गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

जवानों का टूटता मनोबल

जगदलपुर से निकलकर सड़कविहीन रास्तों से होते हुए जब आप 56 किलोमीटर का रास्ता तय करते हुए तोंगपाल पुलिस थाने पहुंचते हैं तो इस बात का अंदाजा सहज ही हो जाता है कि हम यहां अपनी खुद की रिस्क पर हैं। यहां मिलने वाले सीआरपीएफ के जवान हों या छत्तीसगढ़ पुलिस के सिपाही, सबके चेहरों पर एक सा तनाव आपको अहसास दिलाता है कि महसूस की जा रही शांति केवल छलावा भर है। कभी भी-कुछ भी हो सकता है। खैर बस्तर को कवर करने वाले पत्रकारों के लिए इसमें नया कुछ भी नहीं है, वे ऐसी परिस्थितियों का हमेशा सामना करते रहते हैं। फिलहाल बात सुकमा जिले के तहत आने वाले तोंगपाल की, जो केंद्रीय सुरक्षा बल (सीआरपीएफ) के 16 जवानों और एक पुलिस कांस्टेबल के निलंबन के कारण चर्चा में है।
सीआरपीएफ ने कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए अपने 16 जवानों को निलंबित कर दिया है। वहीं एक पुलिस के सिपाही को भी सीआरपीएफ की रिपोर्ट के आधार पर निलंबित किया गया है। निलंबित जवानों में से 13 कांस्टेबल रैंक के, जबकि चार अन्य इंस्पेक्टर व सहायक सब-इंस्पेक्टर रैंक के अधिकारी हैं। इन 17 जवानों पर आरोप है कि ये इस साल के शुरूआत में नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में अपने साथियों को मदद देने के बजाए मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए थे। इस मुठभेड़ में एक नागरिक समेत कुल 16 लोगों की मौत हुई थी। जिनमें सीआरपीएफ के 11, पुलिस के चार जवान मारे गए थे। सीआरपीएफ के आरोप के मुताबिक छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में इस साल 11 मार्च को दरभा थाना क्षेत्र में तैनात सीआरपीएफ की 80वीं बटालियन के जवान ग्राम टहकवाड़ा के लिए रोड़ ओपनिंग पार्टी के लिए रवाना किए गए थे। इस 46 सदस्यीय टुकड़ी के 20 जवान घात लगाए नक्सलियों के एंबुश में फंस गए थे। इस हमले में विक्रम निषाद नामक एक ग्रामीण भी मारा गया था, जो घटना के वक्त अपनी मोटरसाइकिल से गुजर रहा था। इस खूनी मुठभेड़ के तुरंत बाद कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी बैठा दी गई थी। इसकी जांच में सामने आया है कि नक्सलियों द्वारा घात लगाकर किए गए इस हमले में सीआरपीएफ जवानों की आगे चल रही टुकड़ी फंस गई थी। जबकि पीछे आ रहे 17 जवान ऐसी विषम परिस्थिति में अपने साथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लोहा लेने के बजाय वहां से जान बचाकर भाग खड़े हुए।
सीआरपीएफ निदेशक जनरल दिलीप त्रिवेदी का कहना है कि शुरुआती जांच में दोषी मिले इन जवानों को छत्तीसगढ़ के आइजी ने निलंबित कर दिया है। पूरी जांच तीन महीने के भीतर पूरी कर ली जाएगी। एक दशक से ज्यादा समय से नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों से मोर्चा संभाल रही सीआरपीएफ की ओर से अपने जवानों के खिलाफ यह दुर्लभ अनुशासनात्मक कार्रवाई है
सीआरपीएफ के अधिकारियों का कहना है कि जांच में पता चला है कि अगर इन जवानों ने मुंहतोड़ जवाब दिया होता तो कई जानें बचाई जा सकती थीं और करीब 200 नक्सलियों में से कई ढेर भी किए जा सकते थे। करीब तीन घंटे तक चली इस मुठभेड़ में नक्सली शहीद जवानों से बड़ी संख्या में हथियार लूट ले गए थे।
