शनिवार, 30 नवंबर 2019

छत्तीसगढ़ की सुमिता पंजवानी ने धान की पराली से बनाया सैनेटरी नेपकिन


हमारे देश में अब भी 70 फीसदी महिलाएं सेनेटरी पैड नहीं खरीद पातीं। वे आज भी पुराने तरीकों जैसे कपड़े, अखबारों या सूखी पत्तियों का प्रयोग करती हैं. इसका कारण ये है कि वे सेनेट्री नैपकिंस को खरीदने में सक्षम नहीं हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार गांवों-कस्‍बों के स्‍कूलों में कई बच्चियां, पीरियड्स के दौरान 5 दिन तक स्‍कूल मिस करती हैं. यही नहीं, 23 प्रतिशत बच्चियां, माहवारी शुरू होने के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं। 2011 में हुई एक रिचर्स के मुताबिक भारत में हर महीने 9000 टन मेंस्ट्रुअल वेस्ट उत्पन्न होता है, जो सबसे ज़्यादा सैनेटरी नैपकिन्स से आता है. इतना नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरा हर महीने जमीनों के अंदर धसा जा रहा है जिससे पर्यावरण को बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचता है. एक महिला द्वारा पूरे मेंस्ट्रुअल पीरियड के दौरान इस्तेमाल किए गए सैनेटरी नैपकिन्स से करीब 125 किलो नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरा बनता है. 2011 में हुई एक रिचर्स के मुताबिक भारत में हर महीने 9000 टन मेंस्ट्रुअल वेस्ट उत्पन्न होता है, जो सबसे ज़्यादा सैनेटरी नैपकिन्स से आता है. इतना नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरा हर महीने जमीनों के अंदर धसा जा रहा है जिससे पर्यावरण को बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचता है. खैर ये तो बात हुई सैनेटरी नैपकिन की। अब एक और ज्वलंत विषय यानि पराली की भी बात कर लेते हैं। दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण का दोष पराली को ही दिया जा रहा है। ये शब्द आजकल किसी के लिए भी नया नहीं है। छ्त्तीसगढ़ में धान की पराली या पैरा को खेतों मे ही छोड़ दिया जाता है। या फिर जला दिया जाता है। लेकिन अब पराली का सबसे अच्छा उपयोग खोज निकाला गया है। जी हां पराली से सैनेटरी नैपकिन बनाकर दिखाया है छत्तीसगढ़ के एक जिले धमतरी में रहने वाली सुमीता पंजवानी ने।

सुमीता जी अध्यात्म से भी जुड़ी हुई हैं। वे जबलपुर के जवाहरलाल कृषि विश्वविद्यालय में जूनियर साइंटिस्ट रह चुकी हैं।  सुमिता बताती हैं कि पराली या पैरा जैसे वेस्ट में काफी सेल्यूलोज होता है, जिसे केमिकल की मदद से निकाला जाता है. ये एक तरह से कॉटन की तरह होता है, जो उपयोग के बाद डिकंपोज होकर मिट्टी में खाद की तरह मिल जाता है. बाजार में जो सेनिटरी नेपकिन उपलब्ध हैं, उनकी कीमतें सभी वर्ग की पहुंच में नहीं होती है, लेकिन पैरा से बना नेपकिन 2 से 3 रुपये में मिल सकेगा. तमाम ब्रांडेड नेपकीन में नायलोन होता है, जो डिकंपोज नहीं हो सकता और ये पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाता है. पैरा या पराली से बनी नेपकिन इन दोनों मामलो में बेहतर साबित होगी. सुमीता जैसी शक्तिस्वरूपा दूसरों के लिए प्रेरणास्त्रोत तो हैं ही, साथ ही उन लाखों महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षक बनने की दिशा में भी सुमीता कदम बढ़ा चुकी हैं।  

शक्तिस्वरूपा। साहस की मिसाल संतोषी दुर्गा। पोस्टमार्टम करने वाली छत्तीसगढ़ की एकमात्र महिला।

संतोषी दुर्गा, जिसके नाम में ही शौर्य और साहस समाया हुआ है। संतोषी दुर्गा एक ऐसी महिला हैं, जिनके बारे में जानकार आप उनको सलाम किए बिना नहीं रह सकेंगे। नक्सल प्रभावित बस्तर के एक जिले कांकेर की रहने वाली संतोषी दुर्गा संभवतः देश की अकेली महिला हैं, जो शवों की चीरफाड़ यानि पोस्टमार्टम करती हैं। इसमें भी एक खास बात ये है कि वे बगैर किसी नशे को किए ये काम करती हैं। अमूमन पुरुषों के वर्चस्व वाले इस कार्य को करने वाले लोग शराब या अन्य नशा लेने के बाद ही पोस्टमार्टम कर पाते हैं। संतोषी के पिता भी शराब पीकर शवों की चीरफाड का कार्य किया करते थे। जब संतोषी ने उन्हें शराब छोड़ने के लिए कहा तो उन्होने जबाव दिया कि वे बगैर नशा किए पोस्टमार्टम जैसा अमानवीय कार्य नहीं कर पाएंगे। तब संतोषी ने कहा कि वे यदि बगैर शराब पिए ये कार्य करके दिखाएं तो उन्हें शराब छोड़नी होगी। बस यहीं से संतोषी का सफर शुरु हुआ। नरहरपुर ब्लॉक में रहने वाली संतोषी दुर्गा अब तक 600 शवों का पोस्टमार्टम कर चुकी हैं। छह बहनों में सबसे बड़ी संतोषी दुर्गा उन तमाम लोगों के लिए मिसाल हैं, जो विपरीत परिस्थितियों में हार मान लेते हैं। कभी उनपर तंज कसने वाले लोग आज उनकी तारीफ करते थकते नहीं है।



https://janmantra.com/video-santosh-durga-an-example-of-courage-the-only-woman-from-chhattisgarh-to-do-post-mortem-santoshi-durga-the-only-woman-in-the-country-to-do-autopsy-of-dead-bodies/

पुरा वैभव को समेटे छत्तीसगढ़ का देवरानी-जेठानी मंदिर, रहस्यमीय रुद्र शिव की प्रतिमा



यदि आप छत्तीसगढ़ आ रहे हों तो आप रायपुर-बिलासपुर रोड़ पर स्थित देवरानी-जेठानी मंदिर जरूर जाएं। पांचवी शताब्दी में निर्मित ये मंदिर आपको भारत के पुरा वैभव की यात्रा पर ले जाएंगे। शिव के साधकों के लिए ये स्थान विशेष है। प्राचीन काल के दक्षिण कोसल के शरभपुरीय राजाओं ने गनियारी नदी के किनारे ताला नामक स्थल पर दो शिव मंदिरों का निर्माण करवाया था, जिन्हें देवरानी और जेठानी मंदिर के नाम से जाना जाता है। स्थानीय लोग इसे देवरानी-जेठानी का अर्थ कुंती-गांधारी बताते हैं।
प्रस्तर निर्मित अर्धभग्न देवरानी-जेठानी मंदिर दरअसल दो शिव मंदिर है। जो एक दूसरे के अगल-बगल में बने हुए हैं। देवरानी मंदिर का मुख पूर्व दिशा की ओर है। जबकि जेठानी मंदिर दक्षिणाभिमुखी है।
देवरानी मंदिर के पीछे की तरफ शिवनाथ की सहायक नदी मनियारी प्रवाहित हो रही है। इसका भू-विन्यास अनूठा है। इसमें गर्भगृह है। मंदिर की द्वारा शाखाओं पर नदी देवियों का अंकन है। सिरदल में गजलक्ष्मी का अंकित है। इसमें शिखर या छत नहीं है। इस मंदिर स्थलों में हिंदू मत के विभिन्न देवी देवताओं, अंतर देवता, पशु पौराणिक आकृतियां पुष्पाकंन विविध ज्यामितिक प्रतिमाएं व वास्तु खंड है।


रोमाचिंत करती रुद्र शिव की विलक्षण प्रतिमा
इसमें रुद्र शिव के नाम से पुकारी जाने वाली प्रतिमा महत्वपूर्ण है। यह विशाल प्रतिमा 2.70 मीटर ऊंची है। शास्त्र के लक्षणों की दृष्टि से विलक्षण प्रतिमा है। इसमें मानव अंग के रूप में अनेक पशु, मानव अथवा देवमुख व सिंहमुख बनाए गए हैं। इसके सर का जटा मुकुट (पगड़ी) सर्पों के जोड़े से बना हुआ है। रुद्रशिव का हाथ व उंगलियों को सर्प की भांति आकार दिया गया है। इसके अतिरिक्त प्रतिमा के ऊपरी भाग पर दोनों और सर्प फन छत्र कंधों के ऊपर प्रदर्शित है। इसी तरह बाएं पैर में लिपटे हुए फन युक्त सर्प का अंकन है। दूसरे जीव जंतुओं में मोर से कान का कुंडल, आंखों की भौंहे व नाक छिपकली से व लिंग कछुआ के मुंह से बना है। नेत्र में घोंघा है। मुख की ठुड्डी केकड़े से निर्मित है। भुजाएं मगर मुख से निकली हैं। सात मानव अथवा देवमुख शरीर के विभिन्न अंगो में निर्मित हैं। अद्वितीय होने के कारण इस प्रतिमा की सही पहचान को लेकर अभी भी विवाद बना हुआ है। शिव के किसी भी ज्ञात स्वरूप के शास्त्रोक्त प्रतिमा लक्षण पूर्ण रूप से नाम मिलने के कारण इसे शिव के किसी विशेष स्वरूप की मान्यता नहीं मिल पाई है। निर्माण शैली के आधार पर उस मंदिर व प्रतिमा को छटवी शताब्दी के पूर्वार्ध्द में रखा जा सकता है। स्थानीय लोग इसे पांचवी सदी में बनाया हुआ मानते हैं।


