प्रभावित इलाकों में सड़कों का जाल बिछ पाएगा, या यह योजना केवल कागजी
खानापूर्ति कर पूरी कर ली जाएगी। मगर बड़ा सवाल ये है कि छत्तीसगढ़ का पीडब्ल्यूडी
अपने ढर्रे पर चलता रहा तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस सपने का क्या होगा,
जिसमें उन्होंने विकास के बल पर नक्सलवाद का समूल सफाया करने का दृश्य देखा है।
न्याय के लिए भटकती IAS अफसर की पत्नी
एक तरफ
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकारी तंत्र में शुचिता और अनुशासन लाने की कोशिश कर
रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ आम लोगो का न्याय सुनिश्चित करने वाले उनकी सरकार के
सामाजिक न्याय मंत्रालय में तैनात भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अफसर पर उसकी ही
पत्नी शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगा रही है।
मध्यप्रदेश
के चर्चित पूर्व कलेक्टर और वर्तमान में केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री के पीएस एक
आईएएस अफसर से कथित तौर पर प्रताड़ित पत्नी न्याय पाने के लिए दर-दर भटकने को
मजबूर है। दो बेटियों को जन्म देने वाली पत्नी का गुनाह केवल इतना है कि उसने बेटे
को जन्म नहीं दिया। अब प्रताड़ित पत्नी पिछले एक साल से अपनी बात हर फोरम में रख
रही है और पति के भ्रष्टाचार के काले कारनामों का चिट्ठा भी खोल रही है। लेकिन
पत्नी को तो अब तक उसका हक नहीं मिला, उलटे पतिदेव वजीफ़ा पाते हुए 10 जून 2014 को
सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गेहलोत के पीएस (प्राइवेट सेकेट्ररी) बन गए। जिन
आईएएस अफसर की बात की जा रही है, वे 1999 बैच के मध्यप्रदेश कैडर के अफसर डॉ. ई
रमेश कुमार हैं। चिकित्सक से भारतीय प्रशासनिक अफसर बने ई रमेश की पत्नी कुरंगति स्वप्ना
कुमार (35 वर्ष) पिछले एक साल से न्याय के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं, लेकिन
उनकी सुनवाई कहीं नहीं हो पा रही है।
स्वप्ना
ने साल भर पहले यानि मई 2013 को मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव आर. परशुराम को
16
पेज की एक चिठ्ठी भेजकर रमेश की काली कमाई का कच्चा चिठ्ठा खोलते
हुए कार्रवाई की मांग की थी। स्वप्ना ने पत्र के जरिए आरोप लगाया था कि उनके पति ई
रमेश मप्र के सबसे भ्रष्ट आईएएस अफसरों में से एक हैं। उन्होंने अपनी काली कमाई से
मप्र और आन्ध्रप्रदेश में रियल इस्टेट, एजुकेशनल इंस्टीटयूट
और डायग्नोस्टिक सेंटर जैसी संस्थाओं में निवेश किया है। सपना ने पत्र में ये भी
कहा है कि वह साढे़ ग्यारह सालों से मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना केवल इसलिए झेल
रही है, क्योंकि उसने बेटे के बजाए दो बेटियों को जन्म दिया है। जब पति की
प्रताड़ना सहनशीलता की सीमा पार कर गई, तो उन्होंने उनके
असली चेहरे को सबके सामने लाने का फैसला किया।
तहलका
ने जब इस बारे में तत्कालीन मुख्य सचिव आर परशुराम (जो कि अब मध्यप्रदेश के राज्य
निर्वाचन आयुक्त हैं) से बात की, तो उन्होंने इस विषय पर कुछ भी बोलने में अपनी
असमर्थता जताई। उनका कहना था कि “इस बारे में वर्तमान मुख्य सचिव
एंटोनी डिसा ही कुछ बता पाएंगे। परशुराम ये भी बताने को तैयार नहीं हुए कि
उन्होंने स्वप्ना कुमार की चिट्ठी को लेकर कोई जांच बैठाई थी या नहीं। उनका कहना
था कि वे संवैधानिक पद पर हैं, इसलिए इस विषय पर बात करना उनके लिए संभव नहीं है”।
ई.
