गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

धान का कटोरा उगल रहा इतिहास के राज़

देश के नक्शे में छत्तीसगढ़ की अब एक नई पहचान बनने जा रही है। अब तक धान उगलने वाली छत्तीसगढ़ की धरती अब पहली से पांचवी सदी का इतिहास उगल रही है। छत्तीसगढ़ में मिल रहे अभिलेखों और इंडो ग्रीक-इंडो सिथियन सिक्कों से पता चलता है कि पहली से पांचवी शती में छत्तीसगढ़ एक महत्वपूर्ण प्राचीन शक्तिशाली व्यापारिक और राजनीतिक केंद्र रहा होगा।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी इस तथ्य को पुष्ट करने के लिए प्रदेश के पुरातात्विक विभाग के साथ मिलकर कई पुरातात्विक साइट्स पर खनन कर रहा है।
हाल ही में सूबे की राजधानी रायपुर से करीब 40 किलोमीटर दूर बलौदाबाजार में पुरातात्विक स्थल डमरू में पहली से पांचवीं सदी के प्रमाण मिले हैं। यहां मिले पकी मिट्टी के अभिलेखों में पांच नए राजाओं के नाम भी पाए गए हैं। अभिलेख ब्राम्ही लिपि में हैं, जिसका परीक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) मैसूर में हुआ है। डमरू प्रदेश की पहली पुरातात्विक साइट है, जहां मिट्टी के किले की खुदाई की जा रही है। पुरातत्वविदों का दावा है कि डमरू में मिले अभिलेकों की मदद से छत्तीसगढ़ के इतिहास को पहली से पांचवीं सदी से जोड़ने में मदद मिलेगी।
इस बारे में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षक अरुण टी राज कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में कहीं-कहीं प्राग-ऐतिहासिक काल (लोअर पैलियोलिथिकल काल) से जुड़ी वस्तुओं के भी प्रमाण मिले हैं। हम प्रदेश में अलग-अलग पुरातात्विक साइट्स पर खुदाई भी कर रहे हैं, या राज्य सरकार द्वारा खनन करवा रहे हैं ताकि इतिहास से पर्दा उठाया जा सके।
डमरू में पुरातत्वविद डॉ. शिवकांत वाजपेयी और राहुल सिंह की देखरेख में खुदाई हो रही है। डॉ.वाजपेयी कहते हैं कि अभिलेखों से जो प्रमाण मिल रहे हैं, उससे स्पष्ट हो रहा है कि सभी राजाओं का स्वतंत्र अस्तित्व था। अभिलेखों में राजाओं के नाम के साथ उनके राजकीय चिन्ह भी अंकित हैं। इसके अलावा कई अभिलेखों में स्वास्तिक के निशान भी मिल रहे हैं। अब तक छत्तीसगढ़ के इतिहास में कौशलक महेंद्र नामक शासक का उल्लेख सबसे पुराना है। इसके बारे में समुद्रगुप्त के प्रयास प्रशस्ति इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख में जानकारी मिलती है।
डमरू का पुरातात्विक उत्खनन स्थल मिट्टी के परकोटे वाला गोलाकार गढ़ है। पुरातत्वविदों के अनुसार देश के किसी भी अन्य पुरास्थल पर इस तरह की आवासीय संरचनाएं उत्खनन में नहीं मिली हैं। इसका विस्तार लगभग 42 एकड़ में है, लेकिन अब तक सिर्फ दो एकड़ में ही खुदाई हो पाई है। यहां मिले अभिलेखों से पता चलता है कि डमरू एक महत्वपूर्ण प्राचीन शक्तिशाली व्यापारिक और राजनीतिक केंद्र रहा होगा।
डमरू में मिले मिट्टी के अभिलेखों में पांच नए राजाओं के नाम प्रकाश में आए हैं। इन राजाओं के बारे में अब तक किसी भी खुदाई में जानकारी नहीं मिली है। इसमें महाराज कुमार श्रीश्री धरस्य, श्री महाराज रूद्रस्य, महाराज श्री रस्य, महाराज कुमार श्री मट्टरस्य और सदामा श्री दामस्य का नाम है। उत्खनन में 40 मिट्टी के मुद्रांक मिले हैं, जिनमें अभी तक 9 मिट्टी के मुद्रांकों के अध्ययन के बाद छत्तीसगढ़ के पहली सदी से लेकर पांचवीं सदी ईस्वी के मध्य के नए शासकों के नाम सामने आए हैं।
डमरू की खुदाई में प्रचीन आवासीय गोलाकार संरचना के अलावा चूल्हे, प्रचीन मिट्टी के बर्तन, विभिन्न कालखंडों के सिक्के, अर्धकीमती पत्थरों के मनके, पकी हुई मिट्टी के खिलौने, हाथी दांत के कंघे और लौह एवं ताम्र उपकरण भी मिले हैं।
छत्तीसगढ़ पुरातत्व विभाग के संचालक राकेश चतुर्वेदी मानते हैं कि डमरू में मिल रहे अभिलेख पांचवी शताब्दी के दौरान छत्तीसगढ़ के इतिहास की जानकारी में देने में सहायक होंगे। फिलहाल इन पर अध्ययन के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की मदद ली जा रही है।
