छत्तीसगढ़
के जगदलपुर जिले की झीरम घाटी में पिछले साल की 25 मई को माओवादियों ने कांग्रेस
के 30 नेताओं की जान ले ली थी। इनमें नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा, वीसी शुक्ला
जैसे कई बड़े नेता भी शामिल थे। इस हद्यविदारक हत्याकांड को एक साल पूरा होने जा
रहा है। ऐसे में जरूरी है कि साल भर हुईं माओवादी घटनाओं की समीक्षा की जाए। जरूरत
इस बात की भी है कि उन सवालों के स्थाई जवाब ढूंढे जाएं, जो हर नक्सल घटना के बाद
उठ खड़े होते हैं।
सन्
2000 में जब छत्तीसगढ़ एक अलग राज्य के रूप में आकार ले रहा था, तब किसी नहीं सोचा
था कि प्रदेश में नासूर की तरह फैल रहे माओवादी कभी किसी राजनीतिक दल के पूरे
नेतृत्व का ही सफाया करने का दुस्साहस कर देंगे। वो भी उस राजनीतिक दल के नेतृत्व
को, जिसे सूबे की पहली सरकार चलाने का सौभाग्य मिला। कांग्रेस नेता अजीत जोगी
प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने और उनकी सरकार में गृहमंत्रालय चलाने की
जिम्मेदारी नंदकुमार पटेल को मिली। उस वक्त पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल
छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे। जब 2003 में भाजपा ने सरकार
बनाई और मुख्यमंत्री के रूप में रमन सिंह गद्दीनशीन हुए, तब कांग्रेस ने सदन में
नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी महेंद्र कर्मा के कंधों पर डाली। जिन कांग्रेस
नेताओं का (अजीत जोगी को छोड़कर) जिक्र यहां किया जा रहा है, भले ही उनका राजनीतिक
करियर अलग-अलग उतार चढ़ाव भरता रहा, लेकिन विधाता ने शायद उनकी अंतिम विदाई एक साथ
लिखी थी। 2013 में पूरे प्रदेश में परिवर्तन यात्रा निकाल रहे इन कांग्रेस नेताओं
के लिए इस अभियान का अंतिम पड़ाव सच में “अंतिम” साबित हुआ। जगदलपुर की झीरम (दरभा) घाटी में माओवादियों ने एंबुश लगाकर
30 छोटे-बड़े कांग्रेस नेता को मौत की नींद सुला दिया। 25 मई 2013 को हुई इस
हद्यविदारक घटना ने ना केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे देश को हिला कर रख दिया। किसी
नक्सल हमले में एक राजनीतिक दल के इतने नेताओं का एक साथ दुनिया से चले जाना देश
की पहली घटना थी। परिणामस्वरूप कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पार्टी उपाध्यक्ष
राहुल गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे
समेत कई नेता छत्तीसगढ़ पहुंचे और राज्य सरकार के साथ बैठकर घटना का पूरा ब्यौरा
लिया। इस घटना की जांच की जम्मेदारी एनआईए (राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी) को दी गई। हाल
ही में केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने झीरम घाटी में नक्सलियों द्वारा
15 जवानों की जान लेने के बाद प्रदेश की सभी नक्सल घटनाओं की जांच (झीरम घाटी में
कांग्रेस नेताओं के हत्याकांड की भी) सीबीआई को सौंपने का ऐलान किया है।
लेकिन
