गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

ना आना इस देश लाड़ो



16 फरवरी 2014 को छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी जिले कांकेर के बागोड गांव के एक घर में हडकंप मच हुआ था। परिवार के लोग बैचेनी से पूरे गांव में किसी को ढूंढ रहे थे। दरअसल इस घर की नौ वर्षीय बेटी सुनीता (बदला हुआ नाम) दिन भर से लापता थी। जब रात 10 बजे तक बालिका का कोई पता नहीं चल पाया तो परिजन गांवोंवालों के साथ घर लौट आए और तय किया गया कि लड़की को दूसरे दिन अलसुबह फिर से खोजा जाएगा। लेकिन तभी गांव के ही एक युवक ने लड़की के भाईयों को रात में ही लड़की को ढूंढने के लिए मनाया। वह युवक और लड़की के भाई जब गांव से लगे जंगल में पहुंचे तो उन्हें सुनीता मिल भी गई लेकिन जिंदा नहीं मुर्दा।
कांकेर के बागोड़ गांव की सुनीता के साथ क्या हुआ, ये जानने से पहले यहां यह बताना जरूरी है कि छत्तीसगढ़ जैसा छोटा सा प्रदेश भी अब लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं रहा। चौंकाने वाले आंकड़े ये हैं कि प्रदेश में पिछले साल की तुलना में 33 फीसदी बलात्कार के मामले बढ़ गए हैं। वर्ष 2012 में बलात्कार के जहां 1034 मामले थे, वहीं 2013 में यह बढ़कर 1380 पहुंच गए। यही नहीं, 30 अप्रैल, 2014 तक प्रदेश में बलात्कार के 430 मामले दर्ज हुए हैं।। राजधानी रायपुर में पिछले एक सप्ताह में बलात्कार के तीन मामले सामने आए हैं। सभी मामलों में किशोर लड़कियों को निशाना बनाया गया है। छत्तीसगढ़ पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश में नाबालिगों के साथ बड़े पैमाने पर बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं। प्रदेश में रोजाना दो नाबालिगों के साथ बलात्कार हो रहा है। पुलिस के आंकड़ों को मानें तो प्रदेश में बलात्कार के शिकार में 50 फीसदी नाबालिग बच्चियां हैं। वर्ष 2013 में बलात्कार के 1380 मामलों में 658 केस नाबालिगों के साथ हुए बलात्कार के दर्ज हुए हैं। गैंगरेप के मामले में भी छत्तीसगढ़ पीछे नहीं है। पिछले साल गैंगरेप के सात मामले दर्ज किए गए, जिसमें एक से अधिक आरोपियों ने नाबालिग के साथ मिलकर बलात्कार किया है।
कांकेर की सुनीता भी ऐसे ही एक दर्दनाक और शर्मनाक हादसे की शिकार हो गई। 9 साल की बालिका के हत्या की गुत्थी को कांकेर पुलिस ने 24 घंटे के भीतर सुलझाते हुए गांव के 18 वर्षीय युवक चंद्रशेखर नेताम को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस की पूछताछ में आरोपी ने स्वीकार किया कि बलात्कार के प्रयास में असफल होने के कारण ही भाग रही बालिका को पत्थर से मारकर नृशंस हत्या कर शव को गांव के बाहर पत्थर के खोह में डालकर गांव वापस लौट गया था। जब परिजन बालिका को खोज रह थे, तब वह ना केवल भी खोजने वालों के साथ था, बल्कि सुनीता के भाईयों के साथ मिलकर शव को भी उसी ने ढूंढा था। सुनीता हमेशा की तरह गांव में घूम रही थी, तभी आरोपी चंद्रशेखर नेताम उसे बहला फुसला के जंगल की ओर ले गया और दुस्कर्म का दो बार प्रयास किया जो कि मृतका के विरोध के चलते असफल होने के कारण आरोपी ने एक पत्थर से सुनीता के छाती, पेट और चेहरे को कुचल दिया और लाश का पत्थर के बीच डालकर गांव वापस आ गया और घरवालों के साथ सुनीता को ढूंढने का नाटक करने लगा।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा 2011 में हुए आपराधिक घटनाओं पर जारी रिकार्ड के मुताबिक छत्तीसगढ़ में बलात्कार की 1053 घटनाएं हुईं। इससे 14 से 18 आयु वर्ग की बालिकाएं सर्वाधिक प्रभावित हैं। 344 मामलों में 14 से 18 आयु वर्ग की बालिकाओं के साथ बलात्कार किया गया। वहीं 18 से 30 आयु वर्ग में 377 महिलाएं अनाचार की शिकार बनीं। जांजगीर-चांपा जिले की समाजसेवी महिला संस्था ने अधिवक्ता मीना शास्त्री, जेके शास्त्री के जरिए हाईकोर्ट में जनहित याचिका लगाई है। इसमें देश में पिछले कुछ सालों में बलात्कार के लगातार बढ़ते मामलों पर चिंता जाहिर करते हुए कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार के मामलों की जांच और विचारण को लेकर सभी हाईकोर्ट सहित अन्य पक्षों को दिशा-निर्देश जारी किए थे। इसमें किसी का भी पालन नहीं किया जा रहा है। इसकी वजह से मामलों की संख्या बढऩे के साथ ही जांच और विचारण की कार्रवाई भी नियमानुसार नहीं हो रही है। छत्तीसगढ़ भी बलात्कार के मामलों से अछूता नहीं है।  याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने गुरमीत सिंह और साक्षी मामले में सुनवाई करते हुए जांच और विचारण ((इनवेस्टिगेशन एंड ट्रायल))को लेकर दिशा-निर्देश जारी किए थे कि बलात्कार के मामलों की जांच महिला पुलिस अफसर द्वारा ही कराई जानी चाहिए। इसी तरह मामलों का ट्रायल हमेशा बंद कमरे में ही होना चाहिए। मामलों की सुनवाई महिला जज द्वारा ही कराई जानी चाहिए। याचिका में कहा गया है कि वकीलों को भी सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों की जानकारी नहीं है, इसे देखते हुए स्टेट बार कौंसिल को भी पक्षकार बनाया गया है।
छत्तीसगढ़ में बढ़ते बलात्कार के मामलों पर राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष लता उसेंडी कहती हैं कि यह काफी गंभीर विषय है। जागरूकता के अभाव में लोग अपराध की तरफ बढ़ते हैं। आयोग ऐसे मामलों में संज्ञान ले रहा है। हम जल्द ही इस पर अंकुश लगाने के लिए कड़े कदम उठाएंगे।