जेठानी मंदिर भी शिव का ही एक मंदिर है। जो छत या शिखिर विहीन है। लेकिन इसकी नक्काशी देखकर मन इसे बनाने वाले कलाकार के प्रति क्षद्धा से बरबस ही झुक जाता है। ये मंदिर भारतीय स्थापत्य शैली के अदभुत उदाहरण हैं। जो कई रहस्य समेटे हुए सदियों से मौन खड़ें हैं।
वर्ष 1976 में इन मंदिरों के अवशेष मलबे में दबे हुए नजर आए थे। इसके बाद भारतीय पुरातात्विक विभाग ने इसकी खुदाई और संरक्षण का काम शुरु किया। उसके बाद 1988 -89 में दोबारा इन मंदिरों में खुदाई हुई। स्थानीय निवासी इसे देवरानी जेठानी को कुंती-गांधारी से जोड़कर देखते हैं। वे इसे महाभारतकालीन मानते हैं।





बुधवार, 18 सितंबर 2019

श्रीपुर की रानी वासटा की अमर प्रेम कहानी, जिसने ताजमहल से 11 सौ वर्ष पूर्व बनाया था प्रेम का अमर स्मारक


(सर्वाधिकार लेखिकाधीन)

600 ईसवी का काल था। मगध नरेश सूर्य वर्मा की विजय पताका चहुं और फहरा रही थी। उनकी युवा हो रही राजकुमारी वासटा की सौंदर्य कीर्ति भी दूर-दूर तक फैली हुई थी। कई प्रतापी राजकुमार वासटा से विवाह के इच्छुक थे। लेकिन मगध नरेश सूर्य वर्मा दक्षिण कौशल के राजा हर्षगुप्त के विवाह प्रस्ताव को लेकर गंभीर हैं। वे राजकुमारी का विवाह हर्षगुप्त से करना चाहते हैं।
लेकिन ये कैसे संभव हो? राजगुरु के मस्तक पर चिंता की लकीरें देखकर सूर्य वर्मा भी विचलित हैं। क्यों संभव नहीं हो सकता राजगुरु? सूर्य वर्मा प्रतिप्रश्न करते हैं। हम वैष्णव हैं, वे शैव। दोनों की पूजा पद्धति, रीति-रिवाज भिन्न हैं, इष्ट भिन्न हैं। राजगुरु का उत्तर सुनकर मगध नरेश कुछ बोलते, उसके पहले ही राजकुमारी वासटा उपस्थित हो जाती हैं। अत्यंत रूपवती, धर्मानुरागी, वीरांगना पुत्री को देखकर सूर्य वर्मा का मस्तक ऊंचा होता हुआ प्रतीत हो रहा है। मन में उमड़ रहे प्रश्नों को वे सीधे राजकुमारी के सम्मुख रखने का निर्णय लेते हैं। राजकुमारी पिता के मन में चल रहे भावों से अच्छी तरह परिचित है, पिता कुछ बोलें, इसके पूर्व ही पुत्री निर्भीक होकर अपने मन की बात कह देती है। राजकुमारी वासटा कहती हैं कि पिताजी, आप चाहे वैष्णव कुल में मुझे ब्याहें या शैव कुल में। मैं केवल इतना कहना चाहती हूं कि आपकी ये पुत्री कभी आपका मस्तक झुकने नहीं देंगी। पिता के मन के सारे उहापोह समाप्त हो जाते हैं। वे धूमधाम से मगध की राजकुमारी का विवाह दक्षिण कौशल के शैव धर्मावलंबी श्रीपुर (मौजूदा सिरपुर) के राजा हर्षगुप्त से कर देते हैं। और इसी के साथ आरंभ होती है एक अमर प्रेम कहानी। जिसका गवाह खुद चीनी यात्री ह्वेन सांग है। जिसने अपनी यात्रा वृंतात में इसका वर्णन किया है। वासटा श्रीपुर की रानी बनकर हर्ष गुप्त के जीवन में आ गईं। चित्रोत्पला महानदी के घाट पर बसे श्रीपुर में चहुं और समृद्धि के ही दर्शन होते थे। कभी भी कोई अपराध श्रीपुर में सुनाई तक नहीं देता था।
वासटा और हर्ष गुप्त के प्रेम की मिसालें दी जाने लगी थीं। दोनों की प्रेम की निशानी पुत्र के रूप में महाशिव गुप्त भी आ जाते हैं। सब कुछ अच्छा ही चल रहा था, लेकिन ईश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था। राजा हर्ष गुप्त की श्वांस ईश्वर ने कम लिखीं थी। वे रानी वासटा को छोड़कर सदा सर्वदा के लिए दुनिया से कूच कर गए। ये ईसवी ६३५-६४० का वक्त था। जब श्रीपुर यानि सिरपुर की रानी वासटा ने राजा हर्षगुप्त की याद में अगाध प्रेम के प्रतीक लक्ष्मण मंदिर का निर्माण करवाया। अचानक राजा की मृत्यु से शोक में डूबी रानी वासटा प्रण लेती हैं कि वे पति की याद में स्मारक का निर्माण करवाएंगी। रानी वासटा लाल पत्थरों से लक्ष्मण स्मारक या मंदिर का निर्माण करवाती हैं, ताजमहल से भी 11 सौ वर्ष पूर्व। आज भी श्रीपुर में रानी वासटा के अमर प्रेम की गाथा गूंज रही है। सदियां बीतने के बाद भी लक्ष्मण स्मारक वैसे ही पूरे वैभव के साथ खड़ा है, जैसा कि अपने निर्माण के वक्त था।

(शैव धर्मावलंबी श्रीपुर (मौजूदा सिरपुर) में मगध नरेश सूर्यवर्मा की बेटी वैष्णव धर्मावलंबी वासटादेवी की प्रेम कहानी का उल्लेख हालांकि चीनी यात्री ह्वेन सांग ने भी अपनी यात्रा वृतांत किया है। लक्ष्मण मंदिर में दक्षिण कौशल की शैव और मगध की वैष्णव संस्कृति का अनूठा मिश्रण स्पष्ट परिलक्षित होता है। आगरा में अपनी चहेती बेगम मुमताज की स्मृति में शाहजहां ने ईसवी १६३१-१६५४ के मध्य ताजमहल का निर्माण कराया। मफेद संगमरमर के ठोस पत्थरों 
को दुनियाभर के बीस हजार से भी अधिक शिल्पकारों द्वारा तराशी गई इस कब्रगाह को मुमताज महल के रूप में 
प्रसिद्धि मिली। ताजमहल से लगभग ११ सौ वर्ष पूर्व शैव नगरी श्रीपुर में मिट्टी के ईंटों से बने स्मारक में विष्णु के दशावतार अंकित किए गए हैं और इतिहास इसे लक्ष्मण मंदिर के नाम से जानता है। 

लक्ष्मण मंदिर की सुरक्षा और संरक्षण के कोई विशेष प्रयास न किए जाने के बावजूद मिट्टी के ईंटों की यह इमारत चौदह सौ वर्षों के बाद भी शान से खड़ी हुई है। १२वीं शताब्दी में भयानक भूकंप के झटके में सारा 'श्रीपुर  जमींदोज़ हो गया। चौदहवीं-१५वीं शताब्दी में चित्रोत्पला महानदी की विकराल बाढ़ ने भी वैभव की नगरी को नेस्तानाबूद कर दिया लेकिन बाढ़ और भूकंप की इस त्रासदी में लक्ष्मण मंदिर अनूठे प्रेम का प्रतीक बनकर खड़े रहा है। हालांकि इसके बिल्कुल समीप बने राम मंदिर पूरी तरह ध्वस्त हो गया और पास ही बने तिवरदेव विहार में भी गहरी दरारें पड़ गई। साहित्यकार अशोक शर्मा ने ताजमहल को पुरूष के प्रेम की मुखरता और लक्ष्मण मंदिर को नारी के मौन प्रेम और समर्पण का जीवंत उदाहरण बताया है। उनका मानना है कि इतिहास गत धारणाओं के आधार पर ताजमहल और लक्ष्मण मंदिर का तुलनात्मक पुनर्लेखन किया जाए तो लक्ष्मण मंदिर सबसे प्राचीन प्रेम स्मारक सिद्ध होता है।)