छत्तीसगढ़ के कांकेर में भी पुरातात्विक महत्व के लगभग 4000 साल पुराने सिक्कों और अंगूठी के आकार के सोने के आभूषण मिले हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को मिले इन सोने के आभूषणों पर जनजातीय कला अंकित है। इन पर घोड़े और बकरे जैसे जानवरों के चित्र उकेरे गए हैं। साथ ही सोने की दो अंगूठी भी मिली है। ऐसा माना जा रहा है कि ये सोना ताम्रप्रस्तरयुगीन संस्कृति के हैं। उस समय जानवरों को सोने पर उकेरने की प्रथा के प्रमाण मिलते हैं।
एएसआई को कांकेर के एक गांव हथकोडेंल में तालाब की खुदाई के दौरान यह यह आभूषण मिले। तालाब की खुदाई के दौरान ग्रामीणों को यह आभूषण मिले। इन पर कलात्मक सींग का चित्र भी उकेरा गया है।
अभी इस बात की जानकारी नहीं मिल पाई है कि यह सोना किस काल का है। कांकेर में राजपरिवार लंबे समय तक सक्रिय था। इसलिए इन सोने के आभूषणों का अलग महत्व समझा जा रहा है। हालांकि वरिष्ठ पुरातत्वविद इसे न तो गहना मान रहे हैं, न ही सोने का सिक्का ही मानने को तैयार है। उनका मानना है कि यह किसी राजपरिवार का राजप्रतीक हो सकता है।
वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता निरंजन महावर का कहना है कि प्राचीन समय में जब किसी नए तालाब की खुदाई होती थी, तो तालाब का आकाश से विवाह कराया जाता था। इसमें तालाब के बीच में एक लकड़ी का स्तंभ स्थापित किया जाता था। उस समय सोना दान करने की परंपरा भी थी। ऐसा माना जाता था कि तालाब का विवाह नहीं कराने से या तो क्षेत्र में बारिश नहीं होगी, या फिर तालाब में पानी नहीं रुकेगा।
वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता निरंजन महावर यह भी कहते हैं कि सोने के इन टुकड़ों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह किसी राज्य के प्रतीक हैं। कांकेर और उसके आसपास दसवीं शताब्दी से पहले वाकाटक राजाओं का राज था। उसके बाद दक्षिण भारत के कई राजाओं ने राज किया। संभवत: यह सोने के प्रतीक चिन्ह उस समय प्रचलन में रहे हों। 
पुरातात्विक सलाहकार एके शर्मा इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते। वे कहते हैं कि यह सोने के सिक्के नहीं है। विश्व में कहीं भी चार हजार साल पुराने सिक्कों का प्रचलन नहीं रहा है। भारत में सिक्कों का प्रचलन 2500 साल पहले शुरू हुआ। हो सकता है कि यह रोमन आक्रमण का प्रमाण हो। राजिम में रोमन आए थे, इसके प्रमाण मिले हैं। यह कांकेर तक भी जा सकते हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षक पुरातत्ववेत्ता अरुण टी राज कहते हैं कि यह डॉलर जैसा दिखने वाला सोने का छल्ला है, जिस पर पशु के चित्र उकेरे गए हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारियों को इसकी जानकारी दी गई है। जांच में ही स्पष्ट हो पाएगा कि यह सोना किस समय का है। हो सकता है कि उस समय इस्तेमाल होने वाले गहने हों, लेकिन अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है।
छत्तीसगढ़ के एक अन्य पुरातात्विक महत्व के स्थल तरीघाट की खुदाई में टेराकोटा का जिराफ मिला है। पुरातत्वविद् इसके 2500 से 3000 वर्ष पुराना होने का अनुमान लगा रहे हैं। तरीघाट राजधानी रायपुर से 35 किलोमीटर दूर पाटन के पास है। यहां लंबे समय से खुदाई चल रही है। वर्ष 2013-14 की खुदाई में सबसे महत्वपूर्ण टेराकोटा के जिराफ को माना जा रहा है। इससे पहले भोपाल (मध्यप्रदेश) के पास भीमबेटका की गुफा में जिराफ के शैलचित्र मिले हैं। यह दस हजार से 20 हजार साल पुराने हैं। वहीं ओडिशा के कोर्णाक के सूर्य मंदिर में भी जिराफ अंकित है। इसे 12वीं-वीं शताब्दी का माना जाता है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि टेराकोटा का जिराफ देश में पहली बार तरीघाट में पाया गया है।
तरीघाट में खोज कर रहे पुरातत्वविद् जेआर भगत ने बताया कि यहां इंडो ग्रीक और इंडो सिथियन सिक्के मिले हैं। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि तरीघाट एक अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक सेंटर रहा होगा। व्यापार होने के कारण स्थानीय लोगों ने बाहरी जीव-जंतुओं को भी देखा होगा, जिसके बाद यहां उसे टेराकोटा में उकेरा गया होगा। विशेषज्ञों के अनुसार, तरीघाट में टेराकोटा के जिराफ मिलने से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि दूसरी और तीसरी सेंचुरी में छत्तीसगढ़ एक अमीर राज्य की श्रेणी में आता रहा होगा और यहां से बड़े पैमाने पर आयात-निर्यात होता रहा होगा।
