शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

बदल रहा है बस्तर



बस्तर के धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में जाते वक्त, जहां प्रकृति के सुंदर नजारे भी माओवाद की मनहूसियत में डूबे हैं, क्या कोई ये कल्पना भी कर सकता है कि वहां कुछ सुखद, दिल को आनंद देने वाला और संतोषजनक भी मिल सकता है। जी हां रायपुर से जगदलपुर जाते वक्त जैसे ही केशकाल घाटी पार होती है, वैसे ही एक गांव आता हैलंजोडा। लजोंडा यानि प्रकृति की गोद में पलता एक गांव और यहां चल रहा 400 बच्चों का आवासीय ऋषि विद्यालय। यही लंजोडा की पहचान बन चुकी है। गायत्री परिवार से जुड़े बी आर साहू ने इस विद्यालय की संकल्पना की और अपने सहयोगी नकुल नेताम के साथ इसे साकार रूप दिया।
वर्ष 1995 से लंजोडा में चल रहा ऋषि विद्यालय इसलिए भी चर्चित है, क्योंकि यहां बस्तर के दूर-दराज के आदिवासी बच्चों को लाकर जीवन का पाठ पढ़ाया जा रहा है। ये बच्चे या तो नक्सल हिंसा में अपने माता पिता खो चुके हैं या फिर पुलिस और नक्सलियों को गोलियों की आवाज सुनकर बड़े हुए हैं। इन बच्चों को दूर दराज से लाकर उन्हें लंजोडा में लाकर पढ़ाया लिखाया तो जाता ही है, उन्हें स्वावलंबन का पाठ भी पढ़ाया जा रहा है। पहली से दसवीं तक संचालित इस आवासीय विद्यालय में पढ़ाने वाले नवयुवक और नवयुवतियां भी बस्तर के दूर दराज इलाकों से आकर यहां रह रहे हैं। लंजोडा उस जगह से लगा हुआ है, जहां 1985 में अविभाजित मध्यप्रदेश के वक्त नक्सलियों ने पहला सबसे बड़ा विस्फोट किया था। लेकिन आज इसे विस्फोट की वजह से नहीं बल्कि ऋषि विद्यालय के कारण जाना जाता है।
ऋषि विद्यालय के सलाहकार सदस्य हरिसिंह सिदार कहते हैं कि नक्सल प्रभावित इलाके में ऐसे विद्यालय को चलाना किसी चुनौती से कम नहीं है। लेकिन अपने आदिवासी बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए हम प्रयासरत हैं। बच्चे भी यहां खुश रहते हैं। हमारे विद्यालय के निकले कई आदिवासी बच्चे अच्छे-अच्छे मुकाम पर पहुंच चुके हैं। कई प्रशासनिक सेवाओं में भी गए हैं।
इस विद्यालय की खूबी ये है कि इसके संचालक बी आर साहू बच्चों के लिए खुद ही सारी भूमिकाएं निभाते हैं। कभी वे नाई बनकर सबके बाल काटते हैं, कभी पिता बनकर उनको दुलारते हैं। आश्रम की तर्ज पर चल रहे इस विद्यालय में साफ-सफाई से लेकर सारी जिम्मेदारियां शिक्षकों, बच्चों और बीआर साहू के परिवार के बीच बांटी गई हैं। देश का पहला वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट भी यहां बनाया गया है। उपयोग हो चुके निस्तारित पानी को फिर से भूमि के अंदर इस्तमाल करने लायक बनाया जाता है। इससे आश्रम में कभी पानी की कमी नहीं होती।
यहां पढ़ रहा कोई बच्चा डॉक्टर बनना चाहता है तो कोई इंजीनियर। कुछ बच्चे पत्रकार भी बनना चाहते हैं ताकि बस्तर की सही तस्वीर को दुनिया के सामने रख पाएं। ये वे बच्चे हैं, जिनके सुनहरे भविष्य की उम्मीद उनके माता-पिता खो चुके थे। लेकिन ऋषि विद्यालय ने उनकी उम्मीदों को नए पंख दे दिए हैं। वो उस वक्त में, जब नक्सलियों ने बस्तर में चलने वाले अधिकांश विद्यालयों की इमारतें ध्वस्त कर दी हैं। नक्सलियों का कहना है कि इन इमारतों में अर्ध्यसैनिक बलों को ठहराया जाता है। इसलिए वे ऐसी किसी भी इमारत को अपने इलाकों में नहीं पसंद करते हैं।