राजधानी रायपुर में एक दिन में तीन शिकायतें
राजधानी में 31 अगस्त 2014 को एक साथ तीन बलात्कार के मामले सामने आए। उरला इलाके में एक ढाई साल की बच्ची से बलात्कार की कोशिश की गई। स्थानीय लोगों ने आरोपी को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया। स्टेशन रोड लोधीपारा निवासी हरिकृष्ण मिश्रा उर्फ छोटू ने एक महिला के साथ बलात्कार किया। महिला में अपनी शिकायत में कहा कि हरिकृष्ण ने उसके साथ 31 दिसम्बर 2013 की रात चाकू की नोंक पर बलात्कार किया। आरोपी अब तक पुलिस की गिरफ्त से बाहर है। वहीं, तेलीबांधा में रिश्तेदार ने ही युवती की आबरू लूट ली। जलविहार कॉलोनी में रहने वाले नरेंद्र सोनी ने युवती को बंधक बनाकर कई दिनों तक बलात्कार किया।
आदिवासी जिलों में दर्ज नहीं हो रहे मामले
पुलिस मुख्यालय के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार आदिवासी जिलों में बलात्कार के मामले थानों तक कम पहुंच रहे हैं। पीड़िता या तो ग्रामीणों के दबाव में या सामाजिक कारणों से थानों में शिकायत नहीं कर रही हैं। सीआईडी के एक अधिकारी ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि थानों में बलात्कार की शिकायतें जागरूकता के कारण बढ़ रही हैं। पहले ये शिकायतें थाने नहीं पहुंच रही थीं। यह पुलिस और प्रशासन के लिए अच्छा संकेत है। पुलिस मुख्यालय से मिली जानकारी के अनुसार, बस्तर के आदिवासी जिले बीजापुर में 6, दंतेवाड़ा में 9, नारायणपुर में 10, सुकमा में 8 और कोंडागांव में 19 मामलों में एफआईआर दर्ज की गई।
सबसे ज्यादा शिकार नाबालिग
चौंकाने वाले आंकड़े ये हैं कि प्रदेश में पिछले साल की तुलना में 33 फीसदी बलात्कार के मामले बढ़ गए हैं। वर्ष 2012 में बलात्कार के जहां 1034 मामले थेवहीं 2013 में यह बढ़कर 1380 पहुंच गए। यही नहीं, 30 अप्रैल, 2014 तक प्रदेश में बलात्कार के 430 मामले दर्ज हुए हैं।। राजधानी रायपुर में पिछले एक सप्ताह में बलात्कार के तीन मामले सामने आए हैं। सभी मामलों में किशोर लड़कियों को निशाना बनाया गया है। छत्तीसगढ़ पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश में नाबालिगों के साथ बड़े पैमाने पर बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं। प्रदेश में रोजाना दो नाबालिगों के साथ बलात्कार हो रहा है। पुलिस के आंकड़ों को मानें तो प्रदेश में बलात्कार के शिकार में 50 फीसदी नाबालिग बच्चियां हैं। वर्ष 2013 में बलात्कार के 1380 मामलों में 658 केस नाबालिगों के साथ हुए बलात्कार के दर्ज हुए हैं। गैंगरेप के मामले में भी छत्तीसगढ़ पीछे नहीं है। पिछले साल गैंगरेप के सात मामले दर्ज किए गएजिसमें एक से अधिक आरोपियों ने नाबालिग के साथ मिलकर बलात्कार किया है।
पोक्सो में दर्ज होता है मामला
नाबालिग के साथ हो रहे बलात्कार के मामले में पुलिस पोक्सो एक्ट लगा रही है। इसमें अलग-अलग 47 धाराओं को एक साथ जोड़ा गया है। यही नहींमुकदमा कायम नहीं करने वाले पुलिस अधिकारी के खिलाफ भी कार्रवाई का प्रावधान है। इसमें पुलिस अधिकारी को जेल की सजा हो सकती है।
थाने नहीं पहुंच पाते सैकड़ों मामले
बलात्कार और अन्य अपराध के सैकड़ों मामले थाने ही नहीं पहुंच पाते हैं। एनसीआरबी के अनुसार छत्तीसगढ़ में एक साल में 318619 शिकायतों में से मौखिक शिकायतें 133272 हैं। इसमें पीड़ित थाने नहीं पहुंचे हैं। थाने में लिखित शिकायतें 84930 दर्ज की गई हैं। इसके साथ ही पुलिस कंट्रोल रूम में 100 नंबर डायल करके 62567 मामलों की शिकायत दर्ज कराई गई है। पुलिस ने स्वविवेक के आधार पर भी 37850 मामले दर्ज किए हैं।
शौचालय का नहीं होना भी कारण
हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सभी प्रदेशों से यह जानकारी मांगी है कि खुले में शौच करने जा रही कितनी महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ है। दरअसलइस जानकारी का इस्तेमाल निर्मल भारत अभियान में भी किया जाएगा। बताया जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में 40 फीसदी घरों में अब भी शौचालय नहीं है।
डीजीपी एएन उपाध्याय का कहना है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग खुले में शौच करने जा रही महिलाओं के साथ हो रही बलात्कार की घटना से चिंतित है। इसको देखते हुए पुलिस मुख्यालय से यह जानकारी मांगी गई है कि प्रदेश में कितनी महिलाओं के साथ खुले में शौच करने जाते समय बलात्कार हुआ है। इसके लिए सभी जिलों के एसपी को पत्र भेजा गया है।
जशपुर के एसपी जितेंद्र मीणा ने बताया कि संपूर्ण स्वच्छता अभियान के लक्ष्य को पूरा करने के लिए भी यह जानकारी एकत्र की जा रही है। रायगढ़ एसपी राहुल भगत ने बताया कि पिछले दिनों एक रिपोर्ट में सामने आया कि बलात्कार का एक बड़ा कारण महिलाओं का शौच के लिए घरों से बाहर जाना है। इसको देखते हुए सभी थानों से जानकारी मांगी गई है।
ढाई लाख घरों में पक्का शौचालय बनाने का लक्ष्य
राज्य सरकार ने निर्मल भारत अभियान के तहत छत्तीसगढ़ में चालू वित्तीय वर्ष में दो लाख 42 हजार घरों में पक्के और स्वच्छ शौचालयों के निर्माण का लक्ष्य निर्धारित किया है। इनमें से 75 हजार शौचालय इंदिरा आवास योजना के तहत मकान बनाने वाले परिवारों के यहां बनाए जाएंगे। वर्ष 2013-14 की निर्मल भारत अभियान की कार्ययोजना में एक लाख 15 हजार 875 बीपीएल परिवारों और एक लाख 30 हजार 698 एपीएल परिवारों में शौचालय निर्माण का लक्ष्य रखा गया है।

राज्य में अब तक कुल 19.37 लाख शौचालयों का निर्माण किया जा चुका है। इसमें स्कूलों में कुल 51 हजार 832 शौचालय बनाए गए हैं। अभियान के तहत शौचालय निर्माण के लिए प्रत्येक आवेदक परिवार को दस हजार रुपए की सहायता शासन द्वारा दी जा रही है। इसमें से साढ़े चार हजार रुपए मनरेगा के तहत और 900 रुपए स्वयं आवेदक का अंशदान होता है।

फैक्ट फाइल
वर्ष-बलात्कार
वर्ष 2011 में छग में 1053 बलात्कार के मामले
वर्ष 2013 में छत्तीसगढ़ में 1380 बलात्कार के मामले
वर्ष 2012 में छत्तीसगढ़ में 1034 बलात्कार के मामले
वर्ष 2013 में राजधानी रायपुर में 85 बलात्कार के मामले दर्ज
वर्ष 2012 में राजधानी रायपुर में 64 बलात्कार के मामले दर्ज
सबसे ज्यादा बलात्कार इन जिलों में
रायपुर-139
दुर्ग-106
बिलासपुर-96
रायगढ़- 90
जशपुर-88
बलरामपुर-84
(वर्ष 2013 के पुलिस रिकॉर्ड से प्राप्त जानकारी के अनुसार)

अनेक समुदायों का बैंड "बस्तर बैंड"




बस्तर बैंड की खासियत ये है कि इसमें कई समुदाय के लोग जुड़े हैं। वैसे तो बस्तर में मुख्यतः गोंड जनजाति के लोग निवास करते हैं। लेकिन गोंड जनजाति भी कई उप-जातियों में विभाजित है। इनमें घोटुल मुरिया, राजा मुरिया, दंडामी माडिया (बायसन हार्न माडिया (भैंस के सींग सर पर लगाने वाले)), धुरवा, परजा, दोरला, मुंडा, मिरगान, कोईतूर शामिल हैं। बस्तर में महरा और लोहरा भी रहते हैं, जिन्हें आदिवासी नहीं माना गया है, लेकिन इनकी संस्कृति ठीक वैसी है, जैसी आदिवासियों की। एक चीज है, जो इन सभी को जोड़े रखती है और सभी में समानता का भाव पैदा करती है, वो है इनका नृत्य और संगीत। वाद्य परंपरा के कारण सभी समुदाय आपस में जुडे हुए दिखाई देते हैं। बस्तर में लिंगादेव की गाथा सुनाई जाती है, जिनमें बस्तर के 18 वाद्य यंत्रों का उल्लेख किया गया है। दरअसल लिंगादेव को नृत्य और संगीत का देवता माना गया है। हालांकि पूरे बस्तर में करीब 45 वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। बस्तर के आदिवासियों के बीच हजारों देवी-देवता पूजे जाते हैं। इन सभी देवताओं के लिए संगीत की अलग-अलग धुन का प्रयोग किया जाता है। नगाड़ा, देवमोहिरी (विशेष प्रकार की शहनाई), तुड़मुड़ी, मुंडा बाजा, पराए, तिरदुड़ी, बिरिया ढोल, किरकिचा, जलाजल, वेरोटी (विशेष प्रकार की बांसुरी) ऐसे अनेक वाद्य यंत्र हैं, जिनका संगीत आपको रोमांचित कर देता है। इन जनजातिय वाद्य यंत्रों की स्वर लहरियो में ठेठ लोक संस्कृति की खुशबू महसूस की जा सकती है। बस्तर बैंड की खासयित है कि एक ही मंच पर कई समुदाय और उनके वाद्य यंत्रों के संगीत का लुत्फ उठाया जा सकता है। जबकि ये बस्तर में भी संभव नहीं है, क्योंकि एक वक्त और एक जगह पर आप केवल किसी एक ही समुदाय के वाद्य यंत्र को सुन सकते हैं। जबकि बस्तर बैंड इस संगीत परंपरा को सहेजने से भी एक आगे बढ़कर बस्तरिया संगीत का फ्यूजन तैयार कर दर्शकों के सामने परोसने का काम भी कर रहा है।