पुरातत्वविदों के अनुसार तत्कालीन राजाओं ने दक्षिण अफ्रिका का दौरा किया होगा। इस दौरान इनको जिराफ देखने को मिला होगा। तरीघाट की खुदाई के लिए आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया से अनुमति ली गई थी। लेकिन इसकी खुदाई की समय सीमा 30 सितंबर को ही समाप्त हो गई है। छत्तीसगढ़ के संस्कृति और पुरातत्व विभाग की ओर से एएसआई को खुदाई की तारीख बढ़ाने के लिए पत्र लिखा गया है।
छत्तीसगढ़ में जोक नदी के किनारे भी ढाई लाख साल पुराने पाषाण के हथियार मिले हैं। महासमुंद के पिथौरा के पास सपोर गांव में प्राग-ऐतिहासिक काल के हैंडएक्स (हस्त कुठार) मिले हैं। प्रदेश में प्राग-ऐतिहासिक काल का पहला हैंडएक्स मिला है। इसके साथ ही जोक नदी के किनारे पहली बार एक ही स्थान पर प्राग-ऐतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक के प्रमाण मिले हैं। वहीं कसडोल के अमोदी में तारा के आकार के ईंटों से बने मंदिर के प्रमाण भी मिले हैं। हालांकि अभी इसकी खुदाई शुरू नहीं हुई है।
पुरातत्वविद शिवाकांत वाजपेयी और अतुल प्रधान कहते हैं कि जोक नदी का उद्गम ओडिशा से हुआ है। प्रदेश में यह नदी बागबाहरा के खट्टी गांव से शिवरीनारायण तक है। लगभग 140 किलोमीटर लंबी नदी के किनारे मौजूद गांवों का पुरातात्विक सर्वे करने पर प्राग-ऐतिहासिक काल के प्रमाण मिले हैं। इसमें लघु पाषाण काल के उपकरण भी मिले हैं। हैंडएक्स पाषाण उपकरणों में पहला हथियार माना जाता है।

जोक नदी के किनारे अध्ययन करने पर प्राग-ऐतिहासिक काल के उपकरण और जीवन शैली के बारे में जानकारी मिल रही है। इसके साथ ही उस समय के वातावरण के बारे में भी जानकारी मिल सकती है। प्रदेश में अभी तक लोअर पैलियोलिथिकल काल के अन्य उपकरण मिले थे, लेकिन हैंडएक्स पहली बार मिला है।

धान का कटोरा उगल रहा इतिहास के राज़

देश के नक्शे में छत्तीसगढ़ की अब एक नई पहचान बनने जा रही है। अब तक धान उगलने वाली छत्तीसगढ़ की धरती अब पहली से पांचवी सदी का इतिहास उगल रही है। छत्तीसगढ़ में मिल रहे अभिलेखों और इंडो ग्रीक-इंडो सिथियन सिक्कों से पता चलता है कि पहली से पांचवी शती में छत्तीसगढ़ एक महत्वपूर्ण प्राचीन शक्तिशाली व्यापारिक और राजनीतिक केंद्र रहा होगा।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी इस तथ्य को पुष्ट करने के लिए प्रदेश के पुरातात्विक विभाग के साथ मिलकर कई पुरातात्विक साइट्स पर खनन कर रहा है।
हाल ही में सूबे की राजधानी रायपुर से करीब 40 किलोमीटर दूर बलौदाबाजार में पुरातात्विक स्थल डमरू में पहली से पांचवीं सदी के प्रमाण मिले हैं। यहां मिले पकी मिट्टी के अभिलेखों में पांच नए राजाओं के नाम भी पाए गए हैं। अभिलेख ब्राम्ही लिपि में हैं, जिसका परीक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) मैसूर में हुआ है। डमरू प्रदेश की पहली पुरातात्विक साइट है, जहां मिट्टी के किले की खुदाई की जा रही है। पुरातत्वविदों का दावा है कि डमरू में मिले अभिलेकों की मदद से छत्तीसगढ़ के इतिहास को पहली से पांचवीं सदी से जोड़ने में मदद मिलेगी।
इस बारे में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षक अरुण टी राज कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में कहीं-कहीं प्राग-ऐतिहासिक काल (लोअर पैलियोलिथिकल काल) से जुड़ी वस्तुओं के भी प्रमाण मिले हैं। हम प्रदेश में अलग-अलग पुरातात्विक साइट्स पर खुदाई भी कर रहे हैं, या राज्य सरकार द्वारा खनन करवा रहे हैं ताकि इतिहास से पर्दा उठाया जा सके।
डमरू में पुरातत्वविद डॉ. शिवकांत वाजपेयी और राहुल सिंह की देखरेख में खुदाई हो रही है। डॉ.वाजपेयी कहते हैं कि अभिलेखों से जो प्रमाण मिल रहे हैं, उससे स्पष्ट हो रहा है कि सभी राजाओं का स्वतंत्र अस्तित्व था। अभिलेखों में राजाओं के नाम के साथ उनके राजकीय चिन्ह भी अंकित हैं। इसके अलावा कई अभिलेखों में स्वास्तिक के निशान भी मिल रहे हैं। अब तक छत्तीसगढ़ के इतिहास में कौशलक महेंद्र नामक शासक का उल्लेख सबसे पुराना है। इसके बारे में समुद्रगुप्त के प्रयास प्रशस्ति इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख में जानकारी मिलती है।
