2013 का विधानसभा चुनाव
छत्तीसगढ़ का राजनीतिक चेहरा और उसकी रंगत बदलने के लिए याद किया जाएगा। इस चुनाव
ने भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों के करीब पांच दर्जन नेताओं को कहीं का नहीं
छोड़ा। पराजय का सामना कर चुके कई दिग्गजों का भविष्य ही अब दांव पर लग गया है। अब
ना तो पार्टियों को सूझ रहा है ना ही इन नेताओं को, कि इनका होगा क्या?
भाजपा और कांग्रेस दोनों
ही राजनीतिक दलों के खांटी और दिग्गज कहलाने वाले 64 नेता सत्ता सुख से वंचित हो
चुके हैं। ये नेता अपने संगठन में अच्छा दखल रखते हैं। लेकिन विधानसभा चुनाव में
परास्त होने के बाद इन महारथियों के भविष्य पर प्रश्नचिंह लग गया है। हालांकि इनमें
से कुछ के लोकसभा चुनाव लड़ने की संभावना है, किंतु अत्यंत छोटे से प्रदेश में,
जहां लोकसभा की केवल 11 सीटें है, इन 64 नेताओं का भविष्य संवरना थोड़ा मुश्किल
लगता है। ऐसे में अधिकांश के पास सिवाए इंतजार के कोई विकल्प नहीं है। विधानसभा
चुनाव में भाजपा के 34 (इनमें से 13 का टिकट कटा और 21 चुनाव हार गए) और कांग्रेस
के 30 विधायकों (इनमें से तीन को टिकट नहीं मिला, बाकी 27 चुनाव हार गए) का पांच
साल का राजनीतिक वनवास मतदाताओं ने तय कर दिया है। सत्ता पक्ष यानि भाजपा के लिए
दूसरा विकल्प जरूर मौजूद है कि हारे हुए अपने नेताओं को मंडल, निगम या आयोगों में
बैठाकर उनका राजनीतिक करियर बचाया जाए। लेकिन कांग्रेस के नेताओं के पास तो केवल
लोकसभा की ही उम्मीद बाकी है।
कांग्रेस के पास
हारे हुए दिग्गजों की लंबी सूची है, जिनमें प्रमुख रूप से पूर्व नेता प्रतिपक्ष
रविंद्र चौबे, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, पूर्व पंचायत मंत्री अमितेश शुक्ल,
मोहम्मद अकबर शामिल हैं। अब इन्हें लोकसभा चुनाव में उतारना भी कांग्रेस के लिए
बड़ी चुनौती है। रविंद्र चौबे दुर्ग लोकसभा से चुनाव लड़ना चाहते हैं, जहां से
2008 में उनके अग्रज यानि बड़े भाई प्रदीप चौबे ने किस्मत आजमाई थी। लेकिन जीत
हासिल हुई थी पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ने मैदान में उतरी भाजपा की उम्मीदवार सरोज
पांडे को। अगर रविंद्र चौबे को दुर्ग लोकसभा की सीट मिल भी जाती है तो उनके भाई
इससे वंचित रह जाएंगे।
खुद रविंद्र चौबे
कहते हैं कि, “पार्टी यदि चाहेगी तो वे जरूर दुर्ग लोकसभा से
चुनाव लड़ना चाहेंगे। विधानसभा चुनाव में भले ही कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई और
27 विधायक भी हारे, लेकिन बावजूद इसके पार्टी का वोट प्रतिशत तो बढ़ा ही है, जो कि
अच्छा संकेत है। लोकसभा चुनाव में हम जरूर प्रदेश की सीटों पर भाजपा को पटखनी
देंगे”।
बात करें पूर्व
मुख्यमंत्री अजीत जोगी की, तो वे बिलासपुर लोकसभा से चुनाव लड़ना चाह रहे हैं। इसके
दो कारण हैं। पहला ये कि उनका इलाका मरवाही बिलासपुर संभाग के तहत ही आता है,
दूसरा इस इलाके को पहले से ही खुद के लिए तैयार करते आ रहे हैं। ये दूसरी बात है
कि 2008 में उनकी धर्मपत्नि रेणु जोगी बिलासपुर लोकसभा में भाजपा के दिग्गज नेता