जो सवाल आज भी मौजूं है, वो ये है कि झीरम घाटी में नक्सलियों के खूनी खेल के बाद
केंद्र और राज्य सरकार ने माओवादियों के सफाए के लिए कितनी गंभीरता दिखाई। उन्हें
समूल नष्ट करने के लिए अपनी रणनीतियों में क्या परिवर्तन किए और सबसे अहम बात कि
क्या वाकई में सरकारों ने कांग्रेस नेताओं की मौत को उतनी ही गंभीरता से लिया या
महज़ एक और नक्सल हमला मानकर मामले को हमेशा की तरह ठंडे बस्ते में डाल दिया। जहां
तक सवाल माओवादियों का है, तो पिछले एक साल में उनकी गतिविधियों को देखकर तो नहीं
लगता कि उनका हौंसला कहीं से भी पस्त हुआ है। जिस झीरम घाटी में माओवादियों ने
कांग्रेस के 30 नेताओं को मौत की नींद सुला दिया था, उसी इलाके में ठीक इस
हत्याकांड की बरसी के महज दो माह पहले नक्सलियों ने केंद्रीय रिजर्व सुरक्षा बल के
15 जवानों को अपना निशाना बनाकर शहीद कर दिया। 2014 में माओवादियों का ये दूसरा बड़ा हमला था।
माओवादियों ने हमला उस वक्त किया, जब केंद्रीय रिजर्व सुरक्षा बल की 80 बटालियन के 44 जवान जगदलपुर और सुकमा के बीच में स्थित
तोंगपाल में बन रही सड़क को सुरक्षा देने के लिए सर्चिंग पर निकले थे। सर्चिंग कर
जब ये जवान लौट रहे थे, तब नक्सलियों ने घात
लगाकर इन पर हमला कर दिया। हमले में जहां 15 जवान
शहीद हो गए, वहीं तीन जवान घायल
भी हुए। जवानों पर सुनियोजित
रूप से हमला करने वाले नक्सलियों की संख्या 300 के करीब थी।
राज्य बनने के बाद पिछले 14 सालों
में दर्जनों छोटी-बड़ी वारदात करने वाले नक्सलियों ने 2013 से 2014 के बीच कई बड़ी
घटनाओं को अंजाम दिया है। इन घटनाओं में 18 मई 2013 बीजापुर में एक जवान और 8 ग्रामीणों की मौत हुई, वहीं 25
मई 2013 झीरम घाटी में कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, वीसी शुक्ल
समेत 30 नेताओं को मार दिया गया, जबकि 19 लोग घायल हुए। 9 फरवरी 2014 एक नक्सल
हमले में CRPF के दो जवानों की मौत हुई और 12 जवान घायल हो गए।
28 फरवरी 2014 माओवादी हमले में पुलिस के 7 जवानों की मौत हो गई। 11 मार्च 2014 को
एक बार फिर झीरम घाटी खून से लाल हुई। माओवादियों के एंबुश में फंसकर 15 जवानों और
एक ग्रामीण की मौत हो गई। इसी साल के दरमियान विधानसभा और लोकसभा चुनाव भी हुए।
इनमें भी माओवादियों ने दहशत फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अर्ध्यसैनिक
बलों की 300 कंपनियों की मौजदूगी के बावजूद बस्तर लोकसभा सीट पर मतदान के दौरान
माओवादी आतंक फैलाने में सफल रहे। बस्तर के सुकमा, बीजापुर
तथा दंतेवाड़ा के कुछ मतदान केन्द्रों में नक्सलियों के कारण मतदान भी प्रभावित हुआ।
बस्तर सीट से आप की उम्मीदवार सोनी सोरी के मतदान करने के पहले मतदान केन्द्र पर भी
नक्सलियों ने फायरिंग की। बीजापुर
इलाके के गोलापल्ली इलाके में पुलिस नक्सली मुठभेड़ में एक नक्सली भी मारा गया।
जबकि एक पुलिस जवान घायल हो गया। मतदान को प्रभावित करने के लिए