डमरू का पुरातात्विक उत्खनन स्थल मिट्टी के परकोटे वाला गोलाकार गढ़ है। पुरातत्वविदों के अनुसार देश के किसी भी अन्य पुरास्थल पर इस तरह की आवासीय संरचनाएं उत्खनन में नहीं मिली हैं। इसका विस्तार लगभग 42 एकड़ में है, लेकिन अब तक सिर्फ दो एकड़ में ही खुदाई हो पाई है। यहां मिले अभिलेखों से पता चलता है कि डमरू एक महत्वपूर्ण प्राचीन शक्तिशाली व्यापारिक और राजनीतिक केंद्र रहा होगा।
डमरू में मिले मिट्टी के अभिलेखों में पांच नए राजाओं के नाम प्रकाश में आए हैं। इन राजाओं के बारे में अब तक किसी भी खुदाई में जानकारी नहीं मिली है। इसमें महाराज कुमार श्रीश्री धरस्य, श्री महाराज रूद्रस्य, महाराज श्री रस्य, महाराज कुमार श्री मट्टरस्य और सदामा श्री दामस्य का नाम है। उत्खनन में 40 मिट्टी के मुद्रांक मिले हैं, जिनमें अभी तक 9 मिट्टी के मुद्रांकों के अध्ययन के बाद छत्तीसगढ़ के पहली सदी से लेकर पांचवीं सदी ईस्वी के मध्य के नए शासकों के नाम सामने आए हैं।
डमरू की खुदाई में प्रचीन आवासीय गोलाकार संरचना के अलावा चूल्हे, प्रचीन मिट्टी के बर्तन, विभिन्न कालखंडों के सिक्के, अर्धकीमती पत्थरों के मनके, पकी हुई मिट्टी के खिलौने, हाथी दांत के कंघे और लौह एवं ताम्र उपकरण भी मिले हैं।
छत्तीसगढ़ पुरातत्व विभाग के संचालक राकेश चतुर्वेदी मानते हैं कि डमरू में मिल रहे अभिलेख पांचवी शताब्दी के दौरान छत्तीसगढ़ के इतिहास की जानकारी में देने में सहायक होंगे। फिलहाल इन पर अध्ययन के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की मदद ली जा रही है।
छत्तीसगढ़ के कांकेर में भी पुरातात्विक महत्व के लगभग 4000 साल पुराने सिक्कों और अंगूठी के आकार के सोने के आभूषण मिले हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को मिले इन सोने के आभूषणों पर जनजातीय कला अंकित है। इन पर घोड़े और बकरे जैसे जानवरों के चित्र उकेरे गए हैं। साथ ही सोने की दो अंगूठी भी मिली है। ऐसा माना जा रहा है कि ये सोना ताम्रप्रस्तरयुगीन संस्कृति के हैं। उस समय जानवरों को सोने पर उकेरने की प्रथा के प्रमाण मिलते हैं।
एएसआई को कांकेर के एक गांव हथकोडेंल में तालाब की खुदाई के दौरान यह यह आभूषण मिले। तालाब की खुदाई के दौरान ग्रामीणों को यह आभूषण मिले। इन पर कलात्मक सींग का चित्र भी उकेरा गया है।
अभी इस बात की जानकारी नहीं मिल पाई है कि यह सोना किस काल का है। कांकेर में राजपरिवार लंबे समय तक सक्रिय था। इसलिए इन सोने के आभूषणों का अलग महत्व समझा जा रहा है। हालांकि वरिष्ठ पुरातत्वविद इसे न तो गहना मान रहे हैं, न ही सोने का सिक्का ही मानने को तैयार है। उनका मानना है कि यह किसी राजपरिवार का राजप्रतीक हो सकता है।
वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता निरंजन महावर का कहना है कि प्राचीन समय में जब किसी नए तालाब की खुदाई होती थी, तो तालाब का आकाश से विवाह कराया जाता था। इसमें तालाब के बीच में एक लकड़ी का स्तंभ स्थापित किया जाता था। उस समय सोना दान करने की परंपरा भी थी। ऐसा माना जाता था कि तालाब का विवाह नहीं कराने से या तो क्षेत्र में बारिश नहीं होगी, या फिर तालाब में पानी नहीं रुकेगा।
वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता निरंजन महावर यह भी कहते हैं कि सोने के इन टुकड़ों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह किसी राज्य के प्रतीक हैं। कांकेर और उसके आसपास दसवीं शताब्दी से पहले वाकाटक राजाओं का राज था। उसके बाद दक्षिण भारत के कई राजाओं ने राज किया। संभवत: यह सोने के प्रतीक चिन्ह उस समय प्रचलन में रहे हों। 
पुरातात्विक सलाहकार एके शर्मा इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते। वे कहते हैं कि यह सोने के सिक्के नहीं है। विश्व में कहीं भी चार हजार साल पुराने सिक्कों का प्रचलन नहीं रहा है। भारत में सिक्कों का प्रचलन 2500 साल पहले शुरू हुआ। हो सकता है कि यह रोमन आक्रमण का प्रमाण हो। राजिम में रोमन आए थे, इसके प्रमाण मिले हैं। यह कांकेर तक भी जा सकते हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षक पुरातत्ववेत्ता अरुण टी राज कहते हैं कि यह डॉलर जैसा दिखने वाला सोने का छल्ला है, जिस पर पशु के चित्र उकेरे गए हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारियों को इसकी जानकारी दी गई है। जांच में ही स्पष्ट हो पाएगा कि यह सोना किस समय का है। हो सकता है कि उस समय इस्तेमाल होने वाले गहने हों, लेकिन अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है।