ऐसे ही बस्तर के गोंडी जनजाति के सबसे अहम मुंडा समुदाय के बाबूलाल बघेल और साहदुर नाग बस्तर बैंड से जुड़े हुए हैं। कमर में पटकू लपेटे हुए (घुटने के ऊपर लुंगीनुमा परिधान पहने हुए), सिर पर पागा बांधे हुए बाबूलाल बघेल बताते हैं कि कभी किसी जमाने में हमारे पूर्वज कढू और बेताल राजा अन्नम देव के साथ बस्तर पहुंचे थे। कढ़ू और बेताल के परिवार ही पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ते हुए आज मुंडा समुदाय के रूप में बस्तर में मौजूद हैं। बघेल और नाग मुंडा बाजा बजाते हैं। बगैर इनके वाद्य यंत्र के बस्तर के मशहूर दशहरे की शुरुआत नहीं हो सकती है। इसका कारण है कि जगदलपुर के राजा अन्नमदेव के जमाने से ही मुंडा समुदाय को बस्तर दशहरे का स्वागत अपने वाद्य यंत्र को बजाकर करने का दायित्व सौंपा गया था। जो परंपरा आज भी अनवरत जारी है। मुंडा बाजा की खासियत ये है कि इस पर बकरे की खाल को बाल सहित चढ़ाया जाता है। जगदलपुर के पोटानार गांव में रहने वाले बाबूलाल बघेल बताते हैं कि हमारी कई पीढ़ी पहले हमारे वाद्य यंत्र को मेढंक की चमड़ी लगाकर तैयार किया गया था, लेकिन उसका आकार बेहद छोटा था। समय के साथ वाद्य यंत्र का आकार बढ़ा तो इसे बकरे की चमड़ी लगाकर तैयार किया जाने लगा। चार एकड़ जमीन पर धान बोकर जीवन यापन करने वाले बघेल बस्तर बैंड के साथ 2008 में जुड़े थे। बैंड के संयोजक अनूप पांडे जब वाद्य यंत्रों को खोजते हुए उनके गांव पहुंचे तो उन्हें अपने दल में शामिल होने का न्यौता दिया। तब से आज तक वे बस्तर बैंड से जुड़कर दर्जनों प्रस्तुतियां दे चुके हैं।
इन अपने उन्मुक्त जीवन को अब ये समुदाय पहले की तरह नहीं जी पा रहे हैं। इसका कारण है बस्तर में व्याप्त नक्सल समस्या। बाबूलाल बघेल बताते हैं कि अब हम खुलकर अपनी संस्कृति को नहीं सहेज पा रहे हैं। कुछ दशक पहले तक हम खुलकर नाचते, गाते और अपने उत्सव मनाते थे। लेकिन अब बंदूकों के साए में जीना बेहद मुश्किल हो गया है। हम पर दोनों तरफ से बंदूकें तनी हुई हैं। इकट्ठा होना भी संदेह की नजरों से देखा जाता है। यही कारण कि हमारे बच्चे वो परिवेश नहीं पा रहे हैं, जो हमें मिला था। अब तो बस डर के साए में जीवन कट रहा है। लेकिन एक परिवर्तन हमें खलता है, वो ये कि हमारे बच्चे अब पांरपरिक परिधान नहीं पहनना चाहते हैं, उन्हें शर्ट पेंट चाहिए।
मुंडा समुदाय के ही साहदुर नाग बताते हैं कि पहले हमारे समुदाय का जीवन यापन घर घर जाकर धान मांगकर होता था। राजा ने हमें खेती का काम नहीं सौंपकर घर घर जाकर बाजा बजाने का काम सौंपा था। वही हमारी पंरपरा थी। लेकिन अब समय के साथ हम कमाने और खेती करने लगे हैं। मैं मनिहारी (सौंदर्य प्रसाधन बेचने) का काम करता हूं। जगदलपुर के बाजार से सामान लाकर गांव में लगने वाले साप्ताहिक हाट में सामान बेचता हूं। बचे हुए समय में बस्तर बैंड के साथ प्रस्तुति देता हूं। हम जगदलपुर के आसपास रहने वाले लोग हल्बी बोली बोलते हैं, जबकि बैंड के अधिकांश सदस्य गोंडी बोली बोलते हैं। लेकिन साथ काम करते करते ना केवल एक दूसरे के नृत्य संगीत को सीख रहे हैं, बल्कि एक दूसरे की बोली भी समझने लगे हैं। किसी भी कार्यक्रम के पहले एक हफ्ता जमकर रिहर्सल करते हैं। कई बार रिहर्सल का मौका नहीं भी मिल पाता है। जब मिलता है तो मिलजुल कर कोई नई धुन या संगीत बनाने का मौका मिल जाता है।
घोटुल मुरिया समुदाय के नवेल कोर्राम और दशरूराम कोर्राम भी बस्तर बैंड से जुड़े हुए हैं। जिला नारायणपुर के गांव रेमावंड के रहने वाले नवेल ओर दशरूराम  पराए बजाते हैं। पराए एक प्रकार का ढोल होता है, जिसके दोनों तरफ बैल के चमड़ा लगाया जाता है। पराए ना केवल एक वाद्य यंत्र है, बल्कि घोटुल मारिया समुदाय की पूज्य और अनिवार्य वस्तु भी है। पराए का महत्व इसी बात से पता चलता है कि यदि शादी करने वाले युवक के घर पराए ना हो तो, उसे दंड स्वरूप 120 रुपए भरने होते हैं। रिश्ता तय होने के पहले वर पक्ष से पूछा जाता है कि उनके घर में पराए है कि नहीं। ये बाजार में नहीं बिकता, बल्कि हर परिवार अपने लिए पराए को खुद बनाता है। शिवना नामक पेड़ की बकायदा पूजा करके पराए के लिए लकड़ी काटी जाती है। बदलते जमाने का असर दशरूराम की पोशाक में देखा जा सकता है। शर्ट पेंट पहने हुए दशरूराम बताते हैं कि उनके पास 15 एकड़ जमीन है। जिसपर वे धान की खेती करते हैं। दशरूराम के पास सिरहा की जिम्मेदारी भी है। सिरहा मतलब जिसके सिर देवी आती हो। दशरूराम बताते हैं कि उनके पिता भी सिरहा थे। उनकी मृत्यु के बाद अचानक मुझ पर भी देवी आने लगी। अब हर रोज शाम चार बजे दशरूराम के घर बैठक होती है। जिसमें वो लोगों की समस्याओं का समाधान भी करता है और बीमारियों का आर्युवैदिक उपचार भी।
नवेल कोर्राम विशुद्ध रूप से आदिवासी संस्कृति को अपनाए हुए हैं। उघारे बदन, पटकू और पागा पहनने वाले नवेल भी दशरूराम के साथ 2007 में ही बस्तर बैंड से जुड़ गया था। मुख्यतः खेती किसानी करके अपना परिवार पालने वाले नवेल के पास छह गाय भी हैं। लेकिन बस्तर में दूध नहीं बेचा जाता। इसलिए नवेल गाय के दूध का उपयोग घरवालों के लिए ही करता है। नवेल भी पराए बजाता है। नवेल के मुताबिक जब घोटुल मुरिया समुदाय में कोई शादी होती है तो सभी गांववाले मिलकर घोटुल में पराए की थाप पर नाचते हैं। ये शादी के लिए अनिवार्य रसम है। घोटुल इस समुदाय की परंपरा का अभिन्न अंग है। घोटुल मतलब गांव के बीचों बीच बनी एक झोपड़ी, जिसपर पूरे गांव का अधिकार होता है। गांव की हर बैठक, सभा, नाच-गाना, समारोह इसी घोटुल में आयोजित किए जाते हैं। अपने गांव से पहली बार निकलकर दूसरे लोगों के सामने प्रस्तुति देने का अनुभव कैसा रहा, ये पूछने पर नवेल की आंखों में चमक आ जाती है। वह कहता है कि शब्दों में उन अनुभव को बता पाना मुश्किल है क्योंकि कभी सोचा नहीं था कि कहीं बाहर भी हम अपनी संस्कृति का प्रदर्शन कर पाएंगे। नवेल दुखी हैं कि अब घोटुल परंपरा खत्म होने लगी है। माओवादी भी घोटुल को पसंद नहीं करते। इसलिए अब युवक युवती घोटुल में रात नहीं बिताते। लगता है धीरे धीरे हमारी संस्कृति खत्म होती जा रही है।
