देश के
बड़े राजनीतिक घराने हों या छत्तीसगढ़ जैसे छोटे प्रदेश के कुनबे, बेटियों के लिए
किसी के पास रोडमैप नहीं है। नेताओं की राजनीतिक विरासत पर पहला हक केवल उनके बेटों,
भाईयों, भतीजों और बीवीयों का हैं। बेटियों का नंबर या तो बाद में आता है, या आता
ही नहीं है।
इसका ताजा उदाहरण बिहार
है। बिहार में महागठबंधन की जीत के साथ ही इस बात की चर्चा तेज हो चुकी है कि लालू
प्रसाद यादव की बेटी डिप्टी सीएम बन सकती हैं, लेकिन अगर उनके भाई तेजस्वी यादव से
इस डिप्टी सीएम की रेस में आगे निकल पाईं तों। लेकिन तेजस्वी के होते मीसा के
डिप्टी सीएम बनने के आसार कम ही नज़र आ रहे हैं, भले ही मीसा अपने भाई तेजस्वी से
उम्र में बड़ी हैं, चुनाव कैम्पेन में उन्होंने अपने भाई से ज्यादा मेहनत की हो।विधानसभा
चुनाव में मीसा आरजेडी की स्टार कैंपेनर थीं। वे लालू यादव के नौ बेटे-बेटियों में
सबसे बड़ी हैं। पेशे से एमबीबीएस डॉक्टर हैं। आखिर क्यों, केवल इसलिए कि बेटी
हैं...बेटा नहीं। मीसा के बहाने आईए छत्तीसगढ़ की राजनीतिक विरासत की पड़ताल की
जाए।
बेटियों के पराया धन
होने की अवधारणा सभ्य और पढ़े-लिखे समाज में आज भी कायम है। उनमें भी, जो समाज,
जाति, क्षेत्र या देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इसका उदाहरण राजनीति में देखा
जा सकता है। जैसे देश के कई बड़े राजनीतिक घरानों ने अपनी बेटियों को राजनीति से
अनछुआ रखा..या उन्हें केवल उतना ही बढ़ाया कि वे अपने घर के किसी पुरुष (खासकर भाई
से) से आगे ना निकल पाएं..ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़ के राजनेता भी अपनी राजनीतिक
विरासत बेटियों को नहीं सौंपना चाहते। उनके बेटे, भाई, भतीजे और पत्नियां ही उनकी
उत्तराधिकारी हैं। ऐसे एक नहीं दर्जनों उदाहरण हैं, जो ये साबित करते हैं कि आज भी
राजनीति की राहें बेटियों के लिए नहीं खुली हैं। वैसे तो छत्तीसगढ का इतिहास महज़
पंद्रह साल पुराना है। लेकिन कभी अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा रहे धान के कटोरे
की राजनीति भी हमेशा पुरुषों के इर्दगिर्द ही सिमटी रही। दिलचस्प तथ्य ये कि आज भी
छत्तीसगढ़ के सुदूर अंचलों में महिलाओं का दर्जा पुरुषों से ऊंचा है। आज भी देश और
दुनिया की हलचल से दूर रहने वाले आदिवासी समुदाय मातृसत्तामक समाज को जिंदा रखे
हुए हैं। इतना ही नहीं देश में दक्षिण से उत्तर की तरफ बढ़ते हुए छत्तीसगढ़ ही एक
ऐसा राज्य मिलता है, जो स्त्री पुरुष जनसंख्या अनुपात में दक्षिण के राज्यों को
टक्कर देता हुआ नज़र आता है। केरल, पुडुचेरी, आंध्र, तमिलनाडु के बाद छत्तीसगढ़
पांचवां ऐसा राज्य है। जहां प्रति हजार पुरुष पर 991 स्त्रियां हैं। आदिवासी
समुदायों में तो ये अनुपात शत-प्रतिशत है। लेकिन छत्तीसगढ़ की ये उपलब्धि भी
राजनीति के कपाट बेटियों के लिए नहीं खोल पाई।
बात सूबे के मुखिया
से शुरु करते हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के परिवार में एक बेटा
अभिषेक और एक बेटी अस्मिता हैं। सीएम अभी अपना ध्यान अपने बेटे अभिषेक सिंह पर