छत्तीसगढ़ के एक अन्य पुरातात्विक महत्व के स्थल तरीघाट की खुदाई में टेराकोटा का जिराफ मिला है। पुरातत्वविद् इसके 2500 से 3000 वर्ष पुराना होने का अनुमान लगा रहे हैं। तरीघाट राजधानी रायपुर से 35 किलोमीटर दूर पाटन के पास है। यहां लंबे समय से खुदाई चल रही है। वर्ष 2013-14 की खुदाई में सबसे महत्वपूर्ण टेराकोटा के जिराफ को माना जा रहा है। इससे पहले भोपाल (मध्यप्रदेश) के पास भीमबेटका की गुफा में जिराफ के शैलचित्र मिले हैं। यह दस हजार से 20 हजार साल पुराने हैं। वहीं ओडिशा के कोर्णाक के सूर्य मंदिर में भी जिराफ अंकित है। इसे 12वीं-वीं शताब्दी का माना जाता है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि टेराकोटा का जिराफ देश में पहली बार तरीघाट में पाया गया है।
तरीघाट में खोज कर रहे पुरातत्वविद् जेआर भगत ने बताया कि यहां इंडो ग्रीक और इंडो सिथियन सिक्के मिले हैं। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि तरीघाट एक अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक सेंटर रहा होगा। व्यापार होने के कारण स्थानीय लोगों ने बाहरी जीव-जंतुओं को भी देखा होगा, जिसके बाद यहां उसे टेराकोटा में उकेरा गया होगा। विशेषज्ञों के अनुसार, तरीघाट में टेराकोटा के जिराफ मिलने से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि दूसरी और तीसरी सेंचुरी में छत्तीसगढ़ एक अमीर राज्य की श्रेणी में आता रहा होगा और यहां से बड़े पैमाने पर आयात-निर्यात होता रहा होगा।
पुरातत्वविदों के अनुसार तत्कालीन राजाओं ने दक्षिण अफ्रिका का दौरा किया होगा। इस दौरान इनको जिराफ देखने को मिला होगा। तरीघाट की खुदाई के लिए आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया से अनुमति ली गई थी। लेकिन इसकी खुदाई की समय सीमा 30 सितंबर को ही समाप्त हो गई है। छत्तीसगढ़ के संस्कृति और पुरातत्व विभाग की ओर से एएसआई को खुदाई की तारीख बढ़ाने के लिए पत्र लिखा गया है।
छत्तीसगढ़ में जोक नदी के किनारे भी ढाई लाख साल पुराने पाषाण के हथियार मिले हैं। महासमुंद के पिथौरा के पास सपोर गांव में प्राग-ऐतिहासिक काल के हैंडएक्स (हस्त कुठार) मिले हैं। प्रदेश में प्राग-ऐतिहासिक काल का पहला हैंडएक्स मिला है। इसके साथ ही जोक नदी के किनारे पहली बार एक ही स्थान पर प्राग-ऐतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक के प्रमाण मिले हैं। वहीं कसडोल के अमोदी में तारा के आकार के ईंटों से बने मंदिर के प्रमाण भी मिले हैं। हालांकि अभी इसकी खुदाई शुरू नहीं हुई है।
पुरातत्वविद शिवाकांत वाजपेयी और अतुल प्रधान कहते हैं कि जोक नदी का उद्गम ओडिशा से हुआ है। प्रदेश में यह नदी बागबाहरा के खट्टी गांव से शिवरीनारायण तक है। लगभग 140 किलोमीटर लंबी नदी के किनारे मौजूद गांवों का पुरातात्विक सर्वे करने पर प्राग-ऐतिहासिक काल के प्रमाण मिले हैं। इसमें लघु पाषाण काल के उपकरण भी मिले हैं। हैंडएक्स पाषाण उपकरणों में पहला हथियार माना जाता है।

जोक नदी के किनारे अध्ययन करने पर प्राग-ऐतिहासिक काल के उपकरण और जीवन शैली के बारे में जानकारी मिल रही है। इसके साथ ही उस समय के वातावरण के बारे में भी जानकारी मिल सकती है। प्रदेश में अभी तक लोअर पैलियोलिथिकल काल के अन्य उपकरण मिले थे, लेकिन हैंडएक्स पहली बार मिला है।

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

संगीतमय बस्तर



आमतौर पर बस्तर का उल्लेख तब होता है, जब नक्सलवाद का जिक्र किया जा रहा हो। सही मायनों में नक्सलवाद ने बस्तर के उस सौंदर्य को अनदेखा रहने के लिए छोड़ दिया, जो ईश्वर ने उसे विशेष उपहार के रूप में दिया है। बस्तर के जंगल, पहाड़, जलप्रपात और यहां की संस्कृति उस अप्रितम सौंदर्य का बोध कराती है, जो आप शायद कुल्लू मनाली, शिमला, ऊटी, मसूरी या नैनीताल में प्राप्त नहीं कर सकते। बस्तर नृत्य और वाद्य यानि संगीत में भी समृद्ध है। यहां पाए जाने वाले 45 विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों के साथ अलग-अलग किवदंतियां जुड़ी हुई हैं।

