शुक्रवार, 5 मई 2017

विकास का रोड़ा उग्र वामपंथ

सड़क निर्माण में लगे जवानों को निशाना बना रहे माओवादी




छत्तीसगढ़ के सुकमा में 24 अप्रैल को नक्सलियों के एंबुश में फंसकर 25 सीआरपीएफ जवान शहीद हो गए। जबकि 6 गंभीर रूप से घायल हैं। लेकिन इस हमले से विकास के नाम पर भोले भाले वनवासियों को बरगलाने वाले माओवादियों को सच एक बार फिर सामने आ गया है। सीआरपीएफ की 74वीं बटालियन के जवानों पर नक्सलियों उस वक्त हमला बोला, जब वे सड़क निर्माण को सुरक्षा देने का काम कर रहे थे। आमतौर पर पुलिस-नक्सली मुठभेड़ सुनकर यह कयास लगाया जाता है कि कहीं अर्धसैनिक बल नक्सलियों को जंगलों में खोजकर दो-दो हाथ कर रहे होंगे, जबकि सत्यता यह है कि बस्तर में नक्सली अर्धसैनिक बलों को ट्रैस कर निशाना बनाते रहे हैं। हाल का हमला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह एक ही स्थान पर माओवादियों का पांचवां हमला है, जो केवल इसलिए किया गया कि इलाके में सड़क ना बन पाए।
दरअसल सुकमा में जगरगुंडा को दोरनापाल से जोड़ने के लिए तीन सड़कों का निर्माण किया जा रहा है, ताकि इस इलाके में सड़क के जरिए विकास का रथ दौड़ सके। सड़क नेटवर्क बनने से उग्र वामपंथ से प्रभावित इस इलाके में स्कूल, अस्पताल और राशन जैसी अन्य बुनियादी सुविधाएं पहुंचाना आसान हो जाएगा। नक्सलियों के इस गढ़ में सड़क बन सके, इसलिए सीआरपीएफ जवान श्रमिकों को सुरक्षा देने के लिए तैनात किए गए हैं। बीजापुर, किंरदुल और सुकमा को जोड़ने के लिए तीन अलग-अलग सड़कें बनाई जा रही हैं। इन सड़कों से नक्सली इतने खौफ़जद़ा हैं कि वे इसे रोकने के लिए पांच बार सीआरपीएफ के जवानों पर हमला कर चुके हैं। इसी महीने में यह दूसरा हमला था। इसी साल 11 मार्च को नक्सलियों ने एंबुश लगाकर 13  सीआरपीएफ जवानों को मार डाला था।


तीन निर्माणाधीन सड़कों में से पहला एनएएच -30 का 75 किलोमीटर लंबा मार्ग है, जो सुकमा को कोंटा के साथ जोड़ता है। दूसरा इंजीराम और भेज्जी को जोड़ता है, जहां जिस स्थान पर 24अप्रैल को नक्सल हमला हुआ, वह सड़क दोरनापाल को जगरगुंडा से जोड़ने के लिए बनाई जा रही है। यह इलाका धुर नक्सल प्रभावित है और राज्य सरकार इस इलाके का विकास के बुनियादी ढांचे के जरिए कायाकल्प करना चाहती है ताकि सघन जंगलों में रहने वाले वनवासी भी समाज की मुख्यधारा से जुड़ पाएं।

बस्तर में काम कर रहे सामाजिक संगठन अग्नि से जुड़े संपत झा कहते हैं कि ये एक ऐसा इलाका है, जहां माओवादी लोकतंत्र की अवधारणा को नकारते हुए खुद की जनताना सरकार चलाते हैं, अपनी जन अदालत में मासूम और निरीह आदिवासियों को मुखबिर होने का आरोप लगाकर मौत के घाट उतार देते हैं। सुकमा में हुए हमले से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि नक्सली नहीं चाहते कि इस इलाके में विकास हो। इसे माओवादियों और उनके कथित पैरोकारों का दोगला चरित्र भी उजागर हो जाता है, जो एक तरफ तो यह आरोप लगाते हैं कि राज्य और केंद्र सरकारें बस्तर का विकास नहीं चाहती और वनवासियों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखना चाहती हैं। लेकिन वहीं दूसरी ओर माओवादी खुद ही विकास की राह में रोड़ा बनकर खडे हैं



