बस्तर के धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में जाते वक्त, जहां प्रकृति के
सुंदर नजारे भी माओवाद की मनहूसियत में डूबे हैं, क्या कोई ये कल्पना भी कर सकता
है कि वहां कुछ सुखद, दिल को आनंद देने वाला और संतोषजनक भी मिल सकता है। जी हां
रायपुर से जगदलपुर जाते वक्त जैसे ही केशकाल घाटी पार होती है, वैसे ही एक गांव
आता है “लंजोडा”। लजोंडा यानि प्रकृति
की गोद में पलता एक गांव और यहां चल रहा 400 बच्चों का आवासीय ऋषि विद्यालय। यही
लंजोडा की पहचान बन चुकी है। गायत्री परिवार से जुड़े बी आर साहू ने इस विद्यालय
की संकल्पना की और अपने सहयोगी नकुल नेताम के साथ इसे साकार रूप दिया।
वर्ष 1995 से लंजोडा में चल रहा ऋषि विद्यालय इसलिए भी चर्चित है, क्योंकि
यहां बस्तर के दूर-दराज के आदिवासी बच्चों को लाकर जीवन का पाठ पढ़ाया जा रहा है।
ये बच्चे या तो नक्सल हिंसा में अपने माता पिता खो चुके हैं या फिर पुलिस और
नक्सलियों को गोलियों की आवाज सुनकर बड़े हुए हैं। इन बच्चों को दूर दराज से लाकर
उन्हें लंजोडा में लाकर पढ़ाया लिखाया तो जाता ही है, उन्हें स्वावलंबन का पाठ भी
पढ़ाया जा रहा है। पहली से दसवीं तक संचालित इस आवासीय विद्यालय में पढ़ाने वाले
नवयुवक और नवयुवतियां भी बस्तर के दूर दराज इलाकों से आकर यहां रह रहे हैं। लंजोडा
उस जगह से लगा हुआ है, जहां 1985 में अविभाजित मध्यप्रदेश के वक्त नक्सलियों ने
पहला सबसे बड़ा विस्फोट किया था। लेकिन आज इसे विस्फोट की वजह से नहीं बल्कि ऋषि
विद्यालय के कारण जाना जाता है।
ऋषि विद्यालय के सलाहकार सदस्य हरिसिंह सिदार कहते हैं कि नक्सल
प्रभावित इलाके में ऐसे विद्यालय को चलाना किसी चुनौती से कम नहीं है। लेकिन अपने
आदिवासी बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए हम प्रयासरत हैं। बच्चे भी यहां खुश रहते
हैं। हमारे विद्यालय के निकले कई आदिवासी बच्चे अच्छे-अच्छे मुकाम पर पहुंच चुके
हैं। कई प्रशासनिक सेवाओं में भी गए हैं।
इस विद्यालय की खूबी ये है कि इसके संचालक बी आर साहू बच्चों के लिए
खुद ही सारी भूमिकाएं निभाते हैं। कभी वे नाई बनकर सबके बाल काटते हैं, कभी पिता
बनकर उनको दुलारते हैं। आश्रम की तर्ज पर चल रहे इस विद्यालय में साफ-सफाई से लेकर
सारी जिम्मेदारियां शिक्षकों, बच्चों और बीआर साहू के परिवार के बीच बांटी गई हैं।
देश का पहला वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट भी यहां बनाया गया है। उपयोग हो चुके
निस्तारित पानी को फिर से भूमि के अंदर इस्तमाल करने लायक बनाया जाता है। इससे
आश्रम में कभी पानी की कमी नहीं होती।
यहां पढ़ रहा कोई बच्चा डॉक्टर बनना चाहता है तो कोई इंजीनियर। कुछ
बच्चे पत्रकार भी बनना चाहते हैं ताकि बस्तर की सही तस्वीर को दुनिया के सामने रख
पाएं। ये वे बच्चे हैं, जिनके सुनहरे भविष्य की उम्मीद उनके माता-पिता खो चुके थे।