बुधवार, 24 जुलाई 2019

मुर्गी का अंडा और राजनीति

इस विषय पर मैं लिखना शुरु करें और आप पढ़ना, मैं आपको दो बातों से अवगत करवाना चाहती हूं कि मैं शुद्ध शाकाहारी परिवार से हूं। मेरे घर में लहसुन-प्याज भी नहीं आता। मांसाहार तो पूर्णतः वर्जित है, और तो और जिस अंडे पर मैं लिखना चाह रही हूं, उसकी दुकान के सामने से मुंह पर रुमाल रखकर निकलती हूं। दूसरी बात ये कि यह पोस्ट पूरी तरह गैरराजनीतिक है (हर पोस्ट की तरह)। चूंकि मैं भी एक मां हूं तो तीन-चार दिन तक लिखूं कि ना लिखूं की ऊहापोह से निकलकर आज जो मैं लिख रही हूं, पूरी जिम्मेदारी के साथ लिख रही हूं। छत्तीसगढ़ में आजकल ‘मुर्गी के अंडे’ की राजनीति चरम पर है। ऐसे विषयों को मुद्दा बनते देखकर लगता है कि राजनीति में केवल स्वार्थ का स्थान है, परमार्थ के लिए कोई जगह नहीं बची। विपक्ष को बस विरोध करना है, भले ही उस विरोध की कीमत जनमानस ही क्यों ना चुकाए। तो मामला ये है कि राज्य सरकार मध्यान्ह भोजन में बच्चों को अंडा देना चाहती है। इसका कई सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संगठनों द्वारा विरोध हो रहा है। लोग इसे धर्म से जोड़कर देख रहे हैं। लेकिन विरोध करने वाले ये नहीं समझ पा रहे कि ये जरूरी नहीं है कि हर बच्चा अंडा खाए ही। अंडा खाना ना खाना बच्चे की इच्छा पर छोड़ दिया जाए। लेकिन मैं एक बात स्पष्ट कर दूं कि छत्तीसगढ़ समेत कई राज्य कुपोषण की मार झेल रहे हैं। कागजों के आंकड़ों के इतर जमीनी हकीकत भयावह है। अंडे में विटामिन ए, बी, बी12, विटामिन डी और विटामिन ई भरपूर मात्रा में होता है। इसके अलावा फॉलेट, सेलेनियम और कई खनिज लवण इसमें पाए जाते हैं। इसमें कोलीन पाया जाता है, जिससे स्मरण शक्ति तो बढ़ती ही है, कार्यक्षमता भी बढ़ जाती है। अंडे के सेवन से आंखों की मांसपेशियां मजबूत होती हैं। इसमें मौजूद एंटीऑक्सीडेंट रेटीना को मजबूत करता है। इसे खाने से पेट देर तक भरा रहता है। इससे बाल और नाखून भी मजबूत होते हैं। इसमें आयरन भी होता है, जो लाल रक्त कोशिकाओं के विकास के लिए जरूरी होता है। मैं अंडे का विज्ञापन नहीं कर रही हूं, बल्कि समझा रही हूं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए अंडा एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व का काम करेगा। अंडे के अतिरिक्त भी कई अन्य प्रकार के खाद्य पदार्थों में पोषक तत्व हैं, जिनसे यही सब फायदे हो सकते हैं। लेकिन अकेले अंडे में ही ये सब पोषण मौजूद होता है। सबसे जरूरी बात कि मध्यान्ह भोजन में अंडे परोसे जाने का विरोध वो लोग कर रहे हैं, जिनके बच्चे शायद ही सरकारी स्कूलों में पढ़ते होंगे। मतलब ये अंडा उनके बच्चों को तो नहीं खाना है। सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले 95 फीसदी बच्चे गरीब, वंचित, शोषित परिवारों के होते हैं। हम ये तो पता नहीं कर रहे कि उनकी मंशा क्या है, उनकी जरूरत क्या है, बस अपना विरोध थोप रहे हैं। तो जो स्कूलों में अंडा देने का विरोध कर रहे हैं, क्या अपने स्तर पर इन बच्चों का पोषण ठीक करने के लिए पहल भी करेंगे कि फिर केवल राज्य सरकार का मुंह ताकेंगे।
मेरा सात साल का बच्चा है, मैं उसे अंडा नहीं देती, क्योंकि मैं शाकाहारी हूं और मुझे पता है कि अंडे के अतिरिक्त वही पोषण मैं उसे कैसे दे सकती हूं। मैं उसे सही पोषक तत्व देने के लिए आर्थिक रूप से सक्षम भी हूं। लेकिन यदि किसी गरीब के बच्चे को मुफ्त में पोषण मिल रहा हो तो उसका विरोध कितना उचित है। रही बात इसे मांसाहार या शाकाहार से जोड़ने की, तो ये उन बच्चों के परिवारों को तय करने दीजिए कि उन्हें क्या चाहिए। मेरा केवल इतना ही निवेदन है कि बच्चों के विषय पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। यदि करना ही है तो केवल समस्या पर नहीं समाधान पर भी बात होनी चाहिए। केवल हल्ला करने का मकसद करने की इस राजनीति में कुपोषण से बर्बाद होते बच्चों की हाय भी आपको ही लगेगी। ये मत भूलिएगा। #प्रियंकाकौशल

हम सुधरेंगे तभी बच पाएंगी नदियां



गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिंधुकावेरीजलेsस्मिंन् सन्निधिं कुरू।।
यह सब जानते हैं कि  नदियां जीवनदायिनी होती हैं। किसी भी राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, भौतिक एवं सांसकृतिक इतिहास और विकास में इनका स्थान विशिष्ट होता है। इतिहास हमें बताता है कि आदिकाल से ही सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ है। खासकर भारतीय संदर्भ में देखें तो हमारे देश, हमारी संस्कृति, हमारी जीवन शैली ही विभिन्न नदियों के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। हमारी संस्कृति की उत्पत्ति, उसके विकास में सात नदियों (बाद में शनैः शनैः देश की अन्य नदियां भी हमारे विकास में सहायक सिद्ध हुईं) का महत्वपूर्ण योगदान माना गया है। यहां तक कि हमारी पहचान ही सप्त सिंधु के रूप में होती थी। यह सप्तसिंधु नाम ही विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में पाया गया है। वस्तुतः यह नाम वैदिक भारत का ही नाम था। ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि हमारे पड़ोसी राष्ट्र भी हमें सप्तसिंधु के नाम से ही पुकारते थे। इन्हीं सात पावन सरिताओं के तट पर हमारी संस्कृति विकसित हुई, फली-फूली और जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, अन्य पावन सरिताओं ने हमारे जीवन में खुशहाली भरी। नदियां हमें केवल पेयजल ही उपलब्ध नहीं करातीं, बल्कि हमारे आर्थिक विकास का तानाबाना भी बुनती हैं। ये सिंचाई और परिवहन का भी प्रमुख स्त्रोत रही हैं। ये अपने प्रवाह के साथ विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण तत्व लाकर अपने तटों पर छोड़ देती हैं, जो कृषि में सहायक होते हैं। मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं, और हमारे लिए समृद्धि का द्वार खोल देते हैं। नदियों के बगैर बड़े-बड़े कल कारखानों, उद्योगों की स्थापना भी संभव नहीं है। लेकिन हमें पोषित, पल्लवित, पुष्पित करने वाली जीवनदायिनी नदियों का दोहन करते-करते हम भूल गए कि उनका सरंक्षण भी उतना ही जरूरी है, जितना कि हमारे लिए जीवित रहना। हम यह भी भूल गए कि यदि नदियां ही नहीं रहीं, तो हमारे अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगेगा। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि देश की तकरीबन सभी नदियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। 70 फीसदी तो इतनी प्रदूषित हैं कि जल्द ही वे नदी कहलाने लायक भी नहीं रहेंगी। यह नदियां इस कदर प्रदूषित हैं कि उनमें जलीय पौधों और जंतुओं का जीना दूभर है। नदियों की पूजा करने और उन्हें आस्था का केंद्र मानने वाले देश में उनका यह हाल बताता है कि अपने जीवनदायिनी जलस्रोतों के साथ हम क्या सलूक कर रहे हैं। हमारी बहुत सारी नदियां गरमी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं। कई नदियां हमेशा के लिए ही लुप्त हो गई हैं, कई गंदे नाले में परिवर्तित हो चुकी हैं।
अक्सर हम औद्योगीकरण को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं, लेकिन नदी पूजने वाले भी इसके लिए कम दोषी नहीं हैं। वे भी नदियों को प्रदूषित करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद गंगा है। जिसकी सफाई के लिए केंद्र सरकार को पृथक से विभाग बनाना पड़ा और उसका बजट अरबों रुपयों पर पहुंच गया। एक अध्ययन बताता है कि छत्तीसगढ़ की महानदी, अरपा व मध्य प्रदेश की नर्मदा और सोन में बहने वाले पानी की गुणवत्ता को नष्ट करने में 43 फीसदी स्थानीय नागरिक जिम्मेदार हैं। ऐसी हालत कमोबेश पूरे देश की है। 90 फीसदी लोग तो नदियों के जीवन के बारे में सोचते तक नहीं। नदियों की यह हालत तब हुई है, जब हमारे देश में नदियों को मां की संज्ञा दी गई है। उनकी परिक्रमा कर हम खुद को धन्य पाते हैं, अपने तीज-त्यौहारों में उनका स्मरण करते हैं और महाआरतियों के जरिए उनके प्रति श्रद्धा भी प्रकट करते हैं। लेकिन नहीं करते तो उनके संक्षण का काम। अब समय आ गया है कि हम तय करें कि नदियों में और गंदगी नहीं बहाई जाएगी। नदियों में औद्योगिक कचरों और शहरी नालियों के मुंह नदियों में नहीं खोले जाएंगे। बल्कि उनके निस्तारण के लिए पृथक व्यवस्था की जाएगी। इस काम में सरकार के साथ आम जनता को भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। गंदे पानी के निस्तारण के लिए ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना नदियों को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभा सकती है। हमें भी यह याद रखना होगा कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देना चाहते हैं। नदियों से खिलवाड़ सीधे-सीधे पर्यावरण से खिलवाड़ है। अपने जीवन से खिलवाड़ है। आजादी के दस साल बाद 1957 में योजना आयोग ने कहा था कि देश में 240 गावों में पानी नहीं है। यह आंकड़ा वर्तमान में दो लाख गांवों से ऊपर चला गया है। अगर यूं ही चलता रहा तो हमें नदियों का पानी पीने के लिए तो क्या आचमन के लिए भी उपलब्ध नहीं रहेगा। #प्रियंकाकौशल #PriyankaKaushal