छत्तीसगढ़ का सुकमा जिला, जो दक्षिण में उड़ीसा के मलकानगिरी और आंध्र प्रदेश की सीमाओं से लगा हुआ है। देश का एक ऐसा भू-भाग, जो घने जंगलों से ढंका हुआ है। जब रायपुर से हम सुकमा के लिए निकलते हैं तो रास्ते में कई घाटी, जंगल, नदियां आपका स्वागत करती हैं। लेकिन प्रकृति के इन खूबसूरत नजारों पर आप चाहकर भी आनंदित नहीं हो पाते, क्योंकि इस सफर में एक अनजाना ख़ौफ आपके साथ-साथ चलता है। बस्तर के प्रवेश द्वारा कांकेर, केशकाल घाटी से होते हुए जगदलपुर और यहां से राष्ट्रीय राजमार्ग 30 के जरिए सुकमा पहुंचा जा सकता है। सूबे की राजधानी रायपुर से सुकमा पहुंचने के लिए हम 400 किमी का सफर तय करते हैं। जगह-जगह से क्षतिग्रस्त सड़कें और विस्फोट में लगभग उड चुकी पुल-पुलिया आपको अहसास कराती हैं कि उनके इलाके में हैं।
कभी-कभार आपको कोई बस या इक्का-दुक्का दुपहिया वाहन चालक थोड़ा बल दे जाते हैं कि इस घने जंगलों के घिरे हुए इलाके में आप अकेले नहीं है।
रास्ते में पड़ते कांटेदार तारों से घिरे सीआरपीएफ कैम्प और पुलिस थाने देखकर शायद आप थोड़ा डर ही जाएं, क्योंकि कैम्प और पुलिस थानों की संरचना देखकर आपको अंदाजा होता है कि आप देश के सबसे खतरनाक भू भाग पर खड़े हैं। 24 अप्रैल को जिस स्थान पर मुठभेड़ हुई, उस 56 किमी के लंबी निर्माणाधीन सड़क पर पांच पुलिस स्टेशन और 15 सीआरपीएफ कैंप हैं। मतलब हर किलोमीटर पर या तो आपको थाना मिलेगा या फिर सीआरपीएफ कैम्प। इससे यह तो समझ में आ ही जाता है कि यहां चप्पे-चप्पे पर खतरा है। कहीं लैंडमाइन्स (नक्सलियों ने अधिकांश इलाके में जमीन में बारुद या बम लगाकर सुरक्षा बलों को निशाना बनाते हैं, अक्सर आम लोग भी इसका शिकार हो जाते हैं) तो कहीं पेड़ों के पीछे से अचानक होने वाली गोलीबारी, आप किसी का भी शिकार हो सकते हैं। जब आप सुकमा पहुंचते हैं तो सुरक्षा बल के जवान आप से बार-बार आग्रह करते हैं, कृपया सड़क के बीच में चलें, किनारें नहीं, कहीं भी जमीन के भीतर विस्फोटक हो सकता है। यानि आपका पैर पड़ा और आपके परखच्चे उड गए। ऐसे डरते सहमते जब हम ग्राउंड जीरो पर पहुंचते हैं तो वहां बिखरा हुआ खून, पेड़ों में धंसी हुईं गोलियां बताती हैं कि मुठभेड़ का वह मंजर कितना खौफनाक रहा होगा। जहां-तहां जवानों का सामान बिखरा नजर आता है, कहीं किसी के जूते तो कहीं किसी की टोपी। जंगल इतना घना कि बार-बार लगता है कि कोई आपको पेडों के पीछे छिपकर घूर रहा है। खैर, ग्राउंड जीरो पर पहुंचने से पहले हमने कुछ घायल जवानों से रायपुर और जगदलपुर में मुलाकात भी की। उन्हीं में से एक सीआरपीएफ जवान शेख मोहम्मद ने बताया कि सुबह से स्थानीय ग्रामीण जवानों की रेकी कर रहे थे। कभी बकरी चराने के बहाने तो कभी यूं चहलकदमी करते ग्रामीण जवानों से पूछताछ भी कर रहे थे। पहले तो जवानों को समझ नहीं आया। लेकिन फिर उन्होंने देखा कि काली वर्दी पहले लोग भी उसी इलाके में मूवमेंट कर रहे हैं। जब तक जवान संभल पाते करीब 300 की संख्या में नक्सलियों ने हमला कर दिया। उनके पास AK-47 जैसे हथियार थे। हमला करने वाले दल में महिला नक्सली बड़ी संख्या में थी। साथ ही सादे कपड़ो में गांववालों को भी हमले में शामिल किया गया था।
एक अन्य घायल जवान ईश्वर सोनेवालियाना का कहना है कि हमने भी नक्सलियों को निशाना बनाया। गोली लगने के बाद भी ईश्वर नक्सलियों से लड़ते रहे। जवानों का दावा है कि उन्होंने करीब 10 नक्सली मार गिराए। लेकिन चूंकि माओवादी अपने मृत साथियों की देह को मौके पर नहीं छोड़ते, इसलिए उनके शव बरामद नहीं हो पाए




सड़क नेटवर्क के जरिए विकास पहुंचाना चाहती है सरकार

राज्य सरकार इस इलाके में सड़क नेटवर्क को दुरुस्त करना चाहती है, जिसके लिए 99 जवानों की एक टीम बनाकर सड़क निर्माण में लगे श्रमिकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए तैनात किया गया है। छत्तीसगढ़ में डीजी नक्सल ऑपरेशन डीएम अवस्थी कहते हैं कि सड़क बनेगी तो सुरक्षा बल आसानी से उस इलाके में मूवमेंट कर पाएंगे। सरकार सड़क के बाद स्कूल, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाएं देने में सक्षम हो सकेगी। यही माओवादी नहीं चाहते। इसलिए वे सड़क निर्माण में लगे जवानों को टारगेट बना रहे हैं


घटना के बाद रायपुर पहुंचे केंद्रीय गृहमंत्री
छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में हुए नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों को मंगलवार सुबह राजनाथ सिंह ने रायपुर पहुंचकर श्रद्धांजलि दी। उनके साथ गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर, छत्तीगढ़ के सीएम डॉ. रमन सिंह भी मौजूद थे। राजनाथ ने रायपुर में ही आला अफसरों के साथ मीटिंग भी की। राजनाथ ने रामकृष्ण केयर हॉस्पिटल जाकर जवानों का हालचाल भी जाना। राजनाथ सिंह ने कहा, "नक्सली हमला कोल्ड ब्लडेड मर्डर है। वे नहीं चाहते की विकास हो। उनका कोई भी मंसूबा कामयाब नहीं होगा।" राजनाथ सिंह ने 8 जवानों के लापता होने की भी पुष्टि की है। हमले के बाद सीएम रमन सिंह दिल्ली दौरा छोड़कर देर शाम रायपुर पहुंचे और अफसरों के साथ इमरजेंसी मीटिंग की।


एयरफोर्स ने घायलों को रायपुर पहुंचाया
सुकमा हमले की खबर एयरफोर्स की एंटी नक्सल टास्क फोर्स को करीब 3 बजे मिली। जगदलपुर से तुरंत दो हेलिकॉप्टर घायलों को लाने के लिए रवाना किए गए। मौके पर 7 घायलों को तुरंत रायपुर के हॉस्पिटल्स में पहुंचाया गया। इस दौरान रास्ते में एक घायल जवान की मौत हो गई। जवानों की बॉडी लाने के लिए रायपुर और जगदलपुर से कई हेलिकॉप्टर भेजे गए। एयरफोर्स के एमआई-17 विमान से रेस्क्यू ऑपरेशन चलाया गया।