फोकस कर रहे हैं। अभिषेक पहले विधानसभा चुनाव में पिता के लिए मैदान संभालते रहे।
फिर लोकसभा चुनाव लड़कर सासंद बन चुके हैं। लेकिन इसके उलट उनकी बहन अस्मिता सिंह
ने कभी चुनाव प्रचार तक में रुचि नहीं दिखाई। अस्मिता शादी करके अपना घर बसा चुकी
हैं। फिलहाल वे अपने डॉक्टर पति के साथ प्रैक्टिस कर रही हैं। अस्मिता डेंटिस्ट
हैं और अपने प्रोफेशन में खुश हैं। राजनीति में आने के बारे में ना तो कभी उनके परिवार ने सोचा
ना ही उन्होंने कभी इसकी इच्छा जताई। मुख्यमंत्री के एक करीबी भाजपा नेता कहते
हैं,”रमन सिंह ने कभी अपने बच्चों पर दबाव नहीं बनाया
कि वे किस फील्ड में अपना करियर बनाएं। उन्होंने सबकुछ अपने बच्चों की मर्जी पर ही
छोड़ दिया था। ऐसे में अभिषेक ने जहां इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई की, वहीं
अस्मिता ने पिता के नक्शेकदम पर ही चलते हुए चिकित्सा को अपना पेशा चुना। हालांकि
रमन सिंह आयुर्वेद के चिकित्सक हैं। अस्मिता ने दंत चिकित्सा की पढ़ाई की। अब वे
डेंटिस्ट हैं और रायपुर में ही अपने पति के साथ खुश हैं। (उनके पति भी चिकित्सक
हैं।) अभिषेक ने बाद में ये खुद तय किया कि वे राजनीति में आकर अपने पिता का हाथ
बंटाना चाहते हैं।”सीएम हाउस में पदस्थ
एक अफसर नाम ना छापने की शर्त पर बताते हैं कि ” ये बात
अलग है कि अभिषेक ने राजनीति को दिल से स्वीकार नहीं किया। वे बेहद साफ सुथरे
इंसान हैं। लेकिन उनके साथ मजबूरी ये है कि उनके पिता एक प्रदेश के मुख्यमंत्री
हैं। ऐसे में ना चाहते हुए भी उन्हें अपने पिता की मदद करने के लिए राजनीति में
आना पड़ रहा है। वे कहते हैं कि यदि कोई उन्हें ये कह दे कि तुम अपना बिजनेस शुरु
करो तो वे राजनीति के बजाए उसे प्राथमिकता देंगे।”
रायपुर से छह बार के
लोकसभा सासंद और अभी लोकसभा में भाजपा सांसदों के मुख्य सचेतक रमेश बैस की भी दो
बेटियां और एक बेटा हैं। हालांकि बेटा रितेश भी फिलवक्त तक राजनीति से दूर है।
इसका कारण उसका अपने रियल स्टेट के बिजनेस में व्यस्त होना है। लेकिन इतने लंबे और
कहा जाए तो सफल राजनीतिक करियर वाले बैस की दोनों बेटियां भी शादी के बाद ससुराल
में व्यस्त हो चुकी हैं। रमेश बैस की बड़ी बेटी जयश्री सिंघोरे मध्यप्रदेश के
मंडला में ब्याही हैं और गृहस्थी में रम गई हैं। वहीं छोटी बेटी राजश्री कटियार इस
दिनों अपने आईपीएस पति के साथ दिल्ली में रह रही हैं। राजश्री लेखन से जुड़ी हुई
हैं। पिछले दिनों ही उनकी एक किताब प्रकाशित हुई है, जो देश के अलग-अलग अंचलों की
महिलाओं के रहन सहन पर आधारित है। दोनों का राजनीति से दूर तक कोई लेना देना नहीं
रहा। हालांकि बैस की पत्नी जरूर चुनाव में अपने पति के लिए जनसंपर्क करती नज़र आती
रही हैं। लेकिन बेटियों का इससे कोई वास्ता नहीं रहा। बैस के एक निकट संबंधी बताते
हैं, “उनके तीनों बच्चों की ही राजनीति में कोई रूचि
नहीं रही है। हालांकि बेटा देर सबेर राजनीति में आ ही जाएगा क्योंकि उसके पिता का
पूरा जीवन ही राजनीति को समर्पित रहा है। बैस छत्तीसढ़ के एक बड़े पिछड़े वर्ग का
