शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

अनुशासन और हीनता के बीच!

छत्तीसगढ़ के नक्सलविरोधी अभियान में तैनात सीआरपीएफ जवानों पर अनुशासनहीनता की कार्रवाई तो काफी चर्चा में है लेकिन उनके मुश्किल हालात पर कोई बात नहीं कर रहा.
जगदलपुर जिले से निकलकर सड़कविहीन रास्तों से होते हुए जब आप 56 किलोमीटर का रास्ता तय करते हुए तोंगपाल पुलिस थाने पहुंचते हैं तो इस बात का अंदाजा सहज ही हो जाता है कि हम यहां अपने खुद के जोखिम पर है. सीआरपीएफ के जवान हों या छत्तीसगढ़ पुलिस के सिपाही,  यहां सबके चेहरों पर एक-सा तनाव आपको अहसास दिलाता है कि महसूस की जा रही शांति केवल छलावा भर है. कभी भी-कुछ भी हो सकता है. अतीत की घटनाएं भी यही बताती हैं. हालांकि बस्तर को कवर करने वाले पत्रकारों के लिए इसमें नया कुछ भी नहीं है. वे ऐसी परिस्थितियों का हमेशा सामना करते रहते हैं. फिलहाल बात सुकमा जिले के तहत आने वाले ‘तोंगपाल’ की, जो केंद्रीय सुरक्षा बल (सीआरपीएफ) के 16 जवानों और एक पुलिस कांस्टेबल के निलंबन के कारण चर्चा में है.
हाल ही में सीआरपीएफ ने कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए अपने 16 जवानों को निलंबित कर दिया है. वहीं एक पुलिस के सिपाही को भी सीआरपीएफ की रिपोर्ट के आधार पर निलंबित किया गया है. निलंबित जवानों में से 13 कांस्टेबल रैंक, जबकि चार अन्य इंस्पेक्टर व सहायक सब-इंस्पेक्टर रैंक के अधिकारी हैं. इन 17 जवानों पर आरोप है कि ये इस साल की शुरुआत में नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में अपने साथियों को मदद देने के बजाए मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए थे. इस मुठभेड़ में एक नागरिक समेत कुल 16 लोगों की मौत हुई थी. जिनमें सीआरपीएफ के 11, पुलिस के चार जवान शामिल थे. सीआरपीएफ के आरोप के मुताबिक छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में इस साल 11 मार्च को दरभा थाना क्षेत्र में तैनात सीआरपीएफ की 80वीं बटालियन के जवान ग्राम टहकवाड़ा के लिए रोड़ ओपनिंग पार्टी के तौर पर रवाना किए गए थे. इस 46 सदस्यीय टुकड़ी के 20 जवान नक्सलियों के एंबुश  (घात लगाकर किया जाने वाला हमला) में फंस गए थे. इस हमले में विक्रम निषाद नामक एक ग्रामीण भी मारा गया था, जो घटना के वक्त अपनी मोटरसाइकिल से गुजर रहा था. इस खूनी मुठभेड़ के तुरंत बाद कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी बैठा दी गई थी. इसकी जांच में सामने आया है कि नक्सलियों द्वारा घात लगाकर किए गए इस हमले में सीआरपीएफ जवानों की आगे चल रही टुकड़ी फंस गई थी. जबकि पीछे आ रहे 17 जवान ऐसी विषम परिस्थिति में अपने साथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लोहा लेने के बजाय वहां से जान बचाकर भाग खड़े हुए.
10 साल में 2,129 मौतें
इंस्टीट्यूट ऑफ कॉनफ्लिक्ट मैनेजमेंट (दिल्ली) के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस साल में छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा में 2,129 लोग मारे गए हैं. इनमें सुरक्षा बल के जवानों और आम नागरिकों की मौत का आंकड़ा 1,447 है. पिछले चार साल मे नक्सली हमलों में तेजी आई है. वर्ष 2011 के बाद माओवादियों ने अपने पुराने मिथक तोड़ते हुए बीते चाल साल में राजनेताओं और आम लोगों को भी अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया है. 2011 से लेकर 2014 तक माओवादियों ने कई बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया है. वहीं साउथ एशिया टैररिज्म पोर्टल से उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक माओवादी हिंसा के कारण 2005 से 2012 के बीच छत्तीसगढ़ में कुल 1,855 मौतें हुई हैं. इनमें 569 आम नागरिकों, सुरक्षा बलों के 693 जवान और 593 माओवादियों की मौत शामिल है.
सीआरपीएफ निदेशक जनरल दिलीप त्रिवेदी जानकारी देते हैं कि शुरुआती जांच में दोषी मिले इन जवानों को छत्तीसगढ़ के आईजी ने निलंबित कर दिया है और पूरी जांच तीन महीने के भीतर पूरी कर ली जाएगी. एक दशक से ज्यादा समय से इन इलाकों में नक्सलियों से मोर्चा ले रही सीआरपीएफ की ओर से अपने जवानों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का यह दुर्लभ मामला है. सीआरपीएफ के अधिकारियों का कहना है कि जांच में पता चला है कि अगर इन जवानों ने मुंहतोड़ जवाब दिया होता तो कई जानें बचाई जा सकती थीं और करीब 200 नक्सलियों में से कई ढेर भी किए जा सकते थे. करीब तीन घंटे तक चली इस मुठभेड़ में नक्सली शहीद जवानों से बड़ी संख्या में हथियार लूट ले गए थे.