सप्ताह भर पहले बनी थी योजना
सूत्रों की मानें तो जवानों के ट्रैप करने के लिए नक्सलियों ने कई दिनों पहले ही पूरी प्लानिंग कर ली थी, लेकिन वो सही समय और मौके के इंतजार में थे। सूत्रों के अनुसार हमले के वक्त 300-350 से अधिक नक्सली मौजूद थे, जो अत्याधुनिक हथियारों से लैस थे। नक्सलियों के पास मोर्टार और यूजीबीएल भी मौजूद था। स्थानीय मीडिया नक्सलियों के मूवमेंट की सूचनाएं भी प्रकाशित कर रहा था, लेकिन किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।

कंपनी नंबर एक का कारनामा
पुलिस मुख्यालय के सूत्रों की मानें तो इस घटना को नक्सलियों कि मिलिट्री बटालियन की कंपनी नंबर एक ने अंजाम दिया है और इस पूरे हमले का नेतृत्व नक्सली नेता सीटू ने किया है। इस इलाके की पूरी कमान वैसे तो हिड़मा के हाथों में है और हिड़मा ही इलाके में लीड करता है। लेकिन इसके अलावा अर्जुन और सीटू उर्फ सोनू भी यहां सक्रिय हैं। हिडमा और अर्जुन अन्य नक्सल हमलों के लिए वांछित हैं। यह पहले भी इस तरह की वारदातों को अंजाम दे चुके हैं। इनकी गैंग में इस वक्त महिला नक्सलियों की संख्या पुरुषों से ज्यादा है। सुकमा और इसके आसपास के इलाकों में पिछले कुछ सालों में हुए बड़े नक्सल हमले में महिला नक्सलियों ने बढ़चढ़ कर भाग लिया है।  

कल्लूरी के रहते नहीं हुई कोई बड़ी घटना
एसआरपी कल्लूरी के बस्तर आईजी रहते कोई बड़ी घटना नहीं हुई। 2014 से 2017 की शुरुआती महिनों तक लगने लगा था कि नक्सली पीछे हट रहे हैं। पूरे बस्तर में फोर्स का मूवमेंट होता रहा, लेकिन नक्सली कहीं भी बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा पाए। लेकिन कल्लूरी के हटते ही बस्तर अपने पुराने ढर्रे पर लौटता दिख रहा है। इस साल बस्तर के हालातों को लेकर 30 जनवरी को एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) के समक्ष मुख्य सचिव विवेक ढांड और गृह विभाग के प्रमुख सचिव सुब्रहमण्यम उपस्थित हुए तो उन्हें तीन घंटे तक सवालों का सामना करना पड़ा। तब ही तय हो गया था कि कल्लूरी अब बस्तर में ज्यादा दिन नहीं रह पाएंगे। कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कल्लूरी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। हालांकि दूसरी तरफ मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह का कहना था कि कल्लूरी की विदाई की एक बड़ी वजह उनकी किडनी का ट्रांसप्लांट होना है। राज्य सरकार ने कल्लूरी को रायपुर भेजने के साथ ही दंतेवाड़ा को नया डीआईजी रेंज बनाकर पी. सुंदरराज को वहां भेजा। इस रेंज में सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर जिले आते हैं लेकिन पहली बार सरकार ने इस रेंज में बस्तर के सातों जिलों को शामिल किया। लेकिन कल्लूरी के बस्तर छोड़ते ही नक्सलियों के हौंसले फिर बढ़ गए। फिर सरकार ने बस्तर में फुल टाइम आईजी के रूप में विवेकानंद सिन्हा को भेजा।   
क्या है कल्लूरी फैक्टर
शिवराम प्रसाद कल्लूरी के बस्तर आईजी रहते नक्सलियों के सूचना तंत्र की कमर पूरी तरह टूट गई थी। पुलिस ने सिविल एक्शन प्लान के तहत स्थानीय ग्रामीणों का विश्वास जीतना शुरु कर दिया था। ग्रामीणों ने पुलिस पर पूरा विश्वास जताते हुए नक्सलियों के खिलाफ ही आवाज उठाना शुरु दिया था। कल्लूरी के रहते ही जगदलपुर में अग्नि नाम से सामाजिक संगठन की शुरुआत हुई। जिसमें विभिन्न समाजों और वर्गों के लोगों ने साथ आकर नक्सलवाद के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था।
कल्लूरी की कार्यशैली को लेकर सुकमा के निवासी फारुख अली बताते हैं कि वे जुनून की हद तक काम कर रहे थे। उनकी आक्रामक कार्यशैली को देखते हुए नक्सल प्रभावित इलाके के युवा उनके साथ  खड़े हो गए थे। अक्सर वे अपने मुख्यालय जगदलपुर से आधी रात को सड़क मार्ग से सुकमा पहुंच जाते थे। कभी कोंटा तो कभी बीजापुर। उनके सतत् मूवमेंट से नक्सलियों में डर पैदा हो गया था
रंगे सियारों का रुदन
उधर बस्तर में नक्सलियों ने जवानों के लहू से धरती लाल कर दी, तो दूसरी तरफ उनके कथित समर्थकों ने अपनी-अपनी तरफ से सफाई देना भी शुरु कर दिया। दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर ने एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल पर कहा कि सीआरपीएफ के जवानों पर गंभीर आरोप लगाए। नंदिनी सुंदर का कहना था कि 2 अप्रैल को कुछ जवानों ने एक बच्ची का बलात्कार किया। एक सवाल के जबाव में नंदिनी कहती हैं कि क्या सीआरपीएफ को फ्री हैंड इसलिए कर दिया जाए कि वे बस्तर में लोगों को मारने के लिए और बलात्कार करें। वे नक्सल हमले में शहीद जवानों पर गोलमोल जवाब देती हैं। हम बताते चलें कि नंदिनी सुंदर ने ही छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ चल रहे आदिवासियों के सलवा जुडूम नामक आंदोलन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी। नंदिनी की याचिका पर ही सुनवाई करते हुई उच्चतम न्यायालय ने सलवा जुडूम पर रोक लगा दी थी। उसके बाद से ही नंदिनी सुंदर बस्तर में सक्रिय हैं। कभी उनपर नाम बदलकर बस्तर में घूमने के आरोप लगते रहे हैं तो कभी आदिवासियों को डराने-धमकाने के।

