शनिवार, 24 मई 2014

मप्र-छग में खत्म होती कांग्रेस

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भले ही भाजपा को राजस्थान, दिल्ली और गुजरात की तरह क्लीन स्वीप नहीं मिला हो, लेकिन भाजपा अपने प्रदर्शन को बेहतर करते हुए कांग्रेस को गहरे गड्ढे में उतारने में कामयाब रही। देश के दूसरे भागों में भले ही कांग्रेस की पराजय में मोदी लहर का हाथ रहा हो, लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस शनैः शनैः चुनाव दर चुनाव खत्म होती दिखाई दे रही है। अगर हर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का मत प्रतिशत ऐसे ही घटता रहा, तो वो दिन दूर नहीं, जब दोनों प्रदेशों में कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं रह जाएगा।
अब जबकि पूरे देश में भाजपा का डंका बज रहा है, ऐसे में यहां मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की बात करना और भी जरूरी हो जाता है। क्योंकि भाजपा ने भले ही आश्चर्यजनक रूप से एक झटके में देश के कई राज्यों में अपना परचम लहरा दिया हो, लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पराजय औचक रूप से नहीं हुई है, बल्कि इसकी पटकथा पिछले दो दशकों से लिखी जा रही है। दोनों राज्यों में कांग्रेस की हार का विश्लेषण करें तो एक बात स्पष्ट रूप से नजर आती है कि यदि कांग्रेस मध्यप्रदेश (कुल सीट 29) में 12 में से 2 सीटों पर सिमट गई या छत्तीसगढ़ (कुल सीट11) में चरणदास मंहत, अजोत जोगी और सत्यनारायण शर्मा जैसे दिग्गज नेता चुनाव हार गए तो इसकी पीछे सिर्फ मोदी लहर जिम्मेदार नहीं है, बल्कि वर्षों से कांग्रेस में चली आ रही गुटबाजी, आपसी कलह, जनप्रतिनिधियों की उदासीनता, चुनाव प्रचार में धन की कमी, नेतृत्व का अभाव जैसे कारण जिम्मेदार रहे हैं। कांग्रेस के क्षत्रपों की आपसी लड़ाई ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी का बंटाधार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। पिछले लोकसभा चुनावों पर नज़र डालें तो हर बार कांग्रेस का मत प्रतिशत घटा है। जबकि भाजपा का मत प्रतिशत हर बार बढ़ते क्रम में नजर आता है। छत्तीसगढ़ में तो लगातार पांच लोकसभा चुनावों में हर बार कांग्रेस के वोट प्रतिशत में 3 फीसदी की कमी आई है। वर्ष 1999 में कांग्रेस को लगभग 43 फीसदी वोट मिले थे। वहीं 2003 में ये घटकर 40.16 रह गया। 2009 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत फिर घटकर 37 फीसदी रह गया। देश में तो अगले पांच सालों में काग्रेंस की स्थिति में सुधार होने की फिर भी गुंजाइश है, लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में धीरे-धीरे खत्म होती कांग्रेस कभी उबर भी पाएगी, ये कहना काफी मुश्किल है। कांग्रेस के लिए ये इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में यूपी, बिहार, झारखंड, पंजाब और दक्षिण के राज्यों की तरह मजबूत क्षेत्रीय दल भी नहीं है। यानि कांग्रेस समय पर नहीं चेती तो दोनों प्रदेश केवल भाजपा का गढ़ होकर रह जाएंगे। लेकिन इससे पहले दोनों प्रदेशों में कांग्रेस धीरे-धीरे खत्म होने के कारणों को विस्तार से समझने की जरूरत है।
नेतृत्व का अभाव