हालांकि सीआरपीएफ के आरोप और अब तक की कार्रवाई  से इतर इस प्रकरण का दूसरा पहलू भी है, जिसे नजरअंदाज किया जा रहा है. दरअसल छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ जवानों के निलंबन का यह प्रकरण कई गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. पहला तो यही है कि क्या सर पर कफन बांधकर नक्सल इलाकों में काम कर रहे जवानों का मनोबल टूट रहा है? दूसरा सवाल है कि क्या इन जवानों की मानसिक व भौतिक परिस्थितियों पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है? ये ऐसे मसले हैं जिनपर नक्सविरोधी अभियान शुरू होने के बाद कई बार आवाज उठती रही है लेकिन इस घटना के बाद यह बहस और गंभीर हो गई है.
फिलहाल नक्सल विरोधी अभियान में सीआरपीएफ के कंधे से कंधा मिलाकर अभियान चलानेवाली राज्य पुलिस ने आधिकारिक रूप से इस पूरे विवाद से दूरी बना ली है. छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक मुकेश गुप्ता कहते हैं, ‘ सीआरपीएफ के मामले में हम क्या बोल सकते हैं. यदि उन्होंने कार्रवाई की है, तो सही ही होगी.’  पुलिस मुख्यालय में पदस्थ एक अन्य उच्च पदस्थ अफसर भी मानते हैं कि जब जवानों को विशेष साहस दिखाने पर कई तरह से उपकृत किया जाता है, आउट ऑफ टर्म प्रमोशन दिया जाता है तो गलती होने पर सजा क्यों नहीं दी जा सकती. वे कहते हैं,  ‘हमारी फोर्स बेहद विपरीत परिस्थितियों में काम करती है. यहां जवानों की संख्या से ज्यादा उनका साहस मायने रखता है. सबको साथ मिलकर काम करना होता है तभी सकारात्मक परिणामों तक पहुंचा जा सकता है. अब अगर ऐसे में टीम भावना ही ना रहे तो कैसे काम चलेगा. कोई भी जवान कैसे अपने साथियों पर भरोसा कर पाएगा?’
दंतेवाड़ा और बस्तर में मई से नवंबर के बीच मलेरिया का भारी प्रकोप रहता है और हर साल सैकड़ाें जवान इससे ग्रसित होते हैं
वैसे सीआरपीएफ जवानों पर कार्रवाई पर यहां एक राय नहीं है. तोंगपाल पुलिस थाने के एसआई शिशुपाल सिन्हा तहलका से बात करते हुए कहते हैं कि जिस दिन घटना हुई वे उस दिन शासकीय कार्य से कहीं बाहर गए हुए थे लेकिन, ‘ मौके पर मौजूद लोग बताते हैं कि जवान भागे नहीं थे, बल्कि वे भी फायरिंग में फंस गए थे. यही कारण था कि वे अपने साथी जवानों की मदद नहीं कर पाए.’ कुछ पुलिसकर्मी जवानों पर कार्रवाई को भी परिस्थितियों के हिसाब से गलत मानते हैं. तोंगपाल थाने में ही पदस्थ एक पुलिसकर्मी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘जवानों की स्थिति को समझे बगैर उनपर गलत कार्रवाई की गई है. अगर जवानों को कायरता ही दिखानी होती तो वे पहले ही ड्यूटी से मना कर देते. बिलकुल विपरीत परिस्थिति में संघर्ष करनेवाले जवान कायर नहीं है. वे बरसात में भी हर एंटी नक्सल ऑपरेशन में भाग लेते रहे हैं. आप देखिए न जवानों को, वे कैसे रह रहे हैं. कई कैंप तो दुनिया से कटे हुए लगते हैं. उन्हें हैलीकॉप्टर के जरिए भोजन और दवाइयां भेजी जाती हैं. न उनके फोन पर नेटवर्क मिलता है, न ही कोई दूसरी सुविधा. कई बार तो छुट्टी मिलने के बाद जवानों को जगदलपुर आने में ही दो से तीन दिन लग जाते हैं. रायपुर पहुंचते-पहुंचते पूरा हफ्ता खराब हो जाता है. बहुत दबाव के बीच जवानों को काम करना पड़ रहा है.’
इस पुलिसकर्मी की बातों को तोंगपाल तक की यात्रा करते हुए आसानी से समझा जा सकता है. बस्तर के अंदरूनी इलाकों में कैम्प कर रहे सीआरपीएफ जवानों की हालत तो और भी बदतर है. उन्हें कभी कीटों (छोटे कीड़े) के प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है तो कभी मलेरिया उनकी जान ले रहा है. जान जोखिम में डालकर तो वे काम कर ही रहे हैं, लेकिन न तो उनके पास बातचीत की सुविधा है, न ही बेहतर चिकित्सा व्यवस्था. रोज-रोज एक ही उबाऊ काम करके उनका मनोबल भी टूटता है. तोंगपाल में ही काम करनेवाले स्थानीय पत्रकार संतोष तिवारी कहते हैं, ‘यहां की परिस्थितियां आम आदमी के जीने लायक नहीं हैं. न सड़कें हैं, न मोबाइल फोन में नेटवर्क है.’