माकपा छत्तीसगढ़ के सचिव संजय पराते का कहना है कि नक्सली गतिविधियों से निपटने के लिए राज्य सरकार एक आम राजनीतिक सहमति बनाने में नाकाम रही है। इसे केवल कानून व्यवस्था की समस्या मानते हुए उसके सैन्य समाधान पर ही बल दिया गया है। इतना ही नहीं पराते का दावा यह भी है कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलनों को माओवादी कहकर कुचलने का प्रयास किया जा रहा है। माकपा नेता पराते के इस बयान से नक्सलियों के प्रति उनकी सहानुभूति साफ नजर आती है।

पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष लाखन सिंह ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर राज्य सरकार को ही कोसा है। विज्ञप्ति में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों से संबंधित कानूनों का सही अनुपालन नहीं होने के कारण इस तरह की घटनाएं हो रही हैं। 

राष्ट्रपति और पीएम ने ट्वीट कर की घटना की निंदा

सुकमा नक्सल हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, "सीआरपीएफ जवानों की बहादुरी पर हमें फख्र है, उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा।
और ज्यादा सावधानी की जरूरत- रमन सिंह-
सीएम रमन सिंह ने रायपुर पहुंच कर कहा, "जिन डिस्ट्रिक्ट में हमले हो रहे हैं, वहां नक्सलियों पर काफी प्रेशर है। जवान पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। ये काफी गंभीर घटना है और अब ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है। इस मसले पर पीएम और होम मिनिस्टर से भी बात करूंगा।"
हमले की कड़ी निंदा करता हूं- प्रणब मुखर्जी
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा, "मैं सुकमा में हुए हमले की कड़ी निंदा करता हूं। शहीदों को मेरी श्रद्धांजलि। शहीदों के परिजनों के लिए मैं संवेदनाएं जाहिर करता हूं।"
बलिदान बेकार नहीं जाना चाहिए- वेंकैया
केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने कहा, "इस हमले से दुख पहुंचा है। जवानों का बलिदान बेकार नहीं जाना चाहिए। यह बिना सोचे-समझे की गईं हत्याएं हैं।"
जवानों के बलिदान को सलाम- राहुल
सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने सुकमा हमले की निंदा की। राहुल ने कहा, "सुकमा अटैक में शहीद सीआरपीएफ जवानों के परिवारों के लिए संवेदनाएं। हम बहादुर जवानों के बलिदान को सलाम करते हैं।"