लेकिन ऋषि विद्यालय ने उनकी उम्मीदों को नए पंख दे दिए हैं। वो उस वक्त में, जब
नक्सलियों ने बस्तर में चलने वाले अधिकांश विद्यालयों की इमारतें ध्वस्त कर दी
हैं। नक्सलियों का कहना है कि इन इमारतों में अर्ध्यसैनिक बलों को ठहराया जाता है।
इसलिए वे ऐसी किसी भी इमारत को अपने इलाकों में नहीं पसंद करते हैं।
धुर नक्सल प्रभावित गांव आमापल्ली की मनोरमा ऋषि विद्यालय में पांचवी
कक्षा में पढ़ती है। मनोरमा डॉक्टर बनना चाहती है। मनोरमा कहती है कि उसका सपना
जरूर पूरा होगा। मैं मन लगाकर पढ़ाई कर रही हूं। डॉक्टर बनकर अपने लोगों का मुफ्त
इलाज करूंगी।
चेरावाड़ी की मोनिका टीचर बनकर अपने गांववालों को पढ़ाना चाहती है। दस
साल की मोनिका अभी पांचवी में पढ़ रही है। उसके गांव में कोई भी पढ़ा लिखा नहीं
है। वो सबको पढ़ाकर समझदार बनाना चाहती है। वहीं केशकाल का दीपक मंडावी भी शिक्षक
ही बनना चाहता है। उसे भी अपने गांव के अशिक्षित होने की टीस महसूस होती है। वो
अभी सातवीं कक्षा का छात्र है। इनकी तरह ही युवराज नेताम, दयानंद, आकाश भी शिक्षक
बन दूसरों को शिक्षित करना चाहते हैं। ये बच्चे कहते हैं कि अशिक्षा के कारण ही आज
हमारा बस्तर जल रहा है। यदि लोग पढ़े लिखे और समझदार होते तो अपना भला बुरा समझ सकते
थे।
इन बच्चों के लिए हर तकनीकी समान जुटाने वाले नकुल नेताम खुद इंजीनियर
बनते बनते रह गए। कोंडागांव के रहने वाले नेताम के पास उस वक्त फीस भरने के लिए धन
नहीं था। लेकिन उन्हें भगवान ने ही इंजीनियर बनाकर भेजा है। भले ही वे डिग्री ना
ले पाए हों, लेकिन ऋषि विद्यालय के बच्चों के लिए जरूरी हर तकनीकि संसाधन वे खुद
जुटाते और बनाते हैं। चाहे बच्चों का खाना ले जाने वाली ट्राली हो, या फिर गंदे
पानी को फिर इस्तेमाल योग्य बनाने की प्रक्रिया। हर काम नकुल नेताम की छाप दिखाई
देती है। वहीं बच्चों के लिए अपना परिवार छोड़ चुके विजय राय भी दिन रात केवल
आदिवासी बच्चों की सेवा में लगे हुए हैं। राय का परिवार रायपुर में रहता है, जबकि
राय पिछले 16 सालों से बस्तर के बच्चों का जीवन संवारने के लिए प्रत्यनशील हैं।
बस्तर में चल रहा ये स्कूल वाकई में अद्वीतीय है। केवल इसलिए नहीं है
कि ये बस्तर में चल रहा है, बल्कि इसलिए कि यहां पढ़ने वाले बच्चों की आंखों में
एक नये सवेरे की झलक दिखाई देती है। ऐसी झलक, जिसमें बस्तर की पहचान माओवाद नहीं,
बल्कि अपनी तरक्की और खुशहाली नजर आती है। ये बच्चे बड़े होकर अपने इलाके की
तस्वीर बदलना चाहते हैं। वे डॉक्टर बनकर अपने लोगों की मुफ्त चिकित्सा करना चाहते
हैं, शिक्षक बनकर उन्हें पढ़ाना चाहते हैं। भविष्य के प्रति उत्साह देखकर तो यही
लगता है कि बगैर किसी सहायता और अनुदान के चल रहा ये विद्यालय सही मायने में इलाके
की तस्वीर बदलने में महती भूमिका निभाएगा।
3 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया
अंधेरे में आशा की किरण
शुक्रिया...
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