प्रतिनिधित्व करते हैं,(बैस कुर्मी समाज के हैं। कुर्मी छत्तीसगढ़ में आदिवासियों
और साहू समाज के बाद तीसरा बड़ा समुदाय है जो चुनावों को प्रभावित करता है।) ऐसे
मे स्वाभाविक है कि उनकी राजनीतिक विरासत उनका बेटा संभालेगा, लेकिन बेटियों को
बैस परिवार ने राजनीति से हमेशा दूर ही रखा।”
छत्तीसगढ़ के कृषि
मंत्री चद्रशेखर साहू भी अपने बेटे उत्पल को आगे बढ़ा रहे हैं। उत्पल ने भारतीय
जनता युवा मोर्चा के तहत अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। उनका दूसरा बेटा नीलेश अपनी
पुश्तैनी खेती-बाड़ी संभाल रहा है। लेकिन उनकी बेटी श्रीमा
ने मैनेजमेंट की पढ़ाई की है। लेकिन उनके राजनीति में आने के कोई संकेत नहीं दिख
रहे हैं। हुए साहू कहते हैं, “ये तो
खुद की इच्छा पर निर्भर है कि कौन राजनीति में आना चाहता है कौन नहीं”। श्रीमा कहती हैं, “ मैं पापा के चुनाव अभियान में हिस्सा ले लेती
हूं। लेकिन राजनीति में मेरी कोई रुचि नहीं है। हां, अगर जरूरत पड़ी, परिजनों ने
दबाव बनाया तो सोचूंगी।”
अविभाजित मध्यप्रदेश
के पूर्व वन मंत्री और कांग्रेस के आदिवासी नेता शिव नेताम की मानें तो,” बच्चे जो करियर चुनना चाहें वे स्वतंत्र हैं।
लेकिन लड़कियों का राजनीति में आगे आना सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर करता है। इतना
तो जरूर है कि लड़कियों को माहौल और अवसर नहीं मिल पाते। दूसरा एक कारण ये भी है
कि भले ही आम आदमी हो या नेता, सभी को अपनी बेटियों की शादी की चिंता पहले होती
है, उसके करियर की बाद में। वैसे भी जब तक ससुराल से सहमति और सहयोग ना मिले,
लड़कियां राजनीति कर भी नहीं सकती। सामाजिक परिवर्तन होने में पीढ़ियां लग जाती
हैं। अभी इसमें और वक्त लगेगा।” नेताम
की भी तीन बेटियां हैं। नेताम कांग्रेस का आदिवासी चेहरा हैं। प्रदेश में आदिवासी
का प्रतिशत भी सबसे अधिक यानि 32 फीसदी है। लेकिन फिर भी उनकी बेटियां राजनीति में
नहीं आई। अपने बेटे संग्राम के लिए नेताम कहते हैं, “संग्राम को भी कभी राजनीति में आने के लिए फोर्स
नहीं किया है। वो चाहे तो बिजनेस करे या राजनीति। बस मैने उससे ये ही कहा है कि
राजनीति में भी बहुत वक्त देना होता है। ये भी फुल टाइम जॉब ही है”।
पूर्व सासंद करुणा
शुक्ला (शुक्ला पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की भतीजी हैं) कहती हैं, “निश्चित तौर पर राजनीति में बेटियों की भी भूमिका
होनी चाहिए, लेकिन बेटियां ही रुचि नहीं लेती हैं। राजनीति संघर्ष से भरा क्षेत्र
है। इसके लिए खुद का संघर्ष भी चाहिए और राजनीतिज्ञ के लिए जरूरी गुण भी। शुक्ला
खुद का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि भले ही मुझे राजनीति विरासत में नहीं मिली।
लेकिन बचपन से ही मैं काफी सक्रिय थी। स्कूल में हमेशा मॉनीटर रही। कॉलेज में भले
ही चुनाव नहीं लड़ा लेकिन कईयों को लड़वाया। उनके चुनाव के प्रबंधन से लेकर
जनसपंर्क तक हर एक जरूरी गतिविधि में सक्रिय रही। शादी के बाद सास के प्रोत्साहन
में राजनीति की विधिवत शुरुआत हुई और फिर पति और बच्चों का सहयोग भी मिलने लगा।