इसी पखवाड़े पहली बार आए थे एयर चीफ मार्शल
बस्तर में वायुसेना ने अपना ऑपरेशन सेंटर बना लिया है। इसके चलते बीते पखवाड़े पहली बार खुद वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल (एसीएम) बीरेंद्र सिंह धनोवा बस्तर पहुंचे थे। एयरफोर्स अफसरों व राज्य के आला पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों की बैठक लेकर तैयारियों का जायजा लिया था। बस्तर में अभी तक वायुसेना का इस्तेमाल नक्सली हमले या मुठभेड़ के दौरान रेस्क्यू ऑपरेशन में होता आया है। सूत्रों की मानें तो एसीएम ने देश के दो एएनटीएफ बेस में से एक बस्तर में तैनात गरुड़ के जवानों को नक्सल हमलों का करारा जवाब देने भी कहा है। नक्सली वायुसेना के चौपरों को निशाना बनाते रहे हैं, संभवत: इसी के मद्देनजर रणनीति बदली है। धनोवा ने वायुसेना की गस्र्ड़ बटालियन के जवानों से अलग से मुलाकात की थी। दरअसल बस्तर में एएफ बेड़े में तैनात गरुड़ और एमआई 17 श्रेणी के 6 चौपर बमबारी समेत अन्य मारक क्षमताओं से युक्त हैं, जो सुरक्षा बलों के लिए बड़े कवच के रूप में काम आते हैं। नक्सली इसलिए इन्हें लगातार निशाना बनाते रहे हैं। कुछ साल पहले सुकमा के चिंतागुफा में नक्सलियों ने एमआई 17 हेलिकॉप्टर पर गोलियां बरसाकर नीचे उतरने मजबूर कर दिया था। इसे गंभीरता से लेते हुए जांच बैठी और केंद्र सरकार ने जवाबी कार्रवाई के संबंध में समीक्षा की। ऑपरेशन सेंटर इसी दिशा में बड़ा कदम है। नक्सली इस डर से भी बौखला गए हैं।
अजीत डोभाल भी कर चुके हैं सुकमा का दौरा
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भी अक्टूबर 2015 में धुर नक्सल प्रभावित सुकमा का दौरा कर चुके हैं। सुकमा दौरे के दौरान श्री डोभाल के साथ सीआरपीएफ, आईटीबी और बीएसएफ के डीजी भी थे। पुलिस मुख्यालय में श्री डोभाल की मुख्यमंत्री डॉ रमनसिंह के साथ लगभग एक घंटे तक चर्चा हुई। इस दौरान दोनों के अलावा कोई भी मौजूद नहीं था। सुकमा में सबसे ज्यादा सीआरपीएफ के जवान तैनात हैं। इसके साथ ही नार्थ ईस्ट से विशेष प्रशिक्षण लेकर आए जवानों को भी सुकमा के नक्सली मोर्चे पर उतारा गया है। डोभाल के दौरे के बाद चर्चा यह थी कि केंद्रीय गृह मंत्रालय बारिश के बाद नक्सलियों के खिलाफ बड़े ऑपरेशन की तैयारी में है। इसका बेस कैंप सुकमा को बनाया गया है। इसी अभियान को गति देने से पहले श्री डोभाल ने एक-एक बिंदु पर रणनीति तैयार करने के लिए सुकमा आए थे।
पीएम मोदी की प्राथमिकता में है बस्तर का विकास
नरेंद्र मोदी जब 2014 में लोकसभा चुनाव के वक्त छत्तीसगढ़ और झारखंड की चुनावी सभाओं में बार-बार संदेश दिया था कि नक्सलियों को बंदूक छोड़कर मुख्य धारा में शामिल हो जाना चाहिए। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने बस्तर पहुंचकर 24 हजार करोड़ की विकास योजनाओं का शुभारंभ किया था। उनके पीएम बनने के बाद नक्सलवाद को उग्र वामपंथ के नाम से पुकारा गया। बस्तर में सड़कों का जाल बिछाने से लेकर मोबाइल टॉवर लगाने तक के कार्य तेज गति से किए जा रहे हैं। खुद मोदी पीएम बनने के बाद दो बार बस्तर जा चुके हैं।
नोटबंदी ने तोड़ी थी नक्सलियों की कमर
नोटबंदी के बाद से ही बस्तर से सूचना मिल रही थी कि इससे नक्सलियों की कमर टूट गई है। खुद केंद्र सरकार कहती आ रही है कि इससे आतंकियों और नक्सलियों को सबसे ज्यादा चोट पहुंची है। लेकिन अब नक्सली संभलने लगे हैं। इस बारे में पूर्व आईपीएस प्रकाश सिंह का कहना है कि डिमोनेटाइजेशन से नक्सलियों के पास पैसे की कमी जरूर हुई है और बैकफुट पर हैं। लेकिन वो खत्म नहीं हुए हैं। निचले कैडर के नक्सलियों का तीन-चार हजार रुपए में काम चल जाता है और खाने-पीने का सामान गांव वाले से ले लेते हैं
10 साल की बड़ी घटनाएं
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 400 किलोमीटर दूर सुकमा नक्सलियों का गढ़ माना जाता रहा है। पिछले कुछ सालों में बस्तर में माओवादी लगातार बड़े हमले करते रहे हैं और अधिकांश अवसरों पर सबसे अधिक नुकसान सीआरपीएफ को उठाना पड़ा है। एक अनुमान के मुताबिक सीआरपीएफ को बस्तर में कश्मीर की तुलना में ज्यादा नुकसान हो रहा है। सीआरपीएफ के सबसे ज्यादा जवान बस्तर में ही जान गंवा रहे है। 
1. 24 अप्रैल 2017 को सुकमा के बुर्कापाल में 25 जवान शहीद।
2. 11 मार्च 2017 को ही सुकमा जिले में इंजीराम-भेज्जी में 12 जवान शहीद ।
3. झीरम में 11 मार्च 2014 को नक्सलियों ने 15 जवानों शहीद हुए थे।
4. 25 मई 2013 को परिवर्तन यात्रा करके लौट रहे कांग्रेस के काफिले पर झीरम में नक्सलियों ने हमला कर दिया। इसमें आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 30 से अधिक लोग मारे गए थे।
5. 12 मई 2012 को सुकमा में दूरदर्शन केंद्र पर हमला, चार जवान शहीद।
6. जून 2011 को दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर एंटी लैंड माइन वाहन विकल को उड़ा दिया था। इसमें 10 पुलिसकर्मी शहीद हुए थे।
7. 16 अप्रैल 2010 में ताड़मेटला सीआरपीएफ के जवान ताड़मेटला में सर्चिंग के लिए निकले थे, जहां नक्सलियों ने बारुदी सुरंग लगाया था जिसमे 76 जवान शहीद हुए थे।
8.17 मई 2010 में जवान दंतेवाड़ा से सुकमा जा रहे थे। नक्सलियों की बारूदी सुरंग की चपेट में आने से 12 पुलिस अधिकारियों सहित 36 लोग मारे गए।
9. 29 जून 2010 में नारायणपुर जिले के धोड़ाई में सीआरपीएफ के जवानों पर नक्सलियों ने हमला किया। इस हमले में पुलिस के 27 जवान शहीद हुए थे।
10. 12 जुलाई 2009 राजनांदगांव के मानपुर में नक्सलियों ने एसपी सहित 29 पुलिस के जवान शहीद हुए थे।
11. नक्सलियों ने 15 मार्च 2007 को बीजापुर के रानीबोदली में पुलिस कैंप पर हमला। नक्सलियों ने अंधाधुंध फायरिंग की और कैंप में आग लगा दी। इस घटना में पुलिस के 55 जवान शहीद हुए थे ।
12. 9 जुलाई 2007 में एर्राबोर के उरपलमेटा में सीआरपीएफ और ज़िला पुलिस का बल नक्सलियों की तलाश कर के वापस बेस कैंप लौट रहा था. इस दल पर नक्सलियों ने हमला बोला जिसमें 23 पुलिसकर्मी शहीद हुए थे।2014 से 2017 तक कल्लूरी के रहते नहीं हुई कोई बडी घटना

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

माउंट आबू में देश का पहला मेगा ग्रीन किचन


अपनी 80वीं वर्षगांठ मना रहे माउंट आबू स्थित प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय की एक खासियत देश का पहला इको फ्रेंडली ग्रीन किचन है। जहां बगैर प्रदूषण फैलाए एक बार में चालीस हजार लोगों का खाना बनता है। इस ग्रीन किचन की खासियत यह भी है कि यहां थर्मिक फ्लूएंस इटिंग सिस्टम से खाना बनता है, जो देश में अपने आप में अनूठा है।
 

देश में स्थित बडे-बडे आध्यात्मिक संस्थानों में प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु भोजन करते है। इन श्रद्धालुओं का भोजन बनाने के लिए मेगा किचन का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन देश का एक आध्यात्मिक संस्थान ऐसा भी है, जो अपने कैंपस में आने वाले हजारों फॉलोअर्स को भोजन तो प्रदान करता ही है, लेकिन पर्यावरण का भी खास ख्याल रखता है। जी हां, हम बात कर रहे हैं माउंट आबू स्थित ब्रह्माकुमारीज़ की। जहां देश का पहला ग्रीन किचन है। 1996 से यहां सौर ऊर्जा से खाना बनाया जाता रहा है। 2012 से थर्मिक फ्लूएंस इटिंग सिस्टम का उपयोग भी होने लगा है, जिससे पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए एक समय में चालीस हजार लोगों का खाना एक साथ बनाया जाता है। यह देश का ऐसा पहला मेगा किचन है, जिसका तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से ऊपर नहीं जाता है। 