नक्सलियों ने जगदपुर, किरंदुल और सुकमा समेत 9 अलग-अलग स्थानों पर पुलिस जवानों पर
फायरिंग की। जगदलपुर में जहां मोबाइल टॉवर उड़ा दिया, वहीं दंतेवाड़ा में सड़क जाम
कर प्रेशर बम लगा दिए। नक्सलियों की ये हरकतें बताती हैं कि वे बस्तर समेत राज्य
के कई इलाकों में समानांतर सरकार चला रहे हैं या चलाना चाहते हैं। उनके मन में
सरकारों का, पुलिस का और प्रशासन का कोई खौफ नहीं है।
बात सरकार की नीति की करें तो चाहे केंद्र हो या राज्य
सरकार, केवल बैठकें करने और कमेटियां बनाने के अलावा सरकारों के खाते में कुछ खास
उपलब्धियां नहीं आई हैं। ऑपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत में जरूर ऐसा लगने लगा था कि
अब राज्य सरकार माओवाद को लेकर गंभीर है। इस ऑपरेशन का असल मकसद माओवादियों को तो
पीछे खदेड़ना था ही, लेकिन साथ ही साथ उन इलाकों का विकास करना भी था, जहां
नक्सलियों ने वर्षों से विकास को रोक रखा था। लेकिन ग्रीन हंट का जो प्रारूप तैयार
किया गया था, वो उस रूप में सफल ही नहीं हो पाया। इस बारे में छत्तीसगढ़ के पूर्व
डीजीपी विश्वरंजन कहते हैं कि “ऑपरेशन ग्रीन हंट में उन पिछड़े इलाकों को विकसित करना था,
जहां नक्सलियों ने अपनी जड़ें गहरी कर ली थीं। ग्रीन हंट के जरिए ही आदिवासियों का
विश्वास भी अर्जित करना था। हम बहुत हद तक अपने मकसद में सफल भी रहे थे। लेकिन
ग्रीन हंट को गलत तरीके से देश के सामने पेश किया गया”।
वर्षों से छत्तीसगढ़ में आंध्र प्रदेश की तर्ज पर ग्रे हाउंड
फोर्स बनाने की मांग चल रही है। नक्सलियों से निपटने के लिए विशेष रूप से
प्रशिक्षित ग्रे हाउंड के खाते में कई उपलब्धियां है। लेकिन छत्तीसगढ़ अभी तक अपनी
कोई ऐसी फोर्स बनाने में कामयाबी हासिल नहीं कर सका, जो माओवादियों पर सवा सेर की
तरह भारी पड़ सके। माओवादियों से दो-दो हाथ करने के लिए छत्तीसगढ़ अभी तक केंद्रीय
सुरक्षा बलों पर निर्भर है।
नाम ना छापने की शर्त पर एक पुलिस अफसर कहते हैं कि प्रदेश
के आला अफसरों में इच्छाशक्ति का अभाव ही कई अड़चने पैदा करता है। ग्रे हाउंड जैसी
फोर्स तो कबकी बन जानी चाहिए थी। हमारे पर प्रशिक्षित लड़ाके नहीं है। प्रशिक्षित
का मतलब माओवादियों के गुरिल्ला युद्ध के लिए चुस्त चालाक जवानों से है। कांकेर के
जंगल वॉर फेयर कॉलेज में भी जो सिखाया जाता है, फील्ड में उसका शत प्रतिशत पालन
नहीं किया जाता। इसका खामियाजा जवानों की मौत के रूप में सामने आता है।
माओवादियों को लेकर राज्य सरकार
की चाल इतनी सुस्त है कि नक्सली होने के आरोप में प्रदेश की जेलों में सजा काट रहे
लोगों की रिहाई पर विचार करने के लिए साल 2012 में बनी बुच कमेटी भी दो साल में
केवल 8 बैठकें ही कर पाई है। जब तहलका ने कमेटी के कामकाज की पड़ताल शुरु की तो
उसकी अध्यक्ष निर्मला बुच ने आठवीं बैठक रायपुर में बुलाई। जबकि कमेटी की अधिकांश
बैठकें भोपाल में ही बगैर किसी शोर शराबे के कब संपन्न हो गई, इसकी किसी को भनक तक