लेकिन इसके पीछे मेरी ही इच्छाशक्ति काम कर रही थी। जहां तक माता-पिता का अपने
बच्चों को स्थापित करने का सवाल है तो ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। जब बेटों को उनके
पिता स्थापित करने के लिए हरसंभव मदद करते रहे, लेकिन तब भी नतीज़ा शून्य ही निकला।
बेटियों को भी माता पिता राजनीति में आगे बढ़ा दें लेकिन उनके भीतर इच्छा ही नहीं
होगी तो वे कुछ नहीं कर पाएंगी। यदि बेटियों को आगे बढ़ना है तो पहल भी बेटियों को
ही करनी होगी। “
देश के दोनों ही
बड़े राजनीतिक दल महिलाओं को संगठन और सीटों पर आरक्षण देने की बात करते हैं।
भाजपा ने जहां संगठन में 33 फीसदी आरक्षण लागू किया है। वहीं छत्तीसगढ़ सरकार ने
पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया है। कांग्रेस भी संगठन में महिलाओं
को 50 फीसदी आरक्षण देने की बात करती है। लेकिन दोनों ही पार्टियां ना तो संगठन
में, ना ही टिकटों के बंटवारे में इस आरक्षण को कायम रख पाती हैं। जहां कि सीट
महिलाओं के लिए आरक्षित होती है। लेकिन बेटियों का आरक्षण का लाभ यहां भी नहीं मिल
पाता। वहां मजबूरी में पुरुष नेता अपनी पत्नियों या बहूयों को चुनाव मैदान में
उतारते हैं। ऐसे कई उदाहरण है जहां पत्नियों को विधायक, पार्षद या पंच-सरपंच बनाकर
उनके पति विधायक पति, पार्षद पति या सरपंच पति कहलाकर अपनी धाक जमाए रहते हैं।”
भाजपा महिला मोर्चा
की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सरोज पांडे कहती हैं, “राजनीति
की राह रपटीली होती है। इस राह पर हर महिला नहीं चल सकती। वैसे भी महिलाओं को अपनी
योग्यता को बार-बार प्रमाणित करना पड़ता है। विशेष तौर पर तब, जबकि वे किसी
सामान्य परिवार से आई हों। जबकि ये भी सही है कि महिलाएं पुरुषों से बेहतर काम कर
रही हैं। चाहे संगठन स्तर पर हो या प्रसाशनिक स्तर पर, लेकिन महिलाओं के आगे बढ़ने
से पुरुषों का अहं चोट खाता है। पुरुष वर्ग महिला नेतृत्व को सहजता से स्वीकार
नहीं करता। यही कारण है कि राजनीति में महिलाएं नहीं आ पा रही हैं।” सरोज पांडे को भले ही राजनीति विरासत में ना
मिली हो, लेकिन उन्होंने कम उम्र में ही भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह
बनाई है।
छत्तीसगढ़ की बात हो
और शुक्ल परिवार की चर्चा ना हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। अविभाजित मध्यप्रदेश के
पहले मुख्यमंत्री रहे पंडित रविशंकर शुक्ल (अविभाजित मध्यप्रदेश के पहले
मुख्यमंत्री) की तीन बेटियां और छह बेटे थे। लेकिन राजनीति में उनकी एक भी बेटी
नहीं आई। उनके बेटे पंडित अंबिकाचरण शुक्ल, श्यामाचरण शुक्ल(अविभाजित मध्यप्रदेश
के पूर्व मुख्यमंत्री) और विद्याचरण शुक्ल आजीवन सक्रिय राजनीति में रहे। लेकिन
उनकी बेटियां रामप्यारी बाई, रामवति बाई और क्रांति त्रिवेदी ने शादी के बाद अपनी
गृहस्थी संभालने में ही रुचि दिखाई। अभिवाजित मध्यप्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री
रहे श्यामाचरण शुक्ल की भी तीन बेटियां हैं। उमा, नीता और सोनू, लेकिन तीनों ही