वैसे तो बस्तर में मुख्यतः गोंड जनजाति के लोग निवास करते हैं। लेकिन गोंड जनजाति भी कई उप-जातियों में विभाजित है। इनमें घोटुल मुरियाराजा मुरियादंडामी माडिया (बायसन हार्न माडिया (भैंस के सींग सर पर लगाने वाले))धुरवापरजादोरलामुंडामिरगानकोईतूर शामिल हैं। बस्तर में महरा और लोहरा भी रहते हैंजिन्हें आदिवासी नहीं माना गया हैलेकिन इनकी संस्कृति ठीक वैसी हैजैसी आदिवासियों की। एक चीज हैजो इन सभी को जोड़े रखती है और सभी में समानता का भाव पैदा करती हैवो है इनका नृत्य और संगीत। वाद्य परंपरा के कारण सभी समुदाय आपस में जुडे हुए दिखाई देते हैं। बस्तर में लिंगादेव की गाथा सुनाई जाती हैजिनमें बस्तर के 18 वाद्य यंत्रों का उल्लेख किया गया है। दरअसल लिंगादेव को नृत्य और संगीत का देवता माना गया है। हालांकि पूरे बस्तर में करीब 45 वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। बस्तर के आदिवासियों के बीच हजारों देवी-देवता पूजे जाते हैं। इन सभी देवताओं के लिए संगीत की अलग-अलग धुन का प्रयोग किया जाता है। नगाड़ादेवमोहिरी (विशेष प्रकार की शहनाई),तुड़मुड़ीमुंडा बाजापराएतिरदुड़ीबिरिया ढोलकिरकिचाजलाजलवेरोटी (विशेष प्रकार की बांसुरी) ऐसे अनेक वाद्य यंत्र हैंजिनका संगीत आपको रोमांचित कर देता है। इन जनजातीय वाद्य यंत्रों की स्वर लहरियो में ठेठ लोक संस्कृति की खुशबू महसूस की जा सकती है।


बस्तर की गोंडी जनजाति के सबसे अहम मुंडा समुदाय के बाबूलाल बघेल और साहदुर नाग मुंडा बाजा बजाते हैं। कमर में पटकू लपेटे हुए (घुटने के ऊपर लुंगीनुमा परिधान पहने हुए)सिर पर पागा बांधे हुए बाबूलाल बघेल बताते हैं कि कभी किसी जमाने में हमारे पूर्वज कढू और बेताल राजा अन्नम देव के साथ बस्तर पहुंचे थे। कढ़ू और बेताल के परिवार ही पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ते हुए आज मुंडा समुदाय के रूप में बस्तर में मौजूद हैं। बघेल और नाग मुंडा बाजा बजाते हैं। बगैर इनके वाद्य यंत्र के बस्तर के मशहूर दशहरे की शुरुआत नहीं हो सकती है। इसका कारण है कि जगदलपुर के राजा अन्नमदेव के जमाने से ही मुंडा समुदाय को बस्तर दशहरे का स्वागत अपने वाद्य यंत्र को बजाकर करने का दायित्व सौंपा गया था। जो परंपरा आज भी अनवरत जारी है। मुंडा बाजा की खासियत ये है कि इस पर बकरे की खाल को बाल सहित चढ़ाया जाता है। जगदलपुर के पोटानार गांव में रहने वाले बाबूलाल बघेल बताते हैं कि हमारी कई पीढ़ी पहले हमारे वाद्य यंत्र को मेढंक की चमड़ी लगाकर तैयार किया गया थालेकिन उसका आकार बेहद छोटा था। समय के साथ वाद्य यंत्र का आकार बढ़ा तो इसे बकरे की चमड़ी लगाकर तैयार किया जाने लगा। इन अपने उन्मुक्त जीवन को अब ये समुदाय पहले की तरह नहीं जी पा रहे हैं। इसका कारण है बस्तर में व्याप्त नक्सल समस्या। बाबूलाल बघेल बताते हैं कि अब हम खुलकर अपनी संस्कृति को नहीं सहेज पा रहे हैं। कुछ दशक पहले तक हम खुलकर नाचतेगाते और अपने उत्सव मनाते थे। लेकिन अब बंदूकों के साए में जीना बेहद मुश्किल हो गया है। हम पर दोनों तरफ से बंदूकें तनी हुई हैं। इकट्ठा होना भी संदेह की नजरों से देखा जाता है। यही कारण कि हमारे बच्चे वो परिवेश नहीं पा रहे हैंजो हमें मिला था। अब तो बस डर के साए में जीवन कट रहा है। लेकिन एक परिवर्तन हमें खलता हैवो ये कि हमारे बच्चे अब पांरपरिक परिधान नहीं पहनना चाहते हैंउन्हें शर्ट पेंट चाहिए।
मुंडा समुदाय के ही साहदुर नाग बताते हैं कि पहले हमारे समुदाय का जीवन यापन घर घर जाकर धान मांगकर होता था। राजा ने हमें खेती का काम नहीं सौंपकर घर घर जाकर बाजा बजाने का काम सौंपा था। वही हमारी पंरपरा थी। लेकिन अब समय के साथ हम कमाने और खेती करने लगे हैं। मैं मनिहारी (सौंदर्य प्रसाधन बेचने) का काम करता हूं। जगदलपुर के बाजार से सामान लाकर गांव में लगने वाले साप्ताहिक हाट में सामान बेचता हूं। बचे हुए समय में बस्तर बैंड के साथ प्रस्तुति देता हूं। हम जगदलपुर के आसपास रहने वाले लोग हल्बी बोली बोलते हैंजबकि बैंड के अधिकांश सदस्य गोंडी बोली बोलते हैं। लेकिन साथ काम करते करते ना केवल एक दूसरे के नृत्य संगीत को सीख रहे हैंबल्कि एक दूसरे की बोली भी समझने लगे हैं। किसी भी कार्यक्रम के पहले एक हफ्ता जमकर रिहर्सल करते हैं। कई बार रिहर्सल का मौका नहीं भी मिल पाता है। जब मिलता है तो मिलजुल कर कोई नई धुन या संगीत बनाने का मौका मिल जाता है।