महरा समुदाय, जिनके वाद्य यंत्र देवमोहिरी (विशेष प्रकार की शहनाई) के बगैर बस्तर में किसी भी प्रकार के शुभ कार्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। चाहे शादी हो या देवी देवताओं की पूजा। जैसा कि नाम से जाहिर है देवमोहिरी यानि देवताओं को मोहित करने वाली। ऐसे ही महरा समुदाय के श्रीनाथ नाग और अनंत राम चाल्की भी बस्तर बैंड के सदस्य हैं। नए जमाने का प्रभाव श्रीनाथ और अनंतराम पर भी पड़ा है। श्रीनाथ जहां नानगुर जिला जगदलपुर के निवासी हैं. वहीं अनंतराम कैकागढ़, जिला जगदलपुर में रहते हैं। श्रीनाथ मजदूरी करके जीवनयापन करते हैं। साल के चार महीने उनका काम केवल देवमोहिरी बजाने का है। दरअसल चार महीने शादियों का सीजन होने से उनके पास भरपूर काम होता है, बाकी दिनों वे खेतों में मजदूरी करके अपना घर चलाते हैं। 2007 में बैंड की शुरुआत के वक्त से ही श्रीनाथ समूह से जुड़े हुए हैं। अब तक वे 50 से भी ज्यादा प्रस्तुति दे चुके हैं। वे बताते हैं कि गांव से निकलकर दूसरे शहरों और राज्यों में प्रदर्शन करने से उन्हें जो मिला, उसे बयान नहीं किया जा सकता। दर्शक और श्रोता तो सम्मान देते ही हैं, गांव में भी हमारा सम्मान बढ़ गया है। अनूप पांडे ने इन्हें भी इनके गांव से खोज निकाला, पहले तो ग्रुप से जुड़ने में श्रीनाथ ने आनाकानी की। लेकिन जब एक बार जुड़े तो अभी तक हर प्रस्तुति के लिए पहुंच ही जाते हैं। वे बताते हैं कि ये बैंड एक ऐसी कंपनी की तरह है, जिसका मुनाफा सबमें बांट दिया जाता है। बैंड के साथ रहते हुए रोज का खाना तो मिलता ही है। हर शो का भी भुगतान होता है। श्रीनाथ बताते हैं कि एक कार्यक्रम में उन्होंने पंथी और करमा नृत्य देखा था, जो मध्यप्रदेश के मंडला जिले में किया जाता है। छत्तीसगढ़ के भी कुछ हिस्सों में ये नृत्य किए जाते हैं। उन्हें पंथी और कर्मा बेहद पंसद आया था। वे कहते हैं कि जैसे हमें दूसरे के पारंपरिक नृत्य पसंद आए, वैसे ही हमारे भी कई कद्रदान अब देशभर में मौजूद हैं।
अनंतराम चाल्की ऑटो चलाते हैं। बैंड में जुड़ने के पहले वे शादी ब्याह में देवमोहिरी बजाया करते थे। लेकिन अब बस्तर बैंड के साथ परफार्म करते हैं। अनंतराम कहते हैं कि बैंड से जुड़कर मैने सही ढंग से बजाना भी सीखा। मैने कभी नहीं सोचा था कि देशभर में घूमूंगा। ये मेरे लिए अनमोल अनुभव है। घर चलाने लायक तो हम कमा ही लेते हैं, लेकिन अपनी संस्कृति का संरक्षण और उसका विस्तार ऐसे भी हो सकता है। ये जानकर खुशी होती है। हम तो पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी विरासत को आगे बढ़ा ही रहे थे। ये मौखिक और वाचिक परंपरा है, जिसे कहीं लिखा नहीं गया, लेकिन वो हर पीढ़ी में हस्तातंरित होती रही है। लेकिन दुनिया भर के सामने अपनी पंरपरा को रखना सुखद अनुभव है।
दन्नामी माडिया समुदाय के होंगी (माया) सोरी और बुधराम सोरी भी बस्तर बैंड का अभिन्न हिस्सा है। बुधराम बिरिया ढोल बजाते हैं। इस बिरिया ढोल के बगैर भी दन्नामी माडिया समुदाय में ना तो शादी ब्याह संपन्न होता है ना ही अंतिम संस्कार। इसे समुदाय के लोग खुद ही बनाते हैं। इसकी खासियत ये है कि इस ढोल के एक तरफ बैल का चमड़ा होता है तो दूसरी तरफ बकरे का। जब इस ढोल को बनाने के लिए शिवना पेड़ की लड़की काटी जाती है, तब बकायदा पूजा करके पेड़ को नारियल चढ़ाया जाता है। बिरिया ढोल जब शादी के मौके पर बजता है तो अलग धुन होती है, लेकिन जब किसी के अंतिम संस्कार के वक्त बजता तो है तो अलग धुन निकाली जाती है। इसकी आवाज इतनी तेज होती है कि आसपास के 30-35 गांव तक सुनाई देती है। धुन सुनकर दूसरे गांव के लोग अंदाजा लगा लेते हैं कि किसी की शादी हो रही है या किसी का अंतिम संस्कार संपन्न किया जा रहा है। बुधराम को वर्ष 2010 में उस्ताद बिस्मिल्ला खान संगीत पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। बुधराम भी किसान है।
होंगी (माया) सोरी दंतेवाड़ा के जरीपारा गांव में रहती है। होंगी तिरदुड़ी बजाती है। तिरदुड़ी लोहे से बना हुआ एक वाद्य यंत्र है। होंगी की एक ओर जिम्मेवाही है गीत गाने की। होंगी बताती हैं कि उनके माता पिता जोगी और देवालान सोरी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सामने गौर नृत्य (आदिवासियों द्वारा किया जाने वाला एक नृत्य) प्रस्तुत किया था। इसके लिए वे विशेष रूप से दिल्ली बुलाए गए थे। होंगी महुआ बीनकर अपना घर चलाती हैं। अभी महुआ बीनने का ही मौसम चल रहा है, लेकिन बैंड से लगाव के कारण वे प्रस्तुति देने निकली हुई हैं।
धुर्वा समुदाय के भगतसिंह नाग नेतीनार जिला बस्तर के रहने वाले हैं। वे वेरोटी (बांसुरी) बजाते हैं। अभी 12वीं की पढ़ाई कर रहे भगतसिंह को राजस्थानी नृत्य संगीत से भी बेहद लगाव है। वे एक पढ़े लिखे आदिवासी परिवार से हैं। भगतसिंह के बड़े भाई सहायक शिक्षक हैं और भाभी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। भगतसिंह बस्तर के उन युवाओं में से हैं, जिन्हें बाहरी दुनिया आकर्षित भी करती है और वे दुनिया के गुणा भाग को समझते भी हैं। भगत सिंह बतात हैं कि कई बार अपने ग्रुप की प्रस्तुति के वक्त आयोजिक कार्यक्रमों में उन्होंने राजस्थानी लोकसंगीत भी देखा और सुना है। जो उन्हें बेहद पंसद आया। भगतसिंह कहते हैं कि दूसरे राज्यों की लोक संस्कृति देखकर अच्छा लगता है। वेरोटी यानि बांसुरी के बारे में भगत बताते हैं कि इसे मढ़ई मेलों के वक्त बजाया जाता है। शादी ब्याह में भी इसे बजाया जाना शुभ माना जाता है। 2011 में वे बैंड से जुड़े हैं। नए लोगों से मिलना, मान सम्मान पाना उन्हें रोमांचित करता है। इसलिए वे बैंड से जुड़े रहना चाहते हैं। वे किरकिचा (लोहे से बना वाद्य यंत्र) और जलाजल (घुंघरूओं से बना बाजा) भी बजाते हैं। हम सब मिलकर 150 स 200 धुने तैयार कर चुके हैं। इसे आप जनजातिय संगीत का फ्यूजन मान सकते हैं। जब हम मिलकर प्रैक्टिस करते हैं तो कई बार नई धुने तैयार हो जाती हैं। ये मिलकर रिहर्सल करने का वक्त निकाल ही लेते हैं। जबकि सब अलग अलग गांवों, जिलों में रहते हैं। अलग अलग समुदायों से हैं। लेकिन जब इकट्ठे होते हैं तो लगता है कि बस्तर के सारे गुलाब एक ही गुलदस्ते में महक रहे हैं।
जब 45 वाद्य यंत्र एक साथ स्वर लहरी छोड़ते हैं तो माहौल नशीला सा लगने लगता है। वैसे भी बस्तर के वाद्य यंत्रों की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वे श्रोता को झूमने पर मजबूर कर देते हैं। नगाड़ा, देवमोहिरी और तुड़मुड़ी को एक साथ बजाने की पंरपरा हैं। जब ये तीनों वाद्य यंत्र बजते हैं, तो ये शौर्य रस का आभास पैदा करते हैं। इन्हें सुनते वक्त ऐसा लगता है जैसे वीर रणभूमि की तरफ प्रस्थान कर रहे हैं। लेकिन जब यही तीनों वाद्य यंत्र पराए, तिरदुड़ी, बिरिया ढोल, किरकिचा और जलाजल के साथ बजते हैं तो समा सुरमयी हो जाता है। ताड़ी और सल्फी (दोनों देशी शराब का प्रकार हैं) की मादकता इन वाद्य यंत्रों में उतर आती है। आदिवासी इलाकों में घर में बनाई जाने वाली शराब का अलग महत्व है। मदिरा आदिवासी संस्कृति का अभिन्न अंग है....इसका सुरुर जनजातीय वाद्य यंत्रों की स्वर लहरियों में महसूस किया जा सकता है। बस्तर बैंड के सदस्यों की तैयार धुनें केवल नृत्य, मौज मस्ती भर के लिए नहीं, बल्कि देवी और देवताओं की अराधना के लिए भी होती हैं। ये धुनें अपनी कथा वाचक परंपरा को भी आगे बढ़ाती हैं। पराए और बिरिया ढोल की थाप पर थिरकते हुए आदिवासी युवक युवती आपको भी थिरकने को मजबूर कर देते हैं। माओपारा (वनभैंसे को मारने की नृत्य नाटिका) हो या लोरी चंदा की प्रेम कहानी, आल्हा उदल की शौर्य गाथा हो या लिंगादेव की गाथा हो, हर गाथा और गीत के साथ बजते वाद्य यंत्र करिश्माई माहौल पैदा करने का माद्दा रखते हैं। यही बस्तर के वाद्य यंत्रों की विशेषता है।


