भाग्य की तस्वीर गढ़ने के लिए
बने शिक्षा के मंदिर शौचालयों के अभाव में लाखों छात्राओं का जीवन अंधकारमय कर रहे
हैं। राधा, फौजिया और सुनीता की कहानी उन हजारों हजार लड़कियों का दर्द बयां करने के लिए काफी है, जिन्होंने
ना चाहते हुए भी अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ दी। शौचालयविहीन विद्यालयों ने पढ़ाई के
दौरान इन लड़कियों के जीवन को नारकीय तो बना ही दिया था और पढ़ाई छोड़ने के कारण
अब यह लड़कियां अपने अस्तित्व को ही खो चुकी हैं।
छत्तीसगढ़ में 47 हजार 526 स्कूल हैं। इनमें 17 हजार से ज्यादा स्कूलों में
छात्रों और छात्राओं दोनों के लिए शौचालय ही नहीं हैं। इनमें प्रदेश के 8 हजार 164
कन्या विद्यालय भी शामिल हैं, जहां छात्राओं के लिए शौचालय
नहीं है। फलस्वरूप छात्राएं स्कूल जाने से कतराती हैं। कुछ समय पहले रायपुर से अलग
होकर नया जिला बना गरियाबंद में 1561 स्कूलों में से 604 स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय
नहीं है, जबकि 206 स्कूलों में छात्रों के लिए
शौचालय नहीं है। आदिवासी बाहुल्य वाले इलाकों में हालात ज्यादा बदतर हैं। सूबे में
हजारों छात्राएं सिर्फ इसलिए स्कूल छोड़ने को विवश हो गई हैं क्योंकि शौचालय नहीं
होने की वजह से उन्हें कई बार असहज स्थिति का सामना करना पड़ जाता है।
राधा (17 वर्ष) (बदला हुआ नाम)
रायपुर के सबसे सघन इलाके मोदहापारा में रहती है। तीसरी कक्षा उत्तीर्ण करने के
बाद उसने मुड़कर स्कूल की तरफ नहीं देखा। ऐसा नहीं है कि वह पढ़ना नहीं चाहती थी,
या उसके परिजन उसे पढ़ाना नहीं चाहते थे। लेकिन उसकी मजबूरी यह थी कि उसके स्कूल
में शौच या लघुशंका के लिए कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थी। ऐसे में जब पढ़ाई के दौरान
अपने इन प्राकृतिक क्रियाकलापों को निपटाने के लिए उसे दो किलोमीटर दूर स्थित अपने
घर का रुख करना पड़ता था, तब उसका कष्ट नारकीय हो जाता था। अक्सर होने वाले इस
कष्ट से मुक्ति पाने के लिए उसने खुद ही स्कूल नहीं जाने का फैसला कर लिया। चूंकि
राधा के मां बाप मजदूरी करते थे, इसलिए उन्होंने भी बेटी के इस फैसले में मौन
सहमति जता दी। आज राधा एक दफ्तर में पानी-चाय पिलाने का काम करती है, अपने आसपास
पढ़ी लिखी लड़कियों को देखकर उसके मन में कसक उठती है कि काश वह भी पढ़ लिख पाती
तो आज उसे दूसरों को चाय पिलाने का काम नहीं करना पड़ता।
राधा की कहानी में सबसे बड़ी
विंडबना यह है कि वह तो प्रदेश की राजधानी रायपुर में रहती है। तब भी उसे उसके
विद्यालय में शौचालय की सुविधा नहीं मिल पाई। पर राधा अकेली लड़की नहीं है, जिसका
भविष्य़ केवल इसलिए अंधकार में चला गया, क्योंकि उसके स्कूल में शौचालय नहीं था,
बल्कि राधा की ही सहेली फौजिया (बदला हुआ नाम) (15 वर्ष) की भी
यही कहानी है। फौजिया के पिता शेख उस्मान फलों का ठेला लगाते
हैं। उस्मान अपनी इकलौती संतान को खूब पढ़ाना चाहते थे, ताकि समुदाय में उनका मान
सम्मान बढ़ सके। लेकिन शासकीय प्राथमिक शाला कचना में
पढ़ने वाली फौजिया ने पांचवी कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ दी। अब फौजिया नमकीन
बनाने वाले एक कारखाने में काम करती है। राधा और फौजिया के साथ ही अकेले रायपुर
में हजारों लड़कियां ऐसी हैं, जिन्होंने या तो स्कूल छोड़ दिया या फिर पढ़ाई के
दौरान उस यातना को भोगने को मजबूर हैं, जिसकी तरफ आजादी के 67 साल बीतने के बाद भी
केंद्र और राज्य सरकारों ने गंभीरता से ध्यान ही नहीं दिया। केंद्रीय मानव संसाधन
मंत्रालय के हालिया सर्वे के मुताबिक अकेले रायपुर के 78 स्कूलों में छात्राओं और 220 स्कूलों में छात्रों के लिए
शौचालय की व्यवस्था नहीं है। वहीं राजधानी के 1000 स्कूलों में छात्राओं के 583 और छात्रों के लिए बने 516 शौचालय खराब स्थिति में हैं। इन