बेटियों ने राजनीति का ककहरा नहीं पढ़ा। जबकि श्यामाचरण शुक्ल के बेटे अमितेश
शुक्ल राजिम विधानसभा सीट से कांग्रेस के विधायक हैं। अमितेष अजीत जोगी की सरकार
में पंचायत मंत्री भी रहे। दिवंगत विद्याचरण शुक्ल की भी तीन बेटियां हैं। सबसे
बड़ी बेटी प्रतिभा पांडे ने उनन दिनों रायपुर में ही कांग्रेस में सक्रियता बे की
कोशिश की, जब खुद वीसी शुक्ल का कोई नामलेवा नहीं रह गया था। वहीं दूसरी बेटी
पद्मा दुबे मुम्बई और सबसे छोटी बेटी प्रगति दीक्षित अमेरिका में रहती हैं। वीसी
शुक्ल के अंतिम दिनों में उनकी बेटी प्रतिभा ने राजनीति में पदार्पण किया, जबकि
यदि वे अपने शुरुआती दिनों राजनीति में आती तो आज किसी बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन
कर रही होतीं। जबकि वीसी शुक्ल का कोई बेटा नहीं था। बावजूद इसके उन्होंने अपनी
बेटियों को राजनीति में आगे लाने की कोशिश कभी नहीं की।
छत्तीसगढ़ की पूर्व महिला
और बाल विकास मंत्री लता उसेंडी इसका एक अपवाद हैं। उनके पिता मंगलराम उसेंडी
कोंडागांव सीट से भाजपा के विधायक रहे हैं। जब उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूर
रहने का मन बनाया तो उन्होंने अपने बेटों के बजाए बेटी लता उसेंडी को अपनी
विधानसभा सीट सौंप दी। लेकिन यहां इस बात का उल्लेख करना फिर जरूरी है कि आदिवासी
समुदायों में आज भी बेटियों और बेटों में कोई फर्क नहीं किया जाता। शायद यही कारण
है कि लता उसेंडी ने अपने पिता की विधानसभा सीट से अपने राजनीतिक करियर को आगे
बढ़ाया।
प्रदेश महिला आयोग
की पूर्व अध्यक्ष आर. विभा राव कहती हैं, “छत्तीसगढ़
के लोगों में मन में आज भी ये अवधारणा है कि बेटियों को दूसरे घर जाना है। जबकि
पत्नियां और बहुएं अपने ही घर की हैं। ये सही है कि चाहे व्यापार हो या राजनीति,
लोग बेटों को ही प्राथमिकता देते हैं।
छत्तीसगढ़ के ऐसे नेताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी
है। जिन्होंने बेटियों को ससुराल विदा कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली। इनमें
विधानसभा में पूर्व नेता प्रतिपक्ष रविंद्र चौबे भी शामिल हैं। चौबे की सुपुत्री डॉ
अदिति की शादी हो चुकी है। हालांकि उनके बेटा अविनाश ने भी अभी तक राजनीति का रुख
नहीं किया है। बल्कि वे अपनी पढ़ाई जारी रखे हुए हैं। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल
कौशिक की बेटी भी अपने ससुराल जा चुकी हैं। वहीं उनके बेटे अभी अध्ययन में व्यस्त
हैं। कैबिनेट मंत्री अमर अग्रवाल ने भी अपनी डॉक्टर बिटिया को ससुराल विदा कर
दिया है। वहीं प्रदेश के अन्य कैबिनेट मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, कांग्रेस प्रदेश के पूर्व
अध्यक्ष चरणदास महंत ने अब तक अपने बच्चों को अभी तक राजनीति से दूर रखा हुआ है।
लेकिन इतना जरूर है कि इनके बेटे पढ़ाई पूरी करने के बाद राजनीति में आने या ना
आने के लिए स्वतंत्र होंगे। लेकिन बेटियां संभव है कि दूसरों की तरह ससुराल ही चली
जाएं।
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