दिलीप सिंह जूदेव से हार गई थीं। लेकिन बावजूद इसके जोगी परिवार के लिए सबसे
सुरक्षित लोकसभा सीट यही मानी जा रही है।
हालांकि अजीत जोगी
की मानें तो “वे लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते। उनका कहना है
कि वे एक क्षेत्र में बंधकर पार्टी के लिए काम नहीं कर पाऊंगी। पार्टी के लिए
बेहतर यही है कि मैं किसी सीट से चुनाव ना लड़कर पूरे प्रदेश में कांग्रेस के लिए
काम करुंगा”।
पंडित श्यामाचरण
शुक्ल के सुपुत्र अमितेश शुक्ल भी महासमुंद से दावेदारी कर रहे हैं। हालांकि उनकी
ये भी इच्छा है कि उन्हें नहीं तो उनके बेटे भवानी शुक्ल को यहां से लोकसभा टिकट
दे दी जाए। वैसे भी महासमुंद सीट लंबे समय तक शुक्ल परिवार के आधिपत्य वाली सीट
रही है। 1957 में कांग्रेस के टिकट पर वीसी शुक्ल (अमितेश के
चाचा) ने महासमुंद सीट से लोकसभा का चुनाव जीतकर भारतीय संसद में सबसे युवा सांसद बने थे। इसके बाद वे
नौ बार इस सीट से सासंद चुने गए। 2004 के चुनाव के ठीक पहले वीसी शुक्ल भाजपा में चले गए. महासमुंद सीट से
वे फिर चुनावी मैदान में उतरे, पर अजीत जोगी ने उन्हें हरा दिया। अब महासमुंद सीट पर अमितेश की नजर
है।
अमितेश शुक्ल कहते
हैं कि हमारे परिवार ने ताउम्र पार्टी के हित में ही काम किया है, चाहे कैसी भी
परिस्थिति रही हो। विधानसभा चुनाव में जीत हार लगी रहती है, इससे मायूस होकर बैठना
ठीक नहीं है। अभी लोकसभा चुनाव सामने है, देखिए पार्टी आलाकमान यदि हम पर विश्वसास
जताती हैं तो मैं जरूर महासमुंद से किस्मत आजमाना चाहूंगा।
कांग्रेस
ने दो मुस्लिम प्रत्याशियों को विधानसभा टिकट दिया था, लेकिन दोनों ही हार गए।
इनमें से एक मोहम्मद अकबर कांग्रेस के कद्दावर अल्पसंख्यक नेता माने जाते हैं। उन्होंने
अपनी परंपरागत सीट पंडरिया के बजाए इस बार कबीरधाम (कवर्धा) से चुनाव लड़ने का
जोखिम लिया, लेकिन हार गए। अब अकबर रायपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के इच्छुक
बताए जा रहे हैं। ये अलग बात है कि रायपुर से वर्तमान सासंद रमेश बैस (भाजपा)
पिछले छह चुनाव से लगातार ये सीट जीत रहे हैं। 2008 में उन्होंने भूपेश बघेल को
पराजित किया था। इस बार मोहम्मद अकबर इस सीट के प्रबल दावेदार हो सकते हैं। लेकिन
कांग्रेस के उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो रायपुर ग्रामीण विधानसभा सीट से जीतकर
आए सत्यनारायण शर्मा भी सबको चौंकाते हुए इस सीट से लोकसभा टिकट की दावेदारी कर
सकते हैं। कांग्रेस के पास रायपुर की महापौर किरणमयी नायक का भी विकल्प है। ऐसे
में मोहम्मद अकबर को रायपुर लोकसभा सीट की टिकट लेने के लिए कई दावेदारों से
टकराना पड़ेगा।
मोहम्मद अकबर अभी इस
बारे में कुछ भी बोलना नहीं चाहते। फिलहाल वे कवर्धा विधानसभा सीट पर मिली हार की
समीक्षा में व्यस्त हैं। लेकिन उन्हें ये भी विश्वास है कि पार्टी आलाकमान उनपर
भरोसा जरूर जताएगा।
भाजपा की फेहरिस्त
में भी कई वरिष्ठ नेता मौजूद हैं। इनमें पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री रामविचार नेताम,