धुर नक्सल प्रभावित गांव आमापल्ली की मनोरमा ऋषि विद्यालय में पांचवी कक्षा में पढ़ती है। मनोरमा डॉक्टर बनना चाहती है। मनोरमा कहती है कि उसका सपना जरूर पूरा होगा। मैं मन लगाकर पढ़ाई कर रही हूं। डॉक्टर बनकर अपने लोगों का मुफ्त इलाज करूंगी।
चेरावाड़ी की मोनिका टीचर बनकर अपने गांववालों को पढ़ाना चाहती है। दस साल की मोनिका अभी पांचवी में पढ़ रही है। उसके गांव में कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है। वो सबको पढ़ाकर समझदार बनाना चाहती है। वहीं केशकाल का दीपक मंडावी भी शिक्षक ही बनना चाहता है। उसे भी अपने गांव के अशिक्षित होने की टीस महसूस होती है। वो अभी सातवीं कक्षा का छात्र है। इनकी तरह ही युवराज नेताम, दयानंद, आकाश भी शिक्षक बन दूसरों को शिक्षित करना चाहते हैं। ये बच्चे कहते हैं कि अशिक्षा के कारण ही आज हमारा बस्तर जल रहा है। यदि लोग पढ़े लिखे और समझदार होते तो अपना भला बुरा समझ सकते थे।
इन बच्चों के लिए हर तकनीकी समान जुटाने वाले नकुल नेताम खुद इंजीनियर बनते बनते रह गए। कोंडागांव के रहने वाले नेताम के पास उस वक्त फीस भरने के लिए धन नहीं था। लेकिन उन्हें भगवान ने ही इंजीनियर बनाकर भेजा है। भले ही वे डिग्री ना ले पाए हों, लेकिन ऋषि विद्यालय के बच्चों के लिए जरूरी हर तकनीकि संसाधन वे खुद जुटाते और बनाते हैं। चाहे बच्चों का खाना ले जाने वाली ट्राली हो, या फिर गंदे पानी को फिर इस्तेमाल योग्य बनाने की प्रक्रिया। हर काम नकुल नेताम की छाप दिखाई देती है। वहीं बच्चों के लिए अपना परिवार छोड़ चुके विजय राय भी दिन रात केवल आदिवासी बच्चों की सेवा में लगे हुए हैं। राय का परिवार रायपुर में रहता है, जबकि राय पिछले 16 सालों से बस्तर के बच्चों का जीवन संवारने के लिए प्रत्यनशील हैं।

बस्तर में चल रहा ये स्कूल वाकई में अद्वीतीय है। केवल इसलिए नहीं है कि ये बस्तर में चल रहा है, बल्कि इसलिए कि यहां पढ़ने वाले बच्चों की आंखों में एक नये सवेरे की झलक दिखाई देती है। ऐसी झलक, जिसमें बस्तर की पहचान माओवाद नहीं, बल्कि अपनी तरक्की और खुशहाली नजर आती है। ये बच्चे बड़े होकर अपने इलाके की तस्वीर बदलना चाहते हैं। वे डॉक्टर बनकर अपने लोगों की मुफ्त चिकित्सा करना चाहते हैं, शिक्षक बनकर उन्हें पढ़ाना चाहते हैं। भविष्य के प्रति उत्साह देखकर तो यही लगता है कि बगैर किसी सहायता और अनुदान के चल रहा ये विद्यालय सही मायने में इलाके की तस्वीर बदलने में महती भूमिका निभाएगा। 

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

अब हरि भजें या राम




2013 का विधानसभा चुनाव छत्तीसगढ़ का राजनीतिक चेहरा और उसकी रंगत बदलने के लिए याद किया जाएगा। इस चुनाव ने भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों के करीब पांच दर्जन नेताओं को कहीं का नहीं छोड़ा। पराजय का सामना कर चुके कई दिग्गजों का भविष्य ही अब दांव पर लग गया है। अब ना तो पार्टियों को सूझ रहा है ना ही इन नेताओं को, कि इनका होगा क्या?
भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दलों के खांटी और दिग्गज कहलाने वाले 64 नेता सत्ता सुख से वंचित हो चुके हैं। ये नेता अपने संगठन में अच्छा दखल रखते हैं। लेकिन विधानसभा चुनाव में परास्त होने के बाद इन महारथियों के भविष्य पर प्रश्नचिंह लग गया है। हालांकि इनमें से कुछ के लोकसभा चुनाव लड़ने की संभावना है, किंतु अत्यंत छोटे से प्रदेश में, जहां लोकसभा की केवल 11 सीटें है, इन 64 नेताओं का भविष्य संवरना थोड़ा मुश्किल लगता है। ऐसे में अधिकांश के पास सिवाए इंतजार के कोई विकल्प नहीं है। विधानसभा चुनाव में भाजपा के 34 (इनमें से 13 का टिकट कटा और 21 चुनाव हार गए) और कांग्रेस के 30 विधायकों (इनमें से तीन को टिकट नहीं मिला, बाकी 27 चुनाव हार गए) का पांच साल का राजनीतिक वनवास मतदाताओं ने तय कर दिया है। सत्ता पक्ष यानि भाजपा के लिए दूसरा विकल्प जरूर मौजूद है कि हारे हुए अपने नेताओं को मंडल, निगम या आयोगों में बैठाकर उनका राजनीतिक करियर बचाया जाए। लेकिन कांग्रेस के नेताओं के पास तो केवल लोकसभा की ही उम्मीद बाकी है।
कांग्रेस के पास हारे हुए दिग्गजों की लंबी सूची है, जिनमें प्रमुख रूप से पूर्व नेता प्रतिपक्ष रविंद्र चौबे, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, पूर्व पंचायत मंत्री अमितेश शुक्ल, मोहम्मद अकबर शामिल हैं। अब इन्हें लोकसभा चुनाव में उतारना भी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है। रविंद्र चौबे दुर्ग लोकसभा से चुनाव लड़ना चाहते हैं, जहां से 2008 में उनके अग्रज यानि बड़े भाई प्रदीप चौबे ने किस्मत आजमाई थी। लेकिन जीत हासिल हुई थी पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ने मैदान में उतरी भाजपा की उम्मीदवार सरोज पांडे को। अगर रविंद्र चौबे को दुर्ग लोकसभा की सीट मिल भी जाती है तो उनके भाई इससे वंचित रह जाएंगे।
खुद रविंद्र चौबे कहते हैं कि, पार्टी यदि चाहेगी तो वे जरूर दुर्ग लोकसभा से चुनाव लड़ना चाहेंगे। विधानसभा चुनाव में भले ही कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई और 27 विधायक भी हारे, लेकिन बावजूद इसके पार्टी का वोट प्रतिशत तो बढ़ा ही है, जो कि अच्छा संकेत है। लोकसभा चुनाव में हम जरूर प्रदेश की सीटों पर भाजपा को पटखनी देंगे
बात करें पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की, तो वे बिलासपुर लोकसभा से चुनाव लड़ना चाह रहे हैं। इसके दो कारण हैं। पहला ये कि उनका इलाका मरवाही बिलासपुर संभाग के तहत ही आता है, दूसरा इस इलाके को पहले से ही खुद के लिए तैयार करते आ रहे हैं। ये दूसरी बात है कि 2008 में उनकी धर्मपत्नि रेणु जोगी बिलासपुर लोकसभा में भाजपा के दिग्गज नेता दिलीप सिंह जूदेव से हार गई थीं। लेकिन बावजूद इसके जोगी परिवार के लिए सबसे सुरक्षित लोकसभा सीट यही मानी जा रही है।