अब पत्थर पर उगेगा धान


केवल पानी में उगने वाला धान अब पथरीली जमीन पर भी उगाया जा सकेगा। छत्तीसगढ़ के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने धान की ऐसी ही कई नई किस्मों को खोज निकाला है। इनमें पथरीली जमीन पर उगने वाला दगड़ धान, दुर्गेश्वरी, इंदिरा राजेश्वरी, बमलेश्वरी, दंतेश्वरी, डोकरा-डोकरी, तुलसी मंजरी, दो दाना, अम्मा रूठी और श्याम जीरा जैसी कई किस्में शामिल हैं।
धान केवल अनाज का एक रूप ही नहीं वरन छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर है। वैसे भी सूबे को धान का कटोरा ऐसे ही नहीं कहा जाता है। यहां धान की 23 हजार 250 धान की प्रजातियां खोजी जा चुकी हैं। इसके अलावा धान की नई किस्मों की खोज जारी है। छत्तीसगढ़ के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने अपने 600 एकड़ में फैले खेतों में इन प्रजातियों को संरक्षित और संवर्धन करने का काम कर रही है। विश्वविद्यालय का सेंटर फॉर बॉयोडायवर्सिटी रिसर्च एंड डेवलपमेंट धान की प्रजातियों के जर्म प्लाज्मा को सुरक्षित रखने का जिम्मा उठाए हुए है। कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि विश्व में फिलीपींस के बाद भारत में सबसे ज्यादा धान की किस्मों को खोजा और संरक्षित किया जा रहा है और इसमें छत्तीसगढ़ का योगदान सबसे ज्यादा है।
विश्वविद्यालय ने खुद भी धान की 15 ऐसी किस्मों को विकसित किया है, जिनकी अलग-अलग विशेषता है। इनमें से कई प्रजातियां ऐसी हैं, जो किसी भी परिस्थिति में पैदा की जा सकती है। मसलन दुर्गेश्वरीऔर इंदिरा राजेश्वरीकी फसल सूखा झेलने पर भी खराब नहीं होती। वहीं गर्मी के वक्त बोने के लिए दंतेश्वरीको विकसित किया गया है। दगड़ धान को पथरीली जमीन पर न्यूमतम पानी की उपलब्धता के साथ उगाया जा सकता है।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ एस के पाटिल कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में विपुल संपदा उपलब्ध है। हमारे विश्वविद्यालय ने प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से धान की कई किस्में खोजी है। कुछ खुद विकसित की हैं। लेकिन अभी बहुत काम किया जाना बाकी है। किसानों के पास अभी कई प्रजातियां उपलब्ध हैं, जो दुनिया से छिपी हुई हैं। उन्हें खोजकर सबके सामने लाने के लिए शोध जारी है। हम भारत सरकार से ज्यादा फंड की मांग भी कर रहे हैं। अभी तक राज्य सरकार के सहयोग से सालाना 25 लाख रुपए खर्च कर शोध, विश्लेषण और संरक्षण का काम किया जा रहा है। लेकिन इतना काफी नहीं है। लगातार नई किस्में खोजी जा रही हैं। पुरानी साढ़े तेईस हजार किस्मों को भी सुरक्षित रखना बड़ी जिम्मेदारी है। इसके लिए ज्यादा धन की आवश्यकता होगी
पौधा किस्म और कृषक सरंक्षण अधिकार प्राधिकरण नई दिल्ली के अध्यक्ष आर आर हंचिनाल कहते हैं, मैं बहुत सारे राज्यों और उनके विश्वविद्यालों में गया हूं। लेकिन जैव विविधता को संरक्षित करने के काम में छत्तीसगढ़ और यहां का कृषि विश्वविद्यालय हमारे प्राधिकरण से भी आगे है। खासतौर पर कांकेर और जगदलपुर में अच्छा काम हो रहा है। यह सुनकर ही आश्चर्य हो रहा है कि छत्तीसगढ़ में धान की साढ़े तेईस हजार किस्में हैं। इनके जर्म प्लाज्मा को संरक्षित किया जा चुका है। अब आगे की खोज जारी है। हम भी किसानों को प्रोत्साहित कर रहे हैं कि उनके भी पास यदि कोई अछूती-अलग किस्म हो, तो वे भारत सरकार के इस प्राधिकरण को बताए।
हंचिलान आगे बताते हैं कि जैव विविधता में भारत का विश्व में पहला स्थान है। विश्व में जैव विविधता के 34 हॉट स्पाट खोजे गए हैं। जिमें चार अकेले भारत में है। इसमें से एक स्थान छत्तीसगढ़ में पाया गया है। यहां के धान की किस्में खनिज, विटामिन, प्रोटीन से भरपूर है। छत्तीसगढ़ में खोजी जा रही धान की नई किस्मों को देखकर लगता है कि प्रदेश खाद्य सुरक्षा के साथ साथ पौष्टिकता की सुरक्षा भी प्रदान कर रहा है। छत्तीसगढ़ के धान में चिकित्सीय गुण भी पाए जा रहे हैं। कई प्रकार की किस्में ऐसी हैं, जिन्हें खाने से मधुमेह जैसी बीमारियों में फायदा पहुंच रहा है।
प्रदेश के कृषि संचालक प्रतापराव कृदत्त कहते हैं कि, धान की इतनी किस्मों की खोज निश्चित ही अच्छा प्रयास है। फिलीपींस में जर्म प्लाज्म के संकलन में भारत का ही अहम योगदान है। इसमें छत्तीसगढ़ एक अलग नाम के साथ उभर रहा है। यहां धान की कई ऐसी किस्में खोजी गई हैं, जो इलायची के दाने से भी छोटी हैं। वहीं पक्षीराज किस्म के दाने उड़ते हुए पक्षियों की तरह नजर आते हैं, जो कि अद्भुत खोज है। वहीं खेराघुल किस्म का दाना सबसे छोटा होता है। ये अत्यधिक सुगंधित चावल है। लेकिन चावल जैसा दिखता नहीं है
भारत सरकार द्वारा 2011-12 में पादम जीनोम संरक्षण समुदाय पुरस्कार हासिल कर चुके महासमुंद जिले के किसान तुलसीदास साव कहते हैं, छत्तीसगढ़ में ना केवल धान बल्कि आम, नीबू और केले की भी कई ऐसी प्रजातियां मौजूद हैं, जिससे देश के दूसरे इलाके के किसान परिचित नहीं है। इन किस्मों के आम के पेड़ हर साल और नीबूं के पेड़ साल में दो से तीन बार फल दे रहे हैं। धान में तो प्रदेश काफी समृद्ध है ही। इसके अलावा विश्वविद्यालय ना केवल नई किस्मों की खोज कर रहा है, बल्कि किसानों को उससे परिचित भी करवा रहा है
वहीं कृषि वैज्ञानिक के के साहू कहते हैं कि धान की किस्मों के सरंक्षण का काम सराहनीय है। प्रदेश में हर किसान के पास अपनी अलग किस्म है। लेकिन केवल कुछ किस्में ही अपनी पहचान बना पाई हैं। जिसमें विष्णुभोग, दुबराज, बादशाह भोग जैसी सुगंधित प्रजातियां शामिल हैं। लेकिन अभी भी धान की कई अनजानी किस्में मौजूद हैं। जिनपर काम किया जाना बाकी है।
धान में 62 गुण होते हैं। जो हरेक किस्म को दूसरी से अलग करते हैं। किसी की पत्ती बड़ी होती है तो किसी का दाना। कोई धान की सुगंधित किस्म होती है, तो किसी में कोई सुगंध नहीं होती। इसी तरह धान की फसल पकने में अलग-अलग समय निर्धारित होता है। किसी प्रजाति की फसल 105 दिन में पक कर तैयार हो जाती है तो किसी को पकने में 135 दिन का वक्त लगता है। विश्वविद्यालय ने जिन खास किस्मों को खोजा है। उनमें सबकी अलग-अलग खासियत है। मसलन दो दाना और राम लक्ष्मण में एक ही खोल में दो दाने पाए जाते हैं। कभी-कभी तीन दाने भी मिल जाते हैं। इसी तरह महासमुंद से खोजा गया हनुमान लंगूर में सबसे लंबा दाना पाया जाता है। सराई फूल कमजोरी दूर करने के लिए लाभकारी है। वहीं महाराजी नई माताओं के लिए लाभकारी है। खासतौर से उनके लिए जिन्हें प्रसूति के वक्त ज्यादा रक्त बहने से कमजोरी आई हो। गाथुवन से जोड़ों के दर्द की शिकायत दूर की जा सकती है। नारियल चुडी विशेष रूप से दलदली जमीन और गहरे पानी में उगाया जाने वाला धान है। रोटी चपाती और ब्रेड बनाने के लिए उपयुक्त धान है। वहीं हाथीपंजारा नाम के ही अनुरूप मोटा धान है। तुलसी की मंजरी के जैसा दिखने वाली किस्म है तुलसी मंजरी। वहीं जीरे के अनुरूप दिखने वाली प्रजाती है जीरा धान। इन धान की प्रजातियों के जर्म प्लाज्मा को रायपुर में संरक्षित किया गया है ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इनका फायदा उठा सकें।
बहरहाल धान के कटोरे को समृद्ध बनाने के लिए किसान, वैज्ञानिक और विशेषज्ञ दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। सूबे के कृषि वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि वो समय भी जल्द आएगा, जब प्रदेश की धान की नई किस्में देश और दुनिया के हिस्सों में भी उगाई जाएंगी। फिलवक्त तो छत्तीसगढ़ में परंपरागत किस्मों के अलावा नई किस्मों की पैदावार लेने का प्रयोग शुरु किया जा चुका है। जो विश्व के सामने एक नजीर पेश करेगा।
पूर्वजों द्वारा संरक्षित किस्मों की खोज
धान की नई किस्मों की खोज जारी है। इसमें अब केंद्र सरकार भी बढ़चढ़ कर भाग ले रही है। केंद्र द्वारा किसानों को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है कि वे भारत सरकार के 2001 में बनाए गए कानून पौध किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण के तहत अपनी किस्मों को खुद के नाम से पंजीकृत करवाएं। इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित प्राधिकरण के रजिस्ट्रार डॉ रवि प्रकाश कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने ना केवल धान बल्कि दूसरी फसलों के बीजों का सरंक्षण कर नई पीढ़ियों को हस्तांतरित किया। अब हमारा दायित्व है कि हम ना केवल उन्हें खोजें बल्कि बोयें भी। अब केंद्र सरकार ने किसानों को मालिक के रूप में किस्मों का पंजीकरण कराने का अधिकार दे दिया है। ऐसा करके हम नई किस्में खोज रहे हैं, वहीं किसानों को अपने पूर्वजों द्वारा संरक्षित प्रजातियों का मालिकाना हक मिल रहा है। भविष्य में जिससे उन्हें कई फायदे होंगे।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित किस्में