ब्रह्माकुमारीज़ के मेगा किचन की एक विशेषता यह है कि यहां भोजन बनाने वाले लोग वेतनिक कर्मचारी नहीं होते हैं, बल्कि आश्रम में ही आस्था रखने वाले फॉलोअर्स होते हैं। जो देश के कोने-कोने से पहुंचकर निस्वार्थ भाव से अपने ही जैसे फॉलोअर्स की सेवा करने पहुंचते हैं। एक ही समय में यहां हजारों रोटियां पकाई जाती हैं, सैंडविच और पराठें तैयार किए जाते हैं। किचन का माहौल बेहद आध्यात्मिक होता है, ईश्वर की याद में खाना पकाया जाता है। साथ ही स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। यहां सैंकडों ट्रकों में भरकर सब्जी आती है, जिसे कोल्ड स्टोरेज में संरक्षित करके रख लिया जाता है। फिर मेनू के मुताबिक सब्जियों की कंटाई-छंटाई कर उन्हें पकाया जाता है।
यहां आने वाले सेलिब्रिटिज़ भी ब्रह्माकुमारिज़ के मेगा किचन को देखकर दंग रह जाते हैं। मेगा किचन के विहंगम दृश्य को देखकर राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन भी इसकी तारीफ किए बगैर नहीं रह पाए।

जब आप माउंट आबू आएं तो ब्रह्माकुमारिज़ जरूर आएं। एक आध्यात्मिक संस्थान किस तरह लाखों लोगों को जीवन जीने की कला सिखाने के साथ-साथ प्रकृति और पर्यावरण का संरक्षण करना भी सिखाता है, यह देखना आपके लिए  अद्भुत और बिरला अनुभव साबित होगा।

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

अध्यात्म के साथ पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता ब्रह्माकुमारीज़ संस्थान

-देश में कई आध्यात्मिक संस्थान हैं, जो अपने अनुयायियों को ईश्वर से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। लेकिन इन सबमें प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय अपने आप में अनूठा है। ब्रह्माकुमारीज़ संस्थान अपने अनुयायियों ना केवल परमात्मा से तो जोड़ता है, बल्कि वर्षों से विश्व को पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी दे रहा है। जब देश में किसी ने नहीं सोचा था कि आने वाले समय में पानी को बचाने की मुहिम भी चलानी पड़ेगी। वेस्टेज़ वॉटर को रिसाइकिल भी करना पड़ेगा। तब आबू रोड़ स्थित ब्रह्माकुमारीज़ संस्थान ने इस दिशा में काम करना शुरु कर दिया था। आज से 12 वर्ष पूर्व संस्थान ने आबू रोड़ पर सीवेज वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट की शुरुआत की। जहां उस पानी को पुनः उपयोगी बनाया जाता है, जो शांतिवन में रहने वाले समर्पित भाई-बहनों और देश भर से आने वाले हजारों अनुयायियों के दैनिक कार्यों में इस्तेमाल होने के बाद सीवेज में चला जाता है। सीवेज प्लांट में प्रतिदिन 30 लाख लीटर पानी रिसाइकिल किया जा सकता है। 

ब्रह्माकुमारीज़ के सीवेज वाटर ट्रीटमेंट प्लांट में पांच चरणों में पानी के शुद्धीकरण की प्रक्रिया की जाती है। सबसे पहले पानी शांतिवन स्थित अंडरग्राउंड टैंक में संग्रहित होता है। इस टैंक में ऑटोमेटिक पंप लगा हुआ है, जब टैंक भर जाता है, तब स्वचालित पंप पानी को ट्रीटमेंट प्लांट के टैंक में भेज देता है। यहां अलग-अलग क्षमता वाले टैंकों में एरियेटर पद्धति से पानी का शुद्धीकरण किया जाता है। अंत में पानी को क्लोरीन द्वारा भी साफ किया जाता है।


सीवेज वॉटर ट्रीटमेंट में रिसाइकिल होने के बाद पानी को भवन निर्माण कार्यों और बाग-बागीचों में इस्तेमाल किया जाता है। इससे हजारों लीटर पानी की रोजाना बचत होती है। साथ ही शांतिवन के अलावा ब्रह्माकुमारीज़ के अन्य कैम्पस भी हरियाली से आच्छादित रहते हैं। बहरहाल जब पूरी दुनिया पानी को लेकर हाहाकार कर रही है, ऐसे वक्त में प्रतिदिन हजारों लोगों का अपने परिसर में स्वागत करने के बाद भी ब्रह्माकुमारीज़ अपने वॉटर मैनेजमेंट के कारण अनूठी मिसाल पेश कर रही है।

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

अंधविश्वास फैलाते चर्च!