ये तो हुए सीआरपीएफ के आरोप और अब तक की कार्यवाही, लेकिन इस एक प्रकरण का दूसरा पहलू भी है, जिसे नज़रअंदाज किया जा रहा है। दरअसल छत्तीसगढ़ में CRPF जवानों के निलंबन का यह प्रकरण कई गंभीर सवाल भी खड़े कर रहा है, जिस पर गौर किया जाना बेहद जरूरी है। पहला सवाल तो यह ही कि क्या सर पर कफन बांधकर नक्सल इलाकों में काम कर रहे जवानों का मनोबल टूट रहा है, दूसरा सवाल यह कि आखिर इन जवानों की मानसिक व भौतिक परिस्थितियों पर क्या पुनर्विचार नहीं किया जाना चाहिए। इस घटना ने छत्तीसगढ़ में एक नई बहस छेड़ दी है।
हालांकि तोंगपाल पुलिस थाने के एसआई शिशुपाल सिन्हा ने तहलका को बताया कि जिस दिन घटना हुई, वह उस दिन शासकीय कार्य से कहीं बाहर गए हुए थे, लेकिन मौके पर मौजूद लोग बताते हैं कि जवान भागे नहीं थे, बल्कि वे भी फायरिंग में फंस गए थे। यही कारण था कि वे अपने साथी जवानों की मदद नहीं कर पाए थे
पुलिस मुख्यालय ने इस पूरे विवाद से दूरी बना ही है। अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक मुकेश गुप्ता कहते हैं कि सीआरपीएफ के मामले में वे क्या बोल सकते हैं। यदि उन्होंने कार्रवाई की है, तो सही ही की होगी।
पुलिस मुख्यालय में पदस्थ एक अन्य उच्च पदस्थ अफसर भी मानते हैं कि जब जवानों को विशेष साहस दिखाने पर कई तरह से उपकृत किया जाता है, उन्हें आउट ऑफ टर्म प्रमोशन दिया जाता है तो गलती होने पर सजा क्यों नहीं दी जा सकती। वे कहते हैं कि हमारी फोर्स बेहद विपरीत परिस्थितियों में काम करती है, वहां जवानों की संख्या से ज्यादा उनका साहस मायने रखता है। सबको साथ मिलकर काम करना होता है, तभी सकारात्मक परीणामों तक पहुंचा जा सकता है। अब अगर ऐसे में टीमवर्क ही ना रहे, टीम भावना ही ना रहे तो कैसे काम चलेगा। कोई भी जवान कैसे अपने साथियों पर भरोसा कर पाएगा। जहां तक मनःस्थिति का सवाल है तो मौत से किसे डर नहीं लगता, लेकिन हमारे जवान अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए मौत से भी दो-दो हाथ करते हैं। अधिकारी कहते हैं, देखिए लीडरशिप की अवधारणा केवल पुलिस या सुरक्षा बलों में होती है, किसी और सरकारी महकमे में नहीं। ये लीडरशिप यही है कि यदि आपके अफसर ने हुकुम दिया कि कूदो मतलब कूदो, अब यदि जवान अपना दिमाग लगाने लग जाए तो वो कूदेगा ही नहीं, ऑर्डर ही नहीं मानेगा
लेकिन उनके ही विभाग का तोंगपाल थाने में ही पदस्थ एक पुलिसकर्मी ने नाम ना छापने की शर्त पर कहता है कि जवानों की स्थिति को समझे बगैर उनपर गलत कार्रवाई की गई है। अगर जवानों को कायरता ही दिखानी होती तो वे पहले ही ड्यूटी से मना कर देते। बिलकुल विपरीत परिस्थिति में हर संघर्ष करने वाले जवान कायर नहीं है। वे बरसात में भी हर एंटी नक्सल ऑपरेशन में भाग लेते रहे हैं। आप देखिए ना जवानों को, वे कैसे रह रहे हैं। कई कैम्प तो दुनिया से कटे हुए हैं, उन्हें हैलीकॉप्टर के जरिए भोजन और दवाईयां भेजी जाती हैं। ना उनके फोन में नेटवर्क है, ना ही कोई दूसरी सुविधा। कई बात तो छुट्टी मिलने के बाद जवानों को जगदलपुर आने में ही दो से तीन दिन लग जाते हैं, रायपुर पहुंचते-पहुंचते पूरा हफ्ता खराब हो जाता है, बताइए कितने दबाव में काम कर रहे हैं लोग, लेकिन यह किसी को नहीं दिखाई दे रहा है। चाहे पुलिसवाला हो या सीआरपीएफवाला, दोनों ही जटिल परिस्थितियों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं
पुलिसकर्मी की बात का समर्थन करते हुए तोंगपाल (सुकमा जिला) में ही काम करने वाले स्थानीय पत्रकार संतोष तिवारी तहलका से कहते हैं कि यहां की परिस्थितियां तो आम आदमी के जीने के लायक भी नहीं है। ना सड़कें हैं, ना मोबाइल फोन में नेटवर्क है। हम जगदलपुर से केवल 56 किलोमीटर दूर बैठे हैं, लेकिन सड़कविहीन रास्ते के कारण जगदलपुर पहुंचने में ही दो से ढ़ाई घंटे लग जाते हैं। बस्तर के अंदरूनी इलाकों में कैम्प कर रहे सीआरपीएफ जवानों की हालत तो और भी बदतर है। उन्हें कभी कीटों (छोटे कीड़े) के प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है तो कभी मलेरिया उनकी जान ले रहा है। जान जोखिम में डालकर तो वे काम कर ही रहे हैं, लेकिन ना तो उनके पास बातचीत की सुविधा है, ना ही बेहतर चिकित्सा व्यवस्था। रोज-रोज एक ही ऊबाऊ काम करके उनका मनोबल भी टूटता है।
इस वक्त पूरे छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ, आईटीबीपी जैसे सुरक्षा बलों की 36 बटालियन तैनात हैं। इनमें से 29 बटालियन अकेले बस्तर में लगाई गई हैं। एक बटालियन में 780 जवान होते हैं, लेकिन मोर्चे पर लड़ने के लिए 400 से 450 जवान ही मौजूद होते हैं। बस्तर में तैनात जवानों को नक्सलियों के इतर भी कई मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। नक्सलियों से पहले मच्छरों से उनका मुकाबला होता है। छत्तीसगढ़ में मई से लेकर नंबवर तक मच्छरों का प्रकोप रहता है। खासकर बस्तर में अनगिनत लोग मलेरिया के कारण काल के गाल में समा जाते हैं। इस साल की जुलाई तक ही राज्य मलेरिया कार्यालय द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़ों पर गौर करें तो अकेले बस्तर मेंमलेरिया के 23 हजार 774 मलेरिया पीड़ित मरीज मिल चुके हैं। हर साल कई जवान भी मलेरिया के कारण मर जाते हैं, हालांकि मलेरिया से मरने वाले जवानों का अधिकृत आंकड़ा कहीं भी उपलब्ध नहीं है। मच्छरों के प्रकोप का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि इस साल अमेरिका की ब्यूरो ऑफ डिप्लोमेटिक सिक्योरिटी द्वारा अमेरिकी नागरिकों के लिए जारी यात्रा एडवायजरी में छत्तीसगढ़ ना जाने की सलाह दी है, इसका कारण नक्सली व मच्छर बताए गए हैं। एडवायरी में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ में मलेरिया होना जानलेवा साबित हो सकता है। छत्तीसगढ़ में बस्तर एक ऐसा इलाका है, जहां फेल्सीफेरम मलेरिया ज्यादा फैलता है। इस मलेरिया में यदि सात दिनों के भीतर पीड़ित को सही दवा ना मिले, तो उसकी मौत निश्चित हो जाती है।
उसमान खान भी सुकमा जिले में आने वाले छिंदगढ़ जैसे घोर नक्सल प्रभावित इलाके के पत्रकार हैं। छिंदगढ़ तोंगपाल से भी 36 किलोमीटर अंदर है। खान कहते हैं कि मलेरिया भी जवानों का मनोबल तोड़ रहा है। इस वक्त तो यानि अगस्त-सितंबर को हमारे इलाके में मलेरिया का सबसे ज्यादा असर होता है। हर साल दर्जनों लोग दवाई के अभाव में मर जाते हैं। अभी भी कई जवान मलेरिया से जूझ रहे हैं। पिछले साल करीब डेढ़ दर्जन जवान केवल मलेरिया के कारण मौत के मुंह में चले गए थे
बस्तर में नक्सल मोर्चों पर तैनात जवानों के सामने कई परेशानियां हैं। जिन्हें उनके आला अधिकारी कितना समझते हैं, ये तो वे ही जानें, लेकिन कभी परिस्थितिवश उत्पन्न समस्याओं पर चर्चा होती नज़र नहीं आती। एंटी नक्सल ऑपरेशन की रणनीति बनाते वक्त भी राज्य सरकार के प्रतिनिधि और अफसर मलेरिया, मोबाइल नेटवर्क, जवानों को मनोवैज्ञानिक उपचार देने जैसे मुद्दों पर खास बात करते हुए नहीं दिखाई देते हैं। बहरहाल, तोंगपाल-दरभा प्रकरण को केंद्र में रखकर सीआरपीएफ और पुलिस के आला अफसरों को एक बार इन बिंदुओं पर भी जरूर गौर करना चाहिए।  


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