महामाया (1995), श्यामला(1997), पूर्णिमा(1997), दंतेश्वरी(1997), बमलेश्वरी(2001), इंदिरा सुंगधित धान(2004), जलडूबी(2006), समलेश्वरी(2006), इंदिरा सोना(2006), कर्मा महसूरी(2007), महेश्वरी(2009), इंदिरा बरानी धान(2010), इंदिरा राजेश्वरी और दुर्गेश्वरी(2011)। 

संकट में अन्नदाता

छत्तीसगढ़ सरकार यह बात गर्व से कहती आई है कि उनके यहां किसान कभी कर्जे में नहीं डूबता। यही कारण है कि महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा में आत्महत्या कर ईहलीला समाप्त करने वाले किसानों के आंकडे छ्त्तीसगढ़ में शून्य हैं। लेकिन क्या सरकार के यह दावे आने वाले दिनों में भी बरकरार रह पाएंगे, क्योंकि सरकार के एक फैसले ने अन्नदाता किसानों को संकट में डाल दिया है।

छत्तीसगढ़ और धान का रिश्ता सदियों पुराना है। सूबे की 80 फीसदी आबादी की जीविका खेती-किसानी पर निर्भर है, उसमें भी 70 फीसदी किसान केवल धान उपजाते हैं। समर्थन मूल्य पर धान की खरीदी और उस पर मिलने वाला बोनस अब तक किसानों को खेती से जुड़े रहने के लिए प्रोत्साहित भी करता रहा है, लेकिन अब तक पूरा का पूरा धान समर्थन मूल्य पर खरीदने वाली सरकार के नए फैसले से अन्नदाता की कमर टूटती नजर आ रही है। किसानों पर आया यह संकट कहीं छत्तीसगढ़ को भी महाराष्ट्र बनने पर मजबूर ना कर दे। दरअसल छत्तीसगढ़ सरकार अब किसानों से प्रति एकड़ केवल दस क्विंटल धान ही खरीदेगी। सहकारी समितियों के माध्यम से समर्थन मूल्य पर धान खरीदी एक दिसंबर से शुरू की जाएगी। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की अध्यक्षता में हुई छत्तीसगढ़ मंत्रिपरिषद की बैठातक में लिए गए इस फैसले का ऐलान राज्य के खाद्य मंत्री पून्नूलाल मोहिले ने इसी पखवाड़े किया है। सरकार के इस फैसले का चारो तरफ विरोध हो रहा है।
अपने फैसले के पीछे सरकार का एक तर्क यह है कि छत्तीसगढ़ में 2001 से 2010-11 तक धान खरीद में 34 सौ करोड़ रूपयों का घाटा हो चुका है। इसके बाद 2011-12 और 12-13 तक करीब 1400 करोड़ की औसत हानि दर्ज की जा चुकी है। 2013-14 में अब तक की सबसे बड़ी खरीद 80 लाख मीट्रिक टन धान खरीद से हुए नुकसान का आंकलन किया जाना अभी बाकी है। एमएसपी पर धान खरीद घाटे का सौदा बनने की कई वजहें हैं। जब धान की खरीद होती है तो उसमें 17 फीसदी नमी होती है, यही धान जब सूखता है तो उसके वजन में कमी आ जाती है। खरीद केंद्रों और संग्रहण केंद्रों में रखरखाव की कमी से धान गीला होता है, सड़ता है, यही नहीं धान की अफरा-तफरी और परिवहन के दौरान चोरी से भी नुकसान होता है।
प्रदेश में प्रति एकड़ धान के औसत उत्पादन के आधार पर प्रति एकड़ दस क्विंटल धान खरीदने के निर्णय के पीछे सरकार का दूसरा तर्क यह है कि सभी इलाकों में धान का उत्पादन एक बराबर नहीं है। कहीं अधिक तो कहीं कम उत्पादन होता है। राज्य सरकार द्वारा उत्पादन के आधार पर अलग-अलग जिलों के लिए प्रति एकड़ धान खरीदी की मात्रा तय करने पर विचार किया गया, लेकिन इसमें एकरूपता न होने के कारण विवाद की स्थिति बन सकती थी, इसलिए पूरे प्रदेश में प्रति एकड़ दस क्विंटल धान खरीदने पर सहमति बनी। जबकि किसान नेताओं का कहना है कि छत्तीसगढ़ में प्रति एकड़ 25 से 30 क्विंटल धान पैदा होता है। इसमें केवल दस क्विंटल को समर्थन मूल्य पर खरीदे जाने का फैसले से किसानों की कमर ही टूट जाएगी।
सरकार के फैसले के पीछे की असल कहानी यह है कि छत्तीसगढ़ में हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर होने वाली धान की खरीद साल दर साल घाटे का सौदा बनती जा रही है। 2001 से शुरू हुई इस प्रक्रिया से अब तक साढ़े तीन हजार करोड़ से अधिक नुकसान हो चुका है। इस घाटे की वजह यह है कि खरीदे गए धान के रखरखाव में आपराधिक लापरवाही, गुणवत्ता विहीन धान की खरीदी, परिवहन के दौरान चोरी तो है ही, इसके अलावा जानकारों का मानना है कि धान खरीद पर दिया जा रहा बोनस भी एक बड़ी वजह है।
सरकार इस साल भी 300 प्रति क्विंटल के हिसाब से 2400 करोड़ का बोनस बांटने जा रही है, लेकिन इस राशि का सबसे बड़ा हिस्सा वे बड़े किसान उठा रहे हैं, जो सबसे अधिक धान बेचते हैं। ऐसे किसानों की संख्या करीब 20 फीसदी है। इसी तरह 10 प्रतिशत मध्यम किसानों को बोनस का लाभ मिल रहा है, लेकिन करीब 70 फीसदी ऐसे किसान हैं, जो केवल अपनी जरूरत का ही धान उपजाते हैं और एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइज़) पर नहीं बेचते हैं। इसलिए इन किसानों को बोनस का लाभ मिलने का सवाल ही नहीं है।
राज्य सरकार ने अब धान पर बोनस योजना से भी पीछा छुड़ाने की कवायद शुरू कर दी है। पिछले दिनों केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान जब खाद्य मंत्री के रूप में पहली बार छत्तीसगढ़ आए तो मुख्यमंत्री डॉ.रमनसिंह ने उनके समक्ष मांग रखी कि केंद्र सरकार सौ फीसदी धान का उपार्जन खुद करे।
केंद्र सरकार यह मांग कब मंजूर करेगी और कब से एमएसपी पर केंद्र द्वारा धान खरीद की व्यवस्था होगी, यह सवाल बेहद पेचीदा है, लेकिन इससे पहले छत्तीसगढ़ में धान खरीद का सौदा एक बड़े घाटे का सौदा बना हुआ है। छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद राज्य सरकार ने 2001 से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीद शुरू की थी। उस समय मात्र 4 लाख 63 हजार मीट्रिक टन धान खरीदा गया था। इस समय घाटा बहुत कम था, लेकिन साल-दर साल खरीद का यह आंकड़ा बढ़कर पिछले साल 2013-14 तक करीब 80 लाख मीट्रिक टन जा पहुंचा है। इसके साथ ही खरीद पर नुकसान के आंकड़े बढ़कर विशालकाय हो गए हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल ने फैसले को किसानों के साथ धोखा बताया है। बघेल का कहना है कि भाजपा ने घोषणा पत्र में किसानों के एक-एक दाने धान की खरीदी का वादा किया था। लेकिन सरकार बनते ही एक एकड़ में सिर्फ दस क्विंटल खरीदी का फैसला किया है। सरकार ने किसानों को कम बोनस देने के लिए कम धान की खरीदी का फैसला किया है।
पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने किसानों को अपने निवास पर बुलाकर सरकार के फैसले का कड़ा विरोध करने की नसीहत दी है। साथ ही कांग्रेस से इतर आंदोलन चलाने की सलाह भी दी है।

खाद्य मंत्री पुन्नूलाल मोहले कहते हैं कि, छत्तीसगढ़ सरकार के पास धान व चावल का पर्याप्त स्टॉक है। इन परिस्थितियों को देखते हुए सरकार को यह निर्णय लेना पड़ा है। किसानों को धान बोनस दिए जाने के सवाल पर खाद्य मंत्री ने कहा कि अभी तो खरीदी शुरू नहीं हुई है। इस पर बाद में विचार करेंगे और केंद्र सरकार से चर्चा की जाएगी।

बाजार के हवाले किसान

छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने एक फैसले को बदलते हुए किसान को बाजार के हवाले कर दिया है। अब तब सरकार को धान बेचता आ रहा किसान अब व्यापारियों के दरवाजे पर दस्तक देने को मजबूर हो जाएगा। धान ने एक बार फिर छत्तीसगढ़ की सियासत को गरमा दिया है।