इस वक्त पूरे छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ, आईटीबीपी जैसे सुरक्षा बलों की 36 बटालियन तैनात हैं. इनमें से 29 बटालियन अकेले बस्तर में लगाई गई हैं. एक बटालियन में 780 जवान होते हैं, लेकिन मोर्चे पर लड़ने के लिए 400 से 450 जवान ही मौजूद होते हैं. बस्तर में तैनात जवानों को नक्सलियों के अलावा कई मोर्चों पर लड़ाई करनी पड़ती है. नक्सलियों से पहले मच्छरों से उनका मुकाबला होता है. छत्तीसगढ़ में मई से लेकर नवंबर तक मच्छरों का प्रकोप रहता है. खासकर बस्तर में अनगिनत लोग मलेरिया के कारण काल के गाल में समा जाते हैं. इस साल की जुलाई तक ही राज्य मलेरिया कार्यालय द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़ों पर गौर करें तो अकेले बस्तर में 23 हजार 774 मलेरिया पीड़ित मरीज मिल चुके हैं. हर साल मलेरिया से जवानों की मौत की घटनाएं भी सामने आती रहती हैं.  हालांकि मलेरिया से मरने वाले जवानों का आधिकारिक आंकड़ा कहीं भी उपलब्ध नहीं है. छत्तीसगढ़ में बस्तर एक ऐसा इलाका है, जहां ‘फेल्सीफेरम’ मलेरिया ज्यादा फैलता है. इस मलेरिया में यदि सात दिनों के भीतर पीड़ित को सही दवा ना मिले, तो उसकी मौत निश्चित हो जाती है.
उसमान खान भी सुकमा जिले में आने वाले छिंदगढ़ जैसे घोर नक्सल प्रभावित इलाके के पत्रकार हैं. छिंदगढ़ तोंगपाल से भी 36 किलोमीटर अंदर है. खान कहते हैं, ‘मलेरिया भी जवानों का मनोबल तोड़ रहा है. इस वक्त तो यानी अगस्त-सितंबर को हमारे इलाके में मलेरिया का सबसे ज्यादा असर होता है. हर साल दर्जनों लोग दवाई के अभाव में मर जाते हैं. अभी भी कई जवान मलेरिया से जूझ रहे हैं. पिछले साल करीब डेढ़ दर्जन जवान केवल मलेरिया के कारण मौत के मुंह में चले गए थे.’
बस्तर में नक्सल मोर्चों पर तैनात जवानों के सामने कई परेशानियां हैं. जिन्हें उनके आला अधिकारी कितना समझते हैं, ये तो वे ही जानें, लेकिन कभी इनपर चर्चा होती नजर नहीं आती. बहरहाल, तोंगपाल-दरभा प्रकरण में सीआरपीएफ के जवानों के निलंबन की वजह से ये मुद्दे फिर चर्चा में हैं लेकिन इनपर क्या कार्रवाई होगी यह किसी को नहीं पता.

शनिवार, 13 सितंबर 2014

कांग्रेस के बुरे दिन

मध्य भारत में कांग्रेस में ऐन मौके पर खुद उम्मीदवार द्वारा पार्टी की लानत मलानत करने की एक नई परिपाटी बनती जा रही है। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि ये केवल एक बार नहीं बार बार हो रहा है। चाहे मध्यप्रदेश का विदिशा का लोकसभा चुनाव हो या छत्तीसगढ़ की अंतागढ़ विधानसभा सीट का ताजातरीन मामला हो..दोनों ही बार कांग्रेस को उसके ही प्रत्याशियों ने गहरे गड्ढे में उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
छत्तीसगढ़ की धुर नक्सल प्रभावित अंतागढ़ विधानसभा सीट पर उपचुनाव होने वाले हैं। विभिन्न दलों के दिग्गजों का राजनीतिक अखाड़ा बनी इस सीट पर पहली बार मुख्य विपक्षी दल का कोई प्रत्याशी नहीं है। अंतागढ़ विधानसभा क्षेत्र के 202 मतदान में से 190 अतिसंवेदनशील है। इस बार यह सीट नक्सल प्रभावित होने के कारण नहीं बल्कि राजनीतिक उठापटक का केंद्र बन जाने के कारण सुर्खियों में है। वर्ष 2013 में हुए विधानसभा के चुनाव में भाजपा के विक्रम उसेंडी ने कांग्रेस के मंतूराम पवार को 5171 मतों से हराकर इस सीट पर कब्जा बरकरार रखा था। लेकिन उसेंडी के सांसद बनने के बाद अंतागढ़ सीट रिक्त हुई है। कांग्रेस ने इस सीट से एक बार फिर मंतूराम पवार को मौका देने का फैसला किया। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पवार को प्रत्याशी बनाए जाने का यह कहकर विरोध किया था कि वह पहले भी कुछ चुनाव हारे है। वैसे पवार जोगी के करीबी माने जाते हैं और पवार को टिकट देने में प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भूपेश बघेल की मुख्य भूमिका थी। पवार ने नामांकन दाखिल कर दिया और उनके नाम पर पर्चे, पोस्टर और अन्य चुनाव सामाग्री भी छपकर तैयार हो गई। लेकिन पवार ने कांग्रेस को बड़ा झटका देते हुए चुनाव से पहले ही उम्मीदवारी वापस ले ली। पवार के इस कदम से हड़बड़ाई प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने पवार से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन पवार ऐसे गायब हुए कि सीधे दूसरे दिन एक होटल में संवाददाता सम्मेलन में ही सामने आए। इधर पवार के इस कदम के बाद पार्टी में आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया जिसमें राज्य सरकार का नाम भी आ गया।  कांग्रेस के इस फजीहत की स्थिति में आने के लिए जोगी का कहना था कि पवार ने पहले ही चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था तब उन्हें टिकट क्यों दिया गया। उन्होंने कहा कि वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष को सभी को विश्वास में लेकर और सभी की सलाह से कार्य करना चाहिए। उधर पवार ने प्रदेश कांग्रेस कमेटी पर असहयोग का आरोप लगाते हुए कहा कि उनके मना करने के बावजूद उन्हें उम्मीदवार बनाया गया।