शौचालयों का इस्तेमाल करना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो गया है। ये स्थिति तब है,
जब रायपुर को राजधानी बने ही 13 साल हो गए हैं।
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर जब लाल
किले की प्रचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेझिझक स्वीकार करते हुए यह कहा
कि अधिकांश स्कूलों में शौचालय नहीं हैं। उन्होंने सांसदों को एक साल के भीतर
सांसद निधि से स्कूलों में शौचालय निर्माण कराने की बात कही। तब एक लड़की यह सुनते
हुए जोर-जोर से रोने लगी। यह लड़की 13 साल की सुनीता (बदला हुआ नाम) है। एक साल
पहले सुनीता के साथ जो घटना घटी, उसने उसकी जिंदगी ही बदल दी। दरअसल सुनीता
छत्तीसगढ़ के एक जिले धमतरी में एक सरकारी स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ रही थी।
एक दिन उसके लिए आफत का दिन बनकर आया। सुनीता लघुशंका के लिए स्कूल के पास ही बड़े
एक खंडहर में चली गई। आमतौर पर वह और उसकी सहेलियां इस खंडहर को शौचालय के रूप में
इस्तेमाल कर रही थीं। लेकिन उस दिन सुनीता की सहेली किसी कारणवश स्कूल नहीं आई थी।
जब सुनीता लघुशंका से फारिग हो रही थी, तभी दो युवकों ने आकर उसे पीछे से दबोच
लिया। शायद वह युवक स्कूल की छात्राओं को बहुत दिन से ताक रहे थे। उस दिन सुनीता
को अकेले खंडहर में जाते देख उन्हें मौका मिल गया। लेकिन सुनीता की किस्मत शायद उन
लड़कियों से अच्छी थी, जो दुर्भाग्य से दरिंदों की गिरफ्त में फंस जाती हैं। उसी
वक्त चार अन्य स्कूली छात्राओं ने खंडहर में प्रवेश किया और उन्हें देखकर दोनों
दरिंदे भाग खड़े हुए। लेकिन उस दिन के बाद परिजनों ने सुनीता का स्कूल छुड़वा
दिया। उस दुर्घटना के बाद खुद सुनीता भी स्कूल नहीं जाना चाहती थी। लेकिन संयोगवश
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुंह से स्कूलों में शौचालय की बात सुनकर सुनीता के
जख्म फिर हरे हो गए।
सुनीता की तकलीफ जायज़ है
क्योंकि कभी सूचना प्रोद्योगिकी में तरक्की तो कभी धान के उत्पादन के लिए, तो कभी
सावर्जनिक वितरण प्रणाली को कम्प्युटरीकृत करने के लिए देश में अव्वल रहने वाला
छत्तीसगढ़ अब पिछड़ा राज्य नहीं कहलाता। हर साल प्रति व्यक्ति आय में तेजी हो रही
बढ़ोत्तरी छत्तीसगढ़ की आर्थिक समृद्धि का प्रतीक बनती जा रही है। राज्य सरकार के
दावे के अनुसार 2011-12 में जहां राज्य की प्रति व्यक्ति आय 44 हजार 505 रुपए थी वह 2012-13 में 50 हजार 691 रुपए हो गई। वर्ष 2013-14 में यह 56 हजार 990 रुपए होने का अनुमान है। लेकिन इसके बावजूद छत्तीसगढ़ उन
राज्यों में भी शुमार है, जहां हजारों स्कूलों में आज भी शौचालय नहीं हैं और जहां
हैं, वे कंडम स्थिति में पहुंच चुके हैं। उनका इस्तेमाल करना भी स्वास्थ्य के लिए
हानिकारक है। यह हम नहीं कह रहे बल्कि केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय (एचआरडी) की
एक रिपोर्ट कह रही है।
रिपोर्ट बताती है कि प्रदेश में
जिन स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय बनाया गया था, वह रख-रखाव के अभाव में
अनुपयोगी हो चुके हैं। इसमें रायपुर में 583, कांकेर में 156, धमतरी में 150, बेमेतरा में 213, मुंगेली में 149 और बलौदाबाजार में 135, सूरजपुर में 503, बस्तर में 359, सरगुजा में 323, गरियाबंद में 235, कोरबा में 238, कोरिया में 189, जशपुर में 166 शौचालय कंडम स्थिति में पहुंच
गए हैं। आदिवासी क्षेत्र के स्कूलों में शौचालय की स्थिति पर बात करें तो यहां
स्थिति सर्वाधिक खराब है। बस्तर में 738, सूरजपुर में 683, सरगुजा में 560, गरियाबंद में 394, जशपुर में 369, कोरिया में 358 और कांकेर में 323 स्कूलों में शौचालय का निर्माण