पूर्व पंचायत मंत्री हेमचंद यादव,
पूर्व कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू जैसे नेता हैं, जो विधानसभा चुनाव में तो परास्त
होकर सत्ता की दौड़ से बाहर हो गए हैं।
रामविचार नेताम
सरगुजा के पुराने क्षत्रप हैं। हाल ही में सांसद मुरारीलाल सिंह के आकस्मिक निधन
से सरगुजा लोकसभा सीट रिक्त भी हो गई है, साथ ही नेताम को मिलने वाली चुनौती भी।
नेताम रामनुजगंज से विधानसभा चुनाव भी हार चुके हैं। ऐसे में पार्टी उन्हें सरगुजा
लोकसभा सीट से टिकट देकर केंद्र की राजनीति में भेज सकती है। हालांकि खुद नेताम
विधानसभा चुनाव में मिली हार से अचंभित हैं। उनके शब्दों में जानें तो “लोकसभा चुनाव लड़ने की मेरी कोई इच्छा नहीं है,
फिलहाल तो मैं अपनी हार के कारण ढूंढ रहा हूं। लेकिन यदि पार्टी उचित समझती है, तो
मैं किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी लेने में पीछे ना ही हटा हूं ना ही कभी पीछे
हटूंगा”।
पूर्व कृषि मंत्री
चंद्रशेखर साहू का नाम भी महासमुंद लोकसभा सीट के लिए चल पड़ा है। दरअसल महासमुंद
साहू बहुल क्षेत्र है। वहां से वर्तमान सांसद भी साहू समुदाय से ही हैं। उनके
करीबियों की मानें तो विधानसभा चुनाव में हार का सामना करने के बाद चंद्रशेखर साहू
घर नहीं बैठना चाहते हैं, संगठन में भी उनकी कोई रूचि नहीं है, लेकिन वे लोकसभा
लड़कर मतदाताओं के नजदीक बने रहना चाहते हैं। यही कारण है कि चुनाव हारने के बाद
भी भाजपा सरकार के हर कार्यक्रम में नजर आए। चाहे मंत्रिमंडल का शपथग्रहण समारोह
हो या मंत्रियों द्वारा पदभार ग्रहण का कार्यक्रम। जबकि दूसरे हारे हुए मंत्रियों
ने कार्यक्रमों में कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई। साहू की इस सक्रियता के मायने यही
निकाले जा रहे हैं कि वे लोकसभा सीट के लिए लाबिंग कर रहे हैं।
दुर्ग शहर से हारे
पंचायत मंत्री हेमचंद यादव भी लोकसभा टिकट की दौड़ में शामिल हैं। हालांकि उनके
लिए सीट तय करना खुद उनके लिए और संगठन के लिए मशक्कत का काम है। उनके समर्थक उन
पर दुर्ग लोकसभा सीट से ही लड़ने का दबाव बना रहे हैं। जबकि इस सीट से अभी भाजपा
की राष्ट्रीय अध्यक्ष सरोज पांडे सांसद हैं। केंद्र के नेताओं से सरोज पांडे की
नजदीकियां यादव की टिकट में रोड़ा बनेगी, ये भी निश्चित है। कोई कारण भी नहीं है
कि दुर्ग से सरोज पांडे का टिकट काटकर हेमचंद यादव को दिया जाए। ऐसे में हेमचंद
यादव की मंशा कितनी पूरी हो पाएगी, ये बड़े नेताओं के मूड पर निर्भर करेगा।
इस वक्त भाजपा और
कांग्रेस दोनों के लिए ही अपने हारे हुए दिग्गज नेताओं की खिसकती जमीन को बचाना
बड़ी चुनौती बनती नजर आ रही है। लेकिन प्रदेश की महज 11 लोकसभा सीटों से हर किसी
को संतुष्ट करना नामुमकिन है। अब तो हारे हुए दिग्गजों के पास यही चारा है कि वे
या तो हरि भजें या राम, या जोगी की तरह पूरे प्रदेश में पार्टी के लिए काम करने का
विकल्प चुनते हुए खुद ही लोकसभा ना लड़ने का ऐलान कर और भी “बड़े” बन
जाएं।
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