मंगलवार, 23 जुलाई 2019

लैंगिक समानता या पूरकता!




वर्तमान में लैंगिक समानता, नारी मुक्ति आंदोलन, महिला सशक्तिकरण जैसे कई जुमले आम हो गए हैं। वर्ष 1848 से पश्चिम में उत्पन्न हुआ सिनेका फाल्स डिक्लयरेशनअपने नए रंग रूप के साथ 90 के दशक से होता हुआ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है। पश्चिमी विद्वानों के साथ-साथ एशियाई विचारक भी मानते हैं कि विश्व में 1848 से लेकर 2015 तक नारीवाद की चार लहरें प्रवाहित हुईं। इसका केंद्र पश्चिम ही था, जहां स्त्रियों की स्थिति अत्यधिक दयनीय थी। उन्हें न तो मतदान का अधिकार था, न ही समाज में सम्मान प्राप्त करने का। शायद इसलिए भी कि पश्चिम में आस्था का केंद्र बने धर्मग्रंथ बाइबिल में यह कहा गया है कि मैं कहता हूं कि स्त्री न उपदेश करे और न ही पुरुष पर आज्ञा चलाए, परंतु चुपचाप रहे, क्योंकि आदम पहले, उसके बाद हव्वा बनाई गई और आदम बहकाया न गया, पर स्त्री बहकने में आकर अपराधिनी हुई (नया नियम, 1-तीमुथियुस 2/12-15)। पश्चिम की धरती पर शुरू हुए इस तथाकथित नारी मुक्ति आंदोलन के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1975 में कई प्रस्ताव पारित किए और इस वर्ष को महिला वर्ष घोषित किया एवं अगले दस वर्षों (1975 से 1985 तक) में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए कई प्रयास किए।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी इन आंदोलन को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं हुईं। जो आज तक अनवरत् जारी हैं। लेकिन हम लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाए हैं, उल्टे भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष लैंगिक अनुपात किन्हीं-किन्हीं राज्यों में खतरे के निशान पर पहुंच गया है, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा बढ़ गई, बलात्कार जैसी वीभत्स और निंदनीय घटनाओं की पुनरावृत्ति आम बात हो गई है। तो आखिर हमसे कहां भूल हो गई कि महिलाएं अपना सम्मान खोने के लिए विवश हैं। दरअसल हम पश्चिम के आंदोलन को, उनके कारणों, स्थिति और दशा को समझे बगैर ही अपने समाज में लागू करने की कोशिश करते रहे हैं। हमारे भारतीय परिप्रेक्ष्य में, या यूं कहें कि वैश्विक परिवेश में भी लैंगिक समानता शब्द ही गलत है। जबकि यह लैंगिक पूरकता होना चाहिए। हम कैसा समाज चाहते हैं, हमें इस पर विचार करना ही होगा। लेकिन इसके साथ-साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि हम अपनी गौरवशाली संस्कृति और परंपराओं को विस्मृत कर भविष्य के बारे में कैसे सोच पाएंगे। स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे के समान नहीं, वरन् एक-दूसरे का पूरक बनना है। लैंगिक समानता की अवधारणा ही गलत है, क्योंकि इससे परस्पर प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, एक-दूसरे के प्रति सम्मान में कमी आती है। कौन श्रेष्ठ है, कौन नहीं ऐसे शोध शुरु हो जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि स्त्री और पुरूष की पूरकता की बात की जाए। हम एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं, समान नहीं क्योंकि स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बगैर स्त्री परिवार, कुनबा, कुटुम्ब, समाज, राज्य, राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। जैसे स्वयं शिव भी शक्ति के बगैर अधूरे हैं, सीता के बगैर राम का कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता, बिना राधा कृष्ण की भक्ति की ही नहीं जा सकती ठीक वैसे ही बगैर नारी के कोई भी पुरुष ना तो इस दुनिया में आ ही सकता है ना पोषित पल्लिवत होकर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। हमें इन तथाकथित स्त्री मुक्ति आंदोलन की जरूरत भी नहीं है क्योंकि हम जानते हैं कि भारत में महिलाओं का स्थान शक्तिशाली रहा है। ऋग्वेद काल में भी महिलाओं को सम्मानित स्थान प्राप्त था। वैदिक साहित्य में ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि स्त्रियों को अध्यात्मिक पथ चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। वेदकाल में 36 ऋषिकाएं मिलती हैं। गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा, कात्यायनी इसका ही उदाहरण है। हमारे यहां मनुस्मृति में, श्रीमद्भागवत गीता में, स्कंद पुराण में, अत्रिसंहिता में, रामचरित मानस में और यहां तक कि सभी वेदों, पुराणों, उपनिषदों में बार-बार यह उल्लेख मिलता है कि इस देश में स्त्री हमेशा ही पुरुषों से अग्रणी रही है, क्योंकि भारतीय समाज यह अच्छी तरह जानता है कि बगैर नारी के संसार का सृजन ही संभव नहीं है। वह दादी है, नानी है, माता है, बहन है, पुत्री है, पत्नी है और न जाने कितने आवश्यक संबंधों में हम उसे पाते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि - उपाध्यायादन्शाचार्य आचार्यणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवातिरिच्यते।। अर्थात् दस उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य, सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता और सहस्त्र पिताओं की अपेक्षा माता का गौरव अधिक है। सभी गुरुजनों में माता को परम गुरु माना गया है।गुरूणां चैव सर्वेषां माता परमको गुरुः” । यह भी कहा गया है कि “प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता।।“  यानि मनुष्य जिस क्रिया से माता को प्रसन्न कर लेता है, उस क्रिया से सम्पूर्ण पृथ्वी का पूजन हो जाता है।
जबकि पाश्चात्य परम्पराओं का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वहां के जीवन में अपेक्षाकृत नारी का स्थान नीचा रखा गया है। यूनान और रोम का सामाजिक-राजनीतिक दर्शन तो स्पष्ट तौर पर नारी विरोधी रहा है। अरस्तु यूनान में 324 ईसा पूर्व से 384 ई.पू. तक रहा। करीब पंद्रह सौ वर्षों तक उसके विचारों को स्वीकार किया जाता रहा। अरस्तु की नजर में प्रजनन में नारी का कोई योगदान नहीं था। उसने जोर देकर कहा कि नारी स्वतंत्रता तथा राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने योग्य नहीं है। इसे सिद्ध करने के लिए तर्क दिए गए कि ईश्वर तथा समाज की महानता के सामने नारी तुच्छ है। एच.जी.वैल्स की दी आउट लाइन ऑफ हिस्ट्री तथा मैकमिलन पब्लिशिंग की 1921 न्यूयार्क नाम पुस्तक में यह सामने आता है कि यह विचार रोम के लोगों को प्रभावित करने लगा और मध्यकाल तक संपूर्ण यूरोप में फैल गया। थामस एक्यिनस नामक साधु ने अरस्तु के विचारों को इक्कीस भागों में पेश किया और प्रचारित किया। जब समय बीतने के साथ-साथ पश्चिमी देशों में स्त्रियों को आदर-सम्मान नहीं मिल सका तो उन्होंने विद्रोह का रास्ता अपनाया। नारी ने अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पाने के लिए संघर्ष किया। लेकिन समय के साथ यही नारी स्वतंत्रता का आंदोलन लैंगिक संघर्ष में बदल गया। यह आंदोलन नारी के अधिकारों का भले ही समर्थक रहा हो, लेकिन नारी को सम्मान कभी नहीं दिला सका। स्त्री पुरूष के इस संघर्ष ने सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को ही बिगाड़ कर रख दिया। परीणामस्वरूप अत्याधुनिक अमेरिका में स्त्री-पुरुषों में खाई बढ़ गई। इसका परिणाम हुआ कि 41 फीसदी बच्चे अविवाहित माताओं से पैदा हुए। उनमें भी आधे किशोरी कन्याओं से जन्मे। 1955 में केवल 55 फीसदी पति पत्नी घर में एक साथ रहते थे। 2010 तक आते-आते यह संख्या 48 फीसदी रह गई। 12 फीसदी अकेली महिलाएं और 15 फीसदी अकेले पुरुषों के परिवार हो गए हैं। 11 फीसदी से अधिक अमेरिकी युगल लिव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। करीब 60 फीसदी अमेरिकन स्त्री पुरुष विवाह ही नहीं करते। यही कारण था कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने विवाह कानून में सुधार के लिए 2012 में कानून बनाया। फादरलेस अमेरिका जैसे शीर्षक वाली किताबें बाजार में आईं। इंग्लैंड की स्थिति तो इससे भी बुरी है। यहां 47 फीसदी बच्चे अविवाहित लड़कियों की संताने हैं। बाइबिल इन इंडियाहिंदू ऑरिजिन ऑफ हबर्रेस एंड क्रिश्चियन रेवेलेशन में फ्रेंच लेखक लुइस जेकोलियर कहते हैं कि भारत में एक ऐसी उच्च स्तर की सभ्यता रही है, जो पाश्चात्य सभ्यता से कहीं अधिक प्राचीन है, जिसमें नारी को पुरूष के समान समझा जाता है और परिवार तथा समाज में समान स्थान दिया जाता है
कुल मिलाकर हमें फिर से इस प्रश्न पर विचार करना होगा कि हम अपने पुरातन गौरव की तरफ लौटना चाहते हैं या अंधेरी कोठरी में दीवारों से सर टकराना चाहते हैं। हमारे सामने समस्याएं भी हैं तो समाधान भी। बस हमें नए सिरे से समस्याओं और समाधान पर विचार करना होगा। पश्चिम के पास तो समाधान ही नहीं है, हमें तो उसके लिए भी निवारण का प्रबंध करना है। यह हमारी ही जिम्मेदारी है, क्योंकि भारत को विश्व गुरू की संज्ञा ऐसे ही नहीं दे दी गई है। अंत में इतना ही, मां की ममता, नेह बहन का और पत्नी का धीर हूं
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं...
युद्ध का साहस, शिव की शक्ति और काली रणवीर हूं..
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूं...