छत्तीसगढ़ सरकार अब किसानों से प्रति एकड़ केवल दस क्विंटल धान ही खरीदेगी। सहकारी समितियों के माध्यम से समर्थन मूल्य पर धान खरीदी एक दिसंबर से शुरू की जाएगी। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की अध्यक्षता में हुई छत्तीसगढ़ मंत्रिपरिषद की बैठातक में लिए गए इस फैसले का ऐलान राज्य के खाद्य मंत्री पून्नूलाल मोहिले ने इसी पखवाड़े किया है। सरकार के इस फैसले का कांग्रेस सहित किसान संगठनों ने जोरदार विरोध किया है।
प्रदेश में प्रति एकड़ धान के औसत उत्पादन के आधार पर प्रति एकड़ दस क्विंटल धान खरीदने के निर्णय के पीछे सरकार का तर्क है कि सभी इलाकों में धान का उत्पादन एक बराबर नहीं है। कहीं अधिक तो कहीं कम उत्पादन होता है। राज्य सरकार द्वारा उत्पादन के आधार पर अलग-अलग जिलों के लिए प्रति एकड़ धान खरीदी की मात्रा तय करने पर विचार किया गया, लेकिन इसमें एकरूपता न होने के कारण विवाद की स्थिति बन सकती थी, इसलिए पूरे प्रदेश में प्रति एकड़ दस क्विंटल धान खरीदने पर सहमति बनी। जबकि किसान नेताओं का कहना है कि छत्तीसगढ़ में प्रति एकड़ 25 से 30 क्विंटल धान पैदा होता है। इसमें केवल दस क्विंटल को समर्थन मूल्य पर खरीदे जाने का फैसले से किसानों की कमर ही टूट जाएगी। किसान नेता वैगेंद्र कहते हैं कि दस क्विंटल की खरीदी में जो पैसा मिलेगा, वो तो किसानों के उस कर्जे को भी नहीं उतार पाएगा, जो उन्होंने खेती करने के लिए लिया है। बाकी धान बिचौलियों के मार्फेत औने-पोने दाम में व्यापारी खरीदेंगे। किसान नेता अनिल दुबे कहते हैं कि सरकार का ये फैसला व्यापारियों को मालामाल कर देगा, वहीं किसान कंगाल हो जाएंगे।
खाद्य मंत्री पुन्नूलाल मोहले सरकार के फैसले पर अपना तर्क कुछ यूं रखते हैं कि, छत्तीसगढ़ सरकार के पास धान व चावल का पर्याप्त स्टॉक है। इन परिस्थितियों को देखते हुए सरकार को यह निर्णय लेना पड़ा है। किसानों को धान बोनस दिए जाने के सवाल पर खाद्य मंत्री ने कहा कि अभी तो खरीदी शुरू नहीं हुई है। इस पर बाद में विचार करेंगे और केंद्र सरकार से चर्चा की जाएगी।
दरअसल सरकार के फैसले के पीछे की असल कहानी यह है कि छत्तीसगढ़ में हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर होने वाली धान की खरीद साल दर साल घाटे का सौदा बनती जा रही है। 2001 से शुरू हुई इस प्रक्रिया से अब तक साढ़े तीन हजार करोड़ से अधिक नुकसान हो चुका है। इस घाटे की वजह यह है कि खरीदे गए धान के रखरखाव में आपराधिक लापरवाही, गुणवत्ता विहीन धान की खरीदी, परिवहन के दौरान चोरी तो है ही, इसके अलावा जानकारों का मानना है कि धान खरीद पर दिया जा रहा बोनस भी एक बड़ी वजह है।
सरकार इस साल भी 300 प्रति क्विंटल के हिसाब से 2400 करोड़ का बोनस बांटने जा रही है, लेकिन इस राशि का सबसे बड़ा हिस्सा वे बड़े किसान उठा रहे हैं, जो सबसे अधिक धान बेचते हैं। ऐसे किसानों की संख्या करीब 20 फीसदी है। इसी तरह 10 प्रतिशत मध्यम किसानों को बोनस का लाभ मिल रहा है, लेकिन करीब 70 फीसदी ऐसे किसान हैं, जो केवल अपनी जरूरत का ही धान उपजाते हैं और एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइज़) पर नहीं बेचते हैं। इसलिए इन किसानों को बोनस का लाभ मिलने का सवाल ही नहीं है।
कारण चाहे जो भी हो, लेकिन प्रदेश सरकार के नए फैसले का कांग्रेस ने कड़ा विरोध किया है। कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल ने फैसले को किसानों के साथ धोखा बताया है। बघेल का कहना है कि भाजपा ने घोषणा पत्र में किसानों के एक-एक दाने धान की खरीदी का वादा किया था। लेकिन सरकार बनते ही एक एकड़ में सिर्फ दस क्विंटल खरीदी का फैसला किया है। सरकार ने किसानों को कम बोनस देने के लिए कम धान की खरीदी का फैसला किया है।
पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने भी सभी किसानों को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सरकार के फैसले का विरोध करने की अपील की है। जोगी ने अपने बंगले पर किसान नेताओं की बैठक भी ले ड़ाली।
दूसरी तरफ किसान-मजदूर संघ ने छत्तीसगढ़ के किसानों से समर्थन मूल्य पर राज्य सरकार द्वारा धान खरीदी में प्रति एकड़ दस क्विंटल धान खरीदने और बोनस अब तक घोषित नहीं किए जाने पर नाराजगी जताते हुए कहा है कि  प्रदेश के किसानों से प्रति एकड़ कम से कम बीस क्विंटल धान समर्थन मूल्य पर खरीदने की तत्काल व्यवस्था करे। संघ ने मांग की है कि भाजपा सरकार 2013 के चुनावी घोषणापत्र में 300 रुपए प्रति क्विंटल बोनस भुगतान सुनिश्चित करे, अन्यथा प्रदेशभर के किसान-मजदूर आंदोलन करने बाध्य होंगे। संघ के संयोजक ललित चंद्रनाहू का कहना है कि यदि राज्य सरकार समय रहते किसानों के हित में निर्णय नहीं लेगी, तो किसान-मजदूर संघ प्रदेश के अन्य किसान संगठनों को साथ लेकर इस मुददे पर कोर्ट जा सकते हैं। उन्होंने आरोप लगाया, सरकारी अव्यवस्था से समितियों को नुकसान पहुंचा है। पहले राज्य सरकार समर्थन मूल्य पर धान खरीदी व्यवस्था सुनिश्चित करे। सहकारी चावल मिलों को शुरू कराने का सुझाव भी उन्होंने दिया ।