छत्तीसगढ़ का पिछड़ा और वनवासी इलाका है जशपुर। झारखंड और ओडिसा दोनों ही राज्यों की सीमाएं जशपुर से लगी हुई हैं। यहां पहाड़ी कोरवा, बिरहोर, नगेशिया उरांव इत्यादि वनवासियों का संरक्षित जनजातियां निवास करती हैं। लीची, आलू, आम जैसे खाद्य पदार्थ यहां बहुतायात में होते हैं। लेकिन इनकी पैदावार का कोई खास फायदा यहां के वनवासियों को नहीं मिलता, यही कारण है कि यहां गरीबी, अशिक्षा, पलायन, मानव तस्करी जैसी समस्याओं से अमूमन हर वनवासी ग्रस्त है। उनकी इन्हीं परेशानी का फायदा यहां काम कर रही मिशनरीज़ उठाती हैं। धर्मांतरण यहां जोरों पर है। लेकिन इस बार मेरी जशपुर यात्रा में एक नया तथ्य सामने आया। वह यह कि चर्च यहां अंधविश्वास भी फैला रहे हैं। आमतौर पर उन्मुक्त जीवन जीने वाले वनवासी शुभ-अशुभ के फेर में नहीं पड़ते। उनका जीवन प्रकृति की लय के साथ निर्बाध चलने वाला है, उनके विचारों या मन में कभी किसी भी तरह का भय नहीं रहा। लेकिन स्थानीय चर्च वनवासियों के मन में अब अच्छी-बुरी आत्माओं के नाम से एक नया डर पैदा करने में सफल हो रही है। जशपुर के बगीचा ब्लॉक के पंडरीपानी गांव में घुसते ही आपको दो रंग के मकान दिखाई देते हैं। यहां के अधिकांश मकानों की पुताई काले रंग से की गई है। पूछने पर पता चला कि इन मकानों को बुरी आत्माओं की नजर से बचाने के लिए काले रंग से पोता गया है। यह चौंकाने वाली बात थी। मैंने फिर पूछा कि वनवासी कब से इस तरह की बातों में यकीन करने लगे, वे तो जंगलों में उन्मुक्त जीवन जीने के आदी हैं। मुझे अपना बस्तर का एक अनुभव भी याद आया, जब मैंने एक बार एक वनवासी बंधु से पूछा कि उन्हें रात में जंगलों में डर नहीं लगता। उसका जबाव था कि हम प्रकृति की संतान हैं, हमें किसी का डर नहीं। हमारी जीवनशैली में किसी भी प्रकार के भय का कोई स्थान ही नहीं है। बस्तर के उस वनवासी बंधु की बात से बिलकुल उलट जशपुर में नजर आ रहा है। मेरे साथ मौजूद स्थानीय व्यक्ति ने बताया कि दरअसल  इस क्षेत्र में उरांव जनजाति के अधिकांश वनवासियों का धर्मांतरण हो चुका है, वे सभी ईसाई मतावलंबी हो चुके हैं। वे सभी अपने घरों को काले रंग से ही पोतते है, ताकि बुरी शक्तियां उनके घर से दूर रहें। अन्य वनवासी जो चर्च नहीं जाते, वे सामान्य रंगों से घर की पुताई करते हैं। आप कल्पना कीजिए की पंडरीपानी गांव...काले रंग के मकानों से भरा पड़ा है, तो वो कैसा दिखाई देता होगा। यह एक तरह से वनवासी बंधुओं के जीवन के रंग छीन लेने जैसा है। कहां तो वे प्राकृतिक रंगों से घरों की दीवारों को सजाते संवारते रहे हैं, और कहां.. वे काले रंग के घरों में कैद होकर रह गए हैं। जब हमने स्थानीय चर्च से बात करना चाही तो उन्होंने इस पर कुछ भी टिप्पणी करने से इंकार कर दिया। 



शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

आज भी हाशिए पर हैं 'छोरियों' की माएंं



मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर में प्रदेश का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल स्थित है, नाम है महाराजा यशवंतराव चिकित्सालय। स्थानीय लोग इसे एमवाय के नाम से पुकारते हैं, जो इसके नाम का संक्षिप्तिकरण है। अस्पताल की पहली मंजिल पर प्रसूति विभाग है। गर्भवती महिलाओं का क्रंदन, मरीजों की भीड़, नर्सों और डॉक्टरों की आपाधापी, बच्चे चुराने वाले संदिग्धों की पड़ताल... एक तरफ आयाबाई के चिल्लाने का शोर, तो दूसरी तरफ मरीजों को लगभग चीखते हुए हिदायतें देती नर्सों की आवाजें। इन सबके बीच आपको ऐसा लगता है कि बस सर फटने को है। लेकिन इन सबके बीच पहुंचकर ही आधी आबादी की फजीहत आपको दिखाई दे सकती है। इन सबके बीच पहुंचकर ही पता चलता है कि महिलाओं की तरक्की के दावे कितने खोखले हैं। इन सबके बीच जाकर ही पता चलता है कि वक्त अभी भी 20वीं सदी में ही थमा हुआ है, जहां बच्चा जनने का, परिवार नियोजन का और मां बनने के निर्णय का अधिकार अब भी पुरुषों के ही पास है। महिलाओं की उनमें कोई भागीदारी नहीं है।

एमवाय की पहली मंजिल पर ही ऑपरेशन थियेटर हैं, जहां जटिल केस में सीजर के जरिए बच्चों को दुनिया में लाया जाता है। हालांकि हर महिला यही चाहती है कि उसकी डिलीवरी नार्मल हो, लेकिन आपात स्थिति में मजबूरन चिकित्सकों को ऑपरेशन के जरिए कुछ महिलाओं का प्रसव करवाना ही पड़ता है। इसी मंजिल पर इंटेसिव केयर यूनिट यानि आईसीयू है, जहां ऑपरेशन के बाद प्रसूता को कम से कम एक दिन ऑबजर्वेशन के लिए रखा जाता है। मुझे यहीं हेमलता (बदला हुआ नाम) मिली, icu में कम से कम 10 महिलाएं भर्ती थीं, लेकिन हेमलता उनमें से ऐसी अकेली प्रसूता थी, जिसे ऑपरेशन के बाद दर्द सहन नहीं हो रहा था। वह बार-बार चीख रही थी। उसके आसपास उसकी महिला रिश्तेदार तो थीं, पर कोई उसे सांत्वना देता दिखाई नहीं दे रहा था। हर 10 मिनट पर दर्द से हेमलता चीख रही थी, उससे दूसरे मरीजों को परेशानी तो हो रही थी, लेकिन सबसे ज्यादा परेशान नर्सिंग स्टाफ था। जो उसे कभी दवाओं के जरिए तो कभी डांट-डपटकर चुप कराने की कोशिश कर रहा था। पहले तो मुझे समझ नहीं आया कि हेमलता ही सबसे अधिक कष्ट में क्यों है, फिर मुझे वहां की एक नर्स ने बताया कि दरअसल इसे दूसरी बार लड़की हुई है, केवल इसी बात से वह पीड़ा में है। मैंने नर्स से पूछा कि ऐसा भी होता है क्या। तो नर्स केवल मुस्कुरा कर आगे बढ़ गई। फिर दिनभर बारीकी से देखने पर मुझे समझ आ गया कि वाकई हेमलता को असल कष्ट इसी बात का था कि वह फिर एक बेटी की मां बन गई। इस कष्ट में उनसे दिन भर अपनी बेटी को एक बार भी नहीं पुचकारा..ना ही अपना दूध ही पिलाया। उसके साथ आई महिलाएं भी उससे बहुत रूखा व्यवहार कर रही थीं। जब हेमलता की मां और भाई उससे मिलने पहुंचे तो उसके मन का गुब्बार सामने आ गया। वह बस रोते हुए एक ही बात दोहराती रही कि उसे “‘छोरी क्यों हुई गई”?