बुधवार, 17 जुलाई 2019

साक्षी के नाम खुला पत्र..


#साक्षी तुम्हें पता भी है तुमने कितनी लड़कियों की जिंदगी बर्बाद कर दी है। साक्षी क्या तुम जानती हो कि तुमने कितनी लड़कियों के सपनों का गला घोंटा है। साक्षी क्या तुम जानती हो कि तुमने लड़कियों को कितने पीछे धकेल दिया है, बिलकुल वहीं..जहां से वे संघर्ष कर आगे बढ़ी थीं। तुम्हारे प्रेम से दुनिया को कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन तुमने जो उसका तमाशा बनवाया है, उससे तुम ही आज कटघरे में खड़ी हो, और तुम्हारे साथ खड़ी हैं वे अनगिनत बेकसूर लड़कियां, जिन्हें अब उनके माँ, बाप, भाई ही शक की नज़र से देख रहे हैं। तुम्हे यदि जान का खतरा था तो न्याय पाने के और भी तरीके थे। तुमने वीडियो जारी किया, चलो उसे भी जायज़ मान लिया जाए। लेकिन जिस तरह तुमने न्यूज़ चैनल में बैठकर अपने परिवार की इज्जत हवा में उछली है ना, उससे तुम्हारी नीयत पर शक पैदा होता है। तुम अकेली लड़की नहीं हो, जिसने परिवार के ख़िलाफ़ जाकर विवाह किया है, लेकिन उन्होंने अपने पिता की इज्जत यूं तार-तार नहीं की। यदि प्रेम विवाह के बाद कि प्रतिक्रिया सहने के साहस नहीं था, तो ऐसा कदम ही क्यूं उठाया। तुम्हारे कृत्य से षड्यंत्र की बू आ रही है। वीडियो में जिस तरह तुम अपने पिता का नाम ले रही थी ना, उसमें घृणा का भाव जाहिर हो रहा था। तुम अपने पिता को समझा नहीं धमका रही थीं। तुम्हारी भाषा से तो नहीं लगा कि तुम डरी हुई हो। जिस तरह से सजी संवरी बैठी थी, उसे देखकर भी नहीं लगा कि तुम जान बचाने के लिए मारी-मारी फिर रही थीं। हर पिता अपनी बेटी को अरमानों के साथ विदा करना चाहता है, कोई बात नहीं कि तुमने अपने परिवार को विश्वास में लिए बिना ही रवाना हो गयी, पर एक बात याद रखना कि तुम्हारे कृत्य से (प्रेम विवाह करने से नहीं, बल्कि परिवार की भद्द पिटाने के कारनामे से) आज हम सब लड़कियां शर्मिंदा हैं। जो तुमने किया वो प्रेम नहीं केवल आकर्षण का शिकार होना है। क्योंकि जो अपने माता-पिता से प्रेम नहीं कर सकता, वो किसी से क्या प्रेम करेगा और क्या निभाएगा। अंत में एक बात याद रखना, हमारे यहां कहावत है-- जो ना माने बड़ों की सीख, ले कटोरा मांगे भीख। और एक बात यदि किसी न्यूज़ चैनल में बैठकर समस्याएं हल हो जाती तो देश की 80 फीसदी समस्याओं का समाधान हो गया होता। मैं खुद मीडिया से हूँ और मुझे कहने में कोई समस्या नहीं कि हम लोगों की परेशानी कम करने के बजाए बढ़ा रहे हैं। औऱ जाते-जाते सुन लो कि मीडिया को ना तुम्हारी जान बचाने में रुचि है ना ही तुम्हारे पिता जी की इज्ज़त बचाने में कोई इंटरेस्ट। तुम्हारे जैसे मूर्ख केवल मीडिया की टीआरपी बढ़ाने के टूल हो, इससे ज्यादा कुछ नहीं..#प्रियंकाकौशल 

आइए अपने परिवार के ऋणी हो जाएं....

