मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी
इंदौर में प्रदेश का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल स्थित है, नाम है महाराजा यशवंतराव चिकित्सालय।
स्थानीय लोग इसे ‘एमवाय’ के नाम से पुकारते हैं, जो इसके नाम का संक्षिप्तिकरण है। अस्पताल
की पहली मंजिल पर प्रसूति विभाग है। गर्भवती महिलाओं का क्रंदन, मरीजों की भीड़,
नर्सों और डॉक्टरों की आपाधापी, बच्चे चुराने वाले संदिग्धों की पड़ताल... एक तरफ
आयाबाई के चिल्लाने का शोर, तो दूसरी तरफ मरीजों को लगभग चीखते हुए हिदायतें देती
नर्सों की आवाजें। इन सबके बीच आपको ऐसा लगता है कि बस सर फटने को है। लेकिन इन
सबके बीच पहुंचकर ही आधी आबादी की फजीहत आपको दिखाई दे सकती है। इन सबके बीच
पहुंचकर ही पता चलता है कि महिलाओं की तरक्की के दावे कितने खोखले हैं। इन सबके
बीच जाकर ही पता चलता है कि वक्त अभी भी 20वीं सदी में ही थमा हुआ है, जहां बच्चा
जनने का, परिवार नियोजन का और मां बनने के निर्णय का अधिकार अब भी पुरुषों के ही
पास है। महिलाओं की उनमें कोई भागीदारी नहीं है।
एमवाय की पहली मंजिल पर ही ऑपरेशन
थियेटर हैं, जहां जटिल केस में सीजर के जरिए बच्चों को दुनिया में लाया जाता है।
हालांकि हर महिला यही चाहती है कि उसकी डिलीवरी नार्मल हो, लेकिन आपात स्थिति में
मजबूरन चिकित्सकों को ऑपरेशन के जरिए कुछ महिलाओं का प्रसव करवाना ही पड़ता है।
इसी मंजिल पर इंटेसिव केयर यूनिट यानि आईसीयू है, जहां ऑपरेशन के बाद प्रसूता को
कम से कम एक दिन ऑबजर्वेशन के लिए रखा जाता है। मुझे यहीं हेमलता (बदला हुआ नाम)
मिली, icu में कम से कम 10 महिलाएं भर्ती
थीं, लेकिन हेमलता उनमें से ऐसी अकेली प्रसूता थी, जिसे ऑपरेशन के बाद दर्द सहन
नहीं हो रहा था। वह बार-बार चीख रही थी। उसके आसपास उसकी महिला रिश्तेदार तो थीं,
पर कोई उसे सांत्वना देता दिखाई नहीं दे रहा था। हर 10 मिनट पर दर्द से हेमलता चीख
रही थी, उससे दूसरे मरीजों को परेशानी तो हो रही थी, लेकिन सबसे ज्यादा परेशान
नर्सिंग स्टाफ था। जो उसे कभी दवाओं के जरिए तो कभी डांट-डपटकर चुप कराने की कोशिश
कर रहा था। पहले तो मुझे समझ नहीं आया कि हेमलता ही सबसे अधिक कष्ट में क्यों है,
फिर मुझे वहां की एक नर्स ने बताया कि दरअसल इसे दूसरी बार लड़की हुई है, केवल इसी
बात से वह पीड़ा में है। मैंने नर्स से पूछा कि ऐसा भी होता है क्या। तो नर्स केवल
मुस्कुरा कर आगे बढ़ गई। फिर दिनभर बारीकी से देखने पर मुझे समझ आ गया कि वाकई
हेमलता को असल कष्ट इसी बात का था कि वह फिर एक बेटी की मां बन गई। इस कष्ट में
उनसे दिन भर अपनी बेटी को एक बार भी नहीं पुचकारा..ना ही अपना दूध ही पिलाया। उसके
साथ आई महिलाएं भी उससे बहुत रूखा व्यवहार कर रही थीं। जब हेमलता की मां और भाई
उससे मिलने पहुंचे तो उसके मन का गुब्बार सामने आ गया। वह बस रोते हुए एक ही बात
दोहराती रही कि उसे “‘छोरी’ क्यों हुई गई”?