चाहे मध्यप्रदेश हो या छत्तीसगढ़, दोनों ही राज्यों में कांग्रेस के पास बरसों से मजबूत नेतृत्व की कमी है। दोनों ही राज्यों में बार-बार नए गुट को प्रदेश की कमान सौंपी गई। लेकिन कोई भी प्रदेश अध्यक्ष पार्टी को मजबूती नहीं दे पाया। प्रदेश अध्यक्षों ने सबको साथ लेकर चलने के बजाए गुटबाजी को ही बढ़ावा दिया। मध्यप्रदेश में सुभाष यादव, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव पार्टी प्रमुख बने, लेकिन कोई भी कांग्रेस को संजीवनी नहीं दे पाया। प्रदेश नेतृत्व ने कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ाने का ही काम किया, परिणामस्वरूप इस लोकसभा चुनावों में वर्तमान अध्यक्ष अरुण यादव, पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल, सज्जन सिंह वर्मा, प्रेमचंद गुड्डू, मीनाक्षी नटराजन (टीम राहुल की अहम सदस्य) सरीखे दिग्गज नेता चुनाव हार बैठे। वहीं छत्तीसगढ़ में भी धनेंद्र साहू, चरणदास मंहत, भूपेश बघेल जैसे नेताओं ने पार्टी को बट्टा लगाने कहीं कमी नहीं की। खासतौर पर चरणदास मंहत और भूपेश बघेल ने प्रदेश अध्यक्ष रहते नासमझी भरे बयान दे-देकर पार्टी को कई टुकड़ों में बांट दिया। केवल नंदकुमार पटेल ऐसे अध्यक्ष बनकर आए थे, जो सभी को साथ लेकर चलने की रणनीति पर काम कर रहे थे। लेकिन कांग्रेस का दुर्भाग्य कि वे झीरम घाटी नक्सल हमले में मारे गए।
क्षत्रपों की आपसी खींचतान
दोनों ही प्रदेशों में कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि उसके कई क्षत्रप मैदान में हैं। इन्हीं क्षत्रपों की आपसी खींचतान और खुद को सबसे ऊपर रखने की होड़ ने कांग्रेस के ताबूत में कील ठोंकने का काम किया है। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, अजय सिंह राहुल की सियासी खींचतान ने पार्टी को मृत्युशैया पर पहुंचा दिया। वहीं छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी, चरणदास महंत, शुक्ल गुट, सत्यनारायण शर्मा, मोतीलाल वोरा जैसे दिग्गज नेताओं ने अपने अहम की पूर्ति के आगे पार्टी हितों को बौना साबित कर दिया है। छत्तीसगढ़ में चुनाव का पूरा वक्त नेताओं की आपसी लड़ाई में बीत गया। अजीत जोगी को आगे बढ़ने से रोकने के लिए पहले सारे गुट एक होकर जोगी बनाम संगठन की लड़ाई को हवा देते रहे, ऐन चुनाव के वक्त कई विधायकों ने अपने क्षेत्रों में काम करने के बजाए अपने आकाओं के इलाके में हाजिरी लगानी शुरु कर दी। यही कारण था कि विधानसभा चुनाव में जिन सीटों पर कांग्रेस जीती थी, उसका फायदा लोकसभा चुनाव में पार्टी को नहीं मिल पाया। इसका सबसे सटीक उदाहरण छत्तीसगढ़ की सरगुजा सीट है। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इस लोकसभा सीट में आने वाली 8 विधानसभा सीटों में से 7 पर कांग्रेस का कब्जा है। महज चार महीने पहले संपन्न विधानसभा चुनाव के नतीजों में सरगुजा में कांग्रेस को पांच लाख पचहत्तर हजार से ज्यादा वोट मिले थे। जबकि भाजपा चार लाख सडसठ हजार वोट मिले थे। यानि यहां कि आठ विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को करीब एक लाख वोट से अधिक की बढ़त मिली थी। विधानसभा चुनाव के दौरान पूरे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन सरगुजा लोकसभा क्षेत्र में ही रहा है। लेकिन इसी बढ़े हुए मतों को कांग्रेस लोकसभा चुनाव में कायम नहीं रख पाई और हार गई।
भाजपा का वन लीडरशिप फार्मूला
भाजपा के एक नेतृत्व फार्मूले ने भी कांग्रेस की रही सही हवा निकाल दी। मध्यप्रदेश में हर छोटे बड़े फैसले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेने की स्वतंत्रता है तो वहीं छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह ही पार्टी के भी अघोषित सर्वेसर्वा हैं। चाहे टिकट वितरण का मामला हो या सत्ता और संगठन में नियुक्तियों का, मुख्यमंत्री की मर्जी के बगैर संगठन कोई फैसला नहीं करता। दोनों ही प्रदेश में पार्टी अध्यक्ष भी अपरोक्ष रूप से दोनों मुख्यमंत्रियों के अधीन होकर ही काम करते हैं। भाजपा का वन लीडरशिप फार्मूला ही है, जो पूरी पार्टी को एक सूत्र में बांधने का काम करता रहा है। इससे उलट कांग्रेस में यूं तो नेतृत्व का अभाव है, लेकिन बावजूद इसके हर बड़ा नेता खुद को पार्टी का जागीरदार समझता रहा है। इससे कांग्रेस का स्वरूप और ताकत छिन्न भिन्न हो गई है।