साक्षी प्रकरण के बहाने आइए आज परिवार पर चर्चा करते हैं। पिछले बीस-तीस वर्षों में प्रेम विवाह के मामले बढ़े हैं। मैं यह नहीं कह रही हूं कि पहले ऐसा नहीं हुआ। हमारे यहां अनादी काल से लड़कियां स्वयं के लिए वर चुन रही हैं। स्वयंवर भी उसी प्रक्रिया का हिस्सा था। कई विवाह पहले भी हुए, जो परिवार के विरुद्ध जाकर किए गए। लेकिन एक समय के बाद अंततः परिवार ने भी चाहे वर हो या वधु उसे खुलेदिल से स्वीकार कर ही लिया। लेकिन साक्षी प्रकरण में जो हुआ, वह नहीं होना चाहिए था। साक्षी के घर लौटने के सारे दरवाजे बंद कर दिए गए। लड़की के माता-पिता को सरेआम खलनायक की तरफ पेश किया जाना, उनका मीडिया ट्रायल लिया जाना और मामले को गलत रंग देने के षडयंत्र ने पूरे देश का ध्यान इस ओर खींचा।
खैर, मूल मुद्दे पर लौटकर आते हैं, यानि परिवार पर। परिवार की मुख्य धुरी माता-पिता होते हैं। दुनिया के कोई माता-पिता (इंसान क्या, पशु भी) अपने बच्चों को नुकसान पहुंचाने की मंशा नहीं रखते। वे अपने बच्चों की जायज-नाजायज मांगों को भी पूरा करते रहते हैं। चूंकि हमें परिवार नाम की संस्था, माता-पिता ईश्वर प्रदत्त है और हमारी संस्कृति/संस्कारों ने इस संस्था को अक्षुण्ण रखा है तो हम इसकी कीमत/महत्व ही नहीं जान पा रहे हैं। मैं युवा भाई-बहनों से कहना चाहती हूं कि परिवार सराय या धर्मशाला नहीं है कि जब तक मन किया रहे, और जब दूसरी धर्मशाला पसंद आ गई तो बोरिया बिस्तर उठाकर चल दिए।
यूरोप या अन्य पाश्चात्य देशों में परिवार या माता-पिता का सुख सभी को नसीब नहीं है, लेकिन हमारे देश में, हमारे संस्कृति में हमें ता-उम्र ये सुख प्राप्त होता है, जब तक हम खुद ही इससे दूर ना होना चाहें।
अमेरिका में एक सर्वे हुआ था, सर्वे का विषय और परिणाम जानकर शायद आप चौंक जाएंगे। दरअसल वहां के बच्चे भारतीय बच्चों से हर बात में पिछड़ रहे थे, प्रतियोगी परीक्षाएं हों, उनकी भाषा, उनके व्याकरण की परीक्षा हो, हर बात में भारतीय बच्चे आगे थे। अमेरिकन्स ने सोचा कि ऐसा क्या है इनमें... तो रिसर्च हुई। रिसर्च में जो सामने आया वह चौंकाने वाला भी है, और हमारे लिए गर्व का भी विषय है। उन्होंने पाया कि वहां के बच्चे पढ़ते वक्त या कोई भी कार्य करते वक्त दिमागी तौर पर अपेक्षाकृत कम स्थिर रहते हैं। उनसे पूछा गया तो उनकी चिंता ये थी कि जब वे घर जाएंगे तो घर का दरवाजा कौन खोलेगा। मम्मी खोलेगी, पापा खोलेंगी, नई मम्मी मिलेगी या नए पापा मिलेंगे या कोई नहीं मिलेगा.. आया के सहारे ही जीवन काटना होगा। जबकि भारतीय बच्चे स्थिरता के साथ हर क्रियाकलाप में भागीदारी करते थे, उन्हें पता था कि जब वे घर जाएंगे तो अपनी मम्मी या अपने पापा ही मिलेंगे। मां प्यार से कहेगी, जा बेटा फ्रेश हो जा, मैं खाना लगाती हूं। तो कितनी बड़ी बात है ये कि हमारी धुरी असल में हमारा परिवार है। हमारी शक्ति, हमारी सफलता का सूत्र, हमारी सुख-शांति, हमारी तरक्की सब परिवार पर निर्भर करती है। लेकिन हमें उसकी कीमत नहीं पता, क्योंकि हम उसे खरीदकर नहीं लाए हैं, मुफ्त में मिली वस्तु है, तो उसका मोल करना भूल गए हैं। लौटकर साक्षी पर ही आते हैं, क्या हम अपने जन्मदाताओं की हाय लेकर अपने सुखी जीवन की कल्पना कर सकते हैं। प्रेम कीजिए, विवाह भी कीजिए, घर के विरुद्ध जाकर भी कीजिए, लेकिन परिवार पर कीचड़ मत उछालिए। कुछ प्रश्न हमेशा यथावत् रहेंगे कि क्या साक्षी को उसके माता-पिता से ज्यादा कोई प्यार कर सकता है? क्या उसकी चिंता उसके मां-पिता से ज्यादा कोई कर सकता है? उसके उज्जवल भविष्य की कामना क्या कोई उसके मां-पिता से ज्यादा कर सकता है? जिन्हें कुतर्क करना है, उनका मैं क्या ईश्वर भी कुछ नहीं कर सकता।
अंत में, मैं फिर कह रही हूं कि प्रेम विवाह करना गलत नहीं है, लेकिन जो परिवार की कीमत पर हासिल हो, ना तो ऐसा प्रेम अच्छा.. ना ही ऐसी कोई उपलब्धि अच्छी। ये बात एक ना एक दिन स्वयं प्रकृति सिद्ध कर देती है, ये बात अनुभवी लोग समझ सकते हैं।
जाते-जाते बड़ों से भी एक अपील कि आपको भी अपने बच्चों की भावना समझनी होगी। यदि आपकी नजर में वे कुछ गलत कर रहे हैं, तो उन्हें धमकाकर नहीं प्यार से समझाएं। हर बार बच्चे ही गलत हों, यह जरूरी नहीं। हम उन्हें बागी बनाने के बजाए अपनी बगिया के फूल बनाएं। अपनी इच्छाएं उनपर थोपें नहीं, बल्कि उन्हें अपनी इच्छानुसार पल्लवित-पुष्पित होने दें। पूरी दुनिया में केवल हमारे यहां की परिवार बचे हैं, भले ही एकल ही सही। उसे बचाने में हम सबको भागीदारी करनी होगी। #प्रियंकाकौशल



गुरुवार, 4 जुलाई 2019

मेरी मंगो


(ये मेरी मौलिक रचना है, कृपया कॉपी पेस्ट ना करें, सर्वाधिकार सुरक्षित-प्रियंका कौशल)