पीसीसी अध्यक्ष भूपेश बघेल ने हालांकि आरोपों को निराधार बताते हुए कहा कि पवार का बयान सफेद झूठ के अलावा कुछ नहीं है।  बघेल ने कहा कि पवार का फैसला कांग्रेस को नीचा दिखाने वाला था इसलिए उन्हें तत्काल पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। लेकिन इस मामले में षड्यंत्र हुआ है और इसका खुलासा जल्द हो जाएगा। उन्होंने इस मामले में राज्य सरकार पर भी निशाना साधा और कहा कि देश में हुए उपचुनाव में भाजपा की हार हो रही है और इसलिए ही राज्य में संभावित हार से डरी भाजपा ने इस तरह का हथकंडा अपनाया है। बघेल ने आरोप लगाया कि भाजपा ने अपने प्रत्याशी को निर्विरोध चुनने की कोशिश की और इसके लिए अन्य उम्मीदवारों को डराया धमकाया गया जिसके चलते अंतागढ़ उपचुनाव में अन्य 10 उम्मीदवारों ने भी अपना नाम वापस ले लिया। इस सीट पर अब दो उम्मीदवारों के बीच ही मुकाबला हो रहा है। कांग्रेस के आरोप पर भाजपा की तरफ से अंतागढ़ उप चुनाव के प्रभारी और उच्च शिक्षा मंत्री प्रेम प्रकाश पांडेय कहते हैं कि इस उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी भोजराज नाग की जीत तय है। कांग्रेस को अपनी अंदरूनी कलह से पहले उबरना चाहिए बाद में दूसरों पर आरोप लगाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में कई गुटों में बंटी कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है और पिछले एक दशक से ज्यादा समय से वह सत्ता से बाहर है।
पवार प्रकरण पर मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भी चुटकी लेते हुए कहा कि कांग्रेस पहले अपना घर संभाले, फिर भाजपा से दो दो हाथ करने की सोचे।
उधर, इस प्रकरण को लेकर भाजपा के भीतर भी कई तरह की बातें हो रही हैं। नाम ना छापने की शर्त पर प्रदेश भाजपा के एक पदाधिकारी ने तहलका को बताया कि भाजपा प्रत्याशी भोजराज नाग गौंड आदिवासी जरूर है, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि छत्तीसगढ़ नहीं बल्कि महाराष्ट्र से संबंधित है। वे महाराष्ट्र के आदिवासी गौंड है, स्थानीय ना होने के कारण अंतागढ़ विधानसभा सीट पर उनके खिलाफ अंदर ही अंदर विरोध हो रहा था। भाजपा कार्यकर्ता ही भोजराज नाग को उम्मीदवार बनाए जाने से खुश नहीं थे। ऐसे में पार्टी के भीतर ये डर बैठ गया था कि नाग हार भी सकते हैं। कांग्रेस भी इस बात को जानती थी, और यही कारण था कि कांग्रेस नेता इस उपचुनाव में मंतूराम पवार की जीत तय मान कर चल रहे थे।
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करोड़ों की डील का आरोप
अब जब मंतूराम ने खुद ही नामांकन वापस ले लिया है, तब कांग्रेस के ही नेता खुलेआम आरोप लगा रहे हैं कि मंतूराम ने भाजपा के साथ मिलकर 5 करोड़ की डील की है। कांग्रेस पदाधिकारी बीआर खूंटे कहते हैं कि मंतू ने नाम वापस लेने के लिए पांच करोड़ लिए हैं। कांग्रेस में चर्चा है कि मंतूराम ने कथित कांग्रेस के एक दिग्गज नेता के साथ मिलकर भाजपा से 20 करोड़ रुपए लिए हैं। लेकिन यह महज़ अफवाहें ही है, क्योंकि किसी के पास भी इस प्रकार की किसी डील का पुख्ता सबूत नहीं है।
विदिशा लोकसभा चुनाव की याद ताजा