सुमन भी इसी ICU में मुझे मिली। ऑपरेशन के बाद से ही वह लगातार बेहोशी की हालत में
थी। उसके शिशु को उसकी बूढ़ी मां संभाल रही थी, शिशु भूख से बिलख रहा था, लेकिन
सुमन उसे दूध पिलाने की स्थिति में नहीं थी। बगैर पढ़ी-लिखी, बूढ़ी नानी इतना नहीं
जान पा रही थी कि बच्चे को ऊपर का दूध भी पिलाया जा सकता है, वह केवल बार-बार अपनी
बेटी को उठाने का प्रयास कर रही थी, ताकि बच्चे को मां का दूध मिल सके। कुछ देर
बाद सुमन का पति वहां पहुंचा, मैंने उससे बात करने की गरज से पूछा कि पहला बच्चा
है क्या? लेकिन मुझे मेरे सवाल का जो
धाऱाप्रवाह जबाव मिला, उसे सुनकर मेरा यहा भ्रम टूट गया कि महिलाएं अब सशक्त हैं,
वह सक्षम बन रही हैं। सुमन का पति. जिसकी उम्र 30 साल के आसपास रही होगी, बोला-“मैडम जी, तीसरा बच्चा है यह हमारा। पहले से दो छोरियां थीं, यह
तीसरी हो गई। लेकिन हमने नसबंदी कोनी कराई। कल डॉक्टर मैडम नसबंदी को लेकर अड़ गई
थीं, कि तीसरा बच्चा है, नसबंदी का फॉर्म भरो, तभी ऑपरेशन होगा।“ वह बड़े गर्व से बता रहा था कि “पूरे पांच घंटे डॉक्टरनी ने हमें तपाया, लेकिन मैंने फार्म नहीं
भरा, तो नहीं भरा। अच्छी जबरदस्ती है नसबंदी करवाने की। मैंने जब हामी नहीं दी तो
डॉक्टर को मजबूरी में ऑपरेशन कर जचकी करवानी ही पड़ी। अरे अभी तो लड़का आएगा, तब
करवाएंगे नसबंदी।“ पर मैंने पूछा कि पांच घंटे तो
तुम्हारी पत्नी को बड़ी तकलीफ हुई होगी, तो वह बेशर्मी से बोला कि बेटा पाने के
लिए तकलीफ तो उठानी ही पडेगी ना। उसका जबाव सुनकर फिर मेरा यह पूछने की हिम्मत ही
नहीं हुई कि बेटा तो तुम्हें चाहिए ना, तुम्हारी पत्नी को तो केवल बच्चा ही चाहिए
होगा, चाहे बेटा हो या बेटी। मुझे आश्चर्य भी हुआ कि पत्नी बच्चा पैदा करने के बाद
से ही बेहोश है, लेकिन पति को उसकी हालत से कोई मतलब नहीं है, वह तो अभी से चौथा
बच्चा दुनिया में लाने का सपना देखने में व्यस्त है।
संयुक्त राष्ट्र और विश्व
स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1990 में जहां प्रति एक लाख शिशु जन्म पर मातृ मृत्यु दर 569 थी, वह 2013 में कम हो कर 190 रह गई है।
बीते दो दशकों में इसमें करीब 65 फीसदी की कमी आई है, लेकिन इसके बाद भी प्रसव संबंधी परेशानियों और प्रसव के दौरान
दुनिया भर में होने वाली मृत्यु में भारत की हिस्सेदारी 17 फीसदी है। अर्थात भारत इस मामले में शीर्ष पर है। इसके बाद 14 फीसदी के साथ नाइजीरिया का स्थान है। पिछले वर्ष वैश्विक मातृ
मृत्यु के एक तिहाई मामले अकेले नाइजीरिया और भारत में आए।
देश में 2013 में प्रति एक लाख शिशु जन्म पर मातृ मृत्यु का 190 का आंकड़ा भी भारत सरकार के लक्ष्य से काफी ज्यादा है। भारत में
प्रति वर्ष 26 मिलियन प्रसव होते हैं, इतनी तादाद में महिलाओं की मृत्यु चिंताजनक है। मौत की वजह
स्वास्थ्य सेवाओं का पर्याप्त न होना, प्रसव के दौरान ज्यादा खून बहना और संक्रमण तथा प्रिगनेंसी के
दौरान उच्च रक्त चाप का बना रहना है। वहीं शिशु जन्म के पहले या दौरान या बाद में
उचित देखभाल नहीं होना भी मातृ मृत्यु का कारण बनता है। मातृ मृत्यु में उन मौतों
को शामिल किया जाता है, जो प्रिगनेंसी के दौरान या शिशु
के जन्म के 42 दिन के भीतर होती हैं। इसे रोकने
का कारगर तरीका यही है कि शिशु का जन्म अस्पतालों में कराया जाए, परंतु देश में न तो पर्याप्त अस्पताल हैं और न ही पर्याप्त
स्वास्थ्य कर्मी। दूर दराज के इलकों में तो हालात और भी खराब हैं।
....खैर जाते-जाते यह बताना जरूरी है कि जिन यशवंतराव होलकर
के नाम से इंदौर के सरकारी अस्पताल का नामकरण किया गया है, वे एक ऐेसे वीर योद्धा थे, जिनकी तुलना विश्या इतिहासशास्त्री एन एस इनामदार ने नेपोलियन से की थी। यशवंतराव मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज थे। उनका जन्म 1776 में हुआ था। इनके पिता थे तुकोजीराव होलकर। एक ऐसा भारती शासक, जिसने अकेले दम पर अंग्रेजों को दांत खट्टे कर दिए। अकमात्र ऐसा भारतीय शासक जिसके साथ अंग्रेज बिना शर्त समझौता करने को तैयार थे। बार-बार अपनों से ही धोखा खाने के बाद भी जिसने जंग के मैदान में हिम्मत नहीं हारी और केवल 35 वर्ष की आयु में दुनिया से विदा होकर विशव के इतिहास में अमर हो गए।
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