सुमन भी इसी ICU में मुझे मिली। ऑपरेशन के बाद से ही वह लगातार बेहोशी की हालत में थी। उसके शिशु को उसकी बूढ़ी मां संभाल रही थी, शिशु भूख से बिलख रहा था, लेकिन सुमन उसे दूध पिलाने की स्थिति में नहीं थी। बगैर पढ़ी-लिखी, बूढ़ी नानी इतना नहीं जान पा रही थी कि बच्चे को ऊपर का दूध भी पिलाया जा सकता है, वह केवल बार-बार अपनी बेटी को उठाने का प्रयास कर रही थी, ताकि बच्चे को मां का दूध मिल सके। कुछ देर बाद सुमन का पति वहां पहुंचा, मैंने उससे बात करने की गरज से पूछा कि पहला बच्चा है क्या? लेकिन मुझे मेरे सवाल का जो धाऱाप्रवाह जबाव मिला, उसे सुनकर मेरा यहा भ्रम टूट गया कि महिलाएं अब सशक्त हैं, वह सक्षम बन रही हैं। सुमन का पति. जिसकी उम्र 30 साल के आसपास रही होगी, बोला-मैडम जी, तीसरा बच्चा है यह हमारा। पहले से दो छोरियां थीं, यह तीसरी हो गई। लेकिन हमने नसबंदी कोनी कराई। कल डॉक्टर मैडम नसबंदी को लेकर अड़ गई थीं, कि तीसरा बच्चा है, नसबंदी का फॉर्म भरो, तभी ऑपरेशन होगा। वह बड़े गर्व से बता रहा था कि पूरे पांच घंटे डॉक्टरनी ने हमें तपाया, लेकिन मैंने फार्म नहीं भरा, तो नहीं भरा। अच्छी जबरदस्ती है नसबंदी करवाने की। मैंने जब हामी नहीं दी तो डॉक्टर को मजबूरी में ऑपरेशन कर जचकी करवानी ही पड़ी। अरे अभी तो लड़का आएगा, तब करवाएंगे नसबंदी। पर मैंने पूछा कि पांच घंटे तो तुम्हारी पत्नी को बड़ी तकलीफ हुई होगी, तो वह बेशर्मी से बोला कि बेटा पाने के लिए तकलीफ तो उठानी ही पडेगी ना। उसका जबाव सुनकर फिर मेरा यह पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई कि बेटा तो तुम्हें चाहिए ना, तुम्हारी पत्नी को तो केवल बच्चा ही चाहिए होगा, चाहे बेटा हो या बेटी। मुझे आश्चर्य भी हुआ कि पत्नी बच्चा पैदा करने के बाद से ही बेहोश है, लेकिन पति को उसकी हालत से कोई मतलब नहीं है, वह तो अभी से चौथा बच्चा दुनिया में लाने का सपना देखने में व्यस्त है।
संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1990 में जहां प्रति एक लाख शिशु जन्म पर मातृ मृत्यु दर 569 थी, वह  2013 में कम हो कर 190 रह गई है।
बीते दो दशकों में इसमें करीब 65 फीसदी की कमी आई है, लेकिन इसके बाद भी प्रसव संबंधी परेशानियों और प्रसव के दौरान दुनिया भर में होने वाली मृत्यु में भारत की हिस्सेदारी 17 फीसदी है। अर्थात भारत इस मामले में शीर्ष पर है। इसके बाद 14 फीसदी के साथ नाइजीरिया का स्थान है। पिछले वर्ष वैश्विक मातृ मृत्यु के एक तिहाई मामले अकेले नाइजीरिया और भारत में आए।
 देश में 2013 में प्रति एक लाख शिशु जन्म पर मातृ मृत्यु का 190 का आंकड़ा भी भारत सरकार के लक्ष्य से काफी ज्यादा है। भारत में प्रति वर्ष 26 मिलियन प्रसव होते हैं, इतनी तादाद में महिलाओं की मृत्यु चिंताजनक है। मौत की वजह स्वास्थ्य सेवाओं का पर्याप्त न होना, प्रसव के दौरान ज्यादा खून बहना और संक्रमण तथा प्रिगनेंसी के दौरान उच्च रक्त चाप का बना रहना है। वहीं शिशु जन्म के पहले या दौरान या बाद में उचित देखभाल नहीं होना भी मातृ मृत्यु का कारण बनता है। मातृ मृत्यु में उन मौतों को शामिल किया जाता है, जो प्रिगनेंसी के दौरान या शिशु के जन्म के 42 दिन के भीतर होती हैं। इसे रोकने का कारगर तरीका यही है कि शिशु का जन्म अस्पतालों में कराया जाए, परंतु देश में न तो पर्याप्त अस्पताल हैं और न ही पर्याप्त स्वास्थ्य कर्मी। दूर दराज के इलकों में तो हालात और भी खराब हैं।
 ....खैर जाते-जाते यह बताना जरूरी है कि जिन यशवंतराव होलकर के नाम से इंदौर के सरकारी अस्पताल का नामकरण किया गया है, वे एक ऐेसे वीर योद्धा थे, जिनकी तुलना विश्या इतिहासशास्त्री एन एस इनामदार ने नेपोलियन से की थी। यशवंतराव मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज थे। उनका जन्म 1776 में हुआ था। इनके पिता थे तुकोजीराव होलकर। एक ऐसा भारती शासक, जिसने अकेले दम पर अंग्रेजों को दांत खट्टे कर दिए। अकमात्र ऐसा भारतीय शासक जिसके साथ अंग्रेज बिना शर्त समझौता करने को तैयार थे। बार-बार अपनों से ही धोखा खाने के बाद भी जिसने जंग के मैदान में हिम्मत नहीं हारी और केवल 35 वर्ष की आयु में दुनिया से विदा होकर विशव के इतिहास में अमर हो गए।