अंतागढ़ उपचुनाव का कांग्रेस द्वारा बिना लड़े ही भाजपा को वॉक ओवर देने के मामले ने वर्ष 2009 के विदिशा (मध्यप्रदेश) लोकसभा चुनाव की यादें ताजा कर दीं। इस चुनाव में भाजपा ने सुषमा स्वराज को मैदान में उतारा था, वहीं कांग्रेस की तरफ से राजकुमार पटेल प्रत्याशी थे। लेकिन ऐन मौके पर पटेल का नामांकन रद्द हो गया था, वह भी इस कारण से कि उन्होंने तय समय सीमा में अपना बी फॉर्म जमा नहीं किया था। इसके बाद कांग्रेस ने राजकुमार पटेल को पार्टी से निष्कासित कर दिया था। इस मामले ने इसलिए तूल पकड़ा था कि एक तो इस सीट पर स्वराज भाजपा प्रत्याशी थीं, वहीं राजकुमार पटेल कांग्रेस के पुराने नेता थे, वे दिग्विजय सरकार में मंत्री रह चुके थे, उनके द्वारा समय पर बी फार्म जमा नहीं करने वाली बात को कई लोग नहीं पचा पा रहे थे। हालांकि मध्यप्रदेश में ये कोई इकलौता मामला नहीं है, जिसमें भाजपा को वॉकओवर मिल गया हो। वर्ष 2013 में संपन्न विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस प्रदेश की 230 सीटों में से केवल 229 पर ही चुनाव लड़ पाई थी। दरअसल सिंगरौली के देवसर निर्वाचन क्षेत्र के कांग्रेस प्रत्याशी डॉ एचएल प्रजापति का नामांकन भी खारिज हो गया था। कारण ये बताया गया था कि प्रजापति का सरकारी सेवा में इस्तीफा मंजूर नहीं हो पाया था। इसलिए उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य साबित कर दिया गया। इसी साल मध्यप्रदेश की अशोक नगर सीट पर भी कांग्रेस प्रत्याशी जसपाल सिंह जज्जी का नामाकंन जाति संबंधी विवाद के चलते निरस्त कर दिया गया था, लेकिन प्रत्याशी की पुनर्विचार याचिका के बाद उनका नामांकन मान्य कर लिया गया। गौर करने वाली बात ये है कि कभी भाजपा प्रत्याशियों के साथ इस तरह के वाकये नहीं पेश आते।


धर्म से बहिष्कृत “साईं”



जाको राखे साईंया, मार सके ना कोय, बाल ना बांका कर सके, जो जग बैरी होय....पीढ़ियों से सुनी जा रही इस कहावत के अस्तित्व पर अब ग्रहण लगता नजर आ रहा है...क्योंकि जिस साईं के बल पर बुराईयों पर जीत पाने का दम इन पक्तियों के जरिए भरा जाता रहा है, अब उसके अस्तित्व को धर्मसंसद में धर्म विरुद्ध करार दे दिया गया है।   
राजू सेठ (30 वर्ष) की पान की गुमटी है। धर्मसंसद के फैसले से बेखबर राजू कहता है कि जिसको जो भगवान अच्छा लगे, वो उसे माने। वैसे भी इस विवाद में पड़े कौन, हमें तो दो वक्त की रोटी कमाने से फुर्सत नहीं है। राजू सेठ की बात यहां इसलिए मायने रखती है, क्योंकि उसकी पान की दुकान ठीक वहीं स्थित है, जहां धर्मसंसद आयोजित कर साईं को प्रामाणिकता के सर्टिफिकेट देने का प्रपंच रचा गया। राजू सेठ को धर्मसंसद देखने-सुनने की ना तो फुर्सत है, ना ही उत्सुकता क्योंकि भीड़ के कारण उसकी अच्छी खासी कमाई हो रही है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब 130 किलोमीटर दूर स्थित कबीरधाम (कवर्धा) में शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के चार्तुमास के कारण पिछले दो महीने से बहुत गहमागहमी है। लेकिन इस सप्ताह के दो दिन 24 और 25 अगस्त कुछ ज्यादा की खास रहे, खास इसलिए क्योंकि कबीरधाम में दो दिनों तक साधु संतों और उनके अनुयायियों का मेला लगा रहा। मौका था शंकराचार्य द्वारा बुलाई गई 19वीं धर्मसंसद का। धर्मसंसद का एंजेडा तो लंबा चौड़ा था, लेकिन मुख्य विषय था शिर्डी के साईं को भगवान होने या ना होने का सर्टिफिकेट देने का। इसपर दो दिनों तक बहस चली, शास्त्रार्थ किया गया, लेकिन दिलचस्प बात ये कि शास्त्रार्थ करने के लिए दूसरा पक्ष मौजूद ही नहीं था। शिर्डी के साईं संस्थान से कोई प्रतिनिधि इस धर्मसंसद में नहीं आया। तीन साईं भक्तों मनुष्यमित्र (मध्यप्रदेश), प्रेमकुमार और अशोक कुमार (दोनों दिल्ली) ने साईं को पक्ष रखने की हिमाकत की तो उनकी बात को पूरा सुने बगैर उनके कपड़े फाड़कर मंच से नीचे उतार दिया गया। दरअसल मनुष्यमित्र ने मंच पर पहुंचकर यह कह दिया कि साधु संत गौ हत्या जैसे विषयों पर धर्म संसद क्यों नहीं बुलाते, धर्म से जुड़े दूसरे मुद्दों पर अनशन क्यों नहीं करते, तब एक साधु ने साईं भक्त की चुनौती स्वीकार करते हुए निर्जल अनशन का ऐलान कर दिया। इस पर कुछ अन्य साधुओं ने सांई भक्त के कपड़े फाड़ दिए। पुलिस ने बीच बचाव करते हुए साईं भक्तों को सुरक्षित मंच से उतारकर कार्यक्रम से बाहर निकालकर सीधे रायपुर पहुंचा दिया।
इसके बाद दो दिन तक चली धर्मसंसद में काशी विद्वत परिषद ने अपना फैसला सुनाया कि साईं भगवान नहीं है। ना ही गुरु है, ना ही संत ना ही अवतार, इसलिए साईं की पूजा बंद होनी चाहिए। धर्म संसद ने एक फैसला और लिया है कि देश में भविष्य में कोई साईं मंदिर नहीं बनाया जाए। सनातन धर्म के मंदिरों में साईं की प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाएगी। अपने फैसले के बारे में काशी विद्वत परिषद ने तर्क दिया कि दो दिन के मंथन के बाद साईं किसी भी कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं, इसलिए उन्हें भगवान कहना वेद सम्मत या धर्म सम्मत नहीं है।