रमेश मूलत: आंध्रप्रदेश के हैं, लेकिन 1999 में
उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा में मप्र कॉडर मिला था। श्रीमती स्वप्ना का आरोप है
कि ई रमेश अपनी काली कमाई को ठिकाने लगाने ही 2013 में अंतर्राज्यीय प्रतिनियुक्ति
यानि डेपुटेशन पर आंध्रप्रदेश चले गए थे। स्वप्ना के मुताबिक ई रमेश ने आंध्र में
उन्होंने ए रामाकृष्ण और डॉ. गिरधर सहित अन्य लोगों के साथ रियल इस्टेट सहित अन्य
संस्थाओं में पार्टनरशिप की है। ई रमेश ने विशाखापट्नम में एक पॉश एमवीपी कॉलोनी
में एमआईजी 1/46 सेक्टर-।। में एक प्लाट खरीदा है। इस भूखंड
पर उन्होंने करीब छह करोड़ की लागत से पांच मंजिला भवन का निर्माण शुरू किया है। इस
इमारत में लिफ्ट सहित सारी आधुनिकतम सुविधाएं हैं।
श्रीमती
स्वप्ना का आरोप है कि ई रमेश ने मध्यप्रदेश में पदस्थ रहते हुए लाखों रुपए की
हवाई यात्राएं की हैं। वह हमेशा भोपाल से मुंबई से अहमदाबाद और विशाखापट्टनम हवाई
मार्ग से ही जाते थे। यदि ब्यौरा निकाला जाए तो पता चलेगा कि एक साल में 10 लाख रुपए से भी ज्यादा हवाई उड़ाने उन्होंने भरी हैं। सबसे बड़ी बात तो यह
है कि उन्होंने एयर टिकट के लिए अपनी जेब से एक रुपया भी खर्च नहीं किया। यही नहीं,
उनके भाई ई. रतन कुमार ने भी अहमदाबाद से भोपाल दिल्ली, मुंबई और विशाखापट्नम की बेहिसाब हवाई यात्रा की हैं, जबकि वे मूलत: एक बैंक में प्रोबेशनर अफसर हैं।
स्वप्ना
के मुताबिक ई रमेश ने छतरपुर और सागर कलेक्टर रहते हुए उद्यानिकी और कृषि महकमे से
बुंदेलखंड पैकेज में जमकर कमीशन लिया। छतरपुर पदस्थापना के दौरान राजनगर खजुराहो
में एक जमीन की रजिस्ट्री पर रोक लगा दी थी। जब स्थानांतरण सागर हुआ, तो मोटी रकम लेकर पिछली तारीख में उस रोक को हटा दिया था। मप्र में
आंध्रप्रदेश के कई बडे़ ठेकेदार काम कर रहे हैं। ई. रमेश इन्हीं ठेकेदारों के
माध्यम से अपनी काली कमाई को आंध्रप्रदेश भिजवाते थे। ई रमेश ने अपनी काली कमाई का
अधिकांश हिस्सा जगन रेड्डी की पार्टी वायएसआर कांग्रेस को पार्टी फंड में दिया और
वे आंध्रप्रदेश से चुनाव लड़ना चाहते हैं। स्वप्ना पत्र में लिखती हैं कि “ई. रमेश पहले तो मेरे साथ मारपीट करते हैं, जब इस
संबंध में कोई उनसे कुछ पूछता है तो वे लोगों की सहानुभूति हासिल करने के लिए किसी
के भी सामने रोने लगते हैं और मुझे गलत ठहराकर अपनी गलतियों पर पर्दा डालते हैं”।
स्वप्ना
के आरोपों को लेकर जब तहलका ने मध्यप्रदेश आईएएस एसोसिएशन की अध्यक्ष अरुणा शर्मा
से बात की तो उन्होंने भी इसे ई रमेश और उनकी पत्नी का व्यक्तिगत मामला बताकर
पल्ला झाड़ लिया। शर्मा का कहना है कि “ये निहायत की व्यक्तिगत
मामला है, ऐसे में वे इस बारे में कोई भी बात नहीं कर सकतीं”।
मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव एंटोनी डिसा से लेकर सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद
गेहलोत तक से इस विषय पर बात करने की कोशिश की गई। थावरचंद गेहलोत के दोनों मोबाइल
नंबरों पर संदेश भी भेजा गया, लेकिन कोई जबाव नहीं आया। किसी ने भी ई रमेश के
प्रकरण में बात करने में रुचि नहीं दिखाई। जबकि स्वप्ना ने जो आरोप लगाए हैं, वे
केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि उसमें भ्रष्टाचार से संबंधित आरोप भी हैं। जिसे
संज्ञान में लिया जाना चाहिए, लेकिन मध्यप्रदेश सरकार का कोई भी अफसर इस विषय पर
बात करने से बच रहा है।
इसका
एक कारण शायद ये भी है कि ई रमेश भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही राजनीतिक दलों की
गुड बुक में रहे हैं। जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी, तब भी वे तत्कालीन
मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के पंसदीदा अफसरों में गिने जाते थे। सूबे में भाजपा की
सरकार आने के बाद भी अपने दक्षिण भारतीय कनेक्शनों के सहारे वे मलाईदार ओहदों को पाते
रहे और तेजी से प्रमोशन पाते रहे। अपने करियर के शुरुआती दौर में वे रायगढ़ [अब छग
में] और मंदसौर में सहायक कलेक्टर रहे। बाद में नरसिंहगढ़ में एसडीओ बने। यहीं से
उन्हें 10 जून 2003 को ग्वालियर में नगर
निगम कमिश्नरी का तोहफा मिला। इसके बाद धार सीईओ का दायित्व मिला। दो साल बाद 2006
में डिंडोरी कलेक्टर बने। छह महीने बाद ही खरगोन कलेक्टर हो गए। सवा
दो साल बाद मंत्रालय आ गए। दस महीने बाद छतरपुर कलेक्टर बन गए और उसके बाद सागर
गए। नंवबर 2012 को ई रमेश कुमार प्रतिनियुक्ति पर
विशाखापट्नम (आंध्र प्रदेश) चले गए। हाल ही में यानि जून 2014 को उन्हें सामाजिक
न्याय मंत्री थावरचंद गेहलोत के निजी स्टाफ में शामिल किया गया है।
स्वप्ना
का समर्थन कर रहे ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमिन एसोसिएशन ने सिंतबर 2013 को ई रमेश
के आवास पर प्रदर्शन कर न्याय की मांग भी की थी। AIDWA की आंध्रप्रदेश
प्रभारी समीना बताती हैं कि “हमने भोपाल जाकर प्रदर्शन किया
था, लेकिन उस पर कोई एक्शन नहीं लिया गया। उलटा हमारे ही खिलाफ ई रमेश ने जबरिया
घर में घुसने, चोरी और बदनामी करने का आरोप लगाकर मुकदमा कर दिया। हमारी मांग थी
कि पुलिस की मौजूदगी में ई रमेश से हमें बात करने दी जाए, ताकि उनसे स्वप्ना कुमार
के हर आरोप पर सवाल किए जा सकें। यदि एक पढ़ा लिखा व्यक्ति बेटे की चाहत में पत्नी
को प्रताड़ित करे तो ये हमारे समाज के लिए शर्मनाक है”।
तहलका
ने ई रमेश से भी इस बारे में उनका पक्ष जानने के लिए कई बार संपर्क करने की कोशिश
की, लेकिन संपर्क नहीं हो पाया।
अपने
पति पर कई तरह के आरोप लगाने वाली स्वप्ना ने जेएनटीयू से एमटेक किया है। स्वप्ना