जिला नारायणपुर के गांव रेमावंड में रहने वाले घोटुल मुरिया समुदाय के नवेल कोर्राम और दशरूराम कोर्राम पराए बजाते हैं। पराए एक प्रकार का ढोल होता हैजिसके दोनों तरफ बैल के चमड़ा लगाया जाता है। पराए ना केवल एक वाद्य यंत्र हैबल्कि घोटुल मारिया समुदाय की पूज्य और अनिवार्य वस्तु भी है। पराए का महत्व इसी बात से पता चलता है कि यदि शादी करने वाले युवक के घर पराए ना हो तोउसे दंड स्वरूप 120 रुपए भरने होते हैं। रिश्ता तय होने के पहले वर पक्ष से पूछा जाता है कि उनके घर में पराए है कि नहीं। ये बाजार में नहीं बिकताबल्कि हर परिवार अपने लिए पराए को खुद बनाता है। शिवना नामक पेड़ की बकायदा पूजा करके पराए के लिए लकड़ी काटी जाती है। बदलते जमाने का असर दशरूराम की पोशाक में देखा जा सकता है। शर्ट पेंट पहने हुए दशरूराम बताते हैं कि उनके पास 15 एकड़ जमीन है। जिसपर वे धान की खेती करते हैं। दशरूराम के पास सिरहा की जिम्मेदारी भी है। सिरहा मतलब जिसके सिर देवी आती हो। दशरूराम बताते हैं कि उनके पिता भी सिरहा थे। उनकी मृत्यु के बाद अचानक मुझ पर भी देवी आने लगी। अब हर रोज शाम चार बजे दशरूराम के घर बैठक होती है। जिसमें वो लोगों की समस्याओं का समाधान भी करता है और बीमारियों का आर्युवैदिक उपचार भी।
नवेल कोर्राम विशुद्ध रूप से आदिवासी संस्कृति को अपनाए हुए हैं। मुख्यतः खेती किसानी करके अपना परिवार पालने वाले नवेल के पास छह गाय भी हैं। लेकिन बस्तर में दूध नहीं बेचा जाता। इसलिए नवेल गाय के दूध का उपयोग घरवालों के लिए ही करता है। नवेल भी पराए बजाता है। नवेल के मुताबिक जब घोटुल मुरिया समुदाय में कोई शादी होती है तो सभी गांववाले मिलकर घोटुल में पराए की थाप पर नाचते हैं। ये शादी के लिए अनिवार्य रसम है। घोटुल इस समुदाय की परंपरा का अभिन्न अंग है। घोटुल मतलब गांव के बीचों बीच बनी एक झोपड़ीजिसपर पूरे गांव का अधिकार होता है। गांव की हर बैठकसभानाच-गानासमारोह इसी घोटुल में आयोजित किए जाते हैं। अपने गांव से पहली बार निकलकर दूसरे लोगों के सामने प्रस्तुति देने का अनुभव कैसा रहाये पूछने पर नवेल की आंखों में चमक आ जाती है। वह कहता है कि शब्दों में उन अनुभव को बता पाना मुश्किल है क्योंकि कभी सोचा नहीं था कि कहीं बाहर भी हम अपनी संस्कृति का प्रदर्शन कर पाएंगे। नवेल दुखी हैं कि अब घोटुल परंपरा खत्म होने लगी है। माओवादी भी घोटुल को पसंद नहीं करते। इसलिए अब युवक युवती घोटुल में रात नहीं बिताते। लगता है धीरे धीरे हमारी संस्कृति खत्म होती जा रही है।
महरा समुदायजिनके वाद्य यंत्र देवमोहिरी (विशेष प्रकार की शहनाई) के बगैर बस्तर में किसी भी प्रकार के शुभ कार्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। चाहे शादी हो या देवी देवताओं की पूजा। जैसा कि नाम से जाहिर है देवमोहिरी यानि देवताओं को मोहित करने वाली। ऐसे ही महरा समुदाय के श्रीनाथ नाग और अनंत राम चाल्की भी बस्तर बैंड के सदस्य हैं। नए जमाने का प्रभाव श्रीनाथ और अनंतराम पर भी पड़ा है। श्रीनाथ जहां नानगुर जिला जगदलपुर के निवासी हैं. वहीं अनंतराम कैकागढ़जिला जगदलपुर में रहते हैं। श्रीनाथ मजदूरी करके जीवनयापन करते हैं। साल के चार महीने उनका काम केवल देवमोहिरी बजाने का है। दरअसल चार महीने शादियों का सीजन होने से उनके पास भरपूर काम होता हैबाकी दिनों वे खेतों में मजदूरी करके अपना घर चलाते हैं।
अनंतराम चाल्की देवमोहिरी बजाते हैं। हम तो पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी विरासत को आगे बढ़ा ही रहे हैं। ये मौखिक और वाचिक परंपरा हैजिसे कहीं लिखा नहीं गयालेकिन वो हर पीढ़ी में हस्तातंरित होती रही है। लेकिन दुनिया भर के सामने अपनी पंरपरा को रखना सुखद अनुभव है।