नहीं लगी। हाल ही में संपन्न इस बैठक में बुच कमेटी ने 35 और मामलों में आरोपित/दोषियों को छोड़ने की सिफारिश की है।
निर्मला
बुच कहती हैं कि “हम अपना काम कर रहे हैं। हमारी कोशिश है कि माओवादी
होने के या उनके मददगार होने के आरोपितों के सभी मामलों की समीक्षा हो जाए। जिनमें
हमे लग रहा है कि उनकी रिहाई होनी चाहिए, हम सिफारिश भी कर रहे हैं। सरकार
नक्सलवाद का समूल सफाया करने के लिए प्रतिबद्ध है और सही रणनीति पर काम कर रही है”।
जिस हफ्ते बुच कमेटी ने बैठक ली, उसी सप्ताह माओवादियों ने
खूनी आतंक मचाकर सात जवानों को शहीद कर दिया। 11 मई को छत्तीसगढ़ सीमा पर
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में सर्च अभियान में निकले जवानों को पहले तो आईईडी
ब्लास्ट कर रोका गया, फिर उनपर अंधाधुंध फायरिंग की गई। हमले में 7 जवानों की मौत
हो गई और चार घायल हो गए। पुलिस सूत्रों की मुताबिक हमला दल में 100 नक्सली शामिल
थे। नक्सलियों ने जिस जगह हमला किया, वहां तेंदूपत्ता तोड़ने का काम चल रहा है। नक्सलियों
के इस खूनी उत्पात के ठीक दूसरी दिशा में यानि प्रदेश के सुकमा जिल में सुरक्षा
बलों ने 30 किलोग्राम वजनी आईईडी बरामद कर एक बड़े हादसे को टाल दिया। जब सीआरपीएफ
के नेतृत्व में राज्य पुलिसकर्मियों का एक दस्ता सर्च अभियान पर था, तब उसने
मालीगिरा ब्रिज के नीचे बड़ी मात्रा में छिपाकर रखा गया विस्फोटक बरामद किया। यह
मार्ग आमतौर पर सुरक्षा बलों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। माओवादी इस मार्ग पर
किसी बड़ी घटना को अंजाम देने वाले थे।
छत्तीसगढ़ के पुलिस
महानिदेशक एएन उपाध्याय इस बारे में कहते हैं कि “हम अपनी
नक्सल पॉलिसी को रिव्यू कर रहे हैं। हमारा एक ही उद्देश्य है माओवादियों का सफाया।
जहां तक सवाल नक्सल घटनाओं का है, तो उस पर एकदम से रोक लगाना संभव नहीं है।
छत्तीसगढ़ की भौगोलिक परिस्थिति जहां माओवादियों के लिए मददगार साबित होती है,
वहीं इससे सुरक्षा बलों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है”।
बहरहाल झीरम घाटी
नक्सल हमले को पहली बरसी पर कांग्रेस उसी तरह खामोश है, जितनी घटना के वक्त थी। दो
माह पहले उस गाड़ी को कांग्रेस भवन लाया गया था, जिसमें नंदकुमार पटेल हमले के
वक्त बैठे थे। गोलियों के छेद से क्षतिग्रस्त वाहन पर प्रदेश नेतृत्व ने
श्रद्धासुमन अर्पित कर मृत नेताओं को याद किया गया था। 25 मई को भी एक बार फिर
कांग्रेस नेता अपने दिवंगतों को याद करेंगे। उनकी तस्वीरों पर फूल मालाएं
चढ़ाएंगे। निश्चित रूप से राज्य की भाजपा सरकार भी कांग्रेस नेताओं को याद कर शोक
जताएगी। लेकिन इन श्रद्धाजंलि सभाओं के बीच ये यक्ष प्रश्न भी मौजूद रहेगा कि आखिर
कब तक प्रदेश में निर्दोष लोगों का खून यूं ही बहता रहेगा। आखिर कब माओवादियों से
सख्ती से निपटा जाएगा, ताकि प्रदेश में अमन और चैन कायम किया जा सके।
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