के पिता प्रशांत बाबू आंध्रप्रदेश के खम्मम के रहने वाले हैं। वे कमर्शियल टैक्स
ऑफिसर के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं, जबकि स्वप्ना की मां मनस्विनी प्रोफेसर रही
हैं। ई रमेश कुमार से स्वप्ना की शादी 29 अक्टूबर 2001 में हुई थी। परेशानी की असल
शुरुआत 11 साल पहले हुई, जब सपना ने पहले बच्चे के रूप में एक बेटी (ई कामिनी 12
वर्ष) को जन्म दिया। पांच साल बाद दूसरे बच्चे के रूप में भी बेटी ( ई शानसिया 7
वर्ष) का जन्म होने पर ससुराल वालों की प्रताड़ना तो बढ़ ही गई, साथ ही साथ ई रमेश
पर दूसरी शादी का दबाव भी डाला जाने लगा। स्वप्ना कहती हैं कि उन्हें लगा कि उनके
पति का बर्ताव बच्चों के कारण बदल जाएगा, लेकिन उनके व्यवहार में कोई फर्क नहीं
आया और ई रमेश ने विशाखापट्टनम के कुटुम्ब न्यायालय में 12 मार्च 2013 को सेपरेशन
के लिए याचिका दायर कर दी। स्वप्ना आरोप लगाती हैं कि मैंने कई आएएस और आईपीएस
अफसरों गुहार लगाई कि मेरी समस्या पर गौर किया जाए, लेकिन किसी ने मेरे अनुरोध पर
ध्यान नहीं दिया। स्वप्ना का ये भी आरोप है कि कई बार रमेश ने उन्हें व उनके
बच्चों को भूखा रखा। अब वे अपने बच्चों के साथ खम्मम में अपने पिता के घर में रह
रही हैं। स्वप्ना के समर्थन में सिंतबर 2013 में ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमिन
एसोसिएशन भोपाल में प्रदर्शन भी कर चुका है। लेकिन नतीज़ा सिफर रहा है। ना तो अभी
तक स्वप्ना की शिकायत पर कोई कार्रवाई की गई, ना ही उसे न्याय दिलाने के लिए सरकार
ने कोई पहल की। जबकि जब स्वप्ना ने ई रमेश कुमार के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत की
थी, तब कहा जा रहा था कि मामले को एंटी करप्शन ब्यूरो या लोकायोग को दिया जा सकता
है। लेकिन राज्य सरकार ने इस पूरे मामले में चुप्पी साध ली। अब सवाल ये उठता है कि
मध्यप्रदेश सरकार ने तो अपने अफसर पर लगे आरोपों की सच्चाई जानने की जहमत नहीं
उठाई, लेकिन देश के नव नवेले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस विषय को संज्ञान में
लेते हैं कि नहीं। क्योंकि खुद मोदी पूरे प्रशासनिक तंत्र को सुधारने में लगे हैं,
उनके ऑफिस आने-जाने के समय पर नज़र रखी जा रही है। उनसे सच्चचरित्र होकर काम करने
की उम्मीद कर रहे हैं, ऐसे में सामाजिक न्याय मंत्रालय में पदस्थ एक आईएएस अफसर पर
उनकी ही पत्नी द्वारा लगाए जा रहे आरोपों की जांच तो सरकार को करवानी ही चाहिए।
शुक्रवार, 22 अगस्त 2014
अग्निवेश से हो सकती है पूछताछ
माओवादियों से कथित
सांठगांठ रखने के मामले में स्वामी अग्निवेश की मुसीबतें बढ़ सकती हैं। अग्निवेश
और माओवादी नेताओं के कुछ वीडियो पुलिस के हाथ लगे हैं। इसी को आधार बनाकर