मुख्यमंत्री बनने की महत्वकांक्षा
ये कांग्रेस का दुर्भाग्य ही रहा कि जो भी प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, उसके मन में पहले ही दिन से सूबे का मुखिया बनने की इच्छा बलवती होती चली गई। यही कारण था कि 2008 के विधानसभा चुनाव में सुरेश पचौरी ने 100 ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का घातक निर्णय लेकर कांग्रेस को लकवाग्रस्त कर दिया था। पचौरी की योजना था कि यदि उनके ब्राह्मण उम्मीदवार जीतकर आते हैं तो कांग्रेस के बहुमत में आने की स्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। कांतिलाल भूरिया दिग्विजय सिंह की रबर स्टैम्प के रूप में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने। लेकिन इसके पीछे दिग्विजय की मंशा प्रदेश की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करना ही थी। छत्तीसगढ़ में चरणदास मंहत अध्यक्ष बने तो वे भी मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने लगे। भूपेश बघेल ने भी वही कहानी दोहराई। बतौर प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए ये बघेल की ही नाकामी थी कि दो सीट पर पार्टी ने बार-बार प्रत्याशी बदले और अपनी किरकिरी कराई। कांग्रेस नेताओं के यही सपने हर चुनाव में पार्टी पर भारी पड़े। जितनी रूचि नेता विधानसभा चुनावों में लेते रहे, उतनी दिलचस्पी लोकसभा चुनावों में नहीं दिखाई क्योंकि इसमें उनका कोई व्यक्तिगत फायदा नहीं था। कांग्रेस नेताओं के दुर्भाग्य का अंदाजा चरणदास मंहत को देखकर सहज लगाया जा सकता है। पिछले चार महीने पहले तक महंत ना केवल प्रदेश अध्यक्ष थे, बल्कि लोकसभा सांसद और केंद्रीय राज्य मंत्री भी थे। लेकिन महंत ने पहले प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी खोई, लोकसभा चुनाव हारने के बाद ना तो वे सासंद बचे, ना ही मंत्री पद तो उनका जाना ही था। चार महीने पहले वाला महंत का जलवा अब वीरानी में बदल गया है।
आपसी लड़ाई से घटता मत प्रतिशत
छत्तीसगढ़ में भाजपा का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 47.78 प्रतिशत मत मिले थे। वहीं इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत 1.02 प्रतिशत का इजाफे के साथ 48.8 हो गया है। जबकि कांग्रेस फिर अपना वोट प्रतिशत कम कर बैठी। 2009 में कांग्रेस को 40.16 फीसदी वोट मिला था, लेकिन इस बार उसके मत प्रतिशत में 1.76 की कमी दर्ज की गई है। दिंसबर 2013 में संपन्न विधानसभा चुनाव के मुकाबले भी कांग्रेस घाटे में नजर आ रही है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 40.29 प्रतिशत मत मिले थे, जो महज चार महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में घटकर 38.04 प्रतिशत रह गया है। वहीं भाजपा ने विधानसभा चुनाव के मुकाबले अपने मत प्रतिशत को बढ़ाने में कामयाबी हासिल की है। 2013 के अंत में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को कुल 41.04 वोट मिले थे, जबकि लोकसभा चुनाव के नतीजों में भाजपा को कुल 48.8 फीसदी मत मिले।
वहीं मध्यप्रदेश की बात करें तो 2009 में भाजपा को कुल 43.45 फीसदी मत मिले थे, वहीं 2014 में इसमें 10.55 फीसदी की वृद्धि हुई है। भाजपा को इस लोकसभा चुनाव में 54 फीसदी मत मिले हैं। जबकि कांग्रेस को 2009 में 40.14 फीसदी मत मिले थे, जो 1.10 फीसदी घटकर 39.04 रह गया है। बसपा, अन्य और निर्दलीय उम्मीदवारों को 6.06 फीसदी वोट मिले। नई नवेली आम आदमी पार्टी को नोटा से भी कम वोट मिले। मध्यप्रदेश में नोटा (नन ऑफ द अबव) में कुल 1.3 यानि 3, 91, 797 वोट पड़े, वहीं आप को 1.2 फीसदी यानि 3,49,472 वोट मिले। कांग्रेस ये जानती है कि भाजपा को मिले 10 फीसदी वोटों के अंतर को पाटना उसके लिए कितना मुश्किल भरा होगा। मतदाताओं को दोबारा रिझाने के लिए कांग्रेस को अच्छे नेतृत्व, लंबे समय और संसाधनों की जरूरत होगी।