जिन करोड़ों लोगों के लिए धर्मसंसद ये फैसला सुना रही थी, उन्हीं में से एक राजेश चौहान (36वर्ष) के विचार भी राजू सेठ से अलहदा नहीं हैं। धर्मसंसद के आयोजन स्थल तक लोगों को पहुंचाने वाले पेशे से ड्रायवर चौहान को भी इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन किसको पूज रहा है, या किसको पूजा जाना चाहिए। उसे तो बस अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाना है क्योंकि चौहान नहीं चाहता कि उसके बच्चे भी उसकी तरह ड्रायवरी करें।
कबीरधाम की धर्म संसद में पहुंचे 13 अखाड़ा प्रमुखों को शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का समर्थन करते हुए शिर्डी के साईंबाबा को भगवान मानने से इंकार कर दिया है। अखाड़ा प्रमुखों ने एक स्वर में कहा कि साईं का कोई ऐतिहासिक व धार्मिक प्रमाण नहीं है। निरंजनी अखाड़ा के अध्यक्ष नरेंद्र गिरी का कहना है कि जब धर्म पर संकट आता है, तब धर्मसंसद का आयोजन किया जाता है। यह 19 वां धर्मसंसद है। धार्मिक मुद्दों का निपटारा कोर्ट नहीं कर सकती, इसे धर्मसंसद में ही निपटाया जाता है। फकीर को भगवान मानना पूरी तरह से गलत है। शंकराचार्य इसी बात का तो विरोध कर रहे हैं
पंचायती जूना अखाड़ा हरिद्वार के प्रमुख संत हरिगिरि का कहना है कि हिंदू सनातन धर्म की सुदृढ़ धार्मिक परंपराओं से कुछ लोग अंजान हैं। वेदों और शास्त्रों में सप्रमाण वर्णित व्यक्ति ही भगवान है। इसी प्रामाणिकता के आधार पर हिंदू धर्म में पूजा करने की पंरपरा है। लाखों हिंदू भटकर साईं की पूजा करने लगे हैं। उन्हीं समझा बुझाकर सही राह पर लाया जाएगा। साईं ट्रस्ट का नाम लिए बगैर स्वामी हरिगिरि ने कहा कि आपको व्यवसाय करना है, तो करिए। लेकिन हिंदूओं को भ्रमित मत करिए। लोगों को समझाने का काम शंकराचार्य और संतों का है। हमने अपना काम कर दिया है, धीरे-धीरे लोग भी इसे मानेंगे
शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने धर्म संसद के दौरान साईं को असत्य, अचेतन और अयोग्य करार दिया। उन्होंने कहा कि साईं का कोई अस्तित्व ही नहीं है। साईं संस्थान से किसी भी प्रतिनिधि के धर्म संसद में नहीं पहुंचने के सवाल पर शंकराचार्य ने कहा कि वे लोग विज्ञापन जारी करते हैं, लेकिन धर्म संसद में पहुंचकर विमर्श करने को तैयार नहीं है। जब वे जवाब देने को तैयार नहीं है तो उनको जिम्मेदारी लेनी होगी कि धर्म संसद में जो निर्णय हो, उसे वे मानेंगे। शंकराचार्य ने साईं के अवतार के बारे में प्रमाण मांगते हुए कहा कि सनातन धर्म में शिव, गणेश, विष्णु और सूर्य या उनके अवतारों की पूजा होती है। साईंभक्त ये स्पष्ट करें कि साईं किनके अवतार हैं।
धर्मसंसद पर भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व विश्व हिंदू परिषद पर भी निशाना साधा गया। धर्मसंसद में शामिल होने आए भारत साधु समाज के उपाध्यक्ष एवं महामंडेश्वर स्वामी डॉ प्रेमानंद जी महाराज ने कहा कि भाजपा हिंदुओं की रक्षा करने वाली पार्टी होने का दावा करती है। लेकिन धर्म संसद में भाजपा, संघ या विहिप की तरफ से कोई प्रतिनिधि नहीं आया।
दूसरी तरफ धर्म संसद से दूरी बनाते हुए साईं ट्रस्ट शिर्डी के जनसपंर्क अधिकारी मोहन यादव का कहना है कि हम धर्म संसद के फैसले पर कोई टिप्पणी या प्रतिक्रिया नहीं देना चाहते।  
वहीं साईं भक्त संजय साईं ने धर्म संसद को पाखंड बताते हुए इसका विरोध किया है। संजय का आरोप है कि साईं ट्रस्ट साधु संतों को शिर्डी बुलाकर साईंबाबा की पूजा संबंधित सारी बातें स्पष्ट कर चुका है। लेकिन इसके बावजूद भी धर्म संसद का आयोजन किया जाना पाखंड की पराकाष्ठा है। संजय ने कहा कि कवर्धा में धर्म संसद के मंच पर जिस तरह एक साईं भक्त के साथ बदसलूकी की गई, हमें इसकी आशंका थी, इसलिए शिर्डी साईं संस्थान से कोई प्रतिनिधि धर्म संसद में नहीं पहुंचा
इनका समर्थन
जूना अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, पंचाग्नि अखाड़ा, नागपंथी गौरखनाथ अखाड़ा, वैष्णव अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा, निर्मल पंचयाती अखाड़ा, उदासीन अखाड़ा, रामनंदी गिंदवरी अखाड़ा समेत काशी विद्वतपीठ, महामंडलेश्वरों के धर्माचार्यों ने साईं के मुद्दे पर शंकराचार्या का समर्थन किया है।
धर्म की राजनीति या राजनीति का धर्म