आज वैसे ही मुझे ऑफिस जाने में देर हो गई है और ये मंगो है कि अभी तक नहीं आई। मेरे जाने के बाद आएगी तो खामखां बवाल मचेगा। पहले ही सासूमां आई हुई हैं, उनके सामने वो रसोई में चली गई तो मेरी खैर नहीं। और अगर सासूमां ने उसे उन्हीं बर्तनों में खाते-पीते देख लिया, जिसे हम खुद के लिए इस्तेमाल करते हैं तो फिर तो जलजला ही आ जाएगा। गीतिका इन्हीं विचारों में डूबी हुई, जल्दी-जल्दी घर के जरूरी काम निपटाने में लगी हुई थी। फिर उसने सोचा कि चलो खुद ही मंगों को फोन कर आज आने के लिए मना कर देती हूं। मेरे रहते आती, तो सासूमां को पता भी नहीं चलता कि वो इस घर के सभी काम करती है। मेरे पीछे आएगी तो सारा राज खुल जाएगा। मंगो का फोन उसके पति ने उठाया। मैडम, मंगो फिसलकर गिर गई है, सिर पर चोट आई है, तीन-चार दिन काम पर नहीं आ पाएगी। मेरे पूछने के पहले ही उसने सारा किस्सा बयान कर दिया। ठीक है, किसी चीज की जरूरत हो तो मुझे फोन करना। कहकर मैंने फोन रख दिया।
मंगो के बगैर चार दिन पहाड़ जैसे बीते। उसके रहते कभी अहसास ही नहीं हुआ कि मैं वर्किंग वूमेन हूं। लेकिन इन चार दिनों में घर-ऑफिस की जिम्मेदारी संभालते-संभालते मैं पस्त हो गई। ठीक पांचवे दिन मंगो आ गई। माथे पर चोट अभी भरी नहीं थी। मैंने मंगो से कहा कि थोड़े दिन और आराम कर लेती। कहां बाईसाहब, आराम हमारे नसीब में कहां। चार दिन भी बड़ी मुश्किल से कटे हैं घर पर। आप भी तो परेशान हो रही होगीं। घर और दफ्तर दोनों के बीच तालमेल बैठाने में दिक्कत हो रही होगी आपको। फिर आराम भी नहीं मिल पा रहा होगा। मंगो ऐसे बोल रही थी, जैसे मेरी मां हो। हां, कभी-कभी वो मेरी मां ही बन जाती है, कभी शिक्षक तो कभी सहेली। अपने सुख-दुख मैं उसी के साथ बांट लेती हूं। मैंने एक बात पर गौर किया कि उसकी दी हुई सलाह कभी गलत नहीं साबित हुई। शायद उसे दुनियादारी का तर्जुबा मुझसे ज्यादा था। मंगों पिछले पांच सालों से मेरे घर में सेवाएं दे रही थी। उसके भरोसे कई बार अपने घर-अपने बच्चों को छोड़कर मैंने कार्यालयीन यात्राएं की हैं। मेरे पति विनीत भी मंगों के साथ बेहद सहज रहते हैं। वो उन्हें छोटी बहन जैसी लगती है। बेहद ईमानदार, सौम्य, सेवाधारी और निश्चल, कुछ ऐसी है मंगो। आप सोचेंगे कि मैं मंगों का चित्रण क्यों कर रही हूं? केवल इसलिए कि आप जान सकें कि अभी भी दुनिया में अच्छी कामवाली मिल जाती है और अगर व्यवहार दोनों तरफ से ठीक हो, तो उसे परिवार का हिस्सा बनने में भी देर नहीं लगती है।
खैर एक बार फिर मंगो के हवाले घर छोड़कर मैं ऑफिस चली गई। बहुत दिन पहले मैंने एक फैलोशिप के लिए आवेदन दिया था। ऑफिस पहुंचते ही पता चला कि मेरा सिलेक्शन फैलोशिप के लिए हो गया है। अब मुझे 30 दिन के लिए श्रीलंका जाना होगा। दरअसल फैलोशिप के विषय के मुताबिक मुझे श्रीलंका में विस्तारित हुए बौद्ध धर्म पर अध्ययन करना था। मेरी खुशी का कोई ठिकाना ना था, लेकिन अगले ही पल किसी विचार ने मुझे डरा दिया। खुशी में मैं तो भूल ही रही हूं कि सासूमां आई हुई हैं। ऐसे कैसे में 30 दिन के लिए बाहर जा सकती हूं। मैंने फैलोशिप लौटाने का निर्णय लिया। लेकिन दफ्तर के लोग सलाह देने लगे कि ऐसे कैसे छोड़ सकती हो। इस ऑफिस से पांच लोगों ने इस फैलोशिप के लिए अप्लाई किया था, किस्मत से तुम्हें मौका मिला। नहीं तुम ऐसे कैसे कर सकती हो। आखिरकार मुझे फैलोशिप पूरी करने के लिए हामी भरनी ही पड़ी।
मंगो तो है, सब संभाल लेगी। लेकिन सासूमां के रहते ये संभव नहीं है। रुढीवादी सोच वाली मेरी सासूमां अपना पूरा जीवन देश के अलग-अलग शहरों में रही हैं। मेरे ससुर आईएएस अफसर थे। उनका तबादला कई शहरों में हुआ। सासूमां उनके साथ सब जगह घूमती रही। लेकिन उनकी सोच कभी नहीं बदल पाई है। हमेशा नीची जाति-ऊंची जाति जैसे जुमले उनके घर में गूंजते रहे। लेकिन शुक्र है उनके बच्चे यानि मेरे पति विनीत और मेरी ननद विशाखा दीदी पर कभी भी ये सोच हावी नहीं हुई। वे सभी से सामान्य व्यवहार करते हैं। मेरे मायके में भी किसी तरह की छुआछूत या जाति विभेद कभी नहीं रहा। तो मेरी सोच भी समभाव की रही।
अब मंगों को कैसे कहूं कि तुम मेरे पीछे रसोई में नहीं घुसना। उन बर्तनों को हाथ भी नहीं लगाना, जिनमें वो हमारे साथ खाती-पीती रही है। क्या सोचेगी मंगों। बड़ी ऊहापोह के साथ मैं घर पहुंची, मंगों निकलने को ही थी। मैंने उसे अपने कमरे में बुलाया। अपने हाथों में उसका हाथ लेकर बड़े प्यार से कहा, मंगों एक बात बोलूं, तू दिल पर तो नहीं लेगी। क्या हो गया दीदी, मुझसे कोई गलती हो गई। मंगों चौंकी। नहीं-नहीं पगली, तुझसे कभी गलती होती है क्या, मैं तो तुझे कई बार मजाक में अपनी मां भी कह देती हूं। सुन, मेरी जो सासूमां हैं ना थोड़े पुराने ख्यालात की हैं। बुरे मन की नहीं है, बस उनका माहौल ही वैसा रहा बचपन में, जिसकी छाप वे जीवनभर नहीं धो पाईं। मैं तुझे ये सब इसलिए कह रही हूं कि मुझे 30 दिन के लिए बाहर जाना है। दूसरे देश। इन 30 दिनों में तू घर का वैसे ही ख्याल रखना, जैसे रखती आई है। बस रसोई की जिम्मेदारी सासूमां खुद ही संभाल लेंगी या हो सका तो मैं विशाखा दीदी को बुला लूंगी। तू समझ रही है ना, मैं क्या समझाना चाह रही हूं। मंगों मेरी बात सुनकर जोर से हंसी। क्या दीदी, मैं क्यों दिल पर लूंगी इस बात को। मुझे पता है कि आपकी सोच अलग है। इसलिए आप मुझे इतना प्यार, मान-सम्मान देते हो। मेरे लिए कितना करते हो। कभी मुझे कामवाली बाई नहीं समझते। आपको एक बात बताऊं, मैं आपके यहां आने के पहले दिनभर में दस घरों में काम करती थी। वे मुझसे काम तो पूरा करवा लेते थे, लेकिन बात-बात में मुझे तुच्छ होने का अहसास भी बराबर कराते थे। एक घर में तो मुझे रसोई और पूजाघर में घुसने की इजाजत भी नहीं थी। मुझे अलग कप में चाय दी जाती थी, जिसे कोई हाथ नहीं लगाता था। घर के बाहर आंगन में एक कोने में उस कप मैं चाय पीकर रख दिया करती थी। मुझे पता कि भले ही संविधान ने हमें समानता का अधिकार दिया है, लेकिन हर कोई उसे माने ये जरूरी तो नहीं है।
अरे तुझे संविधान समझ में आता है। किसने बताया संविधान के बारे में। मैंने चौंककर पूछा। अरे वो पिक्चर आई है ना आर्टिकल-15, वो देखी मैंने अपने आदमी के साथ। फिर मैंने अपनी लड़की की टीचर से स्कूल जाकर पूछा कि ये संविधान क्या होता है। तो उसने मुझे बताया कि एक किताब है संविधान, जिसके मुताबिक देश चलता है। मैं मंगला यानि मंगों की बात सुनकर हतप्रभ रह गई। जी हां, मंगला नाम ही रखा था, उसकी मां ने उसका। घरों में काम करते-करते वो कब मंगों हो गई, उसे भी नहीं पता चला। खैर, उसकी समझ और अभिव्यक्ति ने मुझे फिर उसके सामने नतमस्तक कर दिया। खैर, मंगों मेरी बात समझ गई थी, उसे कोई आपत्ति भी नहीं थी। मैं निश्चिंत होकर पैकिंग करने लगी। शाम को विनीत आए, उन्हें पूरी बात बताई तो उन्होंने भी कहा कि तुम्हें जाना चाहिए। घर की चिंता मत करो, मैं संभाल लूंगा। सासू मां ने भी सहर्ष सहमति दे दी। विनीत और सासूमां से सकारात्मक आश्वासन मिलने के बाद अब मैं निश्चिंत हो गई थी। धीरे-धीरे वो दिन भी पास आ गया। मैंने दिल्ली के लिए उडान भरी। दिल्ली से कोलंबों के लिए फ्लाइट लेनी थी। 30 दिन कब गुजर गए पता ही नहीं चला। मैंने सबके लिए ढेर सारी शॉपिंग कर ली थी। सोमवार की सुबह फ्लाइट भोपाल पहुंचने वाली थी, विनीत दोनों बच्चों के साथ एयरपोर्ट पहुंच गए थे, मेरा इंतजार कर रहे थे। एयरपोर्ट के बाहर निकलते ही अपने शहर पहुंचने का सुखद अहसास हो रहा था। विनीत बोले, घर चलो, तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है। मैं चौंकी, सरप्राइज। विनीत हौले से मुस्कुरा दिए, आगे कुछ नहीं कहा। घर पहुंचने की उत्सुकता तो विनीत बढ़ा ही चुके थे। बच्चे भी कुछ बोलने को तैयार नहीं थे। बस वो तो ये जानना चाहते थे कि मैं उनके लिए क्या-क्या लाई हूं।
एयरपोर्ट से घर पहुंचने में 30 मिनट लगे। गेट से कार अंदर घुसी तो लॉन का नजारा देखकर सहज विश्वास ही नहीं हुआ। सासूमां आराम कुर्सी पर बैठी हुईं थी और मंगों उनके बाल बना रही थी। मंगों को दूर ही रहने की हिदायत देने वाली सासूमां उससे अपनी कंघी करवा रही हैं। कुछ समझ नहीं आया। विनीत की तरफ देखा तो उन्होंने आंखों से इशारा किया, कि अंदर तो चलो सब बताता हूं।
तुम्हारे जाने के दूसरे ही दिन मां बाथरूम में फिसलकर गिर पड़ीं। विनीत ने बताना शुरु किया। तुम्हें इसलिए इत्तला नहीं दी, कि तुम बेकार ही परेशान हो जाती। तुम्हारी वापसी भी आसान नहीं थी, फिर अध्ययन में भी तुम्हारा मन नहीं लगता। इसलिए मैंने फैसला किया कि तुम्हें बताया ही ना जाए। मां के गिरने के बाद विशाखा को फोन किया, तो पता चला कि वो खुद टायफाइड से पीड़ित है। अब क्या करूं, यही सोच रह था कि मंगों बोली, भैया परेशान ना हो, घर का काम तो मैं संभाल ही लूंगी, आप मांजी को संभालों। लेकिन मां को भी मैं कैसे संभालता, डाक्टर ने उन्हें बिस्तर से उठने को मना कर दिया। दैनिक कार्यों के लिए वे उठने-बैठने की स्थिति में ना थीं। ऐसे में फिर मंगों आगे आई। मांजी से उसने गुजारिश की, कि आप मुझे आपके काम करने दो। मां भी मना करने की स्थिति में नहीं थी। फिर क्या था, मंगों के सेवाभावना से मां इतनी प्रभावित हुई कि सारे भेद ही मिट गए। अब दोनों दिन भर गप्पे भी लडाती हैं, मां मंगों के हाथ का बना खाती भी है और उस पर प्यार भी लुटाती है। विनीत बताते जा रहे थे और सुनते हुए मेरे लिए ये सारी बातें किसी धारावाहिक की कहानी की तरह लग रही थी। पानी पीते हुए मैंने विनीत से कहा, चलो मजबूरी में ही सही, कम से कम मांजी को सोच तो बदली। मंगो अब तक तो मेरी ही शिक्षक थी, अब वो मांजी की भी गुरु बन गई। मेरी बात सुनकर विनीत जोर से ठहाका लगाकर हंस दिए, हाहाहा।