इधर राज्य सरकार ने अब धान पर बोनस योजना से भी पीछा छुड़ाने की कवायद शुरू कर दी है। पिछले दिनों केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान जब खाद्य मंत्री के रूप में पहली बार छत्तीसगढ़ आए तो मुख्यमंत्री डॉ.रमनसिंह ने उनके समक्ष मांग रखी कि केंद्र सरकार सौ फीसदी धान का उपार्जन खुद करे।
केंद्र सरकार यह मांग कब मंजूर करेगी और कब से एमएसपी पर केंद्र द्वारा धान खरीद की व्यवस्था होगी, यह सवाल बेहद पेचीदा है, लेकिन इससे पहले छत्तीसगढ़ में धान खरीद का सौदा एक बड़े घाटे का सौदा बना हुआ है। छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद राज्य सरकार ने 2001 से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीद शुरू की थी। उस समय मात्र 4 लाख 63 हजार मीट्रिक टन धान खरीदा गया था। इस समय घाटा बहुत कम था, लेकिन साल-दर साल खरीद का यह आंकड़ा बढ़कर पिछले साल 2013-14 तक करीब 80 लाख मीट्रिक टन जा पहुंचा है। इसके साथ ही खरीद पर नुकसान के आंकड़े बढ़कर विशालकाय हो गए हैं।
34 सौ करोड़ का घाटा
छत्तीसगढ़ में 2001 से 2010-11 तक धान खरीद में 34 सौ करोड़ रूपयों का घाटा हो चुका है। इसके बाद 2011-12 और 12-13 तक करीब 1400 करोड़ की औसत हानि दर्ज की जा चुकी है। 2013-14 में अब तक की सबसे बड़ी खरीद 80 लाख मीट्रिक टन धान खरीद से हुए नुकसान का आंकलन किया जाना अभी बाकी है।
धान पर सियासत
राज्य की करीब 80 फीसदी आबादी कृषि पर आधारित है, यही कारण है कि प्रदेश की राजनीति के केंद्र में किसान और उससे जुड़े मुद्दे शामिल हैं। किसानों का धान खरीदने, बोनस देने जैसे मामले सड़क से लेकर सदन में हमेशा उठते रहते हैं, लेकिन अब जबकि राज्य सरकार ने सौ फीसदी की खरीद केंद्र से करने का आग्रह किया है, माना जा रहा है कि अब यह मामला राज्य से निकलकर केंद्र की राजनीति को भी प्रभावित कर सकता है।
क्यों हो रहा घाटा?
एमएसपी पर धान खरीद घाटे का सौदा बनने की कई वजहें हैं। जब धान की खरीद होती है तो उसमें 17 फीसदी नमी होती है, यही धान जब सूखता है तो उसके वजन में कमी आ जाती है। खरीद केंद्रों और संग्रहण केंद्रों में रखरखाव की कमी से धान गीला होता है, सड़ता है, यही नहीं धान की अफरा-तफरी और परिवहन के दौरान चोरी से भी नुकसान होता है।
केवल बड़े किसानों को ही मिलता है बोनस का लाभ
सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त फूड सिक्योरिटी कमिश्नर समीर गर्ग का मानना है कि यह बिलकुल सहीं है कि धान खरीद में घाटे की सबसे बड़ी वजह धान पर दिया जाने वाला बोनस है। बोनस का लाभ केवल बड़े किसानों को ही मिल रहा है, जो बड़ी मात्रा में धान बेचते हैं। छत्तीसगढ़ में समर्थन मूल्य पर 11 लाख किसान धान बेचते हैं, इनमें 4 लाख किसान ऐसे हैं जो बड़ी मात्रा में धान बेचते हैं। इन्हें ही सबसे अधिक लाभ मिल रहा है। इनके अतिरिक्त धान बेचने वाले अन्य किसानों को लाभ मिलता है, लेकिन बहुत कम। गर्ग का कहना है कि धान पर बोनस दिए जाने पर कोई सामाजिक लाभ नहीं है। उनका यह भी कहना है कि सरकार को बोनस बांटने के बजाय बोनस में खर्च होने वाली राशि का उपयोग छोटे और गरीब किसानों की फसल की उत्पादकता बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए। धान खरीद से हर साल होने वाला घाटा जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, आने वाले समय में यह और अधिक बढ़ेगा।
उनके मुताबिक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीदी के एवज में जितनी राशि दी जा रही है, वह पर्याप्त है। इसके अलावा अतिरिक्त बोनस दिए जाने के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं। उल्लेखनीय है कि 2013 को विधानसभा चुनाव में भाजपा ने किसानों को 300 रुपए प्रति क्विंटल बोनस देने की घोषणा की थी। इस घोषणा के पालन में ही सरकार को 2400 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं।
कागज पर रहता है स्टॉक
राज्य विधानसभा में धान खरीद में नुकसान और धान की बर्बादी का मुद्दा उठा चुके कांग्रेस विधायक मोतीलाल देवांगन का कहना है कि राज्य सरकार की लापरवाही से घाटा हो रहा है। धान सड़ रहा है या खराब हो रहा है। अरबों रुपए धान के रखरखाव के लिए मिलते हैं पर उसकी व्यवस्था ढंग से नहीं की जाती है। कई जगह गड़बड़ी पाई गई है। स्टॉक कागज पर रहता है। अब भौतिक सत्यापन होने से गड़बडियां सामने आ रही हैं।
धानखरीद (लाख मीट्रिक टन)
2000-01 में - 4.63
2001-02 में 13.34
2002-03 मे -14.74
2003-04 में 27.05
2004-05 में 28.82
2005-06 में 35.86
2006-07 में 37.07
2007-08 में 31.51
2008-09 में 37.47
2009-10 में 44.28
2010-11 में 51.00
2011-12 में 59.68
2012-13में 71.36

2013-14 में 79.72