शिर्डी के साईंबाबा के मामले में केंद्र की नई-नवेली सरकार, भाजपा, कांग्रेस सब चुप हैं। शुरुआत में केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री उमा भारती ने जरूर शंकराचार्य की बात को काटते हुए टिप्पणी कर दी थी, लेकिन बात उनके इस्तीफे की मांग तक आ गई तो उमा ने भी चुप्पी साध ली। उमा की बात काटते हुए कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह शंकराचार्य का दबी जुबान से समर्थन कर दिया था। लेकिन अब कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही है। दरअसल शिर्डी के साईंबाबा की प्रामाणिता पर सवाल उठाने वाले शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती को कांग्रेस समर्थक माना जाता रहा है। ये अलग बात है कि शंकराचार्य ने धर्मसंसद के लिए भाजपा शासित प्रदेश छत्तीसगढ़ को चुना। शंकराचार्य चातुर्मास के लिए कवर्धा आए थे। मुख्यमंत्री रमन सिंह का पैतृक निवास भी कवर्धा में ही है। शंकराचार्य ने रमन सिंह के निवास से चंद कदमों दूर ही अपना डेरा डाला हुआ है। उन्हें राज्य अतिथि का दर्जा दिया गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि धर्म संसद में आने वाले 28 साधु संतों को भी राज्य अतिथि का दर्जा दिया गया यानि कहा जा सकता है कि धर्म संसद राज्य सरकार के सरंक्षण में ही बुलाई गई। अब यहां गौर करने वाली बात ये है कि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि शिर्डी महाराष्ट्र में धार्मिक आस्था का बड़ा केंद्र है। महाराष्ट्र में स्थित तीन ज्यार्तिलिंग घृष्णेश्वर (औरंगाबाद), भीमाशंकर (पुणे) और त्र्यंबकेश्वर(नासिक) कभी चढ़ावे को लेकर सुर्खियों में नहीं रहते, जबकि शिर्डी में चढ़ने वाले अकूत चढ़ावे की आए दिन चर्चा होती है, जाहिर है कि भक्तों की आमद शिर्डी में ही ज्यादा होती है। साईं से महाराष्ट्र का दलित समुदाय भी गहरा जुड़ा हुआ है। साईं के प्रचार प्रसार में इस समुदाय का भी खासा योगदान रहा है। मतदाताओं का एक बड़ा समूह शिर्डी में आस्था रखता है, ऐसे में ऐन चुनाव के वक्त ना तो भाजपा ना ही कांग्रेस इस मुद्दे पर बैठे ठाले बवाल पैदा करना नहीं चाहते। शिवसेना और मनसे ने भी मौन धारण कर रखा है। इसी पर पेंच यह है कि शंकराचार्य समेत धर्मसंसद में शामिल होने वाले साधु संत भाजपा से जवाब चाहते हैं, आयोजन के दौरान केवल भाजपा को बार बार कोसा गया, जबकि कांग्रेस पर किसी ने टीका टिप्पणी नहीं की। अब भाजपा संगठन या सरकार के तौर पर यदि इस मुद्दे पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर करती है, तो लाखों साईंभक्तों की आस्था पर चोट होगी, जिसका का खामियाजा भाजपा को महाराष्ट्र समेत दूसरे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में चुकाना पड़ सकता है। शंकराचार्य का यह चक्रव्यूह भाजपा भी खूब समझ रही है, यही कारण है कि भाजपा शासित प्रदेश होने के बावजूद पार्टी या सरकार का कोई जनप्रतिनिधि धर्मसंसद के आसपास भी नहीं फटका।
धर्मसंसद में पारित 8 प्रस्ताव
-साईं भगवान, गुरु, अवतार, संत नहीं। पूजा बंद हो।
-गंगा साफ हो।
-अध्योध्या में राम मंदिर बने।
-गौहत्या व कसाई खाने बंद हों।
-नकली साधुओं का बहिष्कार।
-स्कूलों में रामायण, महाभारत व वेदों की पढ़ाई।
-नारियों का सम्मान हो, हमें अपना आचरण सुधारने की जरूरत।
-धर्मांतरण रोकना होगा।
बॉक्स
न्यायिक लड़ाई के लिए भी तैयारी
साईं द्वारिकापुरी और ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती मंदिरों में साईं की फोटो अथवा मूर्ति लागने के खिलाफ न्यायिक लड़ाई भी लड़ने को तैयार हैं। इसकी शुरुआत शंकराचार्य ने इस साल के शुरु होते ही नैनीताल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लैटर पिटीशन भेजकर सनातन धर्म मंदिरों में साईं की मूर्तियां हटाने का आग्रह करने के साथ कर दी थी। इस पिटीशन में कहा गया था कि सनातन धर्म के मठ मंदिरों में देवी देवताओं के साथ साईं की मूर्ति अथवा फोटो लगाई जा रही है। यहां तक की साईं से संबंधित साहित्य में वेद उपनिषद के मंत्र तक बदल दिए गए हैं। इस बारे में शंकराचार्य के प्रवक्ता अजय गौतम कहते हैं कि जब बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों की शब्दावली को नहीं बदला जा सकता तो वेद उपनिषद के मंत्रों में साईं को शामिल कर करोड़ों लोगों की आस्था से खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है। गौतम आगे कहते हैं कि आंध्र प्रदेश व मद्रास हाईकोर्ट ने अलग अलग फैसलों में साफ किया है कि साईं भगवान नहीं फिलॉस्फी हैं। इस वर्ष जून में हरिद्वारा में आयोजित धर्म संसद में भी शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद साईं की मूर्तियां हटाने का प्रस्ताव पारित करवा चुके हैं।