किया गया, लेकिन अब
वे खराब हालत में पहुंच गए हैं।
इसी पखवाड़े की शुरुआत में
राज्य के स्कूल शिक्षा मंत्री केदार कश्यप खुद भी शौचालय विहीन स्कूलों को लेकर
चिंता जता चुके हैं। कश्यप ने नए रायपुर स्थित मंत्रालय में आला अफसरों की बैठक
बुलाकर उन्हें जल्द से जल्द स्कूलों में शौचालयों के निर्माण के निर्देश दिए हैं।
हो सकता है कि कश्यप की यह बैचेनी नरेंद्र मोदी की मंशा से जुड़ी हो। लेकिन इसे यह
देर आए दुरुस्त आए ही कहा जाएगा।
केदार कश्यप तहलका से कहते हैं
कि “यह सच है कि कई छात्राओं ने केवल इसी कारण स्कूल आना छोड़ दिया है।
लेकिन हम उन लड़कियों के लिए भी किसी ऐसी योजना पर विचार कर रहे हैं, जो उनकी
स्कूली पढ़ाई फिर से शुरु करवा सके”।
स्कूली शिक्षा के सचिव सुब्रत
साहू का कहना है कि “प्रदेश के सभी स्कूलों में शौचालय की
समुचित व्यवस्था की दिशा में काम शुरू कर दिए हैं। आने वाले समय में सभी स्कूलों
में इसकी बेहतर व्यवस्था देखने को मिलेगी”।
भले ही स्कूल शिक्षा मंत्री
स्कूल छोड़ रही छात्राओं पर दुख जता रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि वे इसे रोक
नहीं सकते। छत्तीसगढ़ में स्कूल शिक्षा विभाग तीसरा ऐसा विभाग है, जिसका सालाना
बजट दूसरे विभागों से कहीं ज्यादा होता है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता
है कि राज्य निर्माण के वक्त यानि वर्ष 2001-2002 में स्कूल शिक्षा विभाग का बजट
केवल 813 करोड़ 58 लाख था, जो 2013-14 में बढ़कर 6 हजार 298 करोड़ हो गया है। बजट
में जो बिंदु विशेष रूप से उल्लेखित किए गए हैं, उसमें कहीं भी शौचालय निर्माण को
शामिल करने की जहमत भी नहीं उठाई गई है। जबकि शालाओं में मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध
कराने के लिए (जिसमें प्रयोगशाला उपकरण के साथ फर्नीचर खरीदी को भी शामिल किया गया
है) 175 करोड़ का प्रावधान किया गया है। जाहिर है कि मूलभूत सुविधाओं में शौचालय
भी आता है, लेकिन इसके निर्माण में राज्य सरकार ने कुछ कम ही दिलचस्पी दिखाई है।
छत्तीसगढ़ में लंबे समय से काम
कर रहे है ऑक्सफैम इंडिया के कार्यक्रम अधिकारी विजेंद्र अजनबी कहते हैं कि “स्कूलों
में आवश्यक सुविधाओं का अभाव लड़कियों में कई बीमारियों को भी जन्म दे रहा है। हमारी
टीम के सामने लगातार कई ऐसे मामले आए हैं, जो चिंताजनक हैं”।
यह तो ठीक है कि राज्य बनने के
तेरह साल बाद ही सही इस संवेदनशील मुद्दे पर प्रदेश सरकार सक्रिय होती दिख रही है,
लेकिन शौचलयविहीन स्कूलों की संख्या में सूबे के स्कूल शिक्षा मंत्रालय
के आंकड़े केंद्र के आंकड़ों से कुछ अलहदा हैं। राज्य सरकार की मानें तो केवल दस
हजार स्कूलों में शौचालय नहीं है। अगर राज्य सरकार के आंकड़ों को ही सच माना जाए
तो दस हजार की संख्या भी छोटी नहीं होती। इन दस हजार स्कूलों में लाखों छात्राएं
अपना भविष्य गढ़ने आती होंगी। लेकिन उनके मानसिक कष्ट की कल्पना केवल वही कर सकता
है, जिसने कभी ऐसी परिस्थितियों का सामना किया होगा। यहां एक बात यह भी ध्यान में
रखनी होगी कि बात केवल लड़कियों की या उनके स्वास्थ्य भर की नहीं है। लाखों बालक
भी इस असुविधा का सामना कर रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक समय पर लघुशंका ना जाने
पर प्रतिवर्ष आठ लाख लोग संक्रमण और कीडनी संबंधी रोगों के शिकार हो जाते हैं। इनमें
बच्चों की संख्या शामिल नहीं है। लेकिन हम उन्हें शौचालय विहीन स्कूलों में भेजकर
उन बीमारियों की तरफ ही धकेल रहे हैं। सरकारी मशीनरी को ध्यान रखना होगा कि कल देश
का भविष्य गढ़ने वाली इस पीढ़ी के साथ ऐसा अन्याय करने वालों को समय माफ नहीं
करेगा।
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