दन्नामी माडिया समुदाय के बुधराम सोरी बिरिया ढोल बजाते हैं। इस बिरिया ढोल के बगैर भी दन्नामी माडिया समुदाय में ना तो शादी ब्याह संपन्न होता है ना ही अंतिम संस्कार। इसे समुदाय के लोग खुद ही बनाते हैं। इसकी खासियत ये है कि इस ढोल के एक तरफ बैल का चमड़ा होता है तो दूसरी तरफ बकरे का। जब इस ढोल को बनाने के लिए शिवना पेड़ की लड़की काटी जाती हैतब बकायदा पूजा करके पेड़ को नारियल चढ़ाया जाता है। बिरिया ढोल जब शादी के मौके पर बजता है तो अलग धुन होती हैलेकिन जब किसी के अंतिम संस्कार के वक्त बजता तो है तो अलग धुन निकाली जाती है। इसकी आवाज इतनी तेज होती है कि आसपास के 30-35 गांव तक सुनाई देती है। धुन सुनकर दूसरे गांव के लोग अंदाजा लगा लेते हैं कि किसी की शादी हो रही है या किसी का अंतिम संस्कार संपन्न किया जा रहा है। बुधराम को वर्ष 2010 में उस्ताद बिस्मिल्ला खान संगीत पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। बुधराम भी किसान है।
होंगी (माया) सोरी दंतेवाड़ा के जरीपारा गांव में रहती है। होंगी तिरदुड़ी बजाती है। तिरदुड़ी लोहे से बना हुआ एक वाद्य यंत्र है। होंगी की एक ओर जिम्मेवाही है गीत गाने की। होंगी बताती हैं कि उनके माता पिता जोगी और देवालान सोरी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सामने गौर नृत्य (आदिवासियों द्वारा किया जाने वाला एक नृत्य) प्रस्तुत किया था। इसके लिए वे विशेष रूप से दिल्ली बुलाए गए थे। होंगी महुआ बीनकर अपना घर चलाती हैं। धुर्वा समुदाय के भगतसिंह नाग नेतीनार जिला बस्तर के रहने वाले हैं। वे वेरोटी (बांसुरी) बजाते हैं। अभी 12वीं की पढ़ाई कर रहे भगतसिंह को राजस्थानी नृत्य संगीत से भी बेहद लगाव है। वे एक पढ़े लिखे आदिवासी परिवार से हैं। भगतसिंह के बड़े भाई सहायक शिक्षक हैं और भाभी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। भगतसिंह बस्तर के उन युवाओं में से हैंजिन्हें बाहरी दुनिया आकर्षित भी करती है और वे दुनिया के गुणा भाग को समझते भी हैं। वेरोटी यानि बांसुरी के बारे में भगत बताते हैं कि इसे मढ़ई मेलों के वक्त बजाया जाता है। शादी ब्याह में भी इसे बजाया जाना शुभ माना जाता है। वे किरकिचा (लोहे से बना वाद्य यंत्र) और जलाजल (घुंघरूओं से बना बाजा) भी बजाते हैं। हम सब मिलकर 150 स 200 धुने तैयार कर चुके हैं। इसे आप जनजातीय संगीत का फ्यूजन मान सकते हैं। जब हम मिलकर प्रैक्टिस करते हैं तो कई बार नई धुने तैयार हो जाती हैं। ये मिलकर रिहर्सल करने का वक्त निकाल ही लेते हैं। जबकि सब अलग अलग गांवोंजिलों में रहते हैं। अलग अलग समुदायों से हैं। लेकिन जब इकट्ठे होते हैं तो लगता है कि बस्तर के सारे गुलाब एक ही गुलदस्ते में महक रहे हैं।
जब 45 वाद्य यंत्र एक साथ स्वर लहरी छोड़ते हैं तो माहौल नशीला सा लगने लगता है। वैसे भी बस्तर के वाद्य यंत्रों की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वे श्रोता को झूमने पर मजबूर कर देते हैं। नगाड़ादेवमोहिरी और तुड़मुड़ी को एक साथ बजाने की पंरपरा हैं। जब ये तीनों वाद्य यंत्र बजते हैंतो ये शौर्य रस का आभास पैदा करते हैं। इन्हें सुनते वक्त ऐसा लगता है जैसे वीर रणभूमि की तरफ प्रस्थान कर रहे हैं। लेकिन जब यही तीनों वाद्य यंत्र पराएतिरदुड़ीबिरिया ढोलकिरकिचा और जलाजल के साथ बजते हैं तो समा सुरमयी हो जाता है। ताड़ी और सल्फी (दोनों देशी शराब का प्रकार हैं) की मादकता इन वाद्य यंत्रों में उतर आती है। आदिवासी इलाकों में घर में बनाई जाने वाली शराब का अलग महत्व है। मदिरा आदिवासी संस्कृति का अभिन्न अंग है....इसका सुरुर जनजातीय वाद्य यंत्रों की स्वर लहरियों में महसूस किया जा सकता है। बस्तर बैंड के सदस्यों की तैयार धुनें केवल नृत्यमौज मस्ती भर के लिए नहींबल्कि देवी और देवताओं की अराधना के लिए भी होती हैं। ये धुनें अपनी कथा वाचक परंपरा को भी आगे बढ़ाती हैं। पराए और बिरिया ढोल की थाप पर थिरकते हुए आदिवासी युवक युवती आपको भी थिरकने को मजबूर कर देते हैं। माओपारा (वनभैंसे को मारने की नृत्य नाटिका) हो या लोरी चंदा की प्रेम कहानीआल्हा उदल की शौर्य गाथा हो या लिंगादेव की गाथा होहर गाथा और गीत के साथ बजते वाद्य यंत्र करिश्माई माहौल पैदा करने का माद्दा रखते हैं। यही बस्तर के वाद्य यंत्रों की विशेषता है।