अस्तित्व खोते क्षेत्रीय दल
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय दलों की राजनीति की भी कोई गुंजाइश नहीं बची है। 2014 के चुनाव के आकंडे देखें तो हम पाएंगे कि  मध्यप्रदेश की 29 सीटों पर 27 भाजपा और 2 कांग्रेस के खाते में गई। जबकि चुनाव मैदान में बहुजन समाज पार्टी, सीपीआई, सीपीआई एम के अलावा 50 अन्य राजनीतिक दलों के उम्मीवार मैदान में थे। इनके साथ ही 126 निर्दलीय भी अपनी किस्मत आजमा रहे थे। कुल 378 उम्मीवारों में 29 चुने जाने थे, जिनमें एक भी निर्दलीय या क्षेत्रीय दल का नहीं जीत पाया। नतीजों में भाजपा 1 करोड़ 60 लाख 14,924 वोट पाकर पहले स्थान पर रही। दूसरे स्थान पर कांग्रेस ने 1 करोड़ तीन लाख 40 हजार 58 वोट प्राप्त किए। बसपा सवा 11 लाख मत पाकर तीसरे स्थान पर रही। जबकि अन्य 126 उम्मीदवारों ने केवल साढ़े पांच लाख वोट प्राप्त किए। जिसका प्रतिशत केवल 1.9 है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को केवल 0.6 फीसदी, सीपीआई को केवल 0.3 फीसदी, आप को 1.2 फीसदी वोट मिले।
यही हाल छत्तीसगढ़ के भी हैं। यहां भी बसपा समेत अन्य दलों का वोट बैंक भी घटा है। 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा को जहां 4.54 फीसदी मत मिले थे, वहीं इस चुनाव में बसपा केवल 2.4 फीसदी मत ही हासिल कर पाई। जबकि हाल ही संपन्न विधानसभा चुनाव में बसपा का कुल मत प्रतिशत 4.27 था। जिसे वो लोकसभा चुनाव में बरकरार नहीं रख पाई। निर्दलीय और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों का जनाधार भी इस लोकसभा चुनाव में घटा है। 2009 के लोकसभा चुनाव में इन्हें 5.72 फीसदी मत मिले थे, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में घटकर 4.2 रह गए। जबकि विधानसभा 2013 में निर्दलीय और अन्य दलों को 10.28 फीसदी मत मिले थे।
कहीं खुशी कहीं गम
देश की जनता ने नरेंद्र मोदी पर विश्वास जताया है। ये केवल कांग्रेस की नहीं, बल्कि सोनिया और राहुल गांधी की भी हार है। –रमन सिंह, मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़
कांग्रेस ने विपरित परिस्थितियों में चुनाव लड़ा है। हम अपना संघर्ष जारी रखेंगे। -भूपेश बघेल, प्रदेश अध्यक्ष छत्तीसगढ़ कांग्रेस।
जनता का आदेश शिरोधार्य है। देश के विकास में कांग्रेस अपना योगदान देती रहेगी। –अरुण यादव, प्रदेश अध्यक्ष मध्यप्रदेश भाजपा।
मोदी और भाजपा को बधाई। उन्हें जनता का निर्णायक जनादेश मिला है। उन्हें अपने वादे पूरे करने चाहिए। अब अच्छे दिन लाइए। -दिग्विजय सिंह, कांग्रेस महासचिव।

नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व, शिवराज सिंह चौहान की छवि, नरेंद्र सिंह तोमर की मेहनत के बल पर मध्यप्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ दिया है। -हितेश बाजपेयी, प्रवक्ता मध्यप्रदेश भाजपा।

1 टिप्पणी:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

जिस प्रदेश से कांग्रेस 3 बार हारी है, वहाँ से सुपड़ा साफ़ हो गया है। गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, तमिलनाडू, उड़ीसा, त्रिपुरा, मणिपुर, अब छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश का नम्बर है। अगर यही स्थिति रही तो भारत के नक्शे से कांग्रेस गायब ही हो जाएगी।