छत्तीसगढ़ पुलिस जल्द ही स्वामी अग्निवेश से माओवादियों से मेलजोल रखने के मुद्दे
पर पूछताछ कर सकती है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी
रायपुर में नारायणपुर पुलिस ने 9 अगस्त को नक्सलियों के शहरी नेटवर्क को संचालित
करने वाली महिला नक्सली सोनी उर्फ श्यामबती और उसकी सहयोगी जलदोई को गिरफ्तार किया
है। सोनी ने पुलिस और एसआईबी (स्पेशल टास्क फोर्स) की पूछताछ में कई अहम खुलासे
किए हैं। श्यामबती से मिली जानकारी के आधार पर एसआईबी की टीम राजधानी के औद्योगिक
क्षेत्र उरला, सिलतरा
और भनपुरी की कई कंपनियों की जांच की तैयारी में है। पुलिस मुख्यालय के उच्च पदस्थ
सूत्रों के अनुसार, कांकेर, कोंडागांव,
सुकमा, दंतेवाड़ा के कई नक्सली कमांडर नाम और
पहचान बदलकर औद्योगिक क्षेत्रों में शरण लिए हुए हैं।
पीएचक्यू सूत्रों के
मुताबिक श्यामवती की गिरफ्तारी के वक्त एसआईबी के हाथ कई वीडियो भी लगे हैं।
जिनमें स्वामी अग्निवेश महिला नक्सली श्यामबती के साथ नजर आ रहे हैं। अब इसे आधार
बनाकर पुलिस आगे की कार्रवाई करने की तैयारी में है। महिला नक्सली के वीडिया में
नजर आए सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश से पूछताछ की तैयारी चल रही है।
इस बारे में स्वामी
अग्निवेश ने तहलका से कहा कि “उन्हें तो अब तक छत्तीसगढ़ सरकार या पुलिस की तरफ से कोई पत्र नहीं मिला
है। इसलिए इस विषय पर अनावश्यक बोलने की जरूरत में नहीं समझता हूं”।
नारायणपुर एसपी अमित
तुकाराम कांबले का कहना है कि “चेतना नाट्य मंडली की अध्यक्ष श्यामबती के खिलाफ नारायणपुर थाना छोटेडोंगर
में 4 मामले दर्ज हैं। उसके खिलाफ एक स्थायी वारंट लबित है।
उस पर राज्य सरकार ने एक लाख रुपए व कोंडागांव पुलिस ने दस हजार का ईनाम भी घोषित
कर रखा था”।
नक्सली नेता श्यामबती ने पुलिस
को बताया है कि वह लगातार और सीधे तौर पर सेंट्रल कमेटी के सचिव गणपति, भूपति, कोसा, राजू उर्फ गुडसे उसेंडी के
संपर्क में रहती है और उनके निर्देशों पर वह काम करती है। हार्डकोर महिला नक्सली
सोनी उर्फ श्यामवती ने आठवीं तक पढ़ने के बाद माओवादियों के साथ जुड़ गई। सन् 2000 में डौला दलम के महिला नक्सली
कमांडर फूलवती ने उसे अपने संगंठन में शामिल किया। 2000-04 तक डौला एलओएस की सदस्य रही और 2004-09 तक कूदूर एलओएस की साथ रही।
एडीजी नक्सल ऑपरेशन आर के विज
ने बताया, “गिरफ्तार दोनों महिला नक्सलियों
पर सीआरपीएफ कैंप पर हमला, झाराघाटी
पहाड़ी के पास सीआरपीएफ पार्टी पर हमला, नारायणपुर में पुलिस पार्टी पर
हमला, विधानसभा
चुनाव के दौरान हर्राकोडेर में पुलिस पार्टी पर हमला और मतदान पेटी लूटने के लिए
फायरिंग करने के संगीन आरोप हैं। इन लोगों ने टेटम में सीआरपीएफ पार्टी पर भी हमला
किया था”।
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