क्यों बढ़ रहा है साईं पर विवाद
शिर्डी के साईंबाबा को लेकर इस नए विवाद की जड़ में आखिर ऐसा क्या है, जो इसे इतना तूल दे रहा है। क्या इसके पीछे शिर्डी में चढ़ने वाला चढ़ावा है, या फिर कुछ और। लेकिन धर्मसंसद में हुई बहस ने कई ऐसी बातों की तरफ ध्यान खींचा, जिन पर एक बार तो विचार होना ही चाहिए। आइए एक नज़र उन बिंदुओं पर भी-
साईं बाबा से राम तक
हिंदू साधु संतों ने इस बात पर भी घोर आपत्ति जताई कि करीब दशक भर पहले तक साईं के आगे बाबा शब्द लगाया जाता था, लेकिन अब उन्हें साईंराम के रूप में स्थापित किया जा रहा है। पहले लोग सीताराम का जाप किया करते थे, अब उन्हें साईंराम सिखाया जा रहा है। पहले लोग गुरुवार को भगवान विष्णु का व्रत रखते थे, लेकिन उस व्रत की जगह साईं के व्रत ने ले ली है।
भक्त चढ़ाते हैं बेहिसाब चढ़ावा
शिर्डी के साईं बाबा को लेकर अक्सर कुछ इस तरह की खबरें पढ़ने को मिलती रही हैं। मसलन साईं बाबा को स्वर्ण मुकुट भेंट। साईं भक्त ने दान किए दो करोड़ के हीरे। साईंबाबा को 40 लाख की स्वर्ण माला भेंट। वर्ष 2014 की शुरुआत में ही यानि क्रिसमत और न्यू ईयर के मौके पर 10 लाख से ज्यादा भक्तों ने साईं के दर्शन कर लिए थे। नए साल के एक हफ्ते बाद जब साईं मंदिर ट्रस्ट ने नोटों के बंडल बनाकर गिनती की तो पता चला कि मंदिर के खजाने में 15 करोड़ 13 लाख नकद और बड़ी मात्रा में सोने-चांदी के जेवरात आए हैं। वर्ष 2012 में शिर्डी के साईंबाबा मंदिर में श्रद्धालुओं ने 274 करोड़ रुपए नकद चढ़ावा चढ़ाया था। जो 2011 की तुलना में 20 फीसदी अधिक थी। नकद रुपयों के अलावा भक्तों ने 36 किलो सोना और 373 किलो चांदी भी चढ़ाई थी। साईं संस्थान के कार्यकारी अधिकारी किशोर मोरे की मानें तो साईं बाबा के ट्रस्ट का वित्तीय वर्ष जनवरी से शुरु होकर जनव री को ही समाप्त होता है। मोरे के मुताबिक साईं संस्थान ट्रस्ट की कुल संपत्ति लगभग 800 करोड़ की है।
चढ़ावे के घपले का आरोप
साल 2012 में एक आरटीआई कार्यकर्ता संजय काले ने तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को पत्र लिखकर शिर्डी में चढ़ाए गए चढ़ावे में घपले का आरोप लगाया था। सूचना के अधिकार में प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर संजय काले ने आरोप लगाया था कि साल 2008 में 19 किलो सोना गलाने के लिए भेजा गया, जब सोना गलकर आया तो उसमें 8 फीसदी की कमी दिखाई गई थी। वहीं 2009 में 53 किलो सोना गलाने के लिए भेजा गया, तब उसमें 12 फीसदी और 2012 में 37 किलो सोना गलाने के बाद 13.5 फीसदी की कमी दिखाई गई थी। सोने के अलावा साल 2008 में 270 किलो चांदी, साल 2009 में 430 किलो चांदी और 2012 में 513 किलो चांदी गलवाई गई और तीनों ही बार उसमें 24 फीसदी की कमी दर्शाई गई। काले ने चह्वाण को पत्र लिखर उच्च स्तरीय जांच करवाने की मांग भी की थी। हालांकि बाद में मामले को रफा दफा कर दिया गया।
साईं के प्रचार के तरीकों पर भी आपत्ति

जानकारों की मानें तो 1970 के बाद शिर्डी के साईंबाबा की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। मनोज कुमार की साईंबाबा आधारित फिल्म ने शिर्डी के मंदिर को जनमानस के दिलों में स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई। बॉलीवुड सेलीब्रिटीज़ ने भी साईंबाबा की लोकप्रियता बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। नाम ना छापने की शर्त पर एक पुजारी कहते हैं कि आपको याद होगा कि करीब 20 से 25 साल पहले पर्चे बंटवाकर साईंबाबा की मार्केटिंग की जाती थी। उनपर लिखा होता था कि इन पर्चों को पढ़ने के बाद इसे फलानी संख्या में छपवाकर बाटेंगे तो दस दिन के भीतर आपको फलां चमत्कार देखने को मिलेंगे, अगर नहीं बांटेगे तो आपका फलां नुकसान हो जाएगा। फलां ने पर्चा बांटा तो उसकी शादी हो गई, उसकी नौकरी लग गई वगैरह-वगैरह। 1987 से 1994 तक यह पर्चा वितरण बहुत चला था। जनता धर्मभीरू है, कभी उसे डरा धमकाकर उसके मानस में नया अवतार, भगवान या संत बैठाया जाता है, तो कभी फिर धर्म के नाम पर डराकर उसके आस्था के प्रतीक बदलने की कोशिश की जाती है। हिंदुस्तान में ये सदियों से चला आ रहा है।