प्रिंयका कौशल
9303144657

मंगलवार, 2 जुलाई 2019

कहानी- कमला किन्नर

(यह मौलिक रचना है, कृपया बगैर अनुमति कॉपी-पेस्ट ना करें, सर्वाधिकार सुरक्षित)

आज कमला का मन सुबह से बैचेन था। रातभर भी वो ठीक से सो नहीं पाई। नूरबानों के शब्द अब भी उसके जेहन में घूम रहे थे। एक-एक शब्द दिल पर पत्थर की तरह पड़ रहा था। कमला सन्न रह गई थी, जब उसे अपने जैविक यानि असली माता-पिता का नाम पता चला। पिछले 20 सालों में कमला ने जबसे होश संभाला है, उसकी केवल एक ही इच्छा रही है कि वो अपने जन्मदाता का नाम और अपनी असली पहचान जान सके। शबनम आपा दुनिया से चली गईं, लेकिन हमेशा बोलती रहीं, बचुआ क्या करोगी, उन निर्मोही लोगों के बारे में जानकार। जिन्होंने एक पल भी तुम्हें खुद के पास रखना गंवारा नहीं समझा। क्यों जानना चाहती हो ऐसे लोगों के बारे में। हकीकत ये है कि हम ही तुम्हारी मां भी हैं और बाप भी।
लेकिन कमला जैसे जिद पर ही अड़ गई थी। ना सुबह की फेरी में शामिल होती, ना ही कहीं बधाई मांगने जाती थी। जब तक शबनम आपा थीं, कोई कमला पर उंगली नहीं उठा सका। लेकिन अब कुनबे की कमान नूरबानों के पास आ गई है। उसे अनुशासनहीनता बिलकुल भी पसंद नहीं है। उसने पहले तो कमला को समझाने की भरपूर कोशिश की। फिर उसका खाना-पानी बंद कर दिया। तीन दिन भूखी रहने के बाद भी जब कमला नहीं झुकी तो अंततः नूरबानों को ही झुकना पड़ा। उसने पूरे कुनबे को आंगन में इकट्ठा किया, फिर कमला को बुलवाया। सुन, आज मैं तुझे बताती हूं कि तेरा जन्म कहां हुआ था, और तेरे साथ ही ये पूरा कुनबा भी जानेगा कि तू किसकी संतान है। मैं इस कायदे को तेरे लिए तोड़ रही हूं। इस शहर के प्रतिष्ठित उद्योगपति घनश्याम दास तेरे पिता हैं और पिछले हफ्ते मानस भवन में आयोजित कार्यक्रम में जो हमारी स्थिति सुधारने पर लंबा-चौड़ा भाषण दे रही थीं ना सुनंदा दास, वो तेरी मां है। ये सुनकर जैसे कमला गश खाते-खाते बची। उसे नूरबानों की बातों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। पूरा कुनबा भी ये जानकर सन्न रह गया कि कमला घनश्याम दास की संतान है। इतने बड़े घराने से ताल्लुक रखती है और नारकीय जीवन जीने पर मजबूर है। नूरबानों बोलती रही, जब तेरा जन्म हुआ तो तेरे घर में कोहराम मच गया था। एक किन्नर ने जन्म लिया था सुनंदा दास की कोख से। घनश्यामदास के एक नौकर का फोन आया शबनम आपा के पास। वे रातों-रात तुझे ले आईं इस कुनबे में। तुने तो तेरी मां का दूध तक नहीं पिया है, बस उसने तुझे नौ महीनें अपनी कोख में रखा है, इससे ज्यादा कुछ नहीं किया तेरे लिए।
नहीं, मेरी मां को मेरे बारे में पता ही नहीं होगा। ये तो भी हो सकता है कि उन्हें झूठ कहा गया हो कि उन्हें मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ है। वे अनजान हों मेरे जन्म के बारे में, मेरे लिंग के बारे में, मेरी परवरिश के बारे में... रात भर कमला यही सोचकर करवट बदलती रही। एक-एक दुख उसकी आंखों के सामने घूमने लगा। जब वो छोटी थी, उसे स्कूल जाने का कितना मन होता था। लेकिन कभी उसे स्कूल नहीं भेजा गया। पैरों में घूंघरु बांधने में उसे चिढ़ होती थी, लेकिन मास्टरजी की छड़ी देखकर विरोध करने की हिम्मत ही नहीं कर पाई थी कभी। किन्नरों का ताली पीटना भी उसे कभी नहीं भाया, लेकिन अफ़सोस कि उसे वो सब करना पड़ा, जिसके लिए उसका कोमल मन कभी तैयार नहीं था। भद्दे मजाक, अनर्गल बातें, दुख, पीड़ा, उलाहना से भरे संसार में भगवान ने उसे क्यों भेज दिया, ये सवाल हमेशा उसके दिल में उठता रहा। जब कोई नया बच्चा उनके कुनबे में आता तो उसे वो प्यार कभी नहीं मिलता, जिसका वो हकदार था। क्यों किन्नर इंसानों में नहीं गिने जाते? हमें कभी माता-पिता का प्यार क्यों नहीं मिलता? समाज हमें सम्मान क्यों नहीं दे सकता? क्यों हमें अपना भविष्य चुनने की आजादी नहीं दी जाती, क्यों हम अपने भाई, बहनों, चाचा, चाची, बुआ, ताऊ के साथ नहीं रह सकते? ऐसे अनगिनत सवाल उसे जीने नहीं देते। लेकिन अब नहीं, वो अपने माता-पिता से पूछना चाहती थी कि क्यों उसे वो सब नहीं मिला, जो उसके भाई-बहनों को दिया गया।
सुबह होते ही कमला घनश्याम दास के घर पहुंच गई। वहां कोई विवाह समारोह चल रहा है शायद। कमला को देखकर सब समझते हैं कि कोई किन्नर बधाई मांगने आया है। कमला की मां सुनंदा सामने से गहनों से लकदक चली आ रही है। कमला को देखकर सुनंदा कहती है कि अरे अभी से आ गए, बेटी तो विदा हो जाने देते। चलो आ ही गए तो बन्ना-बन्नी ही गा दो। तुम्हें झोली भर-भरकर दूंगी, मेरी लाड़ली बेटी की शादी है आज।
कितने बच्चे हैं आपके? सहसा कमला ने पूछा। मेरे तीन बच्चे हैं, एक तो ये बेटी है, जिसकी शादी हो रही है। दो बेटे हैं, एक डॉक्टर है, दूसरा पिता के बिजनेस में हाथ बंटाता है। सुनंदा ने कहा। कोई और संतान? कमला ने फिर पूछा। सुनंदा इस सवाल से थोड़ी असहज हो गई। क्या मतलब है तुम्हारा, उसने पूछा। कमला ने कहा कि कोई बच्चा जन्म लेते ही मर गया हो या फिर...? सुनंदा को याद आया, बोली हां, मेरा एक बच्चा और होता, लेकिन वो तुम्हारी ही तरह किन्नर था, ये समाज उसकी परवरिश की अनुमति नहीं देता। इसलिए हमनें उसी रात उसे किन्नरों को सौंप दिया था। सुनंदा ने इतनी सहजता से सब कुछ कह दिया, जैसे एक मरे हुए बच्चे को जनकर उसे कचरे के ढेर में फेंक देना कोई बड़ी घटना ना हो। यह ठीक वैसा ही तो था, कि बच्चा तृतीय लिंग का हुआ तो उसे उन अनजान लोगों को सौंप दिया गया, जिनके बारे में आप कुछ नहीं जानते। अपने बच्चे की कोमल सूरत देखकर भी मां की ममता नहीं जागी होगी क्या? उसे नौ माह अपने पेट रखने पर भी मेरी मां का मुझसे कोई नाता नहीं जुड़ा? उफ्फ़ मैं क्यों जानना चाहती थी अपने अतीत के बारे में, अपनी जड़ों के बारे में। ये तो मेरे लिए कितना पीड़ादायक है। मैं इसे मां मानूं कि नहीं? मेरे मानने या ना मानने से हो भी क्या जाएगा। ये तो खुद ही उस बच्चे से कोई नाता नहीं रखना चाहती, जिसका कसूर केवल इतना है कि वह ना तो स्त्री है, ना ही पुरुष। इसने एक बार भी नहीं सोचा कि इसमें उस बच्चे का क्या दोष है। उसे तृतीय लिंग होने की इतनी बड़ी सजा क्यों दी गई, जन्म लेते ही नरक में क्यों भेज दिया गया? ऐसे अनगिनत अनुत्तरित प्रश्नों के साथ कमला वापस अपने कुनबे में लौट गई, सदा-सर्वदा के लिए। सुनंदा पीछे से आवाद देती रह गई, अरे नाच-गा के तो जाओ, बधाई तो ले जाओ...अरे मेरी बेटी को और हमें आशीर्वाद तो दे जाओ।


प्रियंका कौशल
9303144657