हालांकि अजीत जोगी की मानें तो वे लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते। उनका कहना है कि वे एक क्षेत्र में बंधकर पार्टी के लिए काम नहीं कर पाऊंगी। पार्टी के लिए बेहतर यही है कि मैं किसी सीट से चुनाव ना लड़कर पूरे प्रदेश में कांग्रेस के लिए काम करुंगा
पंडित श्यामाचरण शुक्ल के सुपुत्र अमितेश शुक्ल भी महासमुंद से दावेदारी कर रहे हैं। हालांकि उनकी ये भी इच्छा है कि उन्हें नहीं तो उनके बेटे भवानी शुक्ल को यहां से लोकसभा टिकट दे दी जाए। वैसे भी महासमुंद सीट लंबे समय तक शुक्ल परिवार के आधिपत्य वाली सीट रही है। 1957 में कांग्रेस के टिकट पर वीसी शुक्ल (अमितेश के चाचा) ने महासमुंद सीट से लोकसभा का चुनाव जीतकर भारतीय संसद में सबसे युवा सांसद बने थे। इसके बाद वे नौ बार इस सीट से सासंद चुने गए। 2004 के चुनाव के ठीक पहले वीसी शुक्ल भाजपा में चले गए. महासमुंद सीट से वे फिर चुनावी मैदान में उतरे, पर अजीत जोगी ने उन्हें हरा दिया। अब महासमुंद सीट पर अमितेश की नजर है।
अमितेश शुक्ल कहते हैं कि हमारे परिवार ने ताउम्र पार्टी के हित में ही काम किया है, चाहे कैसी भी परिस्थिति रही हो। विधानसभा चुनाव में जीत हार लगी रहती है, इससे मायूस होकर बैठना ठीक नहीं है। अभी लोकसभा चुनाव सामने है, देखिए पार्टी आलाकमान यदि हम पर विश्वसास जताती हैं तो मैं जरूर महासमुंद से किस्मत आजमाना चाहूंगा।
कांग्रेस ने दो मुस्लिम प्रत्याशियों को विधानसभा टिकट दिया था, लेकिन दोनों ही हार गए। इनमें से एक मोहम्मद अकबर कांग्रेस के कद्दावर अल्पसंख्यक नेता माने जाते हैं। उन्होंने अपनी परंपरागत सीट पंडरिया के बजाए इस बार कबीरधाम (कवर्धा) से चुनाव लड़ने का जोखिम लिया, लेकिन हार गए। अब अकबर रायपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के इच्छुक बताए जा रहे हैं। ये अलग बात है कि रायपुर से वर्तमान सासंद रमेश बैस (भाजपा) पिछले छह चुनाव से लगातार ये सीट जीत रहे हैं। 2008 में उन्होंने भूपेश बघेल को पराजित किया था। इस बार मोहम्मद अकबर इस सीट के प्रबल दावेदार हो सकते हैं। लेकिन कांग्रेस के उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो रायपुर ग्रामीण विधानसभा सीट से जीतकर आए सत्यनारायण शर्मा भी सबको चौंकाते हुए इस सीट से लोकसभा टिकट की दावेदारी कर सकते हैं। कांग्रेस के पास रायपुर की महापौर किरणमयी नायक का भी विकल्प है। ऐसे में मोहम्मद अकबर को रायपुर लोकसभा सीट की टिकट लेने के लिए कई दावेदारों से टकराना पड़ेगा।
मोहम्मद अकबर अभी इस बारे में कुछ भी बोलना नहीं चाहते। फिलहाल वे कवर्धा विधानसभा सीट पर मिली हार की समीक्षा में व्यस्त हैं। लेकिन उन्हें ये भी विश्वास है कि पार्टी आलाकमान उनपर भरोसा जरूर जताएगा।
भाजपा की फेहरिस्त में भी कई वरिष्ठ नेता मौजूद हैं। इनमें पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री रामविचार नेताम, पूर्व पंचायत मंत्री हेमचंद यादव, पूर्व कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू जैसे नेता हैं, जो विधानसभा चुनाव में तो परास्त होकर सत्ता की दौड़ से बाहर हो गए हैं।
रामविचार नेताम सरगुजा के पुराने क्षत्रप हैं। हाल ही में सांसद मुरारीलाल सिंह के आकस्मिक निधन से सरगुजा लोकसभा सीट रिक्त भी हो गई है, साथ ही नेताम को मिलने वाली चुनौती भी। नेताम रामनुजगंज से विधानसभा चुनाव भी हार चुके हैं। ऐसे में पार्टी उन्हें सरगुजा लोकसभा सीट से टिकट देकर केंद्र की राजनीति में भेज सकती है। हालांकि खुद नेताम विधानसभा चुनाव में मिली हार से अचंभित हैं। उनके शब्दों में जानें तो लोकसभा चुनाव लड़ने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, फिलहाल तो मैं अपनी हार के कारण ढूंढ रहा हूं। लेकिन यदि पार्टी उचित समझती है, तो मैं किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी लेने में पीछे ना ही हटा हूं ना ही कभी पीछे हटूंगा 
पूर्व कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू का नाम भी महासमुंद लोकसभा सीट के लिए चल पड़ा है। दरअसल महासमुंद साहू बहुल क्षेत्र है। वहां से वर्तमान सांसद भी साहू समुदाय से ही हैं। उनके करीबियों की मानें तो विधानसभा चुनाव में हार का सामना करने के बाद चंद्रशेखर साहू घर नहीं बैठना चाहते हैं, संगठन में भी उनकी कोई रूचि नहीं है, लेकिन वे लोकसभा लड़कर मतदाताओं के नजदीक बने रहना चाहते हैं। यही कारण है कि चुनाव हारने के बाद भी भाजपा सरकार के हर कार्यक्रम में नजर आए। चाहे मंत्रिमंडल का शपथग्रहण समारोह हो या मंत्रियों द्वारा पदभार ग्रहण का कार्यक्रम। जबकि दूसरे हारे हुए मंत्रियों ने कार्यक्रमों में कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई। साहू की इस सक्रियता के मायने यही निकाले जा रहे हैं कि वे लोकसभा सीट के लिए लाबिंग कर रहे हैं।
दुर्ग शहर से हारे पंचायत मंत्री हेमचंद यादव भी लोकसभा टिकट की दौड़ में शामिल हैं। हालांकि उनके लिए सीट तय करना खुद उनके लिए और संगठन के लिए मशक्कत का काम है। उनके समर्थक उन पर दुर्ग लोकसभा सीट से ही लड़ने का दबाव बना रहे हैं। जबकि इस सीट से अभी भाजपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष सरोज पांडे सांसद हैं। केंद्र के नेताओं से सरोज पांडे की नजदीकियां यादव की टिकट में रोड़ा बनेगी, ये भी निश्चित है। कोई कारण भी नहीं है कि दुर्ग से सरोज पांडे का टिकट काटकर हेमचंद यादव को दिया जाए। ऐसे में हेमचंद यादव की मंशा कितनी पूरी हो पाएगी, ये बड़े नेताओं के मूड पर निर्भर करेगा।
इस वक्त भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए ही अपने हारे हुए दिग्गज नेताओं की खिसकती जमीन को बचाना बड़ी चुनौती बनती नजर आ रही है। लेकिन प्रदेश की महज 11 लोकसभा सीटों से हर किसी को संतुष्ट करना नामुमकिन है। अब तो हारे हुए दिग्गजों के पास यही चारा है कि वे या तो हरि भजें या राम, या जोगी की तरह पूरे प्रदेश में पार्टी के लिए काम करने का विकल्प चुनते हुए खुद ही लोकसभा ना लड़ने का ऐलान कर